अक्स: क़द, किरदार और यादें
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1.
अखिलेश जी इस किताब में आपकी स्मृतियों के कुछ बहुत ही खास किरदार शामिल हैं; इसके अलावा कुछ खास लोकेल भी इसमें शामिल हैं, वे जगहें जिन्होंने आपको बनाने में, आपके निर्माण में खुद को इस तरह खर्च किया कि उन जगहों का कद भी किसी इंसान से कमतर नहीं आँका जा सकता है. तो इस किताब ‘अक्स’ में संस्मरण हैं लोगों के, स्थानों के; लेकिन मेरे खयाल में यह सिर्फ संस्मरण की किताब नहीं है. यहां संस्मरणों को धुरी बनाकर दरअसल एक जीवन का फलसफा सा रचा गया है. इसमें जीवन है, दर्शन है, इसमें हमारे यथार्थ को लेकर बहुत ही सूक्ष्म, सघन और इंटेन्स सवाल हैं और सबसे जरूरी बात कि उन सवालों के बरक्स आपके अपने गढ़े हुये मुहावरे हैं. इतने विविध तार जो इस किताब में मौजूद हैं उन सबको धारण करने वाली, उन सबको समेटने वाली जो भाषा है वह एक ही सांस में कलात्मक है तो वहीं खिलंदड़ भी है. अगर मैं ये कहूँ कि इसकी भाषा बहुत वजनदार है तो वहीं मुझे यह भी कहना होगा कि ये बहुत सहज है और इसमें एक खास किस्म का इनोसेंस भी है. मैं ये जानना चाहूंगी कि इस किताब की परिकल्पना से लेकर इसके पूरे होने तक की प्रक्रिया क्या है?
किताब की प्रक्रिया, आपने दिलचस्प सवाल किया है. दरअसल शुरुआत में एक दो संस्मरण मैंने लोगों पर लिखे. वे मेरी स्मृतियों में मेरे नजदीकी थे, कोई प्रसंग बना उनपर लिखने का तो लिखा गया लेकिन उसी लिखने की प्रक्रिया में मेरे दिमाग में आया कि इस तरह फुटकर लिखने के बजाय क्यों न जो अक्स, जिन लोगों का मेरी ज़िंदगी पर, जिन जगहों का मेरी ज़िंदगी पर प्रतिबिंब अमिट रूप से बना हुआ है उनके बारे में व्यवस्थित ढंग से, सिलसिलेवार लिखा जाए जिनमें वो सारे लोग, किरदार या जगहें शामिल हों. अंततः उनमें मैं भी शामिल रहूँ. इस प्रक्रिया में मुझे एक अपनी भी जर्नी को डिस्कवर करना या समझना होगा; तो कई चीजें मुझे लुभा रही थीं और व्यथित भी कर रही थीं. ये बेचैन करना और लुभाना दोनों प्रक्रियाएं साथ-साथ चल रही थीं. अब मेरे सामने मुश्किल थी कि इसको किस प्रविधि से लिखा जाये ? एक तो अपनी दास्तान है, मेरी ज़िंदगी में जो महत्वपूर्ण लोग आए, जिनकी यादें बनी हुई हैं उनको किस प्रविधि से लिखा जाए? एक रास्ता था कि जो-जो मैंने देखा उनके किस्से लिखूँ लेकिन मुझे लगा कि ये उचित नहीं होगा क्योंकि संस्मरण या उस तरह का कोई भी वृतांत सिर्फ वर्णन नहीं होता है, वह केवल अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति भर नहीं है. क्यों न उसे भी एक कला रूप में दर्ज किया जाए?
मैंने एक जगह पर कहा भी है कि यथार्थ की सार्थकता तभी होती है रचना में जब वह कल्पना की जो एन्द्रिकता होती है, कल्पना का जो रोमांच होता है उस परिणति तक पहुँच जाये और इसी तरह कल्पना को इस तरह रचो कि वह यथार्थ की तरह वास्तविक लगने लगे. अब चूंकि मेरे पास यथार्थ था, मेरे अनुभव थे तो मैंने सोचा कि इनको इस तरह रचा जाये कि वह कल्पना की तरह सुंदर लगे, पठनीय लगे और संवेदना का स्रोत उसमें दिखाई पड़े. इस प्रक्रिया में मैंने लोगों पर जो लिखा उनको एक आख्यान के शिल्प में लिखा. यानी वह संस्मरण हैं लेकिन आप चाहें, उसको शुरू से आखिर तक पढ़ें तो मुझे लगता है कि एक उपन्यास जैसा आपको आस्वाद मिल सकता है या किस्से का जो स्वर होता वो आपको सुनाई पड़ेगा .
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अखिलेश जी फिक्शन और नॉन फिक्शन के बारे में आप ने लिखा है कि फिक्शन लिखने वाले को उसकी स्मृति और अनुभवों से मुक्त कर देता है, वह एक मोक्ष की तरह है जबकि नॉन फिक्शन लेखक को उन्हीं स्मृति और अनुभवों से बांध देता है और बल्कि आपने ये पंक्ति लिखी है कि नॉन फिक्शन रचयिता को एक तरह के रक्षाकवच से बांध देता है जो कि उसे यथार्थ के आने वाले थपेड़ों से बचाए. मेरा अगला सवाल फिक्शन और नॉन फिक्शन के इसी अलगाव या कि इसी संधि पर है. नॉन फिक्शन लिखना क्या है? दो फसलों के बीच के समय में जो जमीन की अपनी आंतरिक तैयारी होती है क्या नॉन फिक्शन लिखना, दो फिक्शन के बीच लेखक की उसी रचनात्मक तैयारी का हिस्सा है या फिर कथा लिखना और कथेतर गद्य लिखना, दोनों दरअसल फसल के उगाने का समय ही है; फर्क सिर्फ इतना है कि एक में कल्पना ज्यादा खर्च होती है दूसरे की सिंचाई में स्मृतियाँ ज्यादा खर्च होती हैं? ये फिक्शन, नॉन फिक्शन लिखना क्या है?
मुझे लगता है कि फिक्शन के बारे में तो सबलोग जानते ही हैं और पढ़ते रहते हैं, उसकी एक सुदीर्घ परंपरा हमारे भारतीय साहित्य में और विश्व साहित्य में है तो जो बहस का विषय हो सकता है कि अलगाव का बिन्दु नान फिक्शन में ढूंढा जाना चाहिए? लेकिन मुझे लगता है कि अंततः लेखक किस तरह का लेखक है और किस तरह वह अपने अनुभवों के साथ व्यवहार कर रहा इस पर नान फिक्शन की अवधारणा बनेगी. जैसे कि कथा साहित्य में तो ठीक है कि जीवन के कुछ अनुभव होते हैं, कल्पना मिलाते हैं, लेकिन नॉन फिक्शन जब आप लिखते हैं तो उसमें आपको अपने अनुभवों को सच भी बनाए रखना है और उन अनुभवों को पुनर्रचित भी करना है और पुनर्रचित होने में लेखक की नैतिकता निहित होती है कि कहीं कोई गल्प और कल्पना उसमें शामिल नहीं करनी है. इसीलिए थोड़ा मुश्किल काम होता है और बहुत आसान काम भी. आसान इस अर्थ में कि आपके पास बनी-बनाई यादें होती हैं उनको आप किसी भी तरह सामान्य रूप से लिख सकते हैं. कथा बुनना, किस्सा बुनना एक साधारण आदमी नहीं कर सकता लेकिन अपनी ज़िंदगी की दास्तान हर कोई कह सकता है.
एक सामान्य आत्मकथा या यात्रा-वृत्तांत कहें या संस्मरण कहें कोई भी सुना सकता है. जैसे हमारे आपके घरों में या गाँव में लोग सुनाते ही रहते हैं. कोई अकाल पड़ा, सूखा पड़ा, बाढ़ आई तो उसके वृतांत बताते हैं. परन्तु जहां तक उसके श्रेष्ठ साहित्यिक रूप का प्रश्न है तो ऐसा नहीं है कि नॉन फिक्शन केवल अनुभवों की अभिव्यक्ति होते हैं. इसमें भी लेखक अपने विचार डालता है एक चमक डालता है उसका जो सरोकार होता है वह सब उसमें लक्षित होता है. और साथ ही उसकी जो सबसे बड़ी प्रतिज्ञा होती है, मैं अपने अनुभवों के आधार पर, अपने स्तर पर कह रहा हूँ, कि कैसे उन साधारण वृत्तान्तों को कल्पना के समानान्तर चमकदार बनाकर के पेश करूँ. और उसे एक आख्यान की तरह दिलचस्प बनाकर के पेश करूँ. तो वो प्रक्रिया मैंने अपनायी. अब यह अलग बात है कि मैं सफल हुआ कि विफल, ये तो पाठक लोग बताएंगे.
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किताब अभी बहुत पाठकों तक नहीं पहुंची है, मुझ तक पहुँच गयी है (किताब दिखाती हैं) इसमें पहला अध्याय है- पिता, माँ और मृत्यु. बात मैं वहीं से शुरू करना चाहूँगी. यह बहुत ही निजी प्रसंग है और आप ने लिखा है कि जब कोई हमारा रिश्तेदार या करीबी गुजर जाता है तब हम उसके जीवन के बारे में सोचने लगते हैं लेकिन माता-पिता हमारे यहाँ से उस तरह विदा नहीं होते. उनके जाने के बाद दरअसल हम उनसे जुड़े अपने जीवन के बारे में सोचने लगते हैं. आप ने जो अभी कहा फिर से एक पुनर्पठन, पुनर्वाचन उसकी ही बात है ये कि हम फिर से अपने जीवन को उसके आलोक में देखने लगते हैं.
