संतोष अर्श
“…I would like to live a little bit longer in this beautiful concentration camp.”
Imre Kertesz (Fateless)
(मुद्राराक्षस अपने समय की अनोखी प्रतिभा सिद्ध हुए. समय और समाज के साथ राजनीति और कलाओं की उनकी समझ विरल थी. हिंदी साहित्य में अत्यंत अध्यवसायी, विद्वान जो दो-चार लेखक हुए हैं, निःसंदेह मुद्रा उनमें से एक हैं. संस्कृत साहित्य, विश्व साहित्य, अश्वेत साहित्य तक मुद्रा का किया हुआ असाधारण आकलन है. यह बात मुद्रा के नाटकों, कहानियों, उपन्यासों से लेकर उनके समीक्षात्मक और वैचारिक लेखन में हम देखते हैं. भारत की सामाजिक संरचना की दृष्टि से उनका लेखन एकांगी नहीं है, यह भारतीय समाज के सभी सिरों को छूता है. अलावा इसके, मुद्रा में सत्य को उसकी तीव्रता के साथ लिखने का साहस है, कारण वे घोर तर्कवादी, विवेक-सम्मत तथा समय और समाज को प्रभावित करने वाले लेखक हैं. भारतीय समाज, राजनीति, धर्म और संस्कृति की जैसी तार्किक, वैज्ञानिक और मौलिक पड़ताल मुद्रा ने की है, वह श्रमसाध्य है. फिर उसके लिए मुद्रा-सा विवेक चाहिए. इसलिए हिन्दी के सूरमाओं का काम मुद्रा के नर्क से गुज़रे बगैर नहीं चलेगा)
रचनात्मकता जीवन के किसी भी क्षण को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहती. इसलिए स्मृति के प्रत्येक चेहरे पर रचना की टॉर्च मार कर देखना चाहती है. लेखकीय जीवन की विशिष्टता रचना और जीवन का वही द्वंद्व है जिसमें रचना से बढ़कर जीवन नहीं हो पाता. या फिर यह एक विभ्रम बनकर रचनाकार के मन पर छाया रहता है. बहुत कुछ कहने की उत्कट इच्छा थोड़ा-कुछ कहलवा ही लेती है. रचना में लेखक अपने जीवन से संबद्ध जीवन ही अच्छी तरह रच पाता है. क्योंकि अंततः जो उसके जीवन से संपृक्त नहीं होता, वह उसकी जीवन-दृष्टि से जुड़ा होता है. ‘नारकीय’ उपन्यास मुद्राराक्षस के लेखकीय-जीवन के अनुभवों का संचित यथार्थ है. ये आत्मकथात्मक दस्तावेज़ है हिन्दी की साहित्यिक दुनिया के साथ मुद्रा की सोहबतों का, और वृत्तांतक है पेचीदा जीवन की क्षुद्रताओं का. उत्तर-आधुनिक प्रभावों के साथ यह आख्यान जैसा यथार्थ हिन्दी–साहित्य जगत की तुच्छताओं और अंतर्विरोधों के पुलिंदे खोलता है और पाठक के समक्ष हिन्दी साहित्यकारों के उस महानताबोध के आवरण को झीना करता है जो हिंदी लेखक अपने इर्द-गिर्द खोल की तरह तैयार कर लेता है.
मुद्रा ने इसे मानो इसलिए लिखा हो कि उनके अपने जीवन-अनुभव और लेखकीय-यात्रा किसी उपन्यास से कम नहीं थे. जीवन के विकट यथार्थ को आख्यान बनाना जोख़िम भरा काम है. यह जोख़िम इस उपन्यास की न केवल सार्थकता है, बल्कि यही इसकी कलात्मक विशिष्टता भी है और संभवतः दोष भी. इस कृति का अवबोधात्मक संप्रेषण हिंदी के नए पाठक को तैयार करने के लिए है और इस उद्देश्य हेतु यह कृति पूरी तरह प्रयत्नरत मालूम होती है.
‘नारकीय’ मुद्राराक्षस की अभिव्यक्ति क्षमता से अवगत कराने वाली रचना है. नर्क के मिथक को तोड़ने के लिए मुद्रा ने पूरे कथानक में उसे अपनी तार्किकता के सामने बाँध कर रखा है. उपन्यास के पूर्व वृत्तांतक में ही इसके नामकरण का रहस्य खुल जाता है. मुद्रा पर हर्बर्ट मार्क्यूज़, फ़्रांज़ फ़ैनन जैसे दार्शनिकों, लेखकों का प्रभाव है. नव-वामपंथियों से भी वे प्रभावित रहे हैं. नारकीय उपन्यास का प्रारंभ वे हर्बर्ट मार्क्यूज़ के उन शब्दों को उद्धृत करते हुए करते हैं जिसमें मार्क्यूज़ कहते हैं, ‘प्रत्येक समृद्ध समाज अपने नीचे एक नरक निर्मित करता है.’ नरक-यात्रा के अपने अनुभवों की शुरुआत करने से पहले मुद्रा ने अमरीकी अश्वेत लेखक राल्फ़ एलिसन को भी उद्धृत किया है:
अमरीका के अश्वेत लेखक रैल्फ़ एलिसन ने अपनी कृति ‘द इनविज़िबल मैन’ दूसरे महायुद्ध के दिनों में लिखी थी पर उसमें दूसरा महायुद्ध नहीं है. उस वक़्त एलिसन का पहला ही युद्ध लंबे अरसे से चल रहा था. अंग्रेज़ों से सत्ता हस्तांतरण के लिए कांग्रेस पार्टी जो जद्दोजहद कर रही थी उसके साथ उस समय के दलित और उनके नेता नहीं थे क्योंकि यह लड़ाई उनकी लंबी दासता से मुक्ति की नहीं थी. उन्हें तो इस तथाकथित आज़ादी के बाद भी ‘परजा’ बने रहना था. (नारकीय, पूर्व वृत्तांतक)
एलिसन लिखता है,
“मैं एक अदृश्य आदमी हूँ. पदार्थों से बना एक आदमी, हाँड़-माँस, रेशों और द्रव का- और यहाँ तक संभव है कहा जाये कि, मैं एक दिमाग़ भी रखता होऊँ. मैं अदृश्य हूँ समझिए, केवल इसलिए, क्योंकि लोगों ने मुझे देखने से इनकार कर दिया है.”
वर्गीय आत्ममुग्धता, सांस्कृतिक श्रेष्ठता-ग्रंथि और नस्लीय फ़ासीवाद में डूबा मन जिस स्वर्ग का निर्माण अपने इर्द-गिर्द कर लेता है, वह उसकी आँखों से बहुत कुछ ओझल कर देता है. बहुत कुछ– बहुत से मनुष्य, जो हैं, किंतु जिनका देखा जाना संभव नहीं हो पाता. हमारे समाज का एक बड़ा भाग लंबे समय तक अदृश्य बना रहा क्योंकि एक दूसरे बड़े हिस्से ने उसे देखने से इनकार कर दिया था. मुद्रा कई मौक़ों पर (आलोचना व अन्य लेखन में) भी भारतीय दलित समस्या की तुलना अमेरिकी अश्वेत समस्या के साथ करते रहे हैं. राल्फ़ एलिसन के उपन्यास से इस तुलना के समाजशास्त्रीय पहलू हैं. वर्चस्ववाद की सामाजिक-सांस्कृतिक क़वायदों को वैश्विकता के साथ प्रस्तुत करने से सभी तरह के विमर्शों को स्फूर्ति मिली. प्रतिक्रियावादी, जड़ और घोर यथास्थितिवादी हिंदी-समाज के सिर से संकीर्णताओं की जूँएँ निकाल पाना इतना आसान नहीं था. आज भी नहीं है.
