फोटो द्वारा अरुण देव |
आखिर कविता है क्या ? अगर वह बेचैन न करे, सोचने पर विवश न करे, कम से कम आपकी भाषा में वह कुछ जोड़े नहीं, आपके सौन्दर्यबोध में इज़ाफा न करे तो काहें की कविता ? और कैसी कविता?
न विचार शून्य कविता कविता है न भाषाई सृजनात्मकता के बिना कविता कविता है. उसमें शाइस्तगी और साहस साथ-साथ जरूरी है. इसी के अनुपात से कविता प्रभाव छोडती है और टिकती है. अंतत: कविता सुनाई जाती है. तो सम्प्रेषित भी होनी चाहिए.
मलखान सिंह को दलित कविता के चौखटे में कैद कर लिया गया है. परिणाम न उनकी कविताए इस साइबर स्पेस में कहीं आपको मिलेगी न उनका कोई फोटो जबकि १९९७ में प्रकाशित अपने पहले संग्रह ‘सुनो ब्राहमण’ के द्वारा उन्होंने हिंदी कविता में एक मजबूत दस्तक दी थी. अपमान, वंचना, हिंसा और शोषण को जिस तरह से उन्होंने दहकते अंगारों में बदला है वह तो अप्रतिम है. उनके कविता संग्रह का नाम ‘ज्वालामुखी के मुहाने’ ठीक ही है.
उनकी कविताएँ, उनका फोटो और उनपर बजरंग बिहारी तिवारी का आलेख, मई दिवस की याद दिलाते हुए.
मलखान सिंह की कविताएँ
सम्पर्क : १९ एफ, गंगा विहार कालोनी, पोस्ट धांधूपुरा
एक पूरी उम्र
यकीन मानिए
इस आदमखोर गाँव में
मुझे डर लगता है
बहुत डर लगता है.
लगता है कि बस अभी
ठकुराइसी मेंढ़ चीखेगी
मैं अधसौंच ही
खेत से उठ जाऊँगा
कि अभी बस अभी
हवेली घुडकेगी
मैं बेगार में पकड़ा जाऊँगा
कि अभी बस अभी
महाजन आएगा
मेरी गाड़ी सी भैंस
उधारी में खोल ले जाएगा
कि अभी बस अभी
बुलावा आएगा
खुलकर खांसने के
अपराध में प्रधान
मुश्क बांधकर मारेगा
लदवाएगा डकैती में
सीखचों के भीतर
उम्र भर सड़ाएगा.
पूस का एक दिन
सामने अलाव पर
मेरे लोग देह सेक रहे हैं.
पास ही घुटनों तक कोट
हाथ में छड़ी,
मुँह में चुरट लगाए खड़ीं
मूंछें बतिया रही हैं.
मूंछें गुर्रा रही हैं
मूंछें मुस्किया रही हैं
मूंछें मार रही हैं डींग
हमारी टूटी हुई किवाडों से
लुच्चई कर रही हैं.
मेरी कनपटियाँ
आग–सी तप रही हैं.
सफेद हाथी
गाँव के दक्खिन में
पोखर की पार से सटा,
यह डोम पाड़ा है
जो दूर से देखने में
ठेठ मेंढ़क लगता है
और अन्दर घुसते ही
सूअर की खुडारों में बदल जाता है.
यहाँ की कीच भरी गलियों में पसरी
पीली अलसाई धूप देख
मुझे हर बार लगा है कि
सूरज बीमार है या
यहाँ का प्रत्येक बाशिन्दा
पीलिया से ग्रस्त है
इसलिए उनके जवान चेहरों पर
मौत से पहले का पीलापन
और आँखों में
ऊसर धरती का बौनापन
हर पल पसरा रहता है.
इस बदबूदार
छत के नीचे जागते हुए
मुझे कई बार लगा है कि
मेरी बस्ती के सभी लोग
अजगर के जबड़े में फंसे
जि़न्दा रहने को छटपटा रहे है
और मै नगर की सड़कों पर
कनकौए उड़ा रहा हूँ.
कभी – कभी
ऐसा भी लगा है कि
गाँव के चन्द चालाक लोगों ने
लठैतों के बल पर
बस्ती के स्त्री पुरुष और
बच्चों के पैरों के साथ
मेरे पैर भी
सफेद हाथी की पूँछ से
कस कर बाँध दिए हैं.
मदान्ध हाथी
लदमद भाग रहा है
हमारे बदन
गाँव की कंकरीली
गलियों में घिसटते हुए
लहूलूहान हो रहे हैं.