जब मैं इसे पढ़ रही थी तो मुझे ऐसा लगा कि माँ के साथ जो आपका संबंध है वह बहुत पारदर्शी और सहज है लेकिन पिता के साथ के संबंध में मुझे लगा कि कोई केमेस्ट्री या एक्वेशन नहीं है. यानी कि इस संबंध में रसायन और गणित नहीं है लेकिन शायद उसमें व्याकरण है, हिन्दी का व्याकरण है क्योंकि उसका जो शिल्प है वह बहुत दुरूह अप्रत्याशित है. उसमें एक यह जिक्र भी है कि बाद के दिनों में जब आपके पिता आपकी बेटियों को कहानी सुनाते हैं तो दूर से उनकी कहानियों पर आपका ध्यान जाता है और आप चौंक जाते हैं. आपको ऐसा लगता है कि आपका लेखक पिता के नजदीक है. तो मैं ये जानना चाहती हूँ कि यहाँ अभी दूर से देखने में क्या आपको ऐसा लगता है कि आपका गैर लेखक भी पिता ही के नजदीक है?
देखिये, हम अवध के लोग हैं. सुल्तानपुर अवध का एक जनपद है, उसकी तहसील कादीपुर, गाँव मलिकपुर, वहाँ का रहने वाला हूँ. तो उनमें लगभग जो एक सामंती परिवेश होता था उसकी मान्यता ये थी कि कोई पिता यदि बच्चों से बहुत संवाद करता है, बहुत घुलता-मिलता है, खिलाता है, उसके साथ घूमने जाता है तो ये मर्दानगी के खिलाफ, ये मर्द का स्वभाव नहीं माना जाता था; ये स्त्री का ही करेक्टर था कि वो अपने बच्चों को प्यार करे. ऐसे एक परिवेश से मैं आया हूँ. मेरे ख्याल से मेरे पिताजी पर भी ये प्रभाव रहे होंगे. तो बहुत बात नहीं करते थे, थोड़ा उनको गुस्सा भी आता था. जब बड़े हो गए तो मैंने देखा कि मेरे पिता जितना हम उनसे बात करने में हिचकते थे, मेरे पिता भी हम बच्चों से उतना बात करने में हिचकते थे.
माँ हमलोग के बीच एक पुल की तरह थीं, सेतु की तरह. यानी कभी पिता को कोई बात कहनी होती, यही कहना होता कि मैं ठीक से पढ़ूँ-लिखूँ तो वह भी सीधे नहीं कहते थे माँ के मार्फत ही कहते थे. हम बच्चों को भी कोई सामान चाहिए होता था, कोई जरूरत होती थी तो माँ के मार्फत ही कहते थे. मेरे पिता जी तहसील में, बाद में कचहरी में एक साधारण क्लर्क की नौकरी करते थे और मैं आधुनिकता की दुनिया में, लेखन की दुनिया में प्रवेश पा गया और काम करने लगा; बाहर के जगत से रिश्ता बना. मुझे हमेशा लगता था कि मेरे पिता बहुत साधारण व्यक्ति हैं जबकि दूसरी तरफ मेरी माँ मुझे बताती थीं कि एक अच्छा इंसान बनो, अच्छे-अच्छे विचार सिखाती थीं, वे ज्यादा शिक्षित नहीं थीं लेकिन वो ये बातें सिखाती थीं. जो हमारे भारतीय समाज में मनुष्यता के मूल्य हैं वो सब शिक्षित करती थीं और पिता तो कुछ कहते भी नहीं थे. इसलिए मुझे लगा कि मैं अगर एक अच्छा मनुष्य बनने की दिशा में हूँ तो इसमें मां का अवदान है और पिता तो एक साधारण व्यक्ति ठहरे. लेकिन आज जब वे नहीं हैं, मैं बताऊँ कि जीवन में जिन कुछ बातों को लेकर मैं अपने को धिक्कारता हूँ और पश्चाताप मेरे भीतर रहता है तो उसमें काफी शिद्दत से यह है कि अपने पिता के साथ जितना अच्छा सुलूक मुझे करना चाहिए था उतना मैं कर नहीं सका जीवन में. मुझे लगता है कि मैंने इन जस्टिस अपने पिता के साथ किया है. यह भी है कि रिटायरमेंट के बाद वह मेरे साथ ही रहते थे लेकिन मुझे लगता है कि संवाद अगर होता तो कितना खुश वे होते और कितनी खुशी मुझे मिलती.
वो चले गए. और जब चले गए तो उनके किस्से पता चले. लोगों ने बताना शुरू किया कि वो साधारण इंसान नहीं थे. आप ये समझो कि कर्ज लेकर दूसरों की बेटियों की शादी कराई उन्होंने. खुद अपने मुसीबत में रहते थे, कष्ट में रहते थे, साधारण नौकरी की लेकिन सबको तवज्जोह देना सबका निभाना था उनको. इतने लोगों के जीवन को उन्होंने बनाया, इतने लोगों का जीवन उन्होंने संवारा, ये सब उनकी मृत्यु के बाद मुझे पता चला और जो इस किताब अक्स में भी बताया है मैंने. तो एक दिन मैं पुनः चौंका था, जब वह जीवित थे और मेरी बेटियों को कहानियां सुना रहे थे. ये कहानियां उन्होंने मुझे भी सुनाई थीं जब मेरा बचपन था. फिर बाद के दिनों में जब मेरी बेटियों को कहानियां सुना रहे थे तो मैंने सोचा कि माँ किस्सा सुनाती थी तो दुख की कहानियां सुनाती थी. एक अकेली लड़की कैसे घर में अत्याचार सह रही है या कोई गरीब कैसे दुखी है, फिर अंत आने तक उसके दिन फिर जाते थे. मेरे पिताजी जो कहानियां सुनाते थे उस समय मुझे लगता था कि ये तो अजीब ही कहानी सुना रहे हैं. वह क्या करते थे कि सारे किरदारों को अगर राक्षस था तो उसे भी रीडिक्यूल कर देते थे और देवता थे तो उसका भी मजाक बनाती हुई कहानियां सुनाते थे.
अब मुझे लगता है कि मैंने जो एक अपना मुहावरा विकसित किया कि दुख को दुख की भाषा में भी कहा जाये और उसको एक खिलंदड़ेपन से भी कहा जाये; तो वह शायद माँ और पिता के किस्सों के सहमेल से बना है. खासतौर से मैं पिता के बारे में कहना चाहता हूँ कि मुझे उनके जाने के बाद उनका महत्व पता चला और लगा कि छोटी-छोटी उनकी इच्छाएँ रही होंगी. काश मैं जान सका होता उनको. जैसे आज मैं चाहता हूँ कि मैं अपनी बेटियों को अपने बचपन के, अपनी यूनिवर्सिटी के, अपने दोस्तों के, बचपन के दोस्तों के बारे में, अपनी शरारतों के बारे में उनको बताऊँ, साझा करूँ, मुझे लगता है कि मेरे पिताजी भी तो चाहते रहे होंगे? या आज जैसे मैं याद करता हूँ, अपने सुल्तानपुर कस्बे को लेकर विकल हो जाता हूँ, मेरे पिताजी भी अपने गाँव को लेकर विकल रहते रहे होंगे, वे कहते थे मैं गाँव जाना चाहता हूँ, मैं कहता था क्यों जाएंगे लखनऊ में ही रहिए. तो बहुत सारी चीजें हम अपने पिताओं के जाने के बाद या अपने आत्मीय जन के जाने के बाद समझ पाते हैं. अंत में एक वाक्य में कहना हो तो मैं कहूँगा कि काफी पश्चाताप मेरे भीतर रहता है पिता को लेकर. ये ऐसा पश्चाताप है कि इसका अब कोई प्रायश्चित किया नहीं जा सकता.
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उस आलेख में माँ के प्रसंग भी हैं. माँ के प्रसंग में एक दृश्य है जिसमें माँ को स्मृतियों के कोश से निकल कर बहुत सारी बातें याद आने लगती हैं. जैसे कि पिता की तरफ से उनकी उपेक्षा हुई, वे सारी बातें उन्हें याद आने लगती हैं. वे काफी मुखर होकर पिता को जमाने भर के शिकायती ताने सुनाने लगती हैं, एक दृश्य यह है. फिर दूसरा दृश्य है, जब पिता चले गए हैं और माँ विभ्रम का शिकार हुईं, वहाँ पर एक वाक्य है कि माँ का विभ्रम भी उनके यथार्थ जितना ही सीमित था. यह एक वाक्य हमारी पिछली पीढ़ी की स्त्री के जीवन रेख के समानान्तर चलने वाला बड़ा वाक्य है. फिर माँ जब विभ्रम का शिकार होती हैं तो उसके बहुत सारे प्रसंग मौजूद हैं.
वे प्रसंग कभी आपको गुदगुदाएंगे, कभी उदास कर देंगे, कभी आपको उनसे सहानुभूति होगी. तमाम तरह के रंग वहाँ उपस्थित हैं. फिर एक तीसरा दृश्य हैं जहां पर माँ उन दोनों शिल्प- यानी अतिरिक्त याद आना और भूल जाना, उन दोनों शिल्प से इतर कुछ कर बैठती हैं. ये उनके आखिरी दिन का प्रसंग है और मेरे ख्याल से किताब के जो कुछ सबसे डिस्टर्बिंग पॉइंट्स हैं उनमें से यह एक है. इसमें माँ जो आपको हमेशा आपके घर के नाम से बुलाती रही हैं, अचानक से आपको आपके बाहर के नाम से बुलाना शुरू कर देती हैं. आपका क्या अनुमान है कि उन्होंने वैसा क्यों किया होगा ?