अंग्रेज़ों से सत्ता प्राप्त करने के प्रयासों में भारत के दलित नेता इसलिए शामिल नहीं हो रहे थे क्योंकि उन्हें तो इस सत्ता परिवर्तन के बाद भी दलित ही बने रहना था. मुद्रा की इस पुष्ट धारणा को समझने के लिए हम सभी को को समाज की निम्नतर जगह पर खड़े हो कर, वहाँ से आँखें मींज कर देखना पड़ेगा. अपने इस उपन्यास का पूर्व परिचय भी मुद्रा राल्फ़ एलिसन के उपन्यास के हवाले से देते हैं:
एलिसन का पात्र हिंसक श्वेतों से भागता हुआ एक खुले मेनहोल में गिर जाता है और पीछा करने वाले उसे ऊपर से बंद कर देते हैं. गलीज़ अँधेरे में, जहाँ समृद्ध समाज की सारी गंदगी जमा होती है, वहीं से शुरू होती है नारकीय ज़िंदगी की यह कभी न ख़त्म होने वाली मृत्यु गाथा. उपन्यास ऐसे ही तलघर का एक वृत्तांतक है. (वही)
मुद्रा को अपने इस आत्मकथात्मक उपन्यास का परिचय इस प्रकार देने की आवश्यकता क्यों पड़ी कि, ‘उपन्यास ऐसे ही तलघर का एक वृत्तांतक है.’ (?) यह तलघर दूसरों का बनाया हुआ है, जहाँ गिरा कर ढक्कन बंद कर देने की नस्लीय, फ़ासीवादी साज़िशें हैं. क्या यह हिंदी साहित्य की दुनिया का गटर है जिसके अंदर मुद्राराक्षस बंद हैं ? एलिसन के उपन्यास का वह अश्वेत पात्र जो हिंसक गोरों से जान बचाने के लिए भागते हुए गटर में गिर गया था, क्या वे स्वयं मुद्राराक्षस हैं ? इन प्रश्नों का उत्तर बताने के लिए ही मुद्रा अपनी नरक-यात्रा से अवगत कराना चाहते हैं. यह उपन्यास वैसे ही तलघर का एक वृत्तांत है. मुद्रा ने लगभग तीन सौ पृष्ठों के इस निजी लेखकीय जीवन-अनुभवों वाले कथानक में नरेटर स्वयं को रखा है और पात्र हिंदी साहित्य जगत के वे सभी लेखक-लेखिकाएँ, संपादक, प्रकाशन घरानों के स्वामी हैं, जिनसे मुद्रा का अपने सामान्य और साहित्यिक जीवन में साबिक़ा पड़ा था.
उत्तर प्रदेश की राजधानी से सटे हुए एक गाँव के निम्नवर्गीय पिछड़ी जाति के परिवार से बाहर आ कर अपनी दृष्टि से मुद्राराक्षस आभिजात्य की दुनिया को देखते हैं. सामाजिक सत्य से पहली टक्कर वर्गबोध के रूप में होती है. नरक में पैदा होने के एहसास का पहला लक्षण यह है कि उस नरक से आजीवन भागने और बचने की कोशिश करनी पड़ती है. संवेदनशील रचनाकार मन के लिए यह और अधिक दुरूह है. अपने परिवेश को मुद्रा ने उसी वर्गीय निगाह से देखा-समझा है और भारतीय समाज में अपनी अवस्थिति को बड़ी ईमानदारी और साहस के साथ उपन्यास में प्रस्तुत किया है:
घबराहट यह कि पिछड़े वर्ग की जिस पारिवारिक दुनिया से भाग कर मैं भद्रलोक बन गया था, उससे दुबारा रिश्ता मुझे आतंकित कर रहा था. (वही, पृष्ठ- 51)
‘भद्रलोक’ को देखने की शुरुआत कलकत्ता में ‘ज्ञानोदय’ पत्रिका में सहायक संपादक की वह नौकरी थी, जो साहू जैन लिमिटेड के लक्ष्मीचंद्र जैन की पुत्री इन्दु जैन से दोस्ती के कारण मुद्रा को मिल गई थी. मुद्रा ने इस बात को निष्ठा और तटस्थता के साथ लिखा है कि प्रयोगशील कविता पर कुछ कार्य कर रही इन्दु जैन की मदद करने के उपरांत जैन परिवार से उनके संबंध बने थे, जो लखनऊ के ए.पी. सेन रोड पर रहता था. नरेटर ‘ज्ञानोदय’ पत्रिका के सहायक संपादक की नौकरी पाने की यह घटना रचना में यों दर्ज़ करता है:
शायद अगले बरस इन्दु जैन की शादी हुई. इस मौके पर मैं भी निमंत्रित था. यहीं मैंने एक हास्यास्पद काम कर डाला. मैंने अपनी बनाई एक तस्वीर इन्दु जैन को बाक़ायदा फ्रेम करा कर, कागज़ में लपेट कर दी. उस पर मैंने लिखा था- ‘सौभाग्यवती इन्दु जैन को सप्रेम’. लक्ष्मीचन्द्र जैन हँसे. बात सही थी. मैं जो था, जैसा था, निश्चय ही कल्पना नहीं कर सकता था कि अपनी महिला मित्र को ‘प्रिय’ संबोधित करूँ. यह बहुत बाद में ही समझ में आया था कि इस मामले में अपने संकोच के कारण अपने को हास्यास्पद बना लिया था. लेकिन इस बेशऊरी के बावजूद इसी परिवार ने अगले कुछ महीनों बाद मुझे कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली एक महत्वपूर्ण पत्रिका ‘ज्ञानोदय’ में सहायक संपादक की नौकरी दिलवा दी थी. (वही, पृष्ठ- 28)
मुद्रा की शुरुआत लखनऊ के अदबी माहौल में हुई थी. वहीं 1950 के आस-पास से उन्होंने कविताएँ लिखने से अपनी साहित्यिक यात्रा प्रारम्भ की थी. लखनऊ के प्रगतिशील लेखक संघ और लखनऊ लेखक संघ के अपने प्रारम्भिक अनुभवों को मुद्रा ने बड़े रोचक और व्यंग्यात्मक ढंग से बयान किया है. लेखकीय गोष्ठियों, नामी लेखकों और उनके बर्ताव के जो चित्र इस कृति में मुद्रा ने खींचे हैं वे लखनऊ की साहित्यिक दुनिया और उसकी आबो-हवा को प्रत्यक्ष प्रस्तुत करते हैं. लेखक बताता है कि लखनऊ में उसकी प्रारंभिक साहित्यिक दुनिया के परिचिति डॉ. देवराज और अमृतलाल नागर जैसे लेखक थे. बाद में मुद्रा ने प्रगतिशील लेखकों की ओर भी अपना रुख किया और उनके बर्ताव को परखते हुए उस पर राय क़ायम की:
प्रगतिशील लेखक ऐसे थे जो किसी नए रचनाकार को बर्दाश्त नहीं करते थे. मैं डॉ. रघुवंश, डॉ. धर्मवीर भारती, जगदीश गुप्त जैसे कुछ लेखकों से परिचित हुआ तो स्वयं उन्होंने भी आत्मीयता ज़ाहिर की. पर प्रगतिशील लेखक इससे उल्टे थे, भैरव प्रसाद गुप्त को छोड़ कर. अमृत राय, श्रीपत राय, रामविलास शर्मा, प्रकाशचंद्र गुप्त और शिवदान सिंह चौहान में से किसी ने भी ख़त के उत्तर दिये तो इतने ख़ुश्क कि आगे संपर्क की इच्छा ही नहीं हुई. (वही, पृष्ठ- 17)
परंपरावादी हिन्दी साहित्यिक दुनिया में लेखकों के बीच वैमनस्य, प्रतिस्पर्धा और घात-प्रतिघात की भी एक परंपरा रही है:
रामविलास शर्मा, प्रकाशचंद्र गुप्त, शिवदान सिंह चौहान जैसे सभी के हाथों में छुरे थे जो बड़ी क्रूरता के साथ एक-दूसरे पर चलाते रहते थे और शायद उम्मीद करते थे कि कुछ धराशायी हों तो संसाधनों के दावेदारों के हिस्से के बचे साधन अपने कब्ज़े में आयें. (वही, पृष्ठ- 18)
मुद्रा ने अपनी साहित्यिक यात्रा की शुरुआत में प्रगतिशील लेखक संघ के लखनवी परिवेश को एक स्थान पर और भी चित्रित किया है जब उसकी एक बैठक में उन्हें चाय तक नहीं पूछी गयी थी. ‘लखनऊ लेखक संघ’ भी ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की ही एक प्रशाखा थी. जिसकी बैठकें यशपाल के ‘विप्लव’ कार्यालय वाले घर में होती थीं. तेलंगाना आंदोलन के पश्चात कम्युनिस्ट पार्टी पर जब प्रतिबंध लगा दिया गया था तब ऐसे छद्म नामों से लेखकीय संगठन चलाने की आवश्यकता वामपंथी लेखकों को पड़ी होगी. यशपाल ने इसीलिए ‘लखनऊ लेखक संघ’ का निर्माण किया था जिसकी एक बैठक का क़िस्सा मुद्रा यों सुनाते हैं:
इस संघ की बैठक में मेरे साथ एक रोचक घटना हुई थी. पहली बार जब मैं वहाँ गया तो संकोच के कारण काफ़ी दुबक कर बैठा. बैठक में आए लोगों के लिए चाय भी आती थी. वह उस दिन भी आयी. सबको दी गयी पर मुझे नहीं मिली. या तो देने वाले ने मुझे देखा नहीं या भूल गया. चाय तब तक हमारे घर में बड़ी महत्वपूर्ण चीज़ हुआ करती थी. उसका बनना और पिया जाना एक अनुष्ठान से कम नहीं होता था. कभी अगर फूली हुई डबल रोटी के टुकड़े भी होते थे तो अनुष्ठान और ज़्यादा बड़ा हो जाता था. यशपाल के घर की उस सभा में चाय न मिलना एक भारी आघात था. (वही, पृष्ठ- 18)
घर में चाय बनना जिसके लिए अनुष्ठान हो उसे चाय न मिलना प्रताड़ना रही होगी. घटना मुद्रा के जीवन-स्तर की निम्न स्थिति और उनकी पृष्ठभूमि को स्पष्ट करती है. एक लेखक के शुरुआती संघर्ष, उसके मान-अपमान की घटनाएँ उसकी साहित्यिक-यात्रा में प्रभावी होती हैं. इस उपन्यास में ऐसी बहुत सी घटनाएँ मिलती हैं. हिंदी साहित्य के नामी और स्थापित कर दिए गए लेखकों की चालाकियाँ, लालच और उनके काइयाँपन को हिंदी दुनिया का ही लेखक प्रामाणिक अनुभवों के साथ प्रस्तुत करता है.
