अरुणाभ सौरभ मैथिली और हिंदी दोनों में सक्रिय हैं, और दोनों ही भाषाओँ के साहित्य में रेखांकित हैं. यह संधि साहित्य के लिए उपजाऊ है. ‘कथकही’ मिथिलांचल में किस्सागो की स्त्री-परम्परा है. पहली कविता ऐसी परम्परा के विलुप्त होने और जब वह थी तब उसकी विडम्बना को अपने भावक्षेत्र में रखती है. शेष कविताएँ मुंबई को एक युवा की नजर से देखती हैं उसकी अनेक गतिशील छबियां यहाँ हैं.
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कथकही
वह किसी भूख से ऊपर उठी थी
जठराग्नि से
कितने मौसम बीते
घड़ियाँ सुहानी बीती
काजल से कारी रात बीती
बादल से भीगी बात बीती
कितने सुख बीते, उन्माद बीते
राग-मल्हार बीते, फूल हरसिंगार बीते
कितनी लड़कियाँ स्त्री बनीं
कितनी सुहागिनें विधवा हुईं
गाँव की
उसकी कथा तब भी चलती रही
उस कथा की
महकीं दिशाओं में
चाँद चकोरी की
परियों की कहानी थी
वह न दादी थी न नानी
वह कथकही थी गाँव की
जो कथा सुनाती थी
घूम-घूमकर दूर-देहात में
तब टेलीविज़न में सास-बहू नहीं थी
तब वही सुनाती थी गौरी-शंकर ब्याह के किस्से
वही कहती थी राधा-कृष्ण की केलिक्रिया
और नववधुएँ लीन होकर सुनती थी
सिर्फ़ दो पल्ला साड़ी, दो साया और दो ब्लाउज़ कटपीस
सौंफ-सुपाड़ी,नारियल तेल, कह-कह सिंदूर
भरपेट भोजन कई साँझ तक के लोभ में
वह कथाएँ सुनाती थी, तो
हम सब उठ कर पानी पीने भी नहीं जाते
वह पूरी कथा को बेबाक और विश्वसनीय हो कहती
क्या-क्या हुआ था पुष्पवाटिका में ?
जो बातें रामचरितमानस में नहीं थी
जल-भुन जाते उसके ज्ञान से
बड़े-बड़े तिलकधारी, त्रिपुंडधारी, शिखा-सूत्रधारी पंडित-गण
पर उसका कुछ नहीं बिगड़ा,
कथाएँ चलती रहीं अनवरत
पर कथा से पहले
उसने भी महसूस किया था
महुए की टप-टप से अंग-अंग में घूमता आलस्य
बेला-चमेली-चम्पा की महक में
वह भी कभी उन्मादित हुई थी
गजरे की महक से
कई रातों में सिहरती थी
काजर सी करियाई रात में
अपने नितांत निजी क्षण में
उसके भी अंगों को किसी ने बड़े प्यार से
सहलाया था
हौले-हौले होने वाली चुंबन की
सिहरन में वह भी कभी
अलमस्त होती थी
अपने साथी संग उसने भी बिताए
सुख के कई दिन प्यार की रात
कई मास
रोहिणी,स्वाति
और आर्द्रा नक्षत्र
उसने कभी मुँह नहीं देखा था स्कूल का
कोई भी किताब नहीं पढ़ी थी वह
पर विद्यापति पदावली के गीत जब सुमधुर कंठ से गाती
पिया मोर बालक हम तरुणी गे…..’
तो शांत हो जाते सभी
कुछ पल के लिए लगता कि
हमें स्कूल तो नहीं जाना चाहिए
पर हम भी जैसे-तैसे स्कूल जाते रहे
उसकी कथाएँ चलती रही
चलती रहीं
कहते हैं;कि उसे
कथा से पेट भर भात
नहीं ही मिला कभी
अभाव से बुनीं हुई कथा
अभाव में ही बनकर
पूरी भी हो गई
गाँव में कई सालों से
बहुतों कुवारियां सुहागिन बनीं
पर गाँव में फिर कोई नहीं बनीं
कथकही…
मुंबई होना देश होना है
१.
यात्रा जो मुंबई के लिए होती है
इस सफर में
कुछ हिन्दू हैं
कुछ मुसलमान हैं
कुछ किस्से हैं
उनकी कहानियाँ हैं
कई हिस्से हैं
ज़िंदगी के
कई पेड़
कुछ में फूल
कई झाड़-झंखाड़
हरी घास और बंजर ज़मीन है
कई तालाब
कुछ में पानी
कई सपने
कई अरमान
और नसीब अपना-अपना है
२.
मनुष्यों के शब्द-चित्र
कोई कॉलर चढ़ा के
कोई फटी जीन्स में
कोई चमचमाती घड़ी में
कोई लुंगी-गंजी-गमछा में
कोई क्रीज़दार पैंट में
कोई टोपी में
कुर्ता-पाजामा में
कोई टीका में
धोती-कुर्ता में
इरादे सबके नेक हैं
मत अनेक हैं
मंज़िल एक है
किसी को सुख किसी और को चैन है
ये मुंबई जानेवाली ट्रेन है
कई वादे हैं
जिसको किसी ने भूला है
किसी को याद है
सफ़र में कई धूल हैं -फूल हैं
ट्रेन की सीटी, लोगों की चिल्ल-पों पर
भारी पड़ती है-छूक-छुक,कू-कू
कू-कू,,छुक-छुक
पानी कम,चाय गरम है,चना मसाला है
मूँगफली बादाम है
पकौड़ी,आलू-चाट,ठंढा,लस्सी,फ्रूटी है,
ब्रेड कटलेट/आमलेट है
अलग-अलग रेट है
कवि आउट ऑफ डेट है
३.
