विमलेश त्रिपाठी कविता और कहानी दोनों में समान रूप से सक्रिय हैं. उनकी कविताओं का एक संग्रह, हम बचे रहेंगे प्रकाशित है. उनकी कविताओं में वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने स्थानीयता की पहचान की है- \’किसी आंचलिक अर्थ में नहीं- बल्कि अच्छी कविता के सहज गुण धर्म के रूप में स्थानीयता.\’
एक तान हूं अपनी उठान में लड़खड़ा गया-सा एक शाम हूं उदास गली की
जिसका दरवाजा एक असंभव इंतजार में है सदियों से राह पर अपने जितना ही बड़ा जिद लिए खड़ा
एक शिशु हूं जिसे एक खिलौना चाहिए
जो बैटरी लगाने पर भी चलता-बोलता
और हंसता नहीं है विवशता हूं एक गरीब पिता की
एक मां का खुरदरा हाथ हूं दूर किसी गांव में
एक किसान की नीली पड़ती देह हूं
जिसके माथे पर खुदा है एक देश
जिसका नाम हिन्दुस्तान है क्या करोगे मेरा
क्या कहोगे मुझे हूं मैं
कविता में एक निरर्थक शब्द हूं
चुभता तुम्हारी उनकी सबकी आंख में
देश की सबसे शक्तिशाली और इस तरह
एक सुंदर महिला के चित्र पर
बोकर दी गई सियाही हूं तो क्या सिर्फ यह कहने के लिए ही
मेरा जन्म हुआ है
कंटीली झाड़ियों के इस जंगल में चलो कह रहा हूं कि मेरा नाम विमलेश त्रिपाठी
वल्द काशीनाथ त्रिपाठी है
और मेरे होने
और न होने से कोई फर्क नहीं पड़ना तुम्हें फिर भी कहूंगा कि
फिलहाल तुम्हारे सारे झूठ के बरक्श
जो सच की एक दीवार खड़ी है
उस दीवार की एक-एक इंट अगर कविता है तो जैसा भी हूं
कवि हूं मैं सुनो, मेरे साथ करोड़ों आवाजों की तरंग से
तुम्हारी तिलस्मि दुनिया की दीवारें कांप रही हैं और बहुत दूर किसी दुनिया में बैठा एक कवि
बीड़ी के सुट्टे मारता
तुम्हारी बेवशी पर मुस्कुरा रहा है…
दरअसल
हम गये अगर दूर
और फिर कभी लौटकर नहीं आय़े
तो यह कारण नहीं
कि अपने किसी सच से घबराकर हम गये
कि अपने सच को पराजित
नहीं देखना था हमें
कि हमारा जाना उस सच को
जिंदा रखने के लिए था बेहद जरूरी
दरअसल हम सच और सच के दो पाट थे
हमारे बीच झूठ की
एक गहरी खाई थी
और आखिर आखिर में
हमारे सच के सीने में लगा
जहर भरा एक ही तीर
दरअसल वह एक ऐसा समय था
जिसमें बाजार की सांस चलती थी
हम एक ऐसे समय में
यकीन की एक चिडिया सीने में लिए घर से निकले थे
जब यकीन शब्द बेमानी हो चुका था
यकीनन वह प्यार का नहीं
बाजार का समय था
दरअसल उस एक समय में ही
हमने एक दूसरे को चूमा था
और पूरी उम्र
अंधेर में छुप-छुप कर रोते रहे थे.
हमारे संबंध
कई-कई शब्दों के रेशे-से गुंथे
साबुत खड़े हम
एक शब्द के ही भीतर
एक शब्द हूं मैं
एक शब्द हो तुम
और इस तरह साथ मिलकर
एक भाषा हैं हम
एक ऐसी भाषा
जिसमें एक दिन हमें
एक महाकाव्य लिखना है .
कनेर के दो पीले फूल खिले हैं
दो दिन पहले
तुम लौटी हो इक्किस की उम्र में
मुझे साढ़े इक्किस की ओर लौटाती
समय को एक बार फिर
हमने मिलकर हराया है
सुनो
इस दिन को मैने
अपनी कविता की डायरी में
अतवार नहीं
प्यार लिखा है….
डर से छुपाई हुई
एक कविता मिल जाती
और अचानक मेरी उम्र
सत्रह वर्ष की हो जाती
उस दिन मेरे एक हाथ में रात
और एक हाथ में दिन होता
उस दिन मैं देर दिन तक हंसता
उस दिन मैं देर रात तक रोता
एक शब्द लिखने के पहले
चलता हूं एक कदम
सोचता हूं
इस तरह एक दिन
पहुंच जाऊंगा
जहां पहुंचे नहीं हैं अब तक
मेरे शब्द
वो वक्त साथ मेरे हमनशीं सा रहता है ये जो फैला है हवा में धुंआ–धुंआ जैसा
रात भर साथ मेरे जिंदगी सा रहता है डूब कर जिसमें कभी मुझको फ़ना होना था
वो दरिया मुझमें कही तिष्नगी सा रहता है ।।
यह समय की सबसे बड़ी उदासी है
जो मेरे चेहरे पर कहीं से उड़ती हुई चली आई है मैं समय का सबसे कम जादुई कवि हूँ मेरे पास शब्दों की जगह
एक किसान पिता की भूखी आंत है
बहन की सूनी मांग है
कपनी से निकाल दिया गया मेरा बेरोजगार भाई है
राख की ढेर से कुछ गरनी उधेड़ती
मां की सूजी हुई आँखें हैं
मैं जहाँ बैठकर लिखता हूँ कविताएँ
वहाँ तक अन्न की सुरीली गंध नहीं पहुंचती यह मार्च के शुरूआती दिनों की उदासी है
जो मेरी कविताओं पर सूखे पत्ते की तरह झर रही है
जबकि हरे रंग हमारी जिंदगी से गायब होते जा रहे हैं
और चमचमाती रंगीनियों के शोर से
होने लगा है नादान शिशुओं का मनोरंजन
संसद में वहस करने लगे हैं हत्यारे क्या मुझे कविता के शुरू में इतिहास से आती
लालटेनों की मद्धिम रोशनियों को याद करना चाहिए
मेरी चेतना को झंकझोरती
खेतों की लंबी पगडंडियों के लिए
मेरी कविता में कितनी जगह है
कविता में कितनी बार दुहराऊँ
कि जनाब हम चले तो थे पहुँचने को एक ऐसी जगह
जहाँ आसमान की ऊँचाई हमारे खपरैल के बराबर हो
और पहुँच गए एक ऐसे पाताल में
जहाँ से आसमान को देखना तक असंभव
(
वहाँ कितनी उदासी होगीजहाँ लोग शिशुओं को चित्र बनाकर
समझाते होंगे आसमान की परिभाषा
तोरों को मान लिया गया होगा एक विलुप्त प्रजाति) कविता में जितनी बार लिखता हूँ आसमान
उतनी ही बार टपकते हैं माँ के आँसू
उतनी ही बार पिता की आंत रोटी–रोटी चिल्लाती है
जितने समय में लिखता हूँ एक शब्द
उससे कम समय में
मेरा बेरोजगार भाई आत्महत्या कर लेता है
उससे भी कम समय में
बहन औरत से धर्मशाला में तब्दील हो जाती है
क्या करूँ कि कविता से लंबी है समय की उदासी
और मैं हूँ समय का सबसे कम जादुई कवि
क्या आप मुझे क्षमा कर सकेंगे ??
विमलेश त्रिपाठी की कहानी आप यहाँ पढ़ सकते हैं.
bimleshm2001@yahoo.com