‘ज्ञानोदय’ के सहायक संपादक की नौकरी के लिए कलकत्ता जाने के बाद से मुद्राराक्षस लगभग दो दशकों तक लखनऊ से बाहर प्रवासी रहे. कलकत्ता के अतिरिक्त मुद्रा ने तमाम समय दिल्ली में भी बिताया. दिल्ली में वे आकाशवाणी की नौकरी करने लगे थे. इस प्रवास से उपजे अतीतमोह के साथ उपन्यास में लखनऊ के जो चित्र आए हैं, वे मार्मिक तो हैं ही, इनमें लखनऊ की सांस्कृतिक छटा और उसकी नफ़ासत भी है. लेखक अपने जघन्य अतीत से जितना प्रेम करता है, अतीत उससे नहीं करता, यही उसका अतीतमोह है. यद्यपि मुद्रा लखनऊ में विपन्न या जीवनचलाऊ परिस्थितियों से घिरे हुए थे किन्तु लखनऊ का वातावरण ऐसा रहा है कि वहाँ एक रोमानी या संवेदनशील मन में पूर्णता का भाव बना रहता है. गंगा-जमुनी तहज़ीब में कुछ ऐसे तत्त्व रहे हैं जिसमें ग़रीबाने-लखनऊ भी अमीरी का एहसास करते रहते हैं.
मुद्रा ने लखनऊ को लंबे समय तक जिया. इसलिए लखनऊ का जैसा लैंडस्केप उन्होंने अपनी इस रचना में खींचा है, यह वैसा ही है, जो लखनऊ घराने के नामी लेखक खींचते थे. इस उपन्यास में लखनऊ का यह वर्णन क़ुर्रतुलएन हैदर के उर्दू उपन्यास ‘आग का दरिया’ का स्मरण दिलाता है. या फिर कुछ वैसा, जैसा ‘लखनऊ की पाँच रातें’ में अली सरदार ज़ाफ़री औरों ने खींचा है. ज़ायका ज़बान का भी है और लखनऊ के लैंडस्केप का भी है. धीरे-धीरे लखनऊ में बहुत सारे ऐसे हिंदी लेखक भी जमते गए जो लखनऊ ओरिज़न के नहीं थे. वे सबको बताते रहे कि वे लखनऊ के हैं, किन्तु उनके लेखन और लबोलहजे में लखनऊ कभी नहीं आ सका, कारण यह कि लखनऊ की तहज़ीबी रवायतों से हमवार होना पड़ता है. उसे देखने की निगाह और महसूस करने की तलब पैदा करनी पड़ती है. मौज़ूदा लखनऊ में रचनात्मक परिवेश को देखें तो वह पूर्वांचल के सामंती और नस्लीय कचरे से पटा जा रहा है.
इस सांस्कृतिक और लुगदी रचनात्मक अतिक्रमण के नीचे लखनऊ की आइडेंटिटी कब की दब चुकी है. लखनऊ छोड़ने को लेकर मुद्रा ने जो बात उपन्यास में लिखी है, वह चीख़ है, कि लखनऊ से मुद्रा को लगाव था. वह जो रचनाकार का स्थानिक लगाव होता है. विशेष कर उसके सांस्कृतिक परिवेश से. लेकिन बेकारी और लाचारी अपने उस शहर से भी कितना बेगाना कर देती है, जहाँ हम पैदा होते हैं, परवरिश पाते हैं. मुद्रा लिखते हैं:
राजनीतिक पेशा करने वालों के दफ़्तरों और आस-पास अपनी टाँगे फैलाते बेशऊर रजवाड़ों से रौंदे जाते इस क़ैसरबाग़ में खड़े होकर एक दिन अचानक लगा कि यहाँ अब सब कुछ बेगाना है और हरे दरख़्त या हरी घास भी मुझसे बचना चाहते हैं, आँखें चुराते हैं. (वही, पृष्ठ- 23)
रचना में इसी स्थान पर मुद्रा ने जो दो-तीन बातें और दर्ज़ की हैं वे मानो ये साबित करती हैं कि ये मुद्रा के जीवन में एक भावाकुल पड़ाव है. उपन्यास में तो ख़ैर है ही. एक ही बात के सहारे कई बातें कह जाना भावाकुलता के लक्षण हैं. किन्तु उपन्यास के निम्न उद्धरण यह भी सिद्ध करते हैं कि लखनऊ को देखने की मुद्रा की जो दृष्टि थी वह मुद्रा की अपनी दृष्टि थी. यह अमृतलाल नागर जैसे लेखकों से प्रभावित वह दृष्टि नहीं थी, जिसमें लखनऊ शहर के प्रति छिछला रोमान हावी है. यह लखनऊ के एक वर्सेटाइल बोहेमियन लेखक की उसके अपने शहर को देखने की दृष्टि है:
तब के विक्टोरिया पार्क या आज के बेग़म हज़रत महल पार्क के इस पार से ही विश्वविद्यालय की ओर जाने वाला गोमती का पुल आकाश की कमर पर पड़ी सजावटी करधनी की तरह चमकता था.
अब यहाँ से उस पुल का किनारा भी नहीं दिखता. उस बेहद ख़ूबसूरत और खुली हुई जगह को घेर कर एक निहायत बदशक़्ल इमारत खड़ी है, एक होटल की. अब मकबरे के क़रीब से उधर देखो तो लगता है कि वहाँ कोई नवधनाढ्य टाँगें फैला कर उद्धत निगाहों से आपको देख कर ढेर-सी पीक थूक रहा है. कंठ के पास एक अजनबी और आतंककारी मांसपिंड सहसा उभर आया है. (वही)
जिसने कभी नवाब सआदत अली खाँ के मक़बरे या बेग़म हज़रत महल पार्क से विश्वविद्यालय वाले गोमती के पुल को ‘आकाश पर पड़ी करधनी’ के रूप में बिना किसी अवरोध और आड़ के देखा हो, वह उसके बीच में खड़ी हो गई इमारत को कैसे सहन करता ? और जिस बदशक़्ल इमारत का ज़िक्र मुद्रा ने किया है वह होटल अवध क्लार्क है. हम जिस शहर में पैदा होकर मरते हैं वह हमारी उम्र के साथ पुराना होता रहता है. मुद्रा अपने शहर से प्रेम करते थे. इसीलिए देख पा रहे थे कि नयी अतिभक्षी सभ्यता के पंजे उनके शहर की शक़्ल बिगाड़ रहे हैं. अपने शहर से ऊब कर, उसे छोड़ते समय जो चिढ़ उत्पन्न होती है, दरअसल वह उस शहर से लगाव और वहाँ के लोगों की बेरुख़ी से उपजती है. यह मुआमला ग़ालिब के बहुत प्यारे शे’र जैसा है:
करते किस मुँह से हो गुरबत की शिकायत ग़ालिब
तुमको बेमेहरिए-याराने-वतन याद नहीं.