जाहिर है, अनुमान ही किया जा सकता है और मैंने अनुमान लगाया भी. शुरू में मैं उलझन में ही पड़ा रहा, आखिर ऐसा क्या मनोविज्ञान उनका रहा होगा? मुझे लगता है कि जब वह अस्पताल में गईं उनको पता नहीं था कि इतनी कोई गंभीर बीमारी उनको है. हम लोगों को भी नहीं पता था. सामान्य रूप से उन्होंने खाना-वाना छोड़ दिया था. कुछ भी नहीं खाती थीं, जिद पकड़ लेती थीं. हमने कहा कि थोड़ी कमजोरी आ गयी है, इनको हास्पिटल ले जाकर ग्लूकोज वगैरह चढ़ेगा और सही हो जाएंगी. शुरू में यही था लेकिन जब उनको लगा, या ऐसा मुझे लगता है कि उनको लगा, वह आईसीयू में हैं और आक्सीजन सिलेन्डर है, आक्सीजन मास्क लगा है, तो शायद उनको ये महसूस हुआ हो कि मेरा जो बेटा है, जिसे वह हमेशा घर के नाम से रोज-रोज पुकारती रही हैं वह मुझको नहीं बचा पाएगा या शायद मेरी बीमारी में, अस्पताल में, मेरे इलाज में, मेरे बेटे का प्रेम, केवल प्रेम, काम नहीं कर पाएगा तो वह सोची होंगी कि ये लेखक है, नाम है इसका, घर में दोस्त लोग, प्रभावशाली लोग आते रहते थे तो शायद ये मनोविज्ञान रहा हो कि ये जो बाहर का अखिलेश है, जो अधिक प्रभावशाली, रसूख वाला है, बचा सकेगा उनको. इसलिए आखिरी बेला में मुझे घर के नाम से नहीं, बाहर का नाम लेकर बुलाने लगी हों.
दो तीन बार बुलाया था उन्होंने ऐसा. या हो सकता है उनकी पुरानी स्मृति ही खत्म हो गयी थी. वह स्मृति जिसमें मैं बच्चा था, जिसमें मैं उनका बेटा था, वह मेमोरी उनकी खत्म हो गयी हो; केवल वर्तमान की मेमोरी रह गयी हो जिसमें डॉक्टर मुझे मेरे नाम से पुकार रहे हैं, जिसमें नर्स, कंपाउंडर मेरे नाम से पुकार रहा है तो इग्जेक्ट क्या था ये तो कहा नहीं जा सकता है लेकिन मुझे यही लगता है कि उनको शायद लगा हो कि मेरा बेटा तो नहीं बचा पाएगा लेकिन ये थोड़ा नाम वाम जिसका है उसको बुलाओ तो बचा लेगा.
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मुझे ये भी लगता है कि हो सकता है उन्हें अपने अंत का आभास हो गया हो और उन्हें ऐसा लगा हो कि अभी तक जब वे आपको आपके पुकार के नाम से बुलाती थीं तब आपके ऊपर अभिभावक का साया था. लेकिन उनके चले जाने के बाद आपको परिवार के मुखिया होने की ज़िम्मेदारी निभानी थी! संभव है उन्हें इस बात का आभास हो गया हो इसलिए उन्होंने आपको बाहर वाले नाम से पुकारा हो, ये मेरा अनुमान है.
आपने तो बहुत ही मार्मिक बात कही और अब मुझे लग रहा है कि यही रहा होगा. अब क्या रहा होगा, वे तो चली गईं लेकिन आप ने मेरे ख्याल से एक सही नब्ज उसकी पकड़ी है ये भी एक चीज हो सकती है.
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अखिलेश जी आपने इस किताब में कई चरित्रों के बारे में लिखा है पर जब आप दूसरे किरदारों के बारे में लिख रहे हैं फिर भी उसमें रवीन्द्र कालिया जी की किसी न किसी रूप में मौजूदगी रही है. आपका बचपन और कैशोर्य बीता कादीपुर और सुल्तानपुर जैसी छोटी जगह में और उसके बाद इलाहाबाद में आपका प्रवेश हुआ जो कि उस समय की साहित्यिक नाभि थी. ‘अक्स’ में जब आपने इलाहाबाद प्रकरण की शुरुआत की है वहाँ पर रानीमण्डी की गली का जिक्र है. उस गली में इलाहाबाद प्रेस का दफ्तर था और उस दफ्तर में कालिया जी की उपस्थिति थी. जब आप वहाँ पहुँचते हैं तो सबसे पहले आपका सामना दरवाजे से लटकी हुई एक बड़ी सी कुंडी से होता है.
इस दृश्य पर हमलोग ठहरते हैं. वहाँ जब दरवाजे पर खड़े थे; वहाँ से अगर आप गर्दन मोड़कर पीछे देखते तो रानीमण्डी की गली की रौनक होती और दरवाजे के उस पार कालिया दंपति के साहित्यिक औदार्य का साम्राज्य होता और बीच में वह कुंडी थी जिससे कि आप जोश में भरकर दो-दो हाथ करते हैं. आप ज़ोर से कुंडी को खटखटाते हैं और दरवाजा बेशुमार बज उठता है. आप ने वहाँ पर एक वाक्य लिखा है. आप ने लिखा है कि हमारे इलाके में उन दिनों कुंडी बजाने के लिए दिमाग का नहीं सिर्फ हाथ का इस्तेमाल होता था. यह एक वाक्य कादीपुर, सुल्तानपुर वर्सेस संभ्रांत इलाहाबाद के मुक़ाबले की पूरी तस्वीर को पेश कर देता है. वह दरवाजा जब खुलता है तो न सिर्फ आप कालिया जी के घर में दाखिल होते हैं, बल्कि आप हिन्दी साहित्य के वृहत्तर संसार में भी दाखिल होने वाले थे. वहाँ, उस दरवाजे की कुंडी को ज़ोर-ज़ोर से बजाते समय आपको क्या महसूस हो रहा था ?
थोड़ा और पीछे से चले, हमारे टीचर थे गिरीश चंद श्रीवास्तव जी, उनकी निष्कर्ष पत्रिका छपाने के लिए हमलोग गए थे कालिया जी के इलाहाबाद प्रेस में. जिन लोगों ने कालिया जी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण उपन्यास ‘खुदा सही सलामत है’ पढ़ा होगा वे जानते होंगे कि उस उपन्यास की शुरुआत ही होती है बेलन के आकार वाली गली से. वह बेलन के आकार वाली गली रानी मंडी की गली थी. जब हमलोग प्रवेश किए उस गली में तो मैंने देखा, वह गली मुस्लिम बहुल गली थी और गरीब मुसलमान उसमें ज्यादा थे. कोई रंग बनाने वाला था, अबीर गुलाल, कोई गत्ते के डिब्बे बनाता था. मुझे लगता है बाई तरफ सबसे पहले एक परिवार मिलता था जो धुनिया था, रज़ाई-गद्दे सिलने और रुई भरने का काम करता था. तो इस तरह वह गली आगे बढ़ती है. फिर मैंने देखा कि वहाँ पर एक जासूसी दुनिया का दफ्तर था. फिर आगे बढ़े तो शबख़ून पत्रिका, जो उर्दू का बहुत बड़ा रिसाला था जिसके एडिटर शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी साहब थे, उसका भी दफ्तर था और बाईं तरफ… गिरीश जी ने कहा अब आ गए; वो बहुत बड़ा सा दरवाजा था और कुंडी भी माशाअल्ला वैसी ही बड़ी सी थी. मैं इतना उत्साहित था मिलने के लिए और थोड़ी बे-शऊरी भी थी, चूंकि हमलोग तो छोटी जगह के थे जिसमें तब घरों में कालबेल नहीं लगी होती थी. कालिया जी के यहाँ भी तब कालबेल नहीं थी, मुझे लगता है बाद में लगी थी. तो मैंने बड़ी ज़ोर से बजा दिया कुंडी को, जब दरवाजा खुला तो प्रेस का एक वर्कर आया, हमें अन्दर ले गया, हमलोग बैठे. फिर कालिया जी आए; मुझे याद है कि ममता जी भी वहाँ आयीं. तो एक बैठक वो थी शुरुआती.
दूसरी बार जब हमलोग छप जाने के बाद पत्रिका लेने गए तब फिर देखा. कालिया जी उस समय, रिवाल्विंग चेयर होती थी उसपर वह बैठते थे और सिगरेट पीते रहते थे. तब वे चेन स्मोकर थे, एक सिगरेट से दूसरी जलाते थे, मैं तो क्या कहूँ? मेरे लिए किसी का इस तरह सिगरेट पीते हुये देखना विरल था. सुदर्शन उनका व्यक्तित्व था. ममता जी भी आयीं. तो बगल में, जहां ऑफिस था उसके बगल में, तीन चार सीढ़ी ऊपर करके एक और कमरा उन्होंने बनवाया था, ममता जी जब भी नीचे आती थीं तो उस कमरे तक ले जाने वाली एक सीढ़ी पर वह बैठ जाती थीं. वहीं पर चाय का ट्रे लेकर आती थीं और चाय वहीं पर बनाती थीं. तो ये एक परिदृश्य था, फिर उस घर से, कालिया जी से, ममता जी से ऐसा लगाव हो गया या कहें लत लग गयी कि मैं अक्सर छुट्टी के दिन, जैसे छुट्टी होती, फ्राइडे या सैटरडे को चला जाता और वही रुक जाता था. और एक से एक बड़े लोगों से वहाँ मुलाक़ात हुई.
