शिवपूजन सहाय की उपस्थिति
प्रभात कुमार मिश्र
शिवपूजन सहाय स्वयं साहित्य-स्रष्टा तो थे ही, वह दूसरों में साहित्य-रचना की प्रेरणा पैदा करनेवाले और नए लेखकों को प्रोत्साहित करनेवाले साहित्यकार भी थे. इस अर्थ में वह भारतेन्दु, बालमुकुन्द गुप्त और महावीरप्रसाद द्विवेदी की परम्परा को अग्रसर करने वाले सिद्ध हुए. महावीरप्रसाद द्विवेदी के बारे में प्रेमचन्द ने ‘हंस’ के ‘द्विवेदी-अभिनंदनांक’ में संपादकीय वक्तव्य में यह लिखा था कि
“ये सबको पिता की तरह शासित किया करते थे और माता की तरह प्यार ! ये हमारी गलतियों पर फटकारते थे, उन्हें प्रेमपूर्वक सुधार देते और हमारी सफलता पर हमें प्रेम के मोदक भी खिलाते थे. इन्होंने ठोंक-ठोंककर हमें सुधारा, पुचकार-पुचकारकर ठीक रास्ते पर चढ़ाया और उत्साह दे-देकर आगे बढ़ाया.’’ 1
ठीक यही बात ‘
मतवाला मंडल के श्रृंगार’
शिवपूजन सहाय के बारे में रामवृक्ष बेनीपुरी ने शब्दों के थोड़े हेर-फेर के साथ लिखी है. शिवपूजन सहाय ने उन्हें पत्र लिखकर एक हास्य-व्यंग्य के पत्र ‘
गोलमाल’
के सम्पादन का भार सौंपा था. बेनीपुरी जी ने लिखा है कि
‘‘गोलमाल’ में मुझे पूरी स्वाधीनता थी. शिवजी के बताए रास्ते पर चलता. जहां त्रुटि होती, शिवजी लम्बा पत्र लिखते. यही नहीं, मेरी सफलता पर भी पीठ ठोंकते.’’ 2
शिवपूजन सहाय का सम्बन्ध हिन्दी नवजागरण के दूसरे चरण अर्थात् महावीरप्रसाद द्विवेदी के युग से है. इस युग तक आते-आते साहित्य को ‘ज्ञानराशि के संचित कोश’ के रूप में स्वीकार किया जा चुका था. साहित्य अब निरे रसस्रोत अथवा मनोरंजन की वस्तु नहीं मानी जा रही थी बल्कि साहित्य के भीतर स्वाभाविक तौर पर समाज, इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति, विज्ञान एवं सभ्यता-संस्कृति के विभिन्न उपादानों का प्रवेश हो चुका था. शिवपूजन सहाय ने युग की इस धारा को समय रहते पहचान लिया और विभिन्न विधाओं में उत्कृष्ट और नए ढंग का साहित्य-सृजन तो किया ही, हिन्दी भाषा और साहित्य से जुड़े विभिन्न विषयों, राष्ट्रभाषा और राजभाषा सम्बन्धी बहसों,समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों तथा अन्य ज्वलन्त सामाजिक समस्याओं पर विभिन्न पत्रिकाओं के संपादकीय स्तम्भों में अपने विचार प्रकट किए.
यद्यपि हिन्दी नवजागरण के प्रसंग में जब हम शिवपूजन सहाय के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विचार करने को प्रवृत्त होते हैं तो एक बड़ी समस्या सबसे पहले उपस्थित होती है. असल में हिन्दी नवजागरण के विस्तृत परिसर का एक कोना अभी भी विद्वानों और गवेषकों की राह देख रहा है. ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दी नवजागरण का एक जरूरी अध्याय अभी तक लिखा ही नहीं गया है. इसका कारण यह है कि हिन्दी नवजागरण से सम्बन्धित विमर्शों का भूगोल प्रायः पश्चिमोत्तर भारत अर्थात् पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर ही केंद्रित रहा है. हिन्दी भाषी पूरब के इलाकों विशेषकर बिहार प्रांत में नवजागरण के स्वरूप और उसकी दिशाओं पर अपेक्षित ध्यान नहीं गया है. यह अनायास नहीं है कि भारतेन्दु मंडल के अग्रदूतों के बाद हिन्दी नवजागरण की धारा को आगे बढ़ाने वाले नामों में शामिल जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’, लक्ष्मी नारायण ‘सुधांशु’, अनूपलाल मंडल, रामावतार शर्मा, शिवनन्दन सहाय, महेश नारायण, शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी, नलिन विलोचन शर्मा आदि के बारे में हम प्रायः अधिक नहीं जानते.