गुरबत के मारे मुद्रा लखनऊ छोड़ते समय याद करते हैं अपने शहर की तमाम ख़ूबियों, को और अपनी बेकारी के मीज़ान पर उसे तौलते हुए लिखते हैं:
यहाँ की भव्य और शानदार सफ़ेद बारादारी में अब अश्लील धन-प्रदर्शन की शादियाँ होती हैं पर यहीं कभी मैंने रात भर चले एक मुशायरे में मज़ाज को सुना था- ऐ ग़मे दिल क्या करूँ ! किसी बहुत कम उम्र के शायर ने गा कर अपनी ग़ज़ल सुनाई थी– उफ़ ये तनहाइयाँ, अरे तौबा !
अब मैं कह सकता हूँ इस क़ैसरबाग़ की किसी चीज़ से मेरी कोई पहचान नहीं है- उफ़ ये तनहाइयाँ, जहाँ अब बेहद शोर और भीड़ है- ये तनहाइयाँ, अरे तौबा ! ऐ ग़मे दिल क्या करूँ, ऐ वहशते दिल क्या करूँ कि यहाँ एक रौंद है जिसमें सब कुछ पिस रहा है. (वही)
ये मुद्रा के नौजवानी के दिन होंगे जब वे बेकारी भरे जीवन से ऊब कर अपने प्रिय शहर को छोड़ना चाह रहे होंगे. समृद्ध समाज द्वारा बनाए गए नरक की एक प्रवृत्ति यह भी है कि वह उसमें फँसे हुए व्यक्ति को बेकार कर देता है. इतना बेकार और लाचार कि व्यक्ति अपने उस शहर से भी घृणा करने लगे, जिसे असल में वह प्रिय है. जिसकी परिणति अंततः विस्थापन में होती है. लखनऊ से संबंधित ऐसे ही कई उद्धरण इस उपन्यास में आए हैं. ये उद्धरण लखनऊ की कला-संस्कृति के धुँधले पड़ रहे चित्र धारण किए हैं, जिन्हें मुद्रा अपनी चटख भाषा के शब्दों से बनाते चलते हैं. मुद्रा स्वयं संगीत, शिल्प और चित्रकला में ख़ासा ही दख़ल रखते थे. वे यदि लखनऊ घराने की कलाओं पर कभी कोई पुस्तक लिखते तो वह बेहद उपयोगी होती क्योंकि कला-साहित्य को लेकर मुद्रा के पास एक सजग विश्व-दृष्टि रही है. किन्तु मुद्रा की तमाम ऊर्जा अपने नरक से मुठभेड़ करने में ख़र्च होती रही. ललित कलाओं के लिए मुद्रा के पास फ़ुरसत कहाँ थी ?
अपने नरक के क़िस्से में मुद्रा ने पाइपर और टी. एस. इलियट जैसे लेखकों की घोषणाओं को उद्धृत भी किया है कि, फ़ुरसत का समय ही ललित कलाओं को जन्म देता है और फ़ुरसत के क्षणों में पैदा हुई ललित कलाएँ ‘सभ्य मनुष्य’ का निर्माण करती हैं. लेकिन नरक के लोगों के पास फ़ुरसत कहाँ होती है ? उनका जीवन नरक में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए ‘स्ट्रगल ऑफ एग्जिस्टेंस’ में हवन होता रहता है या स्वर्ग का स्वप्न देखने में स्वाहा हो जाता है. फ़ुरसत के अभाव में न वे ‘भद्रलोक’ में शामिल हो पाते हैं और न ‘सभ्य मनुष्य’ बन पाते हैं.
नारकीय उपन्यास की एक अन्य विलक्षणता इसमें हिंदी के लेखकों के विषय में आई वे बातें हैं, जिनसे प्रायः हिंदी का सामान्य पाठक अनजान होता है. इनमें हिंदी के बड़े लेखक भी हैं और तलछट के लेखक भी. साहित्य की दुनिया में गिरोह और गुट भी कोई नयी बात नहीं है. गिरोह तब भी होते थे. उन गिरोहों की गिरहें भी मुद्रा खोलते चलते हैं और उनकी ऐंठन उतार कर उपन्यास के ताने-बाने में बुनते भी हैं. उपन्यास में लखनऊ के प्रगतिशील लेखकों से शुरू हुए मुद्रा के अनुभव ‘अज्ञेय’ तक पहुँचते हैं. अज्ञेय के विषय में एक घटना प्रधान विवरण यों है:
उन दिनों अज्ञेय कलकत्ता आए हुए थे और जगदीश एम.ए. के यहाँ ठहरे हुए थे. यह मेरी और उनकी आख़िरी निजी मुलाक़ात थी क्योंकि अगले दिन ही रिश्ते बिगड़ गये. जगदीश एम.ए. के यहाँ खाना खाते वक़्त प्रयोगवादी कविता के काम से निराला के काम के ज़्यादा प्रयोगधर्मी होने की बात कहने पर वे नाराज़ हो गए थे. उनकी नाराज़गी की जड़ में शायद मेरा युगचेतना वाला लेख हो या न भी हो. जगदीश एम.ए. ने उनसे ‘ज्ञानोदय’ के लिए कुछ लिखने को कहा. अज्ञेय रुखाई से बोले, “मैं व्यावसायिक पत्रिकाओं में नहीं लिखता.” पर उसी शाम उन्होंने रमारानी जैन और शांतिप्रसाद जैन के अलीपुर वाले मकान में लक्ष्मीचंद्र जैन, इन्दु जैन, कुंथा जैन, जगदीश एम.ए. और मेरी मौजूदगी में कोई डेढ़ घंटे तक अपनी कविताएँ सुनाई थीं. इस पर टिप्पणी मैं रोक नहीं सका था. (वही, पृष्ठ- 50)
यह उद्धरण अज्ञेय नहीं, समूची हिंदी दुनिया के अंतर्विरोधों और उसके डबल स्टैण्डर्ड को सामने रख देता है. वे अज्ञेय जो ‘ज्ञानोदय’ के सहायक संपादक के समक्ष यह कहते हैं कि वे व्यावसायिक पत्रिकाओं में नहीं लिखते, पत्रिका के मालिकों के समक्ष कविताएँ सुनाते हैं और उनसे निजी संबंध स्थापित करते हैं. मुद्रा उनसे यही तीखा सच कह देते हैं और अज्ञेय के साथ उनके संबंधों का इंतक़ाल हो जाता है. यह देखना दिलचस्प है कि अज्ञेय जो मुद्रा के संपादकत्व वाली ‘ज्ञानोदय’ में लिखना नहीं चाहते थे, उसके मालिकों से संबंध दृढ़ कर बाद में ज्ञानपीठ पुरस्कार तक ग्रहण करते हैं. इस पूरे प्रकरण में मुद्रा शायद यह कहना चाहते हैं कि अज्ञेय जानते थे कि इस सहायक संपादक से क्या मिलना है ? सीधे पत्रिका के मालिकों तक पहुँचते हैं. और वे अपना अभीष्ट प्राप्त करते हैं. इसी प्रकार मुद्रा साथी लेखकों की दीनता और उनकी समृद्धि के विवरण भी अपने वृत्तांत के साथ-साथ बताते चलते हैं. जैसे एक स्थान पर वे अशोक वाजपेयी के जीवन-स्तर का चित्रण करते हैं:
अशोक हम सब लोगों में से सबसे अधिक सम्पन्न थे. उन्हें बहुत अच्छी तनख़्वाह मिल रही थी और रहने के लिए एक बड़ा, लेकिन सस्ता सरकारी घर भी मिला हुआ था. अपने काफ़ी पैसे वे रहन-सहन की सुरुचि पर ख़र्च करते थे. कनाट प्लेस के सबसे बड़े ड्राइक्लीनर से कुर्ते-पायजामे धुलवाते थे और एक कुर्ता-पायजामा एक बार पहनकर ही धुलने दे देते थे. कभी-कभी वे दिन में दोबारा भी कुर्ता-पायजामा बदल लेते थे. (वही, पृष्ठ- 50)