दूसरा ही अवसर था यानी जब हमलोग पत्रिका लेने गए थे सुल्तानपुर से तो देखा वहाँ पर अमरकांत जी बैठे हुये हैं, शैलेश मटियानी जी, मार्कन्डेय जी, सत्यप्रकाश मिश्र, सतीश जमाली. इतने लेखक एक साथ देखकर के तो क्या उमंग हुयी, मन हुआ कि कूदने लगूँ खुशी से क्योंकि ये सब हीरो थे हमारे; इन्हें पढ़ रखा था, और बहुत कम उम्र में पढ़ रखा था. ये जरूर है कि उन लोग को यकीन नहीं होता था, जब मैं मिला कालिया जी से तो हमारे टीचर गिरीश जी ने कहा कि ये बहुत अच्छा लड़का है और आपकी सब कहानियां पढ़ा हुआ है. कालिया जी को लगा कि ये बी.ए. का लड़का ये क्या पढ़े होगा. तो उन्होंने पूछा कौन-कौन सी पढ़ी है?
मैंने सूची गिनानी शुरू की. मैंने कहा अभी आपकी पहल में ‘चकैया’ नीम कहानी मैंने पढ़ी है तब जाकर उन्हें यकीन हुआ और वह एक ऐसा सिलसिला था जो मेरे इंटरपास करके जाने से शुरू हुआ और जीवन पर्यंत उन्होंने अपने दोस्त की तरह, छोटे भाई की तरह और मैं कहूँ कि अपने बेटे की तरह उन्होंने संरक्षण और स्नेह दिया. हमेशा मेरी याद में वह परिवार, वह घर और जहां-जहां वो रहे, दिल्ली में रहे तो दिल्ली में भी मैं जाता रहा. तो कभी भुलाया नहीं जा सकता. उन स्मृतियों को मैंने लिखा, उनके ऊपर एक लंबा संस्मरण है अक्स में और जाहिर है कि उन्हीं पर नहीं है, जब मैं उनके ऊपर लिख रहा था तो कहीं अपने ऊपर भी लिख रहा था. इस किताब में आप जितने संस्मरण पाएंगे उन सभी में एक तरफ से आप देखेंगे तो लगेगा कि उसमें सामने वाले किरदार पर लिखा गया है लेकिन दूसरी तरफ से देखेंगे तो लगेगा कि इस आदमी के भीतर अपना जो अक्स है, अपने अक्स को प्रकट कर रहा है. तो इस तरह से वह एक साझी तलाश है, अपनी भी और अपने समय की भी, यानी जो बीता हुआ समय है और लोग हैं और एक माहौल है, एक तरह से आप कह सकते हैं कि एक माहौल की तलाश है, जो जीवन बीता उसकी पुनर्रचना है अपने तरह की.
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कितनी अच्छी बात आप ने कही, साझी तलाश. कालिया जी का आपकी स्मृतियों पर इतना असर रहा और आप ने लिखा भी है कि फोन पर जितनी बातें आप ने कालिया जी से कीं उतनी किसी और से नहीं की हैं. तो जब आप ने अपनी स्मृतियों पर आधारित किताब लिखी तो इसे आपने कालिया जी को नहीं, ममता जी को समर्पित किया है, क्यों?
शायद इसलिए कि कालिया जी पर तो लिखा ही इतने विस्तार से, जो मेरे मन के भाव थे वह मैंने लिखा. दूसरी बात कि समर्पण तो किसी एक को या दो को या बहुत सारे लोगों को एकसाथ किया जा सकता है लेकिन जो मुझे सबसे खास बात लगी, थोड़ी व्यक्तिगत बात है, कि एक दिन मैंने देखा कि जितने मेरे पिता, माँ के आसपास के रिश्ते के लोग, चाचा या जो भी मेरे बुजुर्ग थे कोई इस पृथ्वी पर अब रहा नहीं, जिनसे मेरा बड़ा गहरा नाता था. साहित्य में भी श्रीलाल शुक्ल जी, कालिया जी, मार्कन्डेय जी, सत्यप्रकाश जी, अमरकांत जी जितने थे, राजेंद्र यादव, नामवर जी जितने लोग जिनसे कुछ पाया हासिल किया और मेरे चाचा ताऊ जैसे भी, सबलोग खत्म हो चुके हैं. लेकिन एक ऐसा कोई बुजुर्ग, एक अग्रज जिसका स्नेह आप को चाहिए होता है, अब ममता जी ही मेरे जीवन में हैं जिनका स्नेह, अपनापा मुझे हासिल है. एक बुजुर्ग की तरह उनका साया, उनका संरक्षण उनका प्यार मुझे हासिल है तो यही बात है.
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मैंने ये भी ऐसा सोचा. मैंने जब किताब के पन्ने पलटे और जब इसे देखा और किताब पढ़ने के बाद मैं सोचती रही कि आपने लिखा है, जिसे अभी मैं पहले भी दर्ज कर चुकी हूँ कि जब कोई करीबी जाता है तो हम उसके बारे में सोचते हैं लेकिन जब माता पिता जाते हैं तब हम उनसे जुड़ी चीजों के बारे में सोचने लगते हैं. तो कालिया जी का जाना शायद उसी कड़ी की चीज थी और उनके जाने के बाद उनसे जुड़ी चीजें ज्यादा याद आने लगीं तो और वहाँ ममता जी की मौजूदगी थी. बहरहाल, पूरी किताब को पढ़ने के बाद आपका एक व्यक्तित्व बनता है लेकिन जब आप मान बहादुर जी के साथ थे तो उसमें आपका बिल्कुल अलग किरदार बनता है. जैसे आपकी उनसे पहली मुलाक़ात का जिक्र है.
आपकी उनसे पहली मुलाक़ात है, वे काफी सीनियर लेखक हैं, पर चलते समय आप उनसे कहते हैं कि मुझे लगा था कि आप युवा होंगे! उसके बाद उनके कविता संग्रह का नाम ‘बीड़ी बुझने के करीब’ है तो आप उनसे पूछ लेते हैं कि क्या आप बीड़ी पीते हैं? उसके बाद जब थोड़ी घनिष्ठता बढ़ती है और वे अपने गाँव से बस पकड़कर आपके शहर आते हैं कविता सुनाने; तब आप जिद पर अड़ जाते हैं कि कविता नहीं सुनेंगे पहले अमुक होटल में अमुक चीज खिलाइये. मैं ये जानना चाहती हूँ कि मान बहादुर जी के व्यक्तित्व में ऐसा क्या था कि वो सामने वाले को उसके किरदार से अलग हटकर कुछ करने को उकसाता था?
ऐसा है कि जब हम किसी के सामने होते हैं तो उसके व्यक्तित्व की जो ऊर्जा होती है, जो आभा होती है, थोड़ा बहुत हमें बदल देती है. जैसे आपका अपने पिता के साथ एक अलग भाव होगा, अपने बॉस के साथ अलग. तो हर आदमी अलग-अलग लोगों के सामने थोड़ा अलग-अलग हो जाता है. एक ही आदमी होने के बावजूद, यहाँ तक कि उसके बोलने का तरीका भी फर्क हो जाता है, उसका पूरा विहैवियर थोड़ा चेंज हो जाता है. मसलन श्रीलाल जी यहाँ पर थे तो उनके साथ में अलग बात होती थी, मुद्रा जी (मुद्रराक्षस) के सामने अलग हो जाता था मैं. मान बहादुर जी के प्रसंग में ये था कि हमलोग मिले तो जो उनको युवा समझने का भ्रम था वह इसलिए था कि एक तो पहला संग्रह उनका आया था, मुझे लगा कि युवा ही होंगे अभी पहला ही संग्रह आया है तो पचास साल के तो होंगे नहीं. लेकिन वे लिखते रहते थे, गाँव में रहते थे, शायद उनका बहुत वास्ता नहीं रहा हो साहित्यिक जगत से, पत्रिकाओं से. इसलिए मेरे मन में आया कि युवा होंगे. जो भी मन में आया, इसलिए पूछ सका क्योंकि जो उनका पूरा पहनावा, बाना था और जो उन्होंने मेरे साथ व्यवहार किया, एक दोस्त जैसा, उन्होंने लोकतांत्रिकता के तहत दोस्त जैसा व्यवहार किया, उम्र के गैप को पाट दिया था, तब फिर हमने भी छूट ले ली. जैसे यहाँ लखनऊ में वीरेंद्र जी हैं, उम्र में मुझसे बड़े हैं, लेकिन हमलोग दोस्त की तरह ही रहते हैं.
खुद कालिया जी के यहाँ भी ऐसा था. मैं तो नहीं उतना कर सका लेकिन मैंने उनके यहाँ देखा कि कोई युवा लेखक, बीए में लड़का पढ़ रहा है और कालिया जी के सिगरेट की पैकेट से सिगरेट निकालकर पी रहा है, ममता जी बल्कि बाद में बिगड़ती भी थीं कि ये तो बर्बाद हो जाएगा लेकिन कालिया जी का अपना स्वभाव था. दरअसल जो इलाहाबाद की पृष्ठभूमि थी उसमें लोकतान्त्रिक रिश्ते इस तरह के बनते थे. बड़े-बड़े लेखकों से जैसे भैरव प्रसाद तो सबसे उम्रदराज लेखक थे, अभी तीन साल पहले उनकी शताब्दी मनाई गयी. मेरे से उनका लगभग चालीस साल का गैप रहा होगा लेकिन वे भी खूब बातें, यूनिवर्सिटी की बातें, दोस्ती की बातें, हंसी मज़ाक करते. जैसे एकबार एक आलोचक इलाहाबाद आये. उन्होंने कहा मैं भैरव जी से मिलना चाहता हूँ.