उनींदी में कविता
आधी रात
रेलगाड़ी की आवाज़ में
तीन-दिन
तीन-रात
कसक सन्नाटा और
अधनींदी को दबाकर
सीने के किसी कोने में
सपनों को चस्पा-चस्पा
रेज़ा-रेज़ा वक़्त के साथ
पहर बीतने का इंतज़ार
अधजगी रात में
उनींदी डूबी आँखें
थकान को भूलकर
कविता पैदा करती है.
४.
यह सिर्फ़ मायानगरी नहीं है मेरी जान
सिने तारिकाओं की मोहक हँसी
चमचमाकर जब देश में फैलती है
दलाल स्ट्रीट से निकलकर आता है
देश का भाग्यफल
मायाबी नियंता समूचे देश को
अपनी मुट्ठियों में क़ैद करना चाहता है
अपनी लपलपाती जीभ से वो
चाटने को आतुर है
समूचा देश………
डरावनी,दहकती लाल-लाल आँखों से
निरंतर माया की लपटें फेंककर
भष्म करना चाहता है-देश
कि मायाबियों के डर के मारे ही
मुंबई को मायानगरी कहते हैं-लोग
दिल्ली कल क्या करेगी
मुंबई इस पर आज ही विचार कर लेती है
उस विचार को हक़ीक़त बनाने के लिए
लाखों की भीड़
लोकल ट्रेन में हुजूम बनाकर चल देते हैं
तब जबकि समूचा देश सोया रहता है
हड़बड़ाकर जाग जाती है-मुंबई
गणपति बप्पा……मोरया……..
पर मुंबई
सिर्फ़ बांद्रा,जुहू,वर्ली में नहीं
कामकाज की तलाश में
भागते लोगों के जूतों में
जागती है
मयाबी नियंताओं की
बड़ी-बड़ी ईमारतों में नहीं
कसमसाती है-मुंबई
दिन भर की हाड़-पंजर तोडनेवाली
थकान के बाद
झुग्गियों में ऊँघती रात के
खर्राटे को निकालकर
कसकते दर्द का भी नाम मुंबई है
सार्वजनिक नल में पानी भरने के लिए लगी
लम्बी लाइन में होने वाली गाली-गलौज की
भाषा का भी नाम-मुंबई है
समुंदर किनारे सिंकते भुट्टे का स्वाद
हवा मिठाई का स्वाद
महालक्ष्मी में प्रवेश करने का द्वार
और ऐसा ही सबकुछ-मुंबई है
क्योंकि मुंबई होना ठाकरे होना नहीं है
अंबानी और टाटा-बिड़ला होना नहीं है
मैं तो कहता हूँ;
मुंबई सबको देखनी चाहिए
क्योंकि जितनी दिखायी जाती है
सिल्वर स्क्रीन पर वैसी ही नहीं है मुंबई
उससे बहुत-बहुत आगे
जिसे कोई दिखा ही नहीं सकता
और उससे आगे आप देख ही नहीं सकते
घिन के मारे,शर्म के मारे,डर के मारे,
गर्व के मारे,शान के मारे,ताकत के मारे
यह सिर्फ़ मायानगरी नहीं है मेरी जान
मुंबई तो रोज़मर्रा है,
हस्बेमामूल है,
रोज़नामचा में-
होड़म होड़, जोड़-तोड़, भागम-भाग होना है
क्योंकि, मुंबई होना देश होना है…
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अरुणाभ सौरभ (9 फरवरी,1985,चैनपुर,सहरसा(बिहार))
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम.ए,जामिया मिल्लिया इस्लामिया नई दिल्ली से बी.एड, ‘हिन्दी की लम्बी कविताओं का समाजशास्त्रीय अध्ययन’ विषय पर शोध हेतु पंजीकृत,
हिन्दी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से कवितायें प्रकाशित साथ ही समीक्षाएँ और आलेख भी प्रकाशित मातृभाषा मैथिली में भी लेखन.
मैथिली कवि तारानन्द वियोगी, रामलोचन ठाकुर की कविताओं का हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित. असमिया कवि विजय शंकर बर्मन की कविताओं का और असमिया कथाकार सौरभ कुमार चालीहा की कहानी का हिन्दी में अनुवाद.
युवा संवाद (मासिक)दिल्ली के कविता केन्द्रित अंक ‘शोषण के विरुद्ध कविता’ अंक का अतिथि सम्पादन, मैथिली पत्रिका ‘नवतुरिया’ का सम्पादन.
कई नाटकों में अभिनय एवं निर्देशन.
मैथिली कविता संग्रह ‘एतबे टा नहि’ पर साहित्य अकादेमी का युवा पुरस्कार एवं दिन बनने के क्रम में (कविता-संग्रह) पर भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार आदि
साढ़े तीन वर्ष तक गुवाहाटी में अध्यापन के पश्चात संप्रति दिल्ली में हिन्दी अध्यापन एवं स्वतंत्र लेखन
संपर्क: j-23-A,जैतपुर एक्स.पार्ट-1,अर्पण विहार,बदरपुर (नई दिल्ली)110044