हिन्दी लेखन के चरित्र पर मुद्रा ने गहन विचार किया और उसकी विसंगतियों पर सार्थक बातें कही हैं. यह केवल नारकीय में ही नहीं, वरन उनके दूसरी तरह के साहित्य में भी देखा गया है. अपनी आलोचना की एक पुस्तक में मुद्रा ने बाक़ायदा ‘हिन्दी लेखन का चरित्र’ और ‘सत्ता सुखी हिन्दी आलोचना के पीठ मर्द’ शीर्षक से लेख लिखे हैं
नारकीय में ऐसे बहुत से प्रसंग हैं जब हिन्दी लेखन के चरित्र पर उन्होंने भीषण प्रहार किए हैं. इस आवेग में साहित्यकारों के निजी जीवन के कुछ कसैले प्रसंग भी इस आख्यान में जुड़ते चले जाते हैं. धर्मवीर भारती और कांता कोहली का प्रसंग कुछ ऐसा ही है. धर्मवीर से अलग होने के पश्चात कांता दिल्ली आ गयी थीं और वहाँ मुद्रा से उनकी बातें-मुलाक़ातें होती रहती थीं. उन्हीं बातों-मुलाक़ातों के सिलसिलों में कांता ने धर्मवीर भारती से अलग होने की अपनी कहानी का एक टुकड़ा जोड़ दिया था जिसको मुद्रा ने इस प्रकार लिखा है:
उसने कहा : यह सब कुछ इतना ही नहीं है. उन दिनों मैं पेट से थी और वह आई हुई थी. एक दिन वह मेरी गोद में सिर रख कर लेटी हुई थी. भारती जी ने वहाँ उससे उसी हालत में सब कुछ किया था. केका तो अस्पताल में सीजेरियन ऑपरेशन से हुई थी. मैं उधर पड़ी रहती थी और इधर वे उससे सब कुछ करते थे. तुम सोच सकते हो, मुझ पर क्या बीतती होगी ! फिर मुझ पर ही इल्जाम लगने लगे. (वही, पृष्ठ- 210)
आज हम जानते हैं कि कांता और धर्मवीर भारती अलग हो गए थे. पुष्पा धर्मवीर भारती की दूसरी पत्नी बन गई थीं. किन्तु अपनी रचनाशीलता के अच्छे दिनों में भारती ने कांता से प्रेम किया था. जिसकी छाया उनके उस समय रचे गए साहित्य में है. जिसे मुद्रा ने बड़े प्रगाढ़ और प्रभावी शब्दों में अपनी इस रचना में उस समय लिखा है, जब वे अकेली पड़ गई कांता से संवाद कर रहे थे:
किसी समय भारती ने कांता कोहली से उद्दाम प्रेम किया था. एक दिन कांता ने बताया था कि कैसे भारती गली में उसके छज्जे के नीचे खड़े रहा करते थे. उसने ‘कनुप्रिया’ की नीले मखमल से मढ़ी हुई वह प्रति भी दिखाई थी जिसके ऊपर चाँदी का ‘क’ अक्षर चिपका हुआ था. भारती की किताब का समपर्ण भी कांता के ही ‘क’ को था- जिसका संदर्भ ‘मेघदूत’ जैसी बहुत कलात्मक कृति के श्लोकार्ध कश्चित्कान्ता विरह गरुणाम् से उठाया गया था. भारती ने इलाहाबाद के अतरसुइया के अपने अभिसार कक्ष को नीला रंगवाया था. (वही)
मुद्रा ने कांता की उस उदासी, क्षुब्धता और बेचैनी का बिम्ब भी खींचा है जो धर्मवीर भारती से अलग होने के बाद उनमें घर कर गई थी. स्त्री, दलित प्रश्नों के प्रति मुद्रा की प्रतिबद्धता उनके समस्त लेखन में दिखाई देती रही है, किन्तु यहाँ ख़तरा अधिक था क्योंकि भारती और कांता दोनों से ही उनके संबंध थे.
मुद्रा ने उपन्यास में हिन्दी लेखन के चरित्र का बखान करते समय लेखकों की उन प्रवृत्तियों का भी यत्र-तत्र उल्लेख किया है, जिसने हिन्दी लेखन को बड़ा नुकसान पहुँचाया और उसे एकांगीपन से ग्रस्त कर दिया. इनमें उन लेखकों की वैचारिक हीनता, पुरस्कारलोलुपता और जाति आधारित क्षुद्रताओं का भी उल्लेख है. कुछ लेखकों के द्वारा साहित्य के लिए मिलने वाले पुरस्कारों का जोड़-तोड़ से हड़प लिया जाना और गैर सवर्ण लेखकों की उपेक्षा या उन्हें किनारे कर दिये जाने की सवर्ण साहित्यिक दुनिया के छल-छद्मों का भी मुद्रा उल्लेख करते हैं. वे स्वयं भी इन्हीं विषमताओं के शिकार रहे. सुविधा के अनुसार लचीले हो जाने वाले लेखकों का भी उल्लेख भी ऐसे प्रसंगों में मिल ही जाता है:
ऐसे लेखकों की तादाद कम नहीं है जो एक तरफ़ क्रान्ति के नारे लगाते हैं और दूसरी तरफ़ गवर्नर के निजी स्टाफ़ से दावत के निमंत्रण की जिज्ञासा करते हैं. एक बार लखनऊ में हिन्दी संस्थान ने भारतीय जनता पार्टी के शासन में पुरस्कार वितरण किए. इनमें दो पुरस्कार दूधनाथ सिंह और मार्कण्डेय को भी मिले थे. पुरस्कार ले लिए जाते तो भी कोई ख़ास हर्ज़ नहीं था, पर दोनों ने बाक़ायदा भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री से निजी शुभकामनाएँ लेना ज़्यादा ज़रूरी समझा. इस मामले में श्रीलाल शुक्ल भी ख़ासे ही रोचक आचरण के व्यक्ति हैं. घटिया-से-घटिया और सस्ता-से-सस्ता पुरस्कार भी उन्हें ख़ासा आनंदित करता है. अक्सर किसी पुरस्कार के लिए वे बाक़ायदा मित्रों से कहते भी देखे जा सकते हैं कि यह उन्हें क्यों नहीं दिया गया. (वही, पृष्ठ- 250)
हिन्दी लेखन और लेखक के इस चरित्र पर मुद्रा की ये टिप्पणियाँ रचना में अंत तक हैं. मुद्रा का यह नरक उन समृद्ध हिन्दी-लेखकों द्वारा निर्मित किया गया, जो अफ़सर भी थे, सरकारी तनख़्वाह और सुविधाओं से लैस भी थे. किसी तरह के सामाजिक, राजनीतिक आंदोलन में भी उनकी कोई भागीदारी नहीं थी, किन्तु पुरस्कारों के लिए वे तड़पते रहते थे. साथ ही ग़रीबी और अन्याय का रोना भी रोते रहते थे. किन्तु हिन्दी लेखक की एक नारकीय दुनिया भी थी जिसमें हिन्दी के तलछट के वे लेखक थे जो सचमुच ग़रीब थे और पिछड़े-दलित समाज से जिनका ताल्लुक़ था. जो सवर्ण नहीं थे और हिन्दी साहित्य की दुनिया में जिन्हें आत्महत्या तक करने पर विवश होना पड़ा. ऐसे ही एक लेखक की नरक-यात्रा की घटना है:
लखनऊ आए हुए मुझे ज़्यादा दिन नहीं हुए थे कि एक दिन मैंने सुना, इलाहाबाद में केशनी प्रसाद चौरसिया ने आत्महत्या कर ली. एक रात उसने ऊपर की मंज़िल में बीवी और बच्चों से बात की, चुपचाप उतरकर नीचे आया और छत से लटक कर जान दे दी. उसकी इस मृत्यु पर कोई ठीक-ठाक शोक-सभा नहीं हुई, किसी पत्रिका ने विशेषांक नहीं निकाले, किसी अख़बार ने संस्मरणात्मक लेख नहीं छापा.