भैरव जी से ज्यादातर लोग सहमते थे. उनके बारे में था कि भैरव जी बड़े गुस्से वाले हैं. बड़े-बड़े पर वे बिगड़ जाते थे. जैसे नामवर जी से भी वे कह देते थे कि देखो तुमको आती नहीं ये चीज तो मत बोला करो. मैंने आलोचक मित्र से कहा कि मेरे तो बड़े अच्छे संबंध हैं, चलिए मैं भैरव जी से मिलवाता हूँ. मैं उनको भैरव जी के घर लेकर गया. भैरव जी टीवी देख रहे थे संडे को. तब संडे को दूरदर्शन पर फिल्में आती थीं. वे देखते रहे, आधे-घंटे तक हमलोगों से बोले ही नहीं. तो हमको बड़ा सदमा लगा कि भाई मैं तो इतना कह रहा था कि भैरव जी तो मुझे बहुत मानते हैं और ये आलोचक मित्र क्या सोच रहे होंगे कि भाई इनकी तो कोई कदर ही नहीं है. लेकिन जब फिल्म खत्म हो गयी तब भैरव जी फुर्सत में आए, पूरा स्नेह जैसे वे देते थे, दिए. उन्होंने कहा कि ये कामिनी कौशल की फिल्म आ रही थी, इसको देखना ही देखना था मुझे. तो एक ऐसा हंसी मज़ाक का रिश्ता वहाँ पर था.
मान बहादुर जी भी इलाहाबाद के पढ़े हुये थे, इस परंपरा को जानते थे और अच्छे इंसान थे. लेकिन उनकी मृत्यु बड़ी स्तब्धकारी थी. अपनों को जो हिलाकर रख देती है वैसी मृत्यु उन्हें मिली. आप कल्पना करो कि हजारों की भीड़ के सामने एक गुंडा अकेले आया और उनको पकड़कर ले गया और बीच चौराहे पर लोक निर्माण विभाग का कोलतार वाला ड्रम था उसपर उनकी गर्दन रखकर एक गंडासे से काट दिया. यह बहुत विचलित कर देने वाला था. बहुत दिनों तक मुझे दुःस्वप्न आते थे उनकी मृत्यु को लेकर. एक ऐसा जिंदादिल आदमी जिससे हमलोगों ने इतनी लिबर्टी ली, इतने खुशदिल, खुशमिजाज़ इंसान को ऐसी मृत्यु मिली. यह दहला देने वाली घटना थी.
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आप ने जहां पर बात को खत्म किया उसके आगे की चीज किताब में है. आप ने लिखा है कि सत्ता को सबसे ज्यादा खतरा स्मृतियों से है और सत्ता अपनी जीवनरेखा लंबी करने के लिए सबसे पहले स्मृतियों को मिटाती है. आपने लिखा है कि सत्ता को अपनी उम्र बढ़ानी होती है तो वह स्मृतियों को मिटाने का करतब करती है लेकिन क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि स्मृतियाँ तो मिटाई ही जा रही हैं और उसके साथ में सत्ता और शक्ति की बनाई हुई एक कृत्रिम स्मृति हमारे जेहन में बैठा दी जा रही है तो इसमें से ज्यादा भयानक स्थिति कौन सी होगी ? किसी दिन हमारी आँखें खुलें और हमें ये महसूस हो कि हमारे पास हमारा कोई अतीत है ही नहीं या फिर यह कि एक अतीत है हमारे पास लेकिन वह सत्ता और शक्ति का गढ़ा हुआ कृत्रिम अतीत है. दोनों में से ज्यादा भयावह क्या होगा?
मुझे लगता है कि तीन स्तरों पर सत्ता स्मृतियों के प्रसंग में काम करती है. एक जो हमारी जीवंत स्मृतियाँ हैं, जो हमारी लोक स्मृतियाँ हैं जो हमें संबल देती हैं, जो हमारे इतिहास के जरिये हमको शक्ति देने वाली, बेहतर मनुष्य बनाने वाली, लड़ने की, संघर्ष करने की क्षमता देने वाली स्मृतियाँ हैं उनको नष्ट करती है. आज देखिये बहुत बड़े पैमाने पर ऐसा किया भी जा रहा है. और कई बार जब सत्ता इसमें कामयाब नहीं होती है शक्ति संरचना में तो उन स्मृतियों को डिस्टार्ट करती है उसका एक गलत पाठ प्रस्तुत करती है, तो वह भी किया जा रहा है और तीसरी तरफ होता है छद्म स्मृतियों का निर्माण करना. जो स्मृतियाँ नहीं हैं बल्कि वो एक तरह से मिथक हैं. तो मिथक को स्मृति बना देना, मिथक को इतिहास बना देना और उसको एक सत्य के रूप में प्रस्तुत करना, ये तीन तरफ से होता है. और ये दुर्भाग्यपूर्ण है.
पहले होता था कि कोई सत्ता एक समय में एक ही स्तर पर इस प्रकार का काम करती थी. वह या तो स्मृतियों को नष्ट करती थी, या डिस्टार्ट करती थी, या गढ़ती थी. आज जिस समय में हम हैं, हम देखते हैं कि ये तीनों जो सत्ता के औज़ार होते हैं स्मृति के मामले में, तीनों को एक साथ वो आजमा रही है .
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इस किताब में देवी प्रसाद त्रिपाठी पर आधारित एक अध्याय है. आपकी रचनाओं में एक खास किस्म की राजनीतिक वैचारिकता और समझ दिखती है और देवी प्रसाद त्रिपाठी घटनाओं के कच्चे माल के गोदाम सरीखे हैं. बहुत सारी संभावनाएं उनके चरित्र में हैं. आपकी राजनीतिक समझ में जाहिर है चीजों को, वक्त को देखने का अपना एक नजरिया तो है ही लेकिन क्या आपकी राजनीतिक समझ को डीपीटी के साहचर्य ने प्रभावित किया?
देखिये मुझे लगता है डीपीटी एक ऐसी शख्सियत थे जिनके साथ अगर ईश्वर नाम की सत्ता आप मानें तो उसने बहुत इन-जस्टिस किया. वे पैदा ही हुये तो उनके आँखों में पर्याप्त रोशनी नहीं थी. बाद में भी, कोई किताब होती थी तो वे नाक के पास ले जाकर पढ़ पाते थे. लेकिन दूसरी तरफ उनको विलक्षण स्मरणशक्ति मिली, और बहुत अच्छी वक्तृता. कई भाषाओं का ज्ञान था उन्हें, ये सब मैंने किताब में लिखा भी है. आपातकाल में वो जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे लेकिन जहां तक वैचारिकी का सवाल है तो मुझे लगता है एक समय था ऐसा. युवा दौर में जब क्रांति और विद्रोह को लेकर एक रूमानी ख़याल था तब मुझे लगता था कि एक ऐसा नायकत्व उनमें है. लेकिन उनमें वैचारिकी को लेकर विचलन था. बहुत कम समय में, इलाहाबाद में मैं एम.ए. कर रहा था, उसी समय उन्होंने सीपीएम छोड़ दी या हो सकता है किसी वजह से मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी ने उनसे अपना नाता तोड़ लिया. जो भी प्रसंग रहा हो उसको लेकर विवाद रहा. दो पक्ष थे, दोनों अपने-अपने ढंग से बात करते रहे थे. इसके बाद फिर वो चंद्रशेखर के साथ जुड़ गए. उनकी पदयात्रा में चले गए. लेकिन वहाँ से भी वो छोड़ दिये बहुत जल्दी. शायद दो-तीन महीने में ही वह राजीव गांधी के साथ चले गए. बाद में एनसीपी, शरद पवार की पार्टी, के बड़े नेता हो गए; वहीं से राज्यसभा के सदस्य हुए. तो मुझे लगता है कि उनकी वैचारिकी ने मुझे उतना प्रभावित नहीं किया लेकिन उनमें बाकी जो गुण थे, उनके व्यक्तित्व की जो विलक्षणताएँ थीं, मनुष्यता थी और जो मौलिकता थी उन सब चीजों ने ज्यादा आकर्षित किया.
वह बचपन से ही मेरे घर में, मेरे बड़े भाई के साथ पढ़ते थे, मेरे गाँव के थे. उनके पिता जी मेरे गाँव के प्रधान रहे. बाद में उनके भाई गाँव के प्रधान रहे. तो हमेशा एक बड़े भाई छोटे भाई जैसा ही रिश्ता रहा उनसे और उन्होंने भी स्नेह दिया. वह भी इलाहाबाद के पढ़े थे. तो इलाहाबाद में जो बड़े भाई छोटे भाई के बीच बे-तकल्लुफ़ी रहती है उनके साथ भी हो गयी थी. कभी-कभी उनको मैं कड़वी बात भी कह देता था, वे चुपचाप सुनते थे. कभी-कभी बिगड़ जाते थे. ये सब चलता रहता था. शुरुआत में वे हीरो की तरह थे, लेकिन वह वैचारिकी नहीं उनका व्यक्तित्व था. कम्युनिष्ट पार्टी से जुड़े थे. उनके संपर्क फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, फहमीदा रियाज, तमाम बड़े-बड़े नेताओं से थे; नंबूदरीपाद, ज्योति बसु से थे उनके संपर्क. तो वो सब चीजें आकर्षित करती थीं, लेकिन जब हम वैचारिकी को समझने लायक हुये तो वह रास्ता बदल चुके थे
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जी, आपने अभी बीच में इलाहाबाद का जिक्र किया तो जहां आपके लेखन की शुरुआत हुई. वहां के साहित्यिक परिवेश के सेंसर बोर्ड की निगरानी में आपका शुरुआती लेखक मंजा. उसके बाद वह स्थिति भी आई जो किसी भी लिखने वाले के लिए सबसे अपेक्षित स्थिति होती है जहां आपकी कहानियां प्रकाशित होती थीं और उन पर लगातार चर्चाएं होती थीं, बहुत-बहुत पाठ होते थे. यानी आप ने दोनों स्थितियां देखीं; एक संघर्ष का समय था जबकि दूसरा वह समय था जिसमें आपको बेशुमार स्नेह सम्मान मिल रहा है. उसके बाद बतौर संपादक आज जब आपको कोई रचना लौटनी होती है तब आप क्या महसूस करते हैं? अगर आपको किसी नए संभावनाशील लेखक की रचना को लौटाना है तब आप ज्यादा पस-ओ-पेश, तकलीफ महसूस करते हैं या फिर किसी नामचीन लेखक की किसी कृति को अस्वीकार करना होता है तब ऊहापोह ज्यादा होती है ?