इस भूभाग में नवजागरण की प्रकृति पर विशेष ध्यान देने की जरूरत इस कारण भी है कि बिहार में हिन्दी 1881 से ही कचहरियों की भाषा स्वीकृत हो गई और बाद में जाकर 1900 में यूपी में. इस सन्दर्भ में अयोध्या प्रसाद खत्री के नेतृत्व में चलने वाले खड़ी बोली आंदोलन की भूमिका से हम परिचित हैं ही. नवजागरण के अग्रणी चिंतकों की रचनाओं को सामने लाने में पटना के खड्गविलास प्रेस के योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती है. अपने-अपने ढंग से इन सबका योगदान अनूठा है, इन सबने हिन्दी नवजागरण के यज्ञ में अपने-अपने हिस्से की समिधा दी है. ये वो लोग हैं जिनके बीच शिवपूजन सहाय का साहित्यिक जीवन बीता है. इनके वैचारिक और साहित्यिक संग-साथ में ही शिवपूजन सहाय के मानस में न जितने कितने विचारों ने जन्म लिया है और कितनी ही योजनाओं ने आकार पाया है.
जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ (
1904-1964) छपरा के राजेन्द्र कॉलेज में शिवपूजन सहाय के सहयोगी थे. प्रेमचन्द के साहित्य पर प्रकाशित पहली आलोचनात्मक किताब ‘
प्रेमचन्द की उपन्यास कला’
लिखने का गौरव इन्हें ही प्राप्त है. पहले से ही अंग्रेजी में एम ए हो चुके बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी द्विज जी को हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी में भी एम ए की डिग्री प्राप्त होने पर स्वयं प्रेमचन्द ने एक टिप्पणी लिखी थी,
जो अब ‘
विविध प्रसंग’
भाग तीन में ‘
द्विजजी को बधाई’
शीर्षक से संकलित है. प्रेमचन्द ने लिखा था कि
‘‘भावुकता के सागर में डुबकियां लगानेवाला कवि और कल्पना के आकाश में उड़नेवाला गल्पकार और चरित्र-जीवन परीक्षा भवन में बैठकर ऐसी असाधारण सफलता प्राप्त करले यह साधारण बात नहीं है. परीक्षाएं तो रट्टुओं के लिए है और इस क्षेत्र में हमने प्रतिभाओं को रट्टुओं से नीचा देखते पाया है. कवि को परीक्षा से क्या प्रयोजन! कल्पनावालों को भाषा-विज्ञान और भाषा को प्राचीन इतिहास से क्या प्रयोजन, लेकिन द्विजजी ने यह पाला जीत कर साबित कर दिया कि वह अगर आज शाक-भाजी की दुकान खोलकर बैठ जाएं तो वहां भी सफल हो सकते हैं.’’ 3
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत था कि द्विजजी की कहानियां गुलेरी जी की सामान्य घटना प्रधान कहानी ‘उसने कहा था’ और चंडी प्रसाद ‘हृदयेश’ जी की ‘उन्मादिनी’ कहानी का मनोरम समन्वय उपस्थित करती है.
शिवपूजन सहाय से द्विजजी का प्रेम बहुत सघन था. उनके बीच के इस प्रेम की एक झलक हमें शिवपूजन सहाय द्वारा उनको याद करते हुए लिखे गए इस अंश में दिखाई पड़ती है
‘‘उधर प्लेटफार्म से गाड़ी सरकने लगी, इधर पैरों के नीचे की धरती खिसकती-सी जान पड़ी. मालूम हुआ, गाड़ी के साथ प्लेटफार्म भी चला किन्तु प्लेटफार्म ऐसा सौभाग्यशाली न था. उसने अपनी थर्राहट को मेरे पैरों की राह सारे अंग में बिखेर दिया. लालसा थी, पर हाथ हिलाने की सुध ही न रही. मानो देखते-देखते हाथ साथ छोड़ गए. एकाएक हृदय भर आया. चेतना चम्पत हो गयी. हाथ का छाता अनायास टेककर चकराता हुआ शरीर संभालने का प्रयास करने लगा. ऐसा कातर कभी न हुआ था. शायद ढलती उम्र की अशक्तता भावावेश के आकस्मिक आवेग से सहसा दहल गई. प्रेम की विह्वलता कहना तो दम्भ ही होगा.’’ 4
1944 में राजेन्द्र कॉलेज, छपरा की नौकरी छोड़कर द्विज जी के प्रस्थान के समय का वर्णन इन पंक्तियों में है. समझना कठिन नहीं है कि शिवपूजन सहाय द्विज जी के साथ कितने गहरे जुड़े थे. द्विज जी के साथ जुड़े रहने का अर्थ था दुनिया भर के साहित्य की नवीन चिंताओं के साथ जुड़े रहना.
