24 अक्टूबर,1982 सुपौल,लालपुर(बिहार)
मिथिलेष कुमार रायकी कविताओं के संसार में गाँव है, बेरोज़गारी, धूप और पसीना है, बेटे को आदमी बनाने की चिंता में घुलते पिता हैं, मजदूर और मालिक हैं. पंजाब भागते जवान लडके हैं, सयान होती लडकी की चिंता, वसंत, कोयल और फूल हैं. गरज़ कि समकालीन हिंदी कविता से अदृश्य होते ग्राम्य जीवन की आह है. कविताएँ असर रखती हैं और उनमें स्फीति नहीं है जिसका खतरा अक्सर इन विषयों पर लिखते हुए बना रहता है.
हिस्से में
और गंध पसीने से मिली है इन्हें
सबको रंग देना अपनी रंग में
इच्छा थी पसीने की भी
डूबो डालने की अपनी गंध में सबको
मगर सब ये नहीं थे
पसीने को भी नहीं पूछा कुछ ने
शेष सारे निकल गये खेतों में
जहां धूप फसल पका रही थी
बाट जोह रही थी पसीना
आदमी बनने के क्रम में
गरियाते थे
कहते थे कि साले
राधेश्याम का बेटा दीपवा
पढ लिखकर बाबू बन गया
और चंदनमा अफसर
और तू ढोर हांकने चल देता है
हंसिया लेकर गेहूं काटने बैठ जाता है
कान खोलकर सून ले
आदमी बन जा
नहीं तो खाल खींचकर भूसा भर दूंगा
ओर बांस की फूनगी पर टांग दूंगा…
मेरे लिये सबसे बडी बात थी
लेकिन मैं बच्चा था और सोचता था
कि पिता मुझे अपना सा करते देखकर
गर्व से फूल जाते होंगे
लेकिन वे मुझे दीपक और चंदन की तरह का आदमी बनाना चाहते थे
क्या अपने आप को आदमी नहीं समझते थे
आदमी बनने के क्रम में
मैं यह सोच कर उलझ जाता हूं
मालिक
कि कहो भैया क्या हाल है
तुम कहां रहते हो
क्या खाते हो
क्या घर भेजते हो
अपने परिजनों से दूर
इतने दिनों तक कैसे रह जाते हो
कि कितना काम हुआ
और अब तक
इतना काम ही क्यों हुआ
जिनको पता नहीं होता
ललटुनमा की माई
आ खुद्दे ललटुनमा
तीनों जने की कमाई
एक अकेले गिरहथ की कमाई के
पासंग के बराबर भी नहीं ठहरता
यह एक सवाल
ललटुनमा के दिमाग में
जाने कब से तैर रहा था
कि बाउ
आखिर क्यों
उनके पास अपनी जमीन है
और हम
उनकी जमीन में खटते हैं
अपनी जमीन के इतिहास के बारे में
और आप तो जानते हैं
कि जिनको पता नहीं होता
उससे अगर सवाल किये जाये
तो वे चुप्पी साध लेते हैं
हम ही हैं
हम ही लडते हैं सांढ से
खदेडते हैं उसे खेत से बाहर
खेत को अगोरते हुये
निहारते हैं चांद को रात भर हम ही
हम ही बैल के साथ पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं
नंगे पैर चलते हैं हम ही अंगारों पर
हम ही रस्सी पर नाचते हैं
हम ही खिलाते हैं उन्हें पुष्प, अक्षत
चंदन हम ही लगाते हैं उनके ललाट पर
सबकुछ सबके लिये
और मारे जाते हैं
विजेता चाहे जो बने हो
लेकिन लडाई में जिन सिरों को काटा गया तरबूजे की तरह
वे हमारे ही सिर हैं
शुभ संवाद
ये चाहें तो थोडा खुश हो लें
पान खाये
पत्नी से हंस-हंस के बतियाये
दो टके का भांग पीकर
भूले हुये कोई गीत गाये
टुन्न हो अपने मित्रों को बताये
कि बचवा की मैट्रिक की परीक्षा अच्छी गयी है
वह कहता है कि बहुत अच्छा रिजल्ट भी आयेगा
गैया ने बछिया दिया है
और कुतिया से चार महीने पहले जो दो पिल्ले हुये थे
अब वे बडे हो गये हैं
और कल रात वह अकेला नहीं गया था खेत पर
साथ साथ दोनों पिल्ले भी आग-आगे चल रहे थे