केशनी प्रसाद चौरसिया न मिश्र था, न पाण्डेय, न क्षत्रिय, न बनिया. वह दलित था पर सोचता था कि वह भी ज़रूर हिंदू है और हिंदू जमात उसे बचाएगी. हिंदू जमात जानती है कि दलित हिंदू नहीं है पर हिंदुओं को बहुसंख्यक बनाने के लिए भारी पासंग ज़रूर है.
(वही, पृष्ठ- 250– 51)
यह वैमर्शिक प्रभाव मुद्रा के लेखन में प्रतिबद्धता के साथ रहा है. दलित, पिछड़ों के प्रश्नों पर उनका चिंतन प्रतिबद्ध, दृढ़, विस्तृत और अकाट्य तर्कों से लैस है. साहित्य की दुनिया में भी वे यह भेदभाव देख रहे थे. वे स्वयं भी कुछ वैसे ही थे और हिन्दी साहित्य की दुनिया में उनकी उपेक्षा हुई. कोई बड़ा पुरस्कार वगैरह भी उन्हें नहीं मिला. हाँ, दलित लेखन की दुनिया ने उन्हें भरपूर सम्मान दिया. ‘दलितरत्न’ और ‘शूद्राचार्य’ की उपाधि भी दी. अपने एक आलोचनात्मक लेख ‘सवर्ण साहित्य और दलित प्रश्न’ में मुद्रा ने इस विषय को बड़ी शिद्दत के साथ व्याख्यायित किया है. अपने उक्त लेख में मुद्रा एक स्थान पर लिखते हैं:
आख़िर इन दो हज़ार वर्षों में शूद्र लेखक और विचारक क्यों नहीं हैं ? जिस समाज में वाल्मीकि और व्यास जैसे विराट् शूद्र रचनाकार हुए उसमें उनके बाद शूद्र लेखक क्यों नहीं हैं ? जिस रचना परंपरा में की शुरुआत वाल्मीकि और व्यास से हुई हो उसमें क्या यह विश्वसनीय होगा कि आगे कोई शूद्र रचनाकार हुआ ही न हो ? क्या यह संभव नहीं कि सत्ता के सहयोग से अतीत के रामविलास शर्माओं ने शूद्र लेखन को कलाभ्रष्ट घोषित करते हुए पूरी तरह ख़ारिज़ और नष्ट करवा दिया हो ? पर चलिये हम कुछ देर के लिए यह भी मान लेते हैं कि पिछले दो हज़ार वर्ष में शूद्र रचनाकार नहीं हुए. पर वर्तमान समय में मात्र तेरह प्रतिशत भारतीय समाज के प्रतिनिधि सवर्ण लेखकों ने शूद्रों से घृणा की. अपनी कृत्रिम सहानुभूति के आधार पर उन्होंने शूद्रों पर लिखने का अधिकार भी आरक्षित किया. आज अगर दलित लेखक लिखता है और अपने लिखे हुए को ही सत्तासी फीसदी समाज से सरोकार वाला लेखन मानता है तो सवर्ण को कष्ट क्यों होना चाहिए ? (आलोचना और रचना की उलझनें, पृष्ठ- 156)
सवर्ण लेखक में असवर्ण साहित्य के प्रति एक लापरवाही देखी जा सकती है. इन प्रश्नों से बुरी तरह घिरने के बाद, अलबत्ता यह प्रवृत्ति कुछ कम हुई है. गैर-सवर्ण साहित्य को विमर्शवादी लेखन कह कर उसको दोयम दर्ज़े का सिद्ध करने की गिरोहबंदी होती रही है. विमर्श, अस्मिता और उत्तर-आधुनिकता की प्रगतिशील आड़ में उसे टाला भी कम नहीं गया है. जबकि अवर्ण लेखकों का लेखन भारत के वृहत्तर समाज और संस्कृति का प्रतिनिधि होता है. उसमें कला की दृष्टि से भी तमाम महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय रचनाएँ सामने आई हैं. हिन्दी लेखन की सवर्ण दुनिया गैर सवर्ण लेखकों से कुछ बाँटना भी नहीं चाहती. न कोई विचार, पुरस्कार, न अवसर ! तब भी वह उसके प्रति एक खीझ रखती है.
दिलचस्प यह है कि दलित लेखक अपने लेखन को दलित-साहित्य कहने से नहीं बिफ़रता, जिस तरह सवर्ण लेखन को सवर्ण-साहित्य कहने पर सवर्ण रचनाकार बिफ़र उठता है. मुद्रा ने इस पर कहा है कि हिंदी का सवर्ण लेखक अपनी संस्कृति को ही सम्पूर्ण भारतीय समाज की संस्कृति समझ बैठता है और स्त्री, दलित, आदिवासी सभी पर लिखने का अधिकार सुरक्षित करना चाहता है. नारकीय में भी इस तरह के प्रश्न मुद्रा ने उठाये हैं.
मुद्रा ने हिंदी के दूसरे लेखकों के साथ अपने जीवन की विडंबनाओं का भी उल्लेख किया है. जिसमें कोई दीनता नहीं है. दीन न बनने की कोशिश भी नहीं है. ज्ञानोदय की नौकरी छोड़ने के बाद उनकी स्थिति अधिक बिगड़ गयी थी. रोटी के लाले पड़ गए थे. उन्होंने मसिजीवी बनने की ठान ली थी किन्तु उन दिनों भी हिंदी के लेखक के लिए क़लम के बूते ज़िंदा रहना मुश्किल था. नारकीय में अपने कलकत्ता के नरक के बारे में मुद्रा ने जो बातें लिखी हैं, वे उनके रचनाकार जीवन-संघर्ष का सही पता देती हैं. दिल्ली जा कर आकाशवाणी की नौकरी करने और उसे छोड़ कर लखनऊ आने के मध्य भी बहुत से विवरण हैं. जिनमें हिंदी साहित्यकारों के साथ मुद्रा के संबंध, दिल्ली का लैंडस्केप, कनॉट प्लेस, रीगल सिनेमा, काफ़ी हाउस, चायघर और शराबघर भी आते हैं. तत्कालीन राजनीति के रंग और हिंदी साहित्यिकों की दरबारों में आवाजाही के भी तमाम विवरण मुद्रा देते हैं.
नारकीय के इस वृत्तांत में मुद्रा ने अपने समय की राजनीति को भी बड़े यत्न और कौशल से पिरोया है. कलकत्ता में लोहिया से उनकी मुलाक़ात, दिल्ली में इन्दिरा गाँधी से उनकी भेंट, आपातकाल, बाबरी विध्वंस, मण्डल कमीशन सभी नारकीय में गूँथे हुए हैं. आपातकाल के दिनों के नसबंदी अभियान को लेकर भी मुद्रा ने बड़े चुटीले अंदाज़ में ‘नसबंदी की पूड़ियाँ’ सर्ग में लिखा है. यह भी बताया है कि ‘आपातकाल’ सही शब्द नहीं है. सही शब्द ‘आपात्काल’ है. नसबंदी मुद्रा भी करवाते हैं, लेकिन उनसे मिलने वाले पैसों के लिए. उपन्यास में यह विवरण इस प्रकार आया है:
ठाकुर ने मेरी नसबंदी का का इंतजाम बहुत अच्छा किया. मेरी नसबंदी के लिए उसने बलरामपुर के बड़े सर्जन और बाद में लखनऊ के मेयर बन गए डॉ. एस. सी. राय से बात कर ली. उन्होंने ऑपरेशन तो किया ही, गुलाबों पर चर्चा भी करते रहे.
इस नसबंदी के बाद मुझे बड़े आदर से एक सौ तीस रुपए मिले. मेरे लिए नसबंदी नहीं, ये एक सौ तीस रुपए महत्वपूर्ण थे. दिल्ली से साथ लाये सारे पैसे समाप्त हो गए थे. एक सौ तीस रुपए में से बारह रुपए की पूड़ियाँ ले कर घर वापस आया था. उस आपातकाल की आतंक, नसबंदी का पहला लाभ मुझे मिल गया था.