हम रो रहे हैं
गिड़गिड़ा रहे है
जिन्दा रहने की भीख माँग रहे हैं
गाँव तमाशा देख रहा है
और हाथी
अपने खम्भे जैसे पैरों से
हमारी पसलियाँ कुचल रहा है
मवेशियों को रौद रहा है
झोपडि़याँ जला रहा है
गर्भवती स्त्रियों की नाभि पर
बन्दूक दाग रहा है और हमारे
दूध-मुँहे बच्चों को
लाल-लपलपाती लपटों में
उछाल रहा है.
इससे पूर्व कि यह उत्सव
कोई नया मोड़ ले
शाम थक चुकी है,
हाथी देवालय के
अहाते में आ पहुँचा है
साधक शंख फूंक रहा है
साधक मजीरा बजा रहा है
पुजारी मानस गा रहा है
और वेदी की रज
हाथी के मस्तक पर लगा रहा है
देवगण प्रसन्न हो रहे हैं
कलियर भैंसे की पीठ चढ़ यमराज
लाशों का निरीक्षण कर रहे हैं
शब्बीरा नमाज पढ़ रहा है
देवताओं का प्रिय राजा
मौत से बचे हम
स्त्री-पुरूष और बच्चों को
रियायतें बाँट रहा है
मरे हुओं को
मुआवजा दे रहा है
लोकराज अमर रहे का निनाद
दिशाओं में गूंज रहा है…
अधेरा बढ़ता जा रहा है
और हम अपनी लाशें
अपने कन्धों पर टांगे
संकरी बदबूदार गलियों में
भागे जा रहे हैं
हाँफे जा रहे हैं
अँधेरा इतना गाढ़ा है कि
अपना हाथ
अपने ही हाथ को पहचानने में
बार-बार गच्चा खा रहा है.
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मलखान सिंह
३० सितम्बर १९४८ (हाथरस, उत्तर प्रदेश)
सुनो ब्राहमण (१९९७), ज्वालामुखी के मुहाने (२०१६) कविता संग्रह प्रकाशित
मजदूर हितों के लिए दो बार तिहाड़ जेल की यात्रा
सम्पर्क : १९ एफ, गंगा विहार कालोनी, पोस्ट धांधूपुरा
आगरा – २८२००६
मोब. 09457324232
रुधिर का तापमान
(दलित कविता और मलखान सिंह)
बजरंग बिहारी तिवारी
ऐसा कोई सर्वेक्षण शायद नहीं हुआ है पर यह कहना गलत नहीं होगा कि इधर बीच दलित साहित्य के पाठकों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई है. इस संख्या वृद्धि में दलित समुदाय के पाठकों का मुख्य योगदान है. एक तो जागरूकता में बढ़ोत्तरी, दूसरे विश्वविद्यालयी शिक्षा में दलित विद्यार्थियों का आरक्षण नियमों के किंचित कड़ाई से लागू होने के कारण पहले से कहीं अधिक प्रवेश, तीसरे मानविकी के तमाम पाठ्यक्रमों में दलित साहित्य की उपस्थिति, और चौथे इन सब कारणों के सम्मिलित असर से प्रकाशन बाज़ार में दलित लेखन के प्रति चयनित-सीमित मगर विशेष झुकाव जाति-वर्ण से ग्रस्त अकादमिक दुनिया में उल्लेखनीय बदलाव ला रहे हैं. इस परिवर्तित माहौल के मद्देनजर दलित रचनाकारों की पहली पीढ़ी के संघर्ष का कृतज्ञता के साथ स्मरण करना उचित है और जरूरी भी. मलखान सिंह उसी पीढ़ी से ताल्लुक रखते हैं. पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में उनकी कविताएं प्रकाशित होनी शुरू हुईं. पहला कविता संग्रह 1997 में आया. इस संग्रह ने अपने प्रकाशन के साथ जैसी लोकप्रियता अर्जित की वैसी किसी अन्य समकालीन कवि या कविता पुस्तक को नहीं मिली. एकबारगी सोचकर आश्चर्य होता है कि अत्यंत चुभने वाली भाषा, तिलमिला देने वाले तेवर और बेचैन कर देने वाले कथ्य को कैसे स्वीकार कर लिया गया!