कुतिया दरबज्जे पर बैठी चैकीदारी कर रही थी
आंखों के सामने
कि गेहूं में दाने ही नहीं आये इस बार
दो दिन पहले जो आंधी आई थी उसमें
सारे मकई के पौधे टूट गये
टिकोले झड गये
दो में से एक पेड उखड गये
महाजन रोज आता है दरबज्जे पर
कि गेंहू तो हुआ नहीं
अब कैसे क्या करोगे जल्दी कर लो
बेकार में ब्याज बढाने से क्या फायदा
जानते ही हो कि बिटवा शहर में पढता है
हरेक महीने भेजना पडता है एक मोटी रकम
सुनो गाय को क्यों नहीं बेच लेते
वाजिब दाम लगाओगे तो मैं ही रख लूंगा
दूध अब शुद्ध देता है कहां कोई
पंजाब भाग जायेगा
बिटिया क्यों बढ रही है बांस की तरह जल्दी जल्दी
दूल्हे इतने महंगे क्यों हो रहे हैं
स्कूल तो था
कि लालपुर में स्कूल नहीं था
बात ऐसी भी नहीं थी
कि उसके दिमाग में भूसा भरा हुआ था
कि उसके घर का खूंटा टूट गया था
बहन बांस हो रही थी
और रात को मां की चीत्कार से
पूरे गांव की नींद खराब हो जाती थी
कि बीए पास लडका
लालपुर में घोडे का घास छील रहा था
और पंजाब से पहली चिट्ठी में लिखा
कि मां अब मैं कमाने लगा हूं
चिट्ठी के साथ जो पैसे भेज रहा हूं
उससे घर का छप्पर ठीक करवा लेना
अब जल्दी ही तुम्हरे पेट का दर्द
और बहिन का ब्याह भी ठीक हो जायेगा…
कि उसने अच्छा किया या बुरा
हालांकि लालपुर में स्कूल था
और उसके दिमाग में
भूसा भी भरा हुआ नहीं था
यहां से
इन्हें भी फूलों को निहारना चाहिये
उसके साथ मुसकुराना चाहिये
चलते-चलते तनिक ठिठककर
कोयल की कूक सुनना चाहिये
और एक पल के लिये दुनिया भूलकर
उसी के सुर में सुर मिलाते हुए
कुहूक-कुहूक कर गाने लगना चाहिये
वातावरण को रंगीन करना चाहिये
फाग गाना चाहिये
और नाचना चाहिये
और क्या खाकर बडे हुये हैं
कि खिले हुए फूल भी इनकी आंखों की चमक नहीं बढाते
कोयल कूकती रह जाती है
और अपनी ही आवाज की प्रतिध्वनि सुनकर सुन-सुनकर
थककर चुप हो जाती है
वसंत आकर
उदास लौट जाता है यहां से
निर्जन वन में
भगवती को अर्पित कर देती हैं
वे कभी किसी गुलाब को प्यार से नहीं सहलातीं
कभी नहीं गुनगुनातीं मंद-मंद मुसकुरातीं
भंवरें का मंडराना वे नहीं समझती हैं
ये अपनी मां के भजन संग्रह से गीत रटती हैं
सोमवार को व्रत रखती हैं
और देवताओं की शक्तियों की कथा सुनती हैं
ये नहीं जानती कि उडती हुई चिडियां कैसी दिखती हैं
और आकाश का रंग क्या है
यहां से कौन सी पगडंडी जाती है
ये नहीं बता पायेंगी किसी राहगीर को
सपने तो खैर एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है
ये बिस्तर पर गिरते ही सो जाती हैं
सवेरे इन्हें कुछ भी याद नहीं रहता
मैं जहां रहता था
वहां की लडकियां गाना गाती थीं
आपस में बात करती हुईं वे
इतनी जोर से हंस पडती थीं
कि दाना चुगती हुई चिडियां फुर्र से उड जाती थीं
और उन्हें पता भी नहीं चलता था
यहां का मौसम ज्यादा सुहावना है
लेकिन लडकियां कोई गीत क्यों नहीं गातीं
ये आपस में बुदबुदाकर क्यों बात करती हैं
किससे किया है इन्होंने न मुसकुराने का वादा
और इतने चुपके से चलने का अभ्यास किसने करवाया है इनसे
कि ये गुजर जाती हैं
और दाना चुगती हुई चिडियां जान भी नहीं पाती हैं.