जब रचनाएँ आती हैं तो किसी भी संपादक की ख़्वाहिश यही होगी कि वह बहुत उत्कृष्ट रचना निकले. हर संपादक इसी इच्छा से रचना के पास जाता है कि वह बेहतरीन साबित हो और उसे वो स्वीकार कर ले. लेकिन कई बार जब वो पढ़ता है तो उसे दिक्कतें दिखती हैं. बहुत बार रचना उसको अपने अनुकूल नहीं लगती हैं. कई बार पत्रिका की जरूरत के लिहाज से. लेकिन ये जरूर है कि एक नए लेखक का… जैसे मान लीजिए कि मनोहर श्याम जोशी से मैंने कहा कि आप कोई रचना अपनी दीजिए और उन्होंने ‘लखनऊ मेरा लखनऊ’ लिखकर के दिया. या नामवर जी ने दिया या ममता जी ने, ममता जी की कई चीजें मेरे यहाँ छपीं. ये बहुत अच्छी रचनाएँ थीं लेकिन इनको हासिल करके उतना उत्साह नहीं होता था क्योंकि भाई हम तो मान के चलते थे कि ये तो अच्छी होंगी ही. अब अच्छी की जगह अच्छी निकल गयी या बहुत अच्छी निकल गयी. लेकिन हम मानकर चले थे कि इतने बड़े लेखकों से अनुरोध कर रहे हैं तो आएगी तो ठीक ही होगी. अपरंपार खुशी तो एक नए रचनाकार की सुंदर रचना पाकर होती है.
तद्भव के संपादक का जो मेरा जीवन है उसमें इससे ज्यादा प्रसन्नता मुझे कभी नहीं महसूस होती है जब किसी नए लेखक की कोई बेहतरीन चीज आ जाती है. आपको बताऊँ कि एक बार शशिभूषण द्विवेदी की एक कहानी मेरे पास आई, मैंने पढ़ी. काफी अच्छी थी किन्तु उसमें न तो लेखक का पता था, न उसमें फोन नंबर था, मुझे छापना था. मैंने तीन दिन तक मेहनत की, मैं छाप भी लेता भेज देता बाद में लेकिन मुझे लगा कि मैं उससे कहूँ कि इतनी अच्छी लिखी है. खुद आपकी (नीलाक्षी सिंह) जब मेरे पास कहानी पहली बार आई ‘एक था बुझावन’ तो मैंने उसे पढ़ा और चमत्कृत हुआ मैं. आपको याद होगा, शायद बहुत पुरानी बात हो गयी, मैंने पत्र भी लिखा था तो ऐसे बहुत लेखक हैं. जैसे जितेंद्र गुप्त एक आलोचक हैं उनका एक लेख मेरे पास आया. उसमें भी उनका कोई गाँव का पता लिखा हुआ था. कोई फोन नंबर नहीं था जबकि मैं उतावला हो रहा था कि जल्दी से बोल दूँ कि भाई इतना अच्छा लिखकर दिया है. लेकिन कई बार बल्कि कहूँ कि ज़्यादातर बार रचनाएँ प्रभावित नहीं करतीं. हो सकता है मेरा निर्णय गलत हो, मेरी अपनी समझ की सीमा हो लेकिन विश्वास करिए कि उसमें कोई अवांतर चीज बीच में नहीं आती.
पहले तो मैं स्वीकार करने न कर पाने की वजह भी जवाब में लिखता था कि इस वजह से अच्छी लगी, इस वजह से खराब लगी, या नहीं छप सकती है फिर मैंने देखा कि बड़े लेखक तो नहीं लेकिन नए लेखक उसमें भिड़ जाते थे. जैसे आपको एक अनुभव बताऊँ अपना; एक लेखिका हैं, युवा लेखिका हैं. उन्होंने कई बार कहानी भेजी. हर बार उनकी कहानी दो तिहाई बहुत सुंदर होती और मैं चाहता था दो तिहाई पढ़ते हुये कि बस अब निकल जाए ये कहानी, इसमें कोई समस्या न आए और इसे तद्भव के पन्नों पर छापा जाए लेकिन जब नहीं निकलती थी तो मैं लिख देता था. कुछ दिन बाद उनका फोन आया. उन्होंने मुझसे कहा कि आपकी मैंने एक कहानी पढ़ी, हमने कहा कि बहुत अच्छी बात है, आपने पढ़ी तो बहुत सुंदर बात है. जैसा कि होता है मैंने पूछा कि आपको कैसी लगी कहानी ? उन्होंने कहा कि बड़ी निकृष्ट कहानी आपने लिखी है. हमने कहा कि चलिये आपकी प्रतिक्रिया है. इस पर उन्होंने कहा जब आप इतनी निकृष्ट लिखते हैं तो मेरी क्यों आप ने नहीं छापी? जब आपकी छप सकती है तो मेरी क्यों नहीं छापी आपने? मैंने कहा मैं निकृष्ट लिखने के लिए अभिशप्त हूँ तो फिर निकृष्ट छापने के लिए भी अभिशप्त क्यों हो जाऊँ? दो गुना अपराध क्यों किया जाए? सवाल नए लेखकों की रचनाएँ लौटाने का नहीं है. आप ये देखिये नए लेखकों को कितना ज्यादा तद्भव में छापा है हमने, क्योंकि अस्वीकार की उस पीड़ा को मैं खुद भुगत चुका हूँ. जैसे अगर मेरा माँ-पिता वाला संस्मरण आपको याद आ रहा होगा तो देखिये कि प्रारम्भ में जब मैं रचनाएँ भेजता था लिफाफे में, तब आजकल की तरह टाइप की व्यवस्था नहीं हुआ करती थी, हाथ से लिखकर मैं भेजता था और साथ में एक लिफाफा भी रखता था कि लौटा दें, जिससे इसे और कहीं भेज देंगे. तो मैं भेजता था और लौट आती थीं रचनाएँ.
लगभग सात आठ वर्ष लौटी होंगी मेरी रचनाएँ इसी तरह. मेरी माँ कहती भी थीं कि इतना आँख फोड़कर लिखते रहते हो, उतारकर फिर लिखते हो, फिर उतारते हो और देखो तुम्हारी लौट आती है छपती ही नहीं है. तो एक संघर्ष होता है और मेरा बहुत सौभाग्य रहा है कि जितने बेहतरीन लेखक हैं युवा पीढ़ी के, जो आए अपने-अपने वक्त में मेरे बाद, उन लोगों का मंच हमारी पत्रिका रही. आज भी प्रतीक्षा रहती है, कोई एक ऐसा जिसका नाम भी मैं न जानता होऊँ, कोई तूफानी, जबरदस्त कविता, कहानी लिखकर ले आए और आते भी हैं लोग जैसे अभी कुछ नए कवि हमारे पास आए, कुछ नए आलोचक आते हैं, तो हमें बड़ी खुशी होती है. बड़े लेखक आपके यहाँ छपेंगे, उनकी अच्छी चीज छपेगी तो खैर, नाम तो पत्रिका का होता ही है, लेकिन एक वो श्रेय कि इसके निर्माण में हमारी पत्रिका की भूमिका रही, ये अपना सुख होता है . संक्षेप में यह कि कोई संपादक खुशी-खुशी नहीं वापस करता है.
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अब मैं ये जानना चाहूंगी कि एक लेखक के लिए अस्वीकार और कुछ हद तक अभाव भी, कितने जरूरी रसायन हैं?
मुझे लगता है अभाव एक अलग तरह की चीज है. अभाव का मतलब एक अनुभव हो सकता है, अभाव का अनुभव भी रचना का निर्माण कर सकता है और अभाव न हो तो ऐसे में जो अनुभव होगा, उसके बारे में देखने की चीज यह होगी कि उसे रचना में रूपांतरित करने के वक्त लेखक अनुभव की तलहटी तक पहुँच पाता है या नहीं पहुँच पाता है. अच्छा लिखने के लिए अनुभव से इतर भी कई तत्व चाहिए होते हैं. उसमें कल्पनाशीलता है कि नहीं है, उसमें व्याप्ति है, उसमें वैचारिकता है कि नहीं है, उसका गद्य कैसा है? किन तंतुओं से निर्मित हुआ है वह? तो अच्छा लिखने के लिए कई रसायनों का मेल चाहिए होता है, लेकिन आपके प्रश्न का जो पहला हिस्सा है अस्वीकृति का. तो अस्वीकृति जाहिर है कि अच्छी तो नहीं लगती लेकिन अस्वीकृति सिखाती है. जैसे एक अपना ही करतब मैं आपको बताऊँ कि जब मैं कम उम्र में ही लिखने लगा था, तो मैंने कहीं पढ़ा कि अच्छी कहानी वह है जिसमें बोलचाल के मुहावरों का प्रयोग किया गया हो. तब एक पुस्तक आती थी ‘भाषा-भास्कर’ उसमें जितने लोकप्रिय मुहावरे होते थे दिये रहते थे, कहावतें दी रहती थीं. तो मैंने वहीं से उठाकर के अपनी कहानी में धड़ाधड़ मुहावरे सब उसमें डाल दिये. भेजा भी मैंने बड़े गर्व से कि अब मैं भी प्रेमचंद की तरह मुहावरेदार और कहावतों वाली कहानी लिखने लगा हूँ. भेजा मैंने और वापस आ गयी कहानी. तो अगर मान लीजिए वह स्वीकार हो जाती अगर मेरी गलतियों पर कोई टिप्पणी न करता तो? तो अस्वीकृति सिखाती है. अगर हममें सीखने की ललक है.
