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Home » सहजि – सहजि गुन रमैं : शंभु यादव

सहजि – सहजि गुन रमैं : शंभु यादव

पेटिग : Salvador Dali शंभु यादव सामंती समाज और पूंजीवादी संस्कृति पर अपनी कविताओं से चोट करते हैं.  यह खट खट देर तक गूंजती रहती है.  वे ख़ास के बरक्स आम की असहायता को देखते हैं और अक्सर उसे अभिधा में कहते हैं.  जन की विनोदप्रियता और प्रतिकूल स्थिति में भी जीवन का उजास इन कविताओं […]

by arun dev
September 20, 2012
in Uncategorized
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पेटिग : Salvador Dali

शंभु यादव सामंती समाज और पूंजीवादी संस्कृति पर अपनी कविताओं से चोट करते हैं. 
यह खट खट देर तक गूंजती रहती है. 
वे ख़ास के बरक्स आम की असहायता को देखते हैं और अक्सर उसे अभिधा में कहते हैं. 
जन की विनोदप्रियता और प्रतिकूल स्थिति में भी जीवन का उजास इन कविताओं में है.


नाकामयाब

वो खूब हंसे मुझ पर 
फब्तियाँ भी कसी
और एक ने कह ही दिया आखिरकार –
‘लगता है भईया
किसी गुजरे ज़माने से आये हो’
यह तब की बात है 
जब मैं एक शॉपिंग प्लाजा में
अपनी एक पुरानी बुशर्ट के छेद को
बंद कराने की इच्छा में ढूंढ रहा था
एक अदद रफ़ूगर.

वे तीन जन

एक आया था पहाड़ पार करके
दूसरा रेत के टीलों से  
तीसरे के यहाँ हरे-भरे मैदान और बहुत से तालाब
तालाबों में मछलियाँ
तीनों खडे़ हैं मज़दूर मंडी में
एक सुरती खाता है
दूसरा फूँकता है बीड़ी
तीसरा नाक के पास नसवार ले जाकर
जोर से खींचता है साँस
आपस के सुख-दुख
एक का बच्चा पाँचवी पास कर गया है
गाँव में प्राइमरी से आगे स्कूल नहीं
आगे की क्लास के लिए चार कोस दूर जाना होगा
दूसरे की बिटिया के बेटा हुआ है
बड़ा खर्चा आन पड़ा है
तीसरे की माँ के पेट की रसौली का
दर्द मिटता ही नहीं
उनकी बातों में 
सूखे, बारिश और फसल का 
अपने-अपने यहाँ के स्वाद और रंग का
जेठ की गर्मी और पाले का जिक्र होता है
तीनों जब-जब अपने गाँव जाते हैं
बसकर वहीं रह जाना चाहते हैं 
परन्तु काम न चल पाता है मनरेगा से भी
तीनों फिर वापस आ लगते हैं महानगर
रोज़ कोई न कोई दुकान
तबदील होती हुई शो रूम में
सड़कें अघायी गाड़ियों की कतारों से
ये तीन जन
तीन दिन से बगैर काम के
आज पिछले दिनों से भी कम दाम पर
बिकने को तैयार हैं.