(वही, पृष्ठ- 237-38)
नारकीय कथानक में भारतीय राजनीति का क्रमिक विस्तार साथ लेकर चलता है. मुद्रा साहित्यकार होने के साथ अपने समय की सक्रिय राजनीति में भी रुचि लेते थे. एक साहित्यकार राजनीति को कितनी बारीक़ निगाह से व्याख्यायित कर सकता है यह मुद्रा के राजनीतिक विश्लेषण से गुज़र कर पता चल जाता है. वे पॉलिटिकली ऑबसेस्ड नहीं थे, बल्कि उस मशहूर और ज़रूरी विचार पर अमल करते थे कि साहित्य राजनीति से आगे चलने वाली वस्तु है. उनका समय भी साहित्य और राजनीति के प्रगाढ़ सम्बन्धों का समय रहा है. मुद्रा राजनीति में साहित्यिक आंदोलनकारी थे और आकाशवाणी में प्रथम ट्रेड यूनियन की स्थापना के लिए जाने जाते हैं.
नारकीय के राजनीतिक कालक्रम के दौरान मुद्रा प्रत्येक विचारधारा की राजनीति की तर्कानुमोदित आलोचना करते हैं. मण्डल कमीशन के विरोध में भारतीय सवर्ण समाज की आंदोलनकारी प्रतिक्रिया हुई थी. उसी क्रम में बाबरी विध्वंस हुआ और विभाजन के पश्चात् सांप्रदायिकता की दूसरी आँधी संप्रदायवादियों ने खड़ी कर दी थी. मण्डल कमीशन को लेकर हिन्दी के सवर्ण लेखकों और लेखक-संगठनों का क्या रवैया था, इस पर भी मुद्रा टिप्पणी करते हैं :
मैंने मण्डल कमीशन के पक्ष में एक व्यंग्य लिखा. उन दिनों मैं दिल्ली के एक साप्ताहिक में व्यंग्य लिखता था. उसका संपादक कन्हैयालाल नन्दन था.
व्यंग्य छपने पर लखनऊ में ज़बरदस्त प्रतिक्रिया हुई. लगातार फोन पर गालियाँ और धमकियाँ दी जाती रहीं और एक दिन मेडिकल कॉलेज के कुछ लड़कों ने घर पर चढ़ाई कर दी. देर तक चीख़-पुकार और बम से मारने की धमकी दे कर वे लौट गए. कन्हैयालाल नन्दन ने यह कालम इसी के बाद बंद कर दिया था. राजेंद्र, कमलेश्वर या जनवादी लेखक संघ को छोड़ कर ज़्यादातर लेखक भी मण्डल आयोग के विरोधी थे, पर मण्डल आयोग का सबसे अच्छा विरोध लालकृष्ण आडवाणी ने किया.
(वही, पृष्ठ- 275)
आरक्षण को लेकर भारत के सवर्ण समाज के रवैये ने उसे नैतिक रूप से कमज़ोर किया है. प्रायः देखा गया है कि जितनी शिद्दत से वह आरक्षण का विरोध करता रहा है, उतनी गंभीरता से कभी जाति के प्रश्न पर विचार नहीं करता. दस प्रतिशत आरक्षण की चुपचाप स्वीकृति ने आरक्षण विरोधी समाज को नग्न ही कर दिया है. हिन्दी लेखन की दुनिया में रामविलास शर्मा से लेकर नामवर सिंह तक आरक्षण का रचनात्मक रूप में विरोध करते रहे और दलित, आदिवासी लेखन को लेकर भी शुरुआत में उनका ऐसा ही रवैया था. मुद्रा इस बात को ज़ोर देकर कहते रहे कि जाति के प्रश्न पर मौन रहना वामपंथी राजनीति के लिए ठीक नहीं रहा. केवल वामपंथी ही नहीं, कलकत्ता में सोशलिस्ट नेता राम मनोहर लोहिया से अपनी मुलाक़ात के प्रसंग में भी मुद्रा ने जाति के प्रश्न पर उनसे असहमति जताई :
इन्हीं दिनों कलकत्ते में मेरी पहली भेंट डॉ. राम मनोहर लोहिया से हुई. उनका नाम कांग्रेस के आंदोलन और उससे अलग हुए गैर-कम्युनिस्ट सोशलिस्ट के रूप में कई जगह पढ़ चुका था. कलकत्ता वे ‘जाति तोड़ो आंदोलन’ के सिलसिले में आए थे. उनके विषय प्रवर्तन के बाद जो लोग बोले, उनमें से एक मैं भी था. उनकी भाषण शैली बहुत अच्छी थी. ख़ास तौर से वे जिस तरह की हिन्दी में बोल रहे थे, उसने प्रभावित किया पर उनकी बात से मैं सहमत नहीं हो सका. संभवतः आलोचनात्मक स्वर मेरा ही था और इससे वे खिन्न हुए. उन्होंने एक बार फिर स्पष्टीकरण-सा दिया. दरअसल मुझे जाति से संबन्धित उनकी बातों में बुनियादी तौर पर आर्यसमाजियों से अलग कुछ नहीं दिखाई दिया. वे अम्बेडकर और कम्युनिस्ट, दोनों के कठोर आलोचक थे और मैं जाति के मुद्दे पर अम्बेडकर से सहमत था. हाँ, यह बात अलग है कि स्वयं मार्क्सवादी अम्बेडकर से असहमत थे.
मार्क्सवादी गाँधी से भी घोर असहमति प्रकट करते थे. गाँधी के विरोधी अम्बेडकर भी थे पर विरोध के कारण अलग-अलग थे. यह भी एक विचित्र संयोग था कि मेरा समूचा परिवार अम्बेडकर और गाँधी का विरोधी तो था ही, उतनी ही शिद्दत से कम्युनिस्टों का भी विरोध करता था. यह मुद्दा मेरी वैचारिक उलझन था. परिवार में जो शास्त्र और दूसरे धर्मग्रंथ मुझे पढ़ने को मिले थे, उसमें मेरी अपनी जाति सहित सभी दलित, पिछड़े और आदिवासी घृणित और निंदनीय माने गए थे…
(वही, पृष्ठ- 55-56)
राजनीति को लेकर इस उपन्यास और मुद्रा के अपने वास्तविक जीवन में भी जो सुरुचि और उत्साह रहा है, वह मुद्रा की राजनीति में दिलचस्पी और उनकी समझ से परिचित कराते हैं. मुद्रा के राजनेताओं से भी संपर्क और संबंध रहे. वे स्वयं भी चुनाव लड़े और हारे थे. जितनी रुचि उन्हें कला, साहित्य और संगीत में थी उतनी ही राजनीति में भी, किन्तु उन्होंने आलोचना भी सबकी ही की. लोहिया से लेकर इंदिरा गाँधी और विश्वनाथ प्रताप सिंह तक की. मुद्रा स्वयं नव-वामपंथियों में शुमार हुए, सार्त्र और हर्बर्ट मार्क्यूज़ से उन्होंने विशेष सहमतियाँ जताई हैं. वे मार्क्सवादी भी हैं, अम्बेडकरवादी भी. अलावा इसके मुद्रा तमाम छोटे-बड़े वामपंथी राजनीतिक आंदोलनों में अपने जीवन के अंत तक सक्रिय रहे. किन्तु उनकी स्वनिर्मित समाजशास्त्रीय राजनीतिक सैद्धांतिकी भी है. इन्हीं अतिरंजनाओं के चलते कई बार वे अराजक से भी लगते हैं.
नारकीय के सभी चित्र नरक के फ्रेम में मढ़े हुए हैं. नारकीयता नरक से मुठभेड़ की उपज है. इस नरक में उनके जैसे तमाम लेखक थे और उनसे भिन्न भी. उनके नरक को बनाए रखने में उनके परिचित लेखक भी शामिल होते थे. मुद्रा ने एक स्थान पर उल्लेख किया है कि, किस प्रकार श्रीलाल शुक्ल ने एक पत्रिका का सम्पादन छः सौ रुपए मासिक के पारिश्रमिक पर उन्हें न देकर कवि नरेश सक्सेना को उससे दोगुने पारिश्रमिक पर दे दिया था. जबकि श्रीलाल शुक्ल स्वयं भी अफ़सर थे और नरेश सक्सेना बड़े सरकारी अभियंता. नारकीय जीवन में यह कोई ठेस पहुँचाने वाला वाकया नहीं है, अगर कोई नर्क से पूर्व परिचित है.