मलखान सिंह की कविताओं में व्याप्त तल्खी दायित्वबोध से उपजी है. वे जानते हैं कि उनकी आवाज उत्पीड़ित समाज की वाणी है. उनके व्यथापूरित अनुभव निरे वैयक्तिक नहीं हैं. वे दलित समाज की संचित पूँजी हैं. इतिहास के लंबे दौर में हिंसक व्यवस्था का ‘प्रदेय’. ‘स्वानुभव’ के प्रति उनकी भिन्न दृष्टि का यही कारण है. वे इसके प्रति खासे चौकन्ने हैं कि स्वानुभव का दावा उनकी वैयक्तिक छवि को चमकाने का जरिया न बन जाए. समूचे उत्पीड़ित समुदाय से ‘स्व’ की अकृत्रिम सम्बद्धता उनके स्वत्व का निर्माण करती है. उनका अस्मिताबोध इसीलिए अनुदार और संकीर्ण नहीं हो सकता. वह ‘अस्मि’ का विस्तार करता चलता है. अस्मितावाद में ढल जाने का रास्ता नहीं अपनाता. यह विशेषता ही उनकी कविताओं को स्वीकार्य बनाती है. ‘औषधीय’ गुणों के चलते ही उनकी कड़वी अभिव्यक्तियां गैर दलितों के लिए भी वांछित और सह्य हो जाती हैं. दलित पाठक वर्ग के निर्माण की पूर्वपीठिका में इस साहित्य की सामान्य चर्चा से लेकर सभा-संगोष्ठियों, विद्यापीठों आदि में मलखान सिंह का अनिवार्य संदर्भ इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है. इससे यह भरोसा भी मजबूत होता है व्यापक पाठक समुदाय वास्तविक और मौसमी प्रतिबद्धता के बीच अंतर करना जानता है. ग्रेशम का नियम साहित्य पर भी लागू होता है. अस्मितावादी लेखन पर विशेष रूप से. मलखान सिंह को नेपथ्य में डालने, विस्मृत करने की कोशिशें होती रही हैं. मुद्राओं का कारोबार करने वाले कलदार कविताओं को चलन में क्यों रहने देंगे!
मलखान सिंह संवादी कवि हैं. एकालाप या आत्मालाप में उनका यकीन नहीं. उनकी कविताएं बातचीत के लिए आमंत्रित करती हैं. बेशक, अपने अंदाज़ में. यह अंदाज़ धमकाने वाला तो नहीं, पर चुनौती देने वाला है. उनके संग्रह का शीर्षक ‘सुनो ब्राह्मण’ इसकी ताईद करता है. यह शीर्षक एकबारगी हमें कबीर शैली की याद दिलाता है- ‘सुनो भाई साधो’ या ‘सुनो हो संतो’. लेकिन थोड़ा और ध्यान दें तो पाएंगे यह शैली बुद्ध की है. महात्मा बुद्ध के कई उपदेश ‘भो ब्राह्मण’ –हे ब्राह्मण से प्रारंभ होते है. जो सबका शिक्षक होने का दंभ पाले हुए है उसे समझाना, रास्ता दिखाना और मार्गदर्शक की भूमिका से उतारकर हमराही या अनुयायी की स्थिति में ले आना. मलखान सिंह की संबोधन शैली बुद्ध और कबीर की याद कराकर भी उनसे अलग है. उनके संबोधन में विनम्रता नहीं, तंज नहीं, ललकार है. इस ललकार में उठते-उमड़ते, आत्मगौरव के भाव को रेखांकित करते दलित समुदाय की तेजस्विता है. यह तेजस्विता वर्णवाद को हतप्रभ करती है, जातिवाद का सत्व सुखाती है और अवमानना के भारवाहकों को चौंधियाती है. जाति के प्रपंच से अवगत कवि ‘देव विधान’ को बेपर्दा करता चलता है- ‘उफ़! तुम्हारा न्याय/ महाछल महाघात/ ज्ञात को अज्ञात के/ पेट में घुसेड़कर/ रचता महाभाष्य/ ठगता पसीने को/ हमारी फटेहाली को नियति ठहराता है.’ जाहिर है कि मलखान सिंह के संबोधन में उद्बोधन मुख्य है. यह उद्बोधन उनके लिए है जो अज्ञात और नियति के व्यूह से बाहर आना चाहते हैं. व्यूह के निर्माताओं को कवि पहचानता है. वह चाहता है कि बाकी लोग भी इसे पहचानें. यह बोधन ही उद्बोधन का आधार है. संबोधन की प्रक्रिया भिन्न धरातल पर घटित होती है. जिसे संबोधित किया जा रहा है वह तल के उस बिंदु पर अवस्थित है जहां से दासता का सोता फूटता है. स्रोत को निःशेष करना कवि का अभीष्ट है- ‘इस विष वृक्ष को/ जड़ से उखाड़ फेंकने में/ हमारी आज़ादी है.’ जाति एक शृंखला है. इस शृंखला से सब आबद्ध हैं. समान रूप से. कोई एक जाति समूह अलग से मुक्त नहीं हो सकता. सबकी मुक्ति साथ-साथ होनी है. कवि इसमें एक पूर्वापर संबंध बनाता है. दलितत्व के विलोप की पूर्वशर्त है ब्राह्मणत्व का विलय. ब्राह्मण का अंत ही दलितपन का समापन संभव करेगा. यह बात कहने-सुनने में भले ही क्रूर लगती हो लेकिन है सौ फीसद सच- ‘सुनो ब्राह्मण!/ हमारी दासता का सफ़र/ तुम्हारे जन्म से शुरू होता है/ और इसका अंत भी/ तुम्हारे अंत के साथ होगा.’