और कोई हमारी कमी बताता है तो उससे भी हम सीखते हैं. जैसे हम अवध के लोग हैं; अवध में कई बार होता है कि स्त्रीलिंग और पुल्लिंग का उतना सही प्रयोग नहीं कर पाते. तो एकबार मैंने साक्षात्कार पत्रिका के तत्कालीन संपादक सोमदत्त जी को अपनी कहानी भेजी, ‘हाकिमकथा’. उन्हें भेजने के एक हफ्ते के भीतर आया मोटा सा लिफाफा, हमने कहा वापस, अब तो वापस हो गयी. लेकिन जब मैंने खोला तो देखा कि उन्होंने बड़ी तारीफ कहानी की की थी और कहा था कि देखो ये तुम्हारी गलतियाँ हैं, भाषिक और अवध के लोगों से ये गलतियाँ होती रहती हैं. मैं चाहता, खुद ठीक कर लेता लेकिन मैं निशान लगाकर भेज रहा हूँ इसको तुम करोगे तो समझोगे कि इसमें क्या गलती है. तो गलतियाँ कोई बताता है, कोई कमी बताता है, अस्वीकार है तो अच्छा लगता है लेकिन यदि आपका अस्वीकार किसी दुरभिसंधि की वजह से हो रहा है, किसी संपादक की अहमन्यता की वजह से हो रहा है, किसी आलोचक के अहंकार से आपका अस्वीकार हो रहा है तो वह पीड़ादायक होता है.
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इस किताब में मुद्रा जी अलग-अलग मुद्राओं में उपस्थित हैं. उनके तरह-तरह के शेड्स हैं. जैसे कि एक घटना है जिसमें उनके पशु प्रेम का जिक्र है कि एक बार उन्होंने बंदर पाला. फिर किसी राहगीर ने उनके बंदर को बंदर कह दिया तो वह इस बात पर उखड़ गए. इसके अलावा मुद्रा जी की सुंदर हस्तलिपि से लेकर उनकी नाराजगी की जो क्षणभंगुरता, मरीज मुद्रा जी के अस्पताल से फरार हो जाने के प्रसंग का भी बयान है और आपने लिखा है कि अस्पताल मुद्रा जी का किला है वहाँ उनका कोई बिगाड़ नहीं हो सकता. उनकी जिजीविषा, फिर उनकी यह अनोखी चाह कि उनपर कोई शारीरिक हमला हो जाये ताकि वे विपक्ष की धुरी बन जाएँ… आदि-आदि मुद्रा जी की तमाम सारी मुद्राएँ हैं. साथ में श्रीलाल जी पर पूरा एक अध्याय है. इसे पढ़कर श्रीलाल जी का जो चरित्र बनता है वह बहुत कुछ ‘राग दरबारी’ की भाषा की तरह है, जो आपको कदम-कदम पर चौंकाता चले. वे बिल्कुल अतिवाद को छू कर दूसरे पल में आमफहम बन जाते हैं. लेकिन तमाम दर्ज हो चुकी स्मृतियों के बीच में एक चलता फिरता संस्मरण है जिसे आप ने ‘एक सतत एंग्री मैन’ नाम दिया है जो कि वीरेंद्र यादव जी पर है. मैं ये कहना चाहूंगी कि जो लोग गुजर गए और जो लोग अभी हमारे साथ चल रहे हैं उन दोनों पर लिखने में आपको क्या अंतर लगता है ? उम्र की गिनती में जो लोग हमसे पिछली पीढ़ी के हैं उनपर लिखना और जो उम्र में कहीं हमारे आसपास हैं; समकालीन हैं, उन पर लिखने में क्या फर्क है ?
जब मैं इस प्रकार का लेखन करता हूँ तो कहूँगा कि कोई इस रूप में अलगाकर मैंने लिखने कोशिश नहीं की, मेरी चेतना में यह मौजूद नहीं रहता है कि जिस शख्स पर लिख रहा हूँ वह किस पीढ़ी का है या कौन है. दरअसल मेरे पास अपने कुछ अनुभव होते हैं, कुछ यादें होती हैं और किरदार की तरह वह शख्स होता है. जैसे जब हम कहानी लिखते हैं या उपन्यास लिखते हैं तो हमारे सामने किरदार हैं जिनको हमें डिकोड करना है. हमें डिस्कवर भी करना है, डिकोड भी करना है. ये कोई मायने नहीं रखता है कि संस्मरण जिस पर लिखना है वह मेरा समकालीन है या मेरा अग्रज है. जैसे कालिया जी के बारे में लिखा, श्रीलाल जी के बारे में लिखा, इतने वरिष्ठ लेकिन उनको भी आपने देखा होगा कि लगभग जितना डिकोड किया जा सकता है, जितना खोला जा सकता है, जितना उनके बारे में मुक्त होकर कहा जा सकता है, कहा. उतनी ही बे-तकल्लुफ़ी से वीरेंद्र जी के बारे में भी है, उतनी ही बे-तकल्लुफ़ी से मुद्रा जी के बारे में है.
मुझे लगता है कि कई बार तो ज्यादा लिबर्टी मुद्रा जी के बारे में ले ली गयी है या डीपीटी के बारे में ले ली गयी है. मेरे तईं एक अनुभव है, अनुभव एक दृश्य के रूप में है. जैसे मैं श्रीलाल जी के अंतिम दौर को याद करता हूँ जब मृत्युशय्या पर पड़े हुये थे वह; या कालिया जी के यहाँ जब मैं दूसरी बार गया और तमाम लेखक बैठे हुये थे या कुंडी खटखटाने के जिस प्रसंग का आपने अभी जिक्र किया था तो मेरे सामने वो एक दृश्य होता है. जैसे एक उपन्यास मैं लिखूंगा या कहानी लिखता हूँ तो उसमें भी दृश्यों को मुझे जीवित करना होता है वैसे ही संस्मरण में भी जीवित करना पड़ता है दृश्यों को.
दरअसल स्मृतियाँ और अनुभव सारे निष्क्रिय होते हैं. जब एक लेखक के हाथ में वो आते हैं तो लेखक उनमें प्राण फूंकता है, उन्हें जीवित करता है. यानी पहले वह फोटो, तस्वीर की तरह होते हैं. उनको सचल एक लेखक बनाता है. हमेशा मेरे लिए यही होता है लेखन, ऐसा नहीं है कि कोई उसमें उम्र, कोई उपस्थिति दिमाग को, चेतना को नियंत्रित करती रहती है. कालिया जी पर लिखा तो सबकुछ जैसे जीवित हो. ये ठीक है कि उसका टेन्स बदल जाएगा. यह महज इतना ही होता है कि था की जगह कहीं है हो जाएगा, है की जगह था हो जाएगा. मसलन डीपीटी पर जो मैंने लिखा वो जीवित थे तब लिखा गया और उनको सुनाया भी मैंने उसे और मेरे से ज्यादा वह लोगों को सुनाये. सुनाये क्या पढ़वाए, कई-कई बार सुना. छपने से पहले ही, बड़े खुश थे वह, उन्होंने कहा कि एक किताब बनेगी, उसका शीर्षक तुम्हारे इसी आलेख का शीर्षक रहेगा. बड़ी योजनाएँ थीं. वो किताब एक बन भी रही है.
अब शायद आ गयी है, या आने वाली है. तो उन्होंने कहा कि ऐसा करेंगे. लेकिन उसी बीच उनका निधन हो गया. अब मेरे सामने ये समस्या थी कि निधन हो गया, अब क्या करें, सारी बातें हैं के रूप में थीं जो अचानक थीं में बदल गयीं तो मैंने एक पुनश्च लिखकर के और उनकी मृत्यु का वर्णन जो था उससे जितना वाकिफ था लिख दिया, लेकिन सारे टेन्स उसमें उसी प्रकार बने रहे. आपने पढ़ रखा है, देखा ही होगा कि सारी बातें वैसी की वैसी हैं जैसे अपने मूल रूप में, उनके जीवित रहते लिखी गयी थीं. लेकिन अगर है के स्थान पर था भी हो जाता तो क्या फर्क था? मेरा सरोकार है कि मुझे लगता है कुछ दृश्य हैं, कुछ यादें हैं, भावनाएं हैं, उन सबको दर्ज करना, उन सबको एक रिकार्ड में लाना और रचना है.
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किताब में बेरोजगारी और आपकी छोटी-छोटी सांस वाली छिटपुट रोजगारी के रेशे हैं. साथ ही संघर्ष और मुफ़लिसी के दिल खुश कर देने वाले बयान हैं. किस्मती और कम किस्मती के घात-प्रतिघात हैं और उस समय के शीर्ष साहित्यकारों की सोहबत का असर है. इन तमाम चीजों के साथ में शनि की छठे घर में घुसपैठ का जिक्र भी है. उस भविष्यवाणी; उस वाकये को मैं चाहूंगी कि आप यहाँ साझा करें हम लोगों के साथ.