दिल्ली से लखनऊ वापस लौटकर मुद्रा केवल मसिजीवी रह गए थे तथा नरक के और भी विचित्र अनुभव अर्जित कर रहे थे. यह नरक-यात्रा लेखक के ऐसे ही कई अनुभवों से गुज़रते हुए पूर्ण होती है. नरक की अलगनी पर तमाम स्मृतियों की मृत्तिकाएँ मुद्रा ने टाँगी हैं. विस्मृत, स्मृत में बहुत कुछ मृत होता है. मृत स्मृति में अधिक जीवित रहता है. स्थान-स्थान पर नरक को लेकर मुद्रा की उक्तियाँ अत्यंत प्रभावी हैं. यह उक्तियाँ हर्बर्ट मार्क्यूज़ के नरक से भी जुड़ती हैं और भारत के मिथकीय नरक से भी. पाप के दण्ड का मिथकीय और काल्पनिक विधान जो समृद्ध धार्मिक समाज बनाता है, उसमें दोषियों को आग में जलाया जाता है और खौलते तेल के कड़ाह में भूना जाता है. इस रचना का असल इम्पैक्ट नरक के मिथक को झुठलाने या उसके विखंडन में ही छुपा है. एक प्रकार से यह साहित्य द्वारा समाज की डी-स्कूलिंग भी है. इस मिथकीय और फैंटिसिकल नर्क से उकता कर ही मुद्रा ने ‘दंडविधान’ की रचना की होगी. नरक के रिक्त फ्रेम, जिसमें हिन्दी के एक लेखक के संस्मरणों की धुली हुई, धुँधली न पड़ सकने तस्वीरें वाली से कसी हुई हैं, ये फ्रेम जिन वाक्यों से बनते हैं, उनमें से कुछ देखे जा सकते हैं :
इस नरक का जीवन आदमी को अजीब तरह से अभ्यस्त भी करता है. आदमी इसके बहुत-से अँधेरे और त्रासद कोनों का आदी-सा हो जाता है और इसी में कम सड़न, कम अँधेरे और कम कँटीले स्थान खोजता है. सैकड़ों खौलते कड़ाहों में से वह सबसे कम खाल उधेड़ने और फफोले पैदा करने वाले कड़ाह की तलाश में एक कड़ाह से निकल कर दूसरे में जाता रहता है. मेरे जैसे लोगों की यह अनिवार्य नियति थी. (पृष्ठ- 61)
समृद्धि के नरक में रहने वाले हर किसी के साथ यह होता है. यह नरक हम में से हर किसी को सड़ाता है. कुछ लोग इसी नरक में एक अलग बाड़ा बना लेते हैं. (पृष्ठ- 81)
नरक में रहने वाले लोगों के सुख बड़े विचित्र होते हैं. वे कभी-कभी सिर्फ़ इतने भर से भी कृतकृत्य होते हैं कि उन्हें नरक में डालने वाले उनकी तरफ़ मुड़ कर देखा. (पृष्ठ- 129)
हर्बर्ट मार्क्यूज़ की उक्ति, ‘प्रत्येक समृद्ध समाज अपने नीचे एक नरक बनाता है’, से प्रारम्भ हुए उपन्यास का अंत नरक की तस्वीर का अंतिम फ्रेम बनाते हुए होती है. ये ऐसे फ्रेम हैं जिनकी तस्वीरों में मुद्रा जैसे लेखकों की तमाम तस्वीरें हैं. उनके स्वजनों की भी तस्वीरें हैं. इसी नरक के फ्रेम में उनका परिवार भी है. उनका पिता भी है जिसने बयासी वर्ष की उम्र तक इस नरक को अपने कंधों पर ढोया है और किसी क्रॉनिक बीमारी से ग्रस्त है. लेकिन उसके बेटे की स्थिति ऐसी है कि एक सौ तीस रुपए कमाने के लिए उसके पास नसबंदी कराने के अतिरिक्त कोई और साधन नहीं था, जिसमें से बारह रुपए की पूड़ियाँ वह अपने परिवार के लिए ले आया है.
नारकीय का यह वृत्तान्त पीड़क सत्य-कथा है. इसकी सार्थकता नरक की उस चहारदीवारी के भीतर छुपी हुई है जिसे समृद्ध समाज अपनी समृद्धि के बल पर निर्मित करता है. इस आत्मकथानक और स्मृति चित्रों वाली कृति को शिल्पगत कौशल से उपन्यास का रूप दिया गया है. इसलिए इसे आत्मकथा या संस्मरणों की पुस्तक कहना कलात्मक साहित्यिक अभिव्यक्ति के दृष्टिकोण से अज्ञानता होगी. मुद्रा के पास बेहतरीन और मारक भाषा है, जिसका कमाल यहाँ भी है. भाषा की तीव्रता मुद्रा की अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने की क्षमताओं से मिल कर और पैनी हो जाती है.
नारकीय उपन्यास उसमें निहित संश्लिष्ट अर्थों से हिंदी-साहित्यिकता का एक क्रॉनिकल बन जाता है. यह ओढ़ी हुई लिजलिजी नैतिकता के सभी मानकों को ध्वस्त कर देता है. लेखकीय जीवन-कथा से इतर भाषा और साहित्य पर मुद्रा के विचार नवीन हैं, जो उनके चिंतन की गहराई को प्रदर्शित करते हैं. मुद्रा लेखन में ज़िद्दी प्रतिभा के धनी हैं. अपने जीवन-संघर्ष और साहित्यिक दुनिया के तजुर्बों के साथ मुद्रा ने अपने समय और समाज को भी नंगी आँखों से देखा था. उन्हें ज़बरदस्ती किसी गटर में बंद नहीं किया जा सकता था. मुद्रा इस सत्य से वाक़िफ़ थे कि थोड़ी सी सिंथेटिक महानताएँ अनगिनत क्षुद्रताओं के ढेर पर खड़ी की जाती हैं.
नारकीय से मुद्रा अपने विषय में किसी प्रकार का महानताबोध नहीं उत्पन्न करते बल्कि अपनी क्षुद्रताओं का जश्न मनाते हैं. इसीलिए वे हिंदी साहित्य जगत को भी महानताबोध की छूट लेने का अवसर नहीं देते. उसके टुच्चेपन को कुरेदते हैं. इस सबके साथ नारकीय मुद्रा के रचनाकार की सच्ची प्रतिमा गढ़ता है. नारकीय इसके रचनाकार का शिल्प गढ़ता है. अपने कथ्य और शिल्प में मुद्रा की यह कृति हंगेरियन भाषा में लिखे गए इमरै कैरतेस के उपन्यास ‘फ़ेटलेस’ (Sorstalansag) जैसी रवानी रखती है, जिसमें यहूदी लेखक ने नाज़ी कंसन्ट्रेशन कैंप के अपने सच्चे अनुभवों का औपन्यासीकरण किया है. इमरै कैरतेस को चौदह साल की उम्र में नाज़ियों ने कंसन्ट्रेशन कैंप में क़ैद कर लिया था. जहाँ से वे जीवित वापस लौटे थे. राल्फ एलिसन के ‘दि इनविज़िबल मैन’ का जो अश्वेत पात्र हिंसक गोरों द्वारा गटर में बंद कर दिया था, ‘नारकीय’ के कथानक में वह गटर के भीतर-भीतर दौड़ता रहता है और निकलने का कोई सुराख़-सा रास्ता ढूँढ रहा है.
मुद्राराक्षस की नरक-यात्रा समृद्ध समाज द्वारा बनाए गए नरक निवासियों के लिए रास्ता तलाश करती है. ज़हन्नुम का सफ़र, जहाँ से निकल सकने की भरपूर कोशिश ही एक अकेली राह है.
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संदर्भ ग्रंथ :
नारकीय, वाणी प्रकाशन, 2009 संस्करण
आलोचना और रचना की उलझनें, विश्वविद्यालय प्रकाशन, 2011 संस्करण