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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : सुशीला पुरी

सहजि सहजि गुन रमैं : सुशीला पुरी

कुछ प्रेम कविताएँ                      _____________________________________ प्रेम १. प्रेम वक्रोति नहीं पर अतिश्योक्ति जरुर है जहाँ चकरघिन्नी की तरह घूमते रहते हैं असंख्य शब्द झूठ-मूठ के सपनों और चुटकी भर चैन के लिये..! २. प्रेम एक बहुत ऊँचा पेड़ है जिस पर चढ़ना मुश्किल बस,करनी होती है […]

by arun dev
December 12, 2013
in Uncategorized
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कुछ प्रेम कविताएँ                      
_____________________________________

प्रेम

१.

प्रेम वक्रोति नहीं
पर अतिश्योक्ति जरुर है
जहाँ चकरघिन्नी की तरह
घूमते रहते हैं असंख्य शब्द
झूठ-मूठ के सपनों
और चुटकी भर चैन के लिये..!

२.

प्रेम एक बहुत ऊँचा पेड़ है
जिस पर चढ़ना मुश्किल
बस,करनी होती है प्रतीक्षा
कि आयेगा कोई पंक्षी
जो खाकर ही सही
गिरा देगा एक मीठा फल,
और जब मिलता है वो
तो उसका काफी हिस्सा
पहले ही खाया जा चुका होता है…!

३.

प्रेम पर्वतों के बीच स्थित
झील है मौन की
जहाँ पानियों से ज्यादा
आंसुओं का अनुपात है
जहाँ स्थिर जल में
भागती मछलियाँ हैं
जहाँ एकांत के गोताखोर
खोजते रहते हैं
एक अंजुरी हंसी
और आँख भर आकाश..!

४.

प्रेम,खंडहरों के अन्तःपुर में
झुरमुटों से घिरी
एक गहरी बावड़ी है
जिसके भीतर हम
ध्वनियों से गूंजते हैं
जाते हैं… लौटते हैं
सदियों से चुप उसके निथरे जल में
कुछ हरी पत्तियाँ, डालें और आकाश
देखते रहते हैं अपना चेहरा
पानी की आत्मा अपने हरेपन और
ध्वनियों के स्पर्श में थरथराती है…!  

५.

प्रेम, आग.. आंधी..बाढ़..बारिश
से बचता बचाता
छप्परों वाला घर है
मिटटी का
मन की हल्दी तन का चावल
पीस घोलकर बनती हैं अल्पनायें
चौखटों पर सिक्कों सी जड़ी होती हैं आँखें
जहाँ होते हैं..अगोर और आँसू
किन्तु कभी द्वार में
किवाड़ नहीं होते…!

६.

प्रेम, एक नन्हीं गिलहरी है 
जो बरगद की त्वचा पर 
उछलती फुदकती 
बनाती रहती है 
अनंत अल्पनायें 
और पास जाते ही 
भागकर छुप जाती है 
ऊँचे अनदेखे-अनजाने कोटरों में..!

७.

प्रेम, भूख भी है..आग भी 
पकने तपने और स्वाद के बीच 
कहीं न कहीं 
बटुली में खदबदाती रहती है 
एक चुटकी चुप 
और ढेर सारी भाप..!

८.

प्रेम, एक खरगोश है
हरी दूब की भूख लिए
वन-वन भटकता
कुलांचे भरता
डरा..सहमा
छुपता रहता है
मन की सघन कन्दराओं में,
उसकी नर्म..मुलायम त्वचा की
व्यापारी यह दुनियाँ
नहीं जानती
उसके प्राणों का मोल..!

९.

पीतल की सांकलों वाला
भारी-भरकम
लोहे का द्वार है
जहाँ असंख्य पहरुए
प्रवेश वर्जित की तख्तियां लिए 
घूमते रहते हैं रात-दिन..
और आपको
दाखिल होना होता है 
अदीख हवा में
घुली सुगन्ध की तरह..!

१०.

प्रेम, कबूतरों का वह जोड़ा है
जो पिछली कई सदियों से
पर्वत गुफाओं में
गुटुरगूं करता
पर दिखता नहीं
दिखती है सिर्फ
उनकी अपलक सी आँखें
और आँखों का पानी..!

११.

प्रेम में
अगन पाखी उड़ता है
भीतर ही भीतर
भीतर ही भस्म होते हम
खोजते रहते हैं
अपने हिस्से की मृत्यु
प्रेम के लिए
सिर्फ जीवन ही नहीं
मरण भी
उतना ही जरुरी है..!  

१२.

बरसता है अमृत
अहर्निश
कटोरी के खीर में नहीं
पांच तत्वों से बनी
समूची देह में,
कमबख्त चाँद को
ये कौन बताये…!

१३.

अगोरता
माँ का स्पर्श
किसी झुरमुट में
किसी कोटर में
किसी निर्जन में
पंक्षी के बच्चे सा 

दुबका रहता है प्रेम ..!  
___________________________________________
सुशीला पुरी (बलरामपुर, उत्तर-प्रदेश) 
कविताएँ प्रतिष्ठा प्राप्त  पत्र-पत्रिकाओं में  प्रकाशित.
कुछ कविताओं का पंजाबी, नेपाली, इंग्लिश में अनुवाद और एक कविता का नाट्य रूपांतरण. 
एक दैनिक पत्र और एक पत्रिका में नियमित स्तंभ-लेखन 
प्रथम रेवान्त मुक्तिबोध साहित्य सम्मान
अंतर्राष्ट्रीय परिकल्पना हिन्दी-भूषण सम्मान

सी –479/सी,
इन्दिरा नगर,ल खनऊ — 226016 
09451174529 
sushilapuri31@gmail.com
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