दरअसल उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान में मुझे वहाँ की एक पत्रिका थी उसके सम्पादन के लिए नियुक्त किया गया. उस तजुर्बे में जो बाद का दौर था उसके बारे में मैं बताना चाहता हूँ. उस संस्थान का अध्यक्ष बनकर परिपूर्णानन्द वर्मा जी आए, वे उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री सम्पूर्णानन्द जी के भाई थे. परिपूर्णानन्द जी प्रतीकशास्त्र के विद्वान थे. लेकिन यह भी स्थिति थी कि मुझसे उनमें लगभग साठ साल का फासला रहा होगा. शायद 85-90 साल की उम्र में वे वहाँ के अध्यक्ष हुये थे. आते ही फरमान जारी किया कि पत्रिका सीधे उनकी निगरानी में निकलेगी. अब एक तो उम्र का इतना गैप था. मैं वर्तमान साहित्य का सम्पादन कर चुका था, सबलोग बड़ी तारीफ करते थे. अब वह आए, उन्होंने कहा क्या वाहियात काम तुम करते हो. वो बड़ा खराब अनुभव था. एक तरफ लेखन में कह सकते हैं कि मुझे अच्छी सफलताएँ मिल रही थीं. मेरा कहानी संग्रह मुक्ति प्रकाशित होकर आ गया था, चिट्ठी कहानी छपी थी, ऊसर छपी; सबलोग प्रशंसा कर रहे थे. आते थे मेरे पास मिलने बड़े-बड़े लेखक लेकिन परिपूर्णानन्द जी हमेशा कहते रहते थे क्या तुम करते रहते हो? इसमें एक स्तम्भ शुरू करो कि स्वस्थ कैसे रहें? तुलसी के पत्ते के फायदे क्या हैं? और एक प्रतियोगिता कराओ- लड़कियों को नौकरी करनी चाहिए या नहीं?
अब उनसे मेरी कोई पटरी नहीं बैठती थी. वो बोलते रहते थे. अपने को कहते थे कि वे ज्योतिष और तंत्र विद्या के पंडित हैं. संस्थान की साहित्यिक पत्रिका में उन्होंने ज्योतिष का कॉलम शुरू कराया. हमने बचाने के लिए कहा कि आप ज्योतिष का क्यों शुरू कर रहे हैं? ज्योतिष तो अखबारों में आता ही रहता है. सारे अखबार राशिफल देते ही हैं, आप क्यों दे रहे हैं ? तो वह बोले कि वो गलत देते हैं. वह केवल राशि से देते हैं, मैं राशि और लग्न दोनों को मिलाकर के राशिफल बनाऊँगा. मैं बहुत निराश हो गया और दुखी रहता था. खैर, उसी समय एक अवसर मिला मैंने वहाँ से इस्तीफा दे दिया. मुझे काम मिल गया था लेकिन वह रिपोर्टिंग का काम था.
यूपी का मैं ब्यूरो प्रमुख था. ‘समय सूत्रधार’ निकली थी जिसमें असद जैदी, मुकेश कुमार तमाम लोग थे. बड़े महत्वपूर्ण लोग उसमें काम कर रहे थे. बद्रीनाथ तिवारी जी उसके एडिटर थे. मेरे इस्तीफा देने के बाद एक दिन परिपूर्णानन्द जी ने मुझे बुलाया. मैं गया. उन्होंने कहा तुम्हारा पत्रा है क्या? कुंडली है तुम्हारे पास? मैंने कहा मेरे पास तो कुंडली वगैरा है नहीं. उन्होंने कहा अच्छा जन्म समय तुम्हें याद है अपना? मैंने कहा याद है. अब वो पता नहीं पाँच-सात मिनट में कैसे सब खींच-खाँचकर खाना वगैरह बना करके बोले, अब सुनो अपना भविष्य. उन्होंने कहा तुमने बहुत अच्छा किया. तुम्हारे लिए ये था ही नहीं. तुम्हें जाना ही जाना था यहाँ से. हमने कहा अरे आपने निकाला नहीं बाकी जाने का तो पूरा आप ने इंतजाम कर दिया था. फिर उन्होंने कहा देखो तुम्हारे छठे घर में शनि है. मैंने कहा छठे घर में शनि का क्या मतलब होता है? कहा, ये शत्रु बहुत बनाता है. शत्रु बनाता है और फिर उसका फन कुचल देता है.
खैर उनकी बात आई-गयी हो गयी. लेकिन अक्स में ‘छठे घर में शनि’ नाम का जो चैप्टर है उसका शीर्षक उन्हीं के कथन से बना है. हालांकि मैं किसी को अपना शत्रु मानता ही नहीं. सबसे प्रेम रखता हूँ, सबको अपनाता हूँ लेकिन अगर वाकई शक्ति है छठे घर के शनि की रिहाइश में तो जो हमारे समाज के शत्रु हैं. जिनको वाकई मैं मनुष्यता का शत्रु मानता हूँ उनका फन कुचल जाये तो इससे बेहतर क्या हो सकता है?
(अखिलेश और नीलाक्षी सिंह की यह बातचीत ‘कलिंग लिटरेचर फेस्टिवल’ के सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर 21 अगस्त, 2022 को सम्पन्न हुई थी. इसका संपादित अंश प्रस्तुत कर रहें हैं जगन्नाथ दुबे.)
![]() जगन्नाथ दुबे |
हम बात अक्षरशः मेरे पिता पर भी लागू होती है:
“माँ हमलोग के बीच एक पुल की तरह थीं, सेतु की तरह. यानी कभी पिता को कोई बात कहनी होती, यही कहना होता कि मैं ठीक से पढ़ूँ-लिखूँ तो वह भी सीधे नहीं कहते थे माँ के मार्फत ही कहते थे. हम बच्चों को भी कोई सामान चाहिए होता था, कोई जरूरत होती थी तो माँ के मार्फत ही कहते थे.”
बहुत दिनों बाद अच्छी बातचीत पढ़ने को मिली….
बहुत ही सुन्दर!! लंबी बातचीत पर सार्थक।
अखिलेश की रचना प्रक्रिया, कहानियां और उनके जीवन को समझने में यह किताब मददगार साबित हो सकती है। भैरव प्रसाद गुप्त और मुद्रा जी के बारे में बड़ी दिलचस्प बातें बताई हैं लेखक ने। अखिलेश के डिटेल्स उनके संस्मरण को भी रोचक बनाते हैं उनकी कहानियों की तरह। मैं तो यही कहूंगा कि उन्होंने एक नई प्रविधि तैयार की है संस्मरण विधा के लिए। समालोचन पर इसे पढना और भी दमदार लगा।
सार्थक संवाद।अखिलेश जी ने बहुत ईमानदारी से अपनी बातें रखी हैं।’अक्स’ भी साहित्य में अपना एक मुकाम हासिल करे,यही शुभकामना है।
बहुत सुंदर साक्षात्कार। यह किताब पढ़ने को उत्सुक हूँ। नीलाक्षी जी के प्रश्न भी बहुत गहरे व अनौपचारिक हैं जो संस्मरणों को समझने में सहायक होंगे।
अखिलेश मेरे अतिप्रिय कथाकार हैं।यह बातचीत बहुत अच्छी लगी।जल्दी ही किताब मंगा कर पढ़ता हूं।
कई बार ऐसा होता है कि समालोचन पर आलेख या साक्षात्कार पढ़कर एकदम चुप की स्थिति में बने रहना मुझे आनन्ददायक लगता है। मैं खुद को टिप्पणी लिखने में अक्षम पाती हूँ। लगता है कि मैं कितनी पीछे हूँ। कितनी देर में यहाँ तक पहुँची हूँ! और यह स्वीकारने में मुझे कोई हिचक या संकोच नहीं लगता। इस इंटरव्यू के चौदहों प्रश्नों और उनके उत्तरों से नए लेखकों व पाठकों को सीख मिलती है। इसके लिए समालोचन पत्रिका को बहुत आभार
पूरा interview पढ़ गया …इसलिये नही की नीलाक्षी प्रिय लेखिका हैं और अखिलेश प्रिय लेखक और प्रिय मित्र .लेकिन इतने लंबे interview ke एक एक शब्द से गुज़र जाने का सबब भी यही बना .क्या और कैसे पूछना है और उसका एक एक उत्तर कैसे स्मृतियों की परतों को फिर से खोलता है …और उन्हे नया विस्तार देता है …ये संभव हुआ दोनो की रचनात्माक जगलबन्दी से .दोनो तरफ से कहीं भी बौद्धिकता का अनावश्यक दबाव या प्रदर्शन नही हुआ .पूरे interview मे रवानगी है …कथा का आस्वाद हैं.बधाई .
बहुत अच्छा interview है …मुझे लगता है इस तरह के लम्बे साक्षात्कारों की कोई शृंखला चल पाए तो कितना अच्छा हो ! इसे पढ़कर मन में विचार आया कि Late fifties से लेकर sixties और seventies तक में हमारी भाषा के जितने भी महत्वपूर्ण लेखक आलोचक कवि गद्यकार सम्पादक हैं – उन सभी के काम पर लम्बे साक्षात्कारों की एक शृंखला तैयार की जा सकती है …की जानी चाहिए . यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ होगा.
लेखकों के संस्मरणों का जानना रुचिकर होता है …! इस बातचीत में दो बड़े लेखक एक सादृश्य बुनते हैं। नीलाक्षी जी के प्रश्न बेबाकी से भरे हैं अखिलेश जी का कहना,बताना,उद्रेक सब रोमांचित करता है। सफर पर निकले लेखक की स्मृतियां, विश्राम के किरदार कुहासे को हटाते चलते हैं।
इस किताब का आना आवश्यक था।