लक्ष्मीनारायण ‘सुधांशु’ (1906-1974)ने ही सबसे पहले बिहार कांग्रेस के अग्रणी नेता के बतौर प्रांतीय सरकार के समक्ष बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की स्थापना का प्रस्ताव रखा था. कांग्रेस के साथ राजनीतिक मोर्चे पर अग्रणी रहते हुए भी ‘काव्य में अभिव्यंजनावाद’ (1938) तथा ‘जीवन के तत्व और काव्य-सिद्धांत’ (1942) जैसी असाधारण पुस्तकों के रचयिता सुधांशु जी के मौलिक साहित्यिक योगदान को छोड़कर उस युग के साहित्यिक परिवेश के आकलन में आगे नहीं बढ़ा जा सकता. सुधांशु जी ने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के रहते ही स्वच्छन्दतावादी काव्य-प्रवृत्तियों का पक्ष लेकर उनकी अतिशय शास्त्रीयतावाद के आग्रह का प्रतिवाद किया था. यही नहीं अभिव्यंजना सम्बन्धी शुक्ल जी के मतों की भी तीखी आलोचना सुधांशु जी ने की थी. कहने की आवश्यकता नहीं कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की ख्याति और साहित्यिक दबदबे के सामने आकर प्रश्न उठाना लक्ष्मीनारायण ‘सुधांशु’ के न केवल साहस का परिचय कराता है बल्कि उनकी मेधा और चिंतन के भी गवाक्ष खोलता है. ‘रस रंग’ और ‘गुलाब की कलियां’ उनके कथा संग्रह हैं. ‘रस रंग’ में काव्य के रूपों-रसों को आधार बनाकर कथाओं को रचा-बुना गया है.
अप्रतिम उपन्यासकार अनूपलाल मंडल (1896-1982) को आज हम लगभग भूल से चले हैं किन्तु फणीश्वरनाथ रेणु से भी पहले आंचलिकता के तत्वों को ठीक-ठीक उपन्यास के भीतर ले आनेवाले उपन्यासकार थे अनूपलाल मंडल. ग्रामीण अंचल के सामाजिक ताने-बाने को उनके उपन्यासों में यथारूप देखा जा सकता है. इनके उपन्यासां में सामाजिक विषमताओं का तीखा प्रतिरोध, स्त्रियों के प्रति गहरी संवेदना और सामान्य मानवीयता की रक्षा का स्वर प्रबल है. इनकी ‘आत्म-मर्यादा’ शीर्षक एक कहानी 1928 में ही ‘चांद’ मासिक में छपी थी. 1940 में उनके उपन्यास ‘मीमांसा’ पर आधारित एक फिल्म भी बनी थी ‘बहूरानी’ नाम से. महान कथा-शिल्पी अनूपलाल मंडल के लगभग बीस उपन्यास प्रकाशित हैं. इन उपन्यासों में अभियान का पथ, आवारों की दुनिया, उत्तर पांडुलिपि, उत्तर पुरूष, केन्द्र और परिधि, ज्वाला, तूफान और तिनके, तथा दस बीघा जमीन प्रमुख हैं. इन्हें आलोचकों ने प्रेमचन्द और रेणु के बीच की कड़ी माना है. इन्हें ‘बिहार का प्रेमचन्द’ भी कहा जाता है. शिवपूजन सहाय से इनकी घनिष्ठ मैत्री थी और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के कार्यों में ये उनके सहयोगी भी थे.
हिन्दी पत्रकारिता और कविता के क्षेत्र में महेश नारायण (1858-1907) को छोड़कर बात आगे नहीं बढ़ती. हिन्दी की पहली आधुनिक कविता मानी जानेवाली ‘स्वप्न’ शीर्षक कविता महेश नारायण की ही लिखी हुई है.पटना से निकलनेवाली साप्ताहिक पत्रिका ‘बिहार बंधु’ ने इस कविता को 13 अक्टूबर, 1881 से लेकर 15 दिसम्बर, 1881 तक धारावाहिक छापा था. स्वाधीनता की चेतना से युक्त खड़ी बोली हिन्दी में कविता लिखना सचमुच भारतेन्दु युग की काव्य विषयक मान्यताओं में एक सार्थक हस्तक्षेप था. हिन्दी में मुक्त छन्द और फैंटेसी का प्रयोग सबसे पहले इसी कविता में देखने को मिलता है. जीवनी जैसी नवीन गद्यविधा का जब हिन्दी में प्रवेश ही हो रहा था लगभग उसी समय भारतेन्दु और तुलसीदास की प्रसिद्ध जीवनियां लिखी थी शिवनन्दन सहाय ने. रामावतार शर्मा (1877-1929) दर्शनशास्त्र और साहित्य के उद्भट विद्वान थे.