 जीने का एक नियम

मेरे बेड के सिरहाने में बने रैक पर बिखरी किताबें
मैं लेटा था बेड के बीचों-बीच
बंद आँखों के पटल पर
कभी दाएं तो कभी बाएं
कभी ऊपर तो कभी नीचे
उभर रहे थे झिलमिल-झिलमिल बहुत से रंग
बाएं ओर का लाल रंग सबसे उदीयमान था
वाम-वाम लिखा आया कुछ उजला-सा
और अवचेतन से भी एक छवि 
आँख के पर्दे पर चस्पां हुई- 
शिव की बांयी जंघा पर विराजमान पार्वती…
मैंने अपनी अर्द्धांगिनी से ऐसा ही कुछ करने को कहा
‘इतने नाहर ना बनो,
सूकड़े आदमी
कहीं हड्डी चटक गई तो
सब कुछ मुझे ही झेलना पड़ेगा’
मेरी पत्नी ने जवाब मारा
मैं चुप…  
घर के बाहर जाते एक बैल की पूँछ मरोड़ने लगा
मैं ऐसा करते हुए निश्चिंत था
क्योंकि मैं जानता था कि
बैल मरखना नहीं  है
बैल परेशानी और डर में दौड़ने लगा
पैरों को तेजी से ऊपर-नीचे मारता
मुझसे पीछा छुड़वाने की कोशिश करना 
उसका  ध्येय बना
मैं और अधिक ज़ोर से
उसकी पूंछ मरोड़ता आनंद  में था
एकदम से बैल रुका, अधिक डरा लगा
मैंने देखा
हमारे सामने कुछ दूरी पर
एक भारी भरकम साँड खड़ा था
बैल वापस पलटा और भागा 
मुझे चुनौती देता-सा
‘हिम्मत है तो इसकी पूँछ मरोड़ो’.
मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम
मैं जानता था
साँड मुझे धर  देगा
मैं उससे डर
वापस खिसक आया
ऐसी परिस्थितियाँ बनने पर खिसकना 
जीवन जीने का एक नियम बना.

 अभाव

पक्षी गायब हो रहे हैं दिन-ब-दिन, क्यों?
एक केले पर कई बंदरों की झड़प
काम से निकाले गए आदमी के परिवार की पीड़ा
और उस क्षण का संभावना बनने की उम्मीद में एक कैमरा
कि यह परिवार आत्महत्या करने की सोच ले
बरती जानेवाली चीज़ों का बरकत से बरतना 
वीकली बाज़ारों के पते
देर रात सब्जी की ढेरी पर बोली लगाना
चोर बाजार की राह 
उधार मांगने पर पड़ोस की दुकान से
अपमानित होने का भय
अभाव में 
बाजार की लुभावन चीजों पर
और भी ललचा उठती हैं आंखें
मुफ़लिस के गले में पड़ी रस्सी का मर्म
कैसे समझेगा देश का शासन.