दलित कवि कथाकाव्य रचने में बहुत कम रूचि लेते हैं. उनकी कविता में कथातत्व मुख्यतः आत्मकथा के संदर्भों से आता है. हो सकता है अनुभव की प्रामाणिकता के अतिरिक्त आग्रह से ऐसा होता हो. मलखान सिंह ने भी कथा-कविता में प्रयोग लगभग नहीं किए हैं. हाँ, उनकी ‘यह कैसा महा आख्यान’ कविता कथाकाव्य के उदाहरण के रूप में देखी जा सकती है. इस कविता में झीना-सा कथा तत्व है. सर्दी की एक सुबह के दृश्य को प्लाट के तौर पर रखा गया है. यहाँ ठंड समाज-निरपेक्ष प्राकृतिक अवस्था नहीं है. वह जाति और वर्ग के आधार पर असर करती है. खेत में अलसुबह ‘कमीन कौम’ से काम कराती ‘ठकुराइसी मूंछें’ ठंड की पहुँच से बाहर हैं, वहीं फावड़ा चलाता दलित पात्र पहले अपनी अन्यमनस्कता से और फिर दूर नीले आकाश में लहराते झंडे में बने धम्मचक्र से हाड़-तोड़ ठंड का मुकाबला करता है. कविता में आया दलित बस्ती का ब्योरा सर्दी के समाजशास्त्रीय भाष्य की जमीन तैयार करता है. मंदिर से उठती आवाज प्रकृति पर धर्म-संस्कृति की पकड़ का प्रमाण प्रस्तुत करती है. मनुष्य की आद्य स्मृतियों में से एक है शीत की स्मृति. मलखान सिंह उसके आधार पर कथातत्व बुनते हैं. कविता की अपील इस तरह सार्वजनीन होती है. मौसम उनकी कविताओं को बार-बार रूपाकार देता दिखता है. इसी स्रोत से उन्होंने कुछ आद्य बिंबों का चयन किया है. ‘अंधड़’ उनमें से एक है. यह आद्य स्मृति है और आद्य बिंब भी. एक घोर नास्तिक कवि का ईश्वर के विभिन्न संबोधनों/नामों का सार्थक विनियोग रचना कौशल का उत्कृष्ट नमूना पेश करता है.
मलखान सिंह अपने सरोकारों की व्यापकता के लिए ख्यात हैं. शुद्ध अस्मितावादी धारा बेहद चयनधर्मी है. वह मुद्दों को फ़ैलाने से बचती है. मसलन अगर दलित मुक्ति का आशय वर्ण-जाति से निजात पाना है तो आर्थिक प्रश्नों पर ध्यान देना गैर जरूरी माना जाता है. इसी मुद्दे पर दलित पैंथर में फूट पड़ी थी. मलखान सिंह दलितों की सांस्कृतिक गुलामी को आर्थिक पराधीनता या शोषण से अलग नहीं करते. समकालीन राष्ट्रवाद की छानबीन करते हुए वे वैश्वीकरण की जकड़न तक पहुँचते है. उस उलटबांसी को वे अपनी कविता का विषय बनाते हैं जहां एक तरफ श्वेत कपोत उड़ाया जा रहा होता है दूसरी तरफ हथियारों की खेप भेजी या मंगाई जाती है. हिंसक निर्ममीकरण की शक्तियां खुद को उदारीकरण के पैरोकार के रूप में सफलतापूर्वक प्रचारित कर देती हैं.
अठारह बरस बाद कवि के दूसरे संग्रह ‘ज्वालामुखी के मुहाने’ का प्रकाशन इस अर्थ में ‘सुखद’ नहीं है कि हिंसाग्रस्त समाज सचमुच ज्वालामुखी के मुहाने पर है.
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