 पानी व जीवन की साँस की कहानी       

       
यह सभ्यता के विकास के सबसे शुरुआती जमाने की बात है. स्थाई बस्तियां बसने लगी थीं. पानी के वास्ते आदमी ने पहला कुआं खोदा. पानी के वास्ते जमीन खोदता आदमी पाताल को. खोद में एक बौना प्रकट हुआ. मेमने-सा मुलायम बौना. आदम हवा पाते ही मर गया. बौने की मृत देह का संस्कार किया. पानी भर आया कुएं में. सबसे मीठा पानी. कहावत विकसित हुई धरती के नीचे एक लोक है-पाताल लोक. पाताल लोक में बौनों का वास.
यह बात अच्छी तरह समझ ली सबलों ने और वे जब भी धरती के जिस भी हिस्से को कब्जाते, वहां खोदते कुआं तो खुदते गड्डे में  अपने घुड़सवार सैनिकों को पाताल लोक में दौड़ा देते ताकि बौने हाथ लग जाएं. जितने ज्यादा बौनों की आहुति, उतना ही ज्यादा पानी और सबसे मीठा. सबल उसको जी-भरकर भोगते यह सिलसिला चलता रहा युगों युगों तक. और एक दिन ऐसा आया उन्होंने सारी पृथ्वी को कब्जा लिया और पाताल का चप्पा-चप्पा रौंध डाला. बौने मिलना बंद. कुओं में अब सिर्फ गाद मिलती थी. आदम की नई नस्ल ने बेचारी बुढ़ियाती नदियों में तेजाब भर दिया. धरती के रो-रो आँसू सूख गए‐‐‐‐‐‐‐‐
ऊपर लिखा हुआ
उस फिल्म की कहानी में
फ्लैश बैक का एक हिस्सा है
जिसको देखते हुए मैं
भविष्य की एक बस्ती में था 
समाज वहां का लगभग एकदम अराजक 
सूखा मौसम, हवा में पारा गर्म 
आसमान का रंग कुछ ऐसा था जैसे
उड़ती रेत के बीच डूबते सूरज की शाम में होता है
धूल घरों, सड़कों और सीन के सभी हिस्सों में जमी थी
और सभी चेहरों पर भी
सभी पात्र बगैर नहाए प्रतीत होते थे
कोई उजला कपड़ा किसी शरीर को नहीं पहने था
सभी गहरे रंग के अधिकार में समाए थे
मानवों के होंठ या तो सूख चूके थे या
सूखने के कगार पर …….
एक बुढ़िया की जीभ उसके मरने से पहले 
लगभग छः मिनट तक उसके सूखे होठों पर फिरती दिखाई गई
एकदम क्लोज-अप में…
एक दृश्य में लूट का प्रोग्राम बनाने में लगा था एक गिरोह
उसके सभी सदस्य हथियारों सें लैस थे
उन हथियारों की बनावट आजकल के हथियारों से अलग थी
वह पहुँच गए  पानी के राशन की दुकान पर
वहाँ मरगले आम आदमी की लाइन लगी थी 
जैसी लाइन घासलेट के लिए देखी जाती रही है हमारे यहाँ 
पानी की दूकान का मालिक या कहें  लाला 
काकेशियन मंगोलियन मिक्स ब्रीड शक्ल में 
अपने सिर पर अंकल सैमवाला हैट पहने था
फिल्म में दिखलाया था कि वह पानी का बहुत बड़ा ब्लैक-मार्केटियर है
उसके चेहरे पर उभरती कुटिलता 
कन्हैयालाल अभिनीत कुटिलता से कहीं ज्यादा भयानक थी
लाला के लठैत पानी के लिए सुरक्षाकर्मी
उनके हाथों  में गिरोह के लोगों जैसे ही हथियार 
दोंनो ओर से लेजर-किरणों का आदान-प्रदान शुरु हो गया, फिचक्-फिचक्
शरीरों को भेदता हुआ
लेजर किरणें उन टैंकरों से भी जा टकराई, जो बेशकीमती पानी से भरे थे
फूट गए छेदों में से पानी की धाराएं बह निकलीं
बूंद बूंद उछलता पानी
सफेद हीरे हवा में नाच रहें हो जैसे
और उनको पा लेने के लिए
आसमान को लपकती अतृप्त आम आदमी की जीभें
हासिल हो हिस्से कुछ सुख
बीथोवन की नाइन बैक-ग्राउंड में बजती
लाला की पिस्टल से निकली लेजर-किरणें 
एक के बाद एक आम आदमी के शरीरों को भेदने लगी
शरीर ढेर हो रहे थे एक के ऊपर एक 
यह सब कुछ एकदम स्लो-मोशन में था 
अचानक एक पुराना खंजर लाला के सीने में घुस गया
बचे आम आदमी ने संतुष्टि  की सांस ली
असद खाँ साहब की रुद्रवीणा से निकला
जीवन का गहरा नाद यह साँस… 

————


शंभु यादव : 
11 मार्च  1965 (जैसा कि स्कूल के मास्टर जी ने लिखा)
बड़कौदा (जिला महेंद्रगढ़ ), हरियाणा.
बी. काम., एम.ए. (हिंदी) 
कुलवक्ती कवि, जीवन यापन के लिए पत्नी पर निर्भर  
कुछ कविताएँ \’कल के लिए\’ \’आवर्त\’ \’वसुधा\’  \’अनभै सांचा\’ \’नया पथ\’ पत्रिकाओं कें छपी हैं.
\’जानकी पुल\’ \’उड़ान अंतर मन की\’ \’असुविधा \’ आदि पर भी  
ई पता : shambhuyadav65@gmail.com/ 09968074515  
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