अप्रतिम शैलीकार रामवृक्ष बेनीपुरी (1899-1968) जिन्होंने साहित्य, पत्रकारिता और राजनीति को एक कर दिया था. राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने उन्हें ‘कलम का जादूगर’ कहा था. एक पत्रकार के रूप में बालक, युवक, योगी, जनता, हिमालय और नई धारा जैसी पत्रिकाओं का सम्पादन करके भारतीय इतिहास की लगभग आधी सदी का इतिहास उन्होंने सुरक्षित कर दिया है. नलिन विलोचन शर्मा (1916-1961) थे जिन्होंने हिन्दी में इतिहास-दर्शन सम्बन्धी पहली मुकम्मल किताब लिखी थी ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’. शिवपूजन सहाय ने नलिन विलोचन शर्मा के साथ मिलकर ‘अयोध्या प्रसाद खत्री स्मारक अभिनंदन ग्रंथ’ का संपादन किया था.कहने की आवश्यकता नहीं है कि इन सब विभूतियों के बीच बाबू शिवपूजन सहाय का व्यक्तित्व अलग ही दमकता था. सचमुच ही वे ‘मतवाला मंडल के श्रृंगार’5 थे, निराला जी ने ठीक ही शिवपूजन सहाय को ‘हिन्दी भूषण’ कहकर पुकारा था.
शिवपूजन सहाय का साहित्यिक सम्बन्ध एक प्रकार से भारतेन्दु मंडल तक जा पहुंचता है. उर्दू पढ़ रहे बालक शिवपूजन सहाय को हिन्दी पढ़ने की प्रेरणा मिली थी अक्षयवट मिश्र ‘विप्रचंद’ से. अक्षयवट मिश्र ‘भारत मित्र’ पत्रिका में बालमुकुन्द गुप्त के सहयोगी थे और लाला पार्वतीनन्दन के नाम से ‘सरस्वती’ में व्यंग्य लिखा करते थे. इसलिए भारतेन्दु युगीन हिन्दी नवजागरण की चिंताएं एवं विशेषताएं स्वाभाविक रूप से शिवपूजन सहाय के साहित्य में भी दिखाई पड़ती हैं. ऐसी ही एक विशेषता है ‘हंसमुख’ गद्य की रचना. शिवपूजन सहाय की रचनाओं में हमें भारतेन्दु युगीन जिन्दादिली की उपस्थिति मिलती है. भाषा में चुटीलापन और हास्य-व्यंग्य के माध्यम से गहरी बात कह देना शिवपूजन सहाय को सिद्धहस्त था. हां, समय बदला, परिस्थितियां और चुनौतियां बदल गई थीं इसलिए इन चिंताओं का स्वरूप भी एकदम एक-सा नहीं है.
जिस प्रकार नवजागरण के आरंभिक दौर से ही राजनीतिक मुक्ति के किसी ठीक-ठाक मार्ग को न पाकर नवजागरण के अग्रदूतों ने स्वत्व-रक्षा के सांस्कृतिक मोर्चे को सम्हाल लिया था और औपनिवेशिक सम्मोहन का अपने लेखन से डटकर प्रतिरोध किया उसी प्रकार नवजागरण के इस नए दौर में शिवपूजन सहाय ने संस्कृति पर पड़ रहे औपनिवेशिक प्रभाव को समय रहते पहचान लिया था. 31 दिसम्बर,
1956 को डायरी में उन्होंने लिखा था
‘‘अभी तक हमारे देश में अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी सभ्यता, अंग्रेजी संस्कृति, अंग्रेजी नीति-रीति चल रही है. स्वदेशी तिथि और संवत् का व्यवहार बहुत कम होता है. भारतीय ढंग से छुट्टियां भी नहीं होतीं. अंगरेजियत हर जगह सिक्का जमाये बैठी नजर आती है. भारतीयता का रंग फीका पड़ गया है. मकान बनाते हैं अंगरेजी ढंग के, भोज और उत्सव होते हैं विदेशी ढंग के, वेशभूषा में और खानपान में तो बहुत विदेशी ढंग आ गया है. भारतीय सभ्यता-संस्कृति का ध्यान ही छूट गया है. उसके प्रति जन-जन के मन में आग्रह और ममता नहीं है, उसके महत्व के चिन्तन और उसके तत्व तथा तथ्य के अनुशीलन की प्रवृत्ति भी नहीं है. अभी तक वास्तविक देशोद्धार हुआ कहां है?’’ 6
शिवपूजन सहाय साफ समझते थे कि ‘सभ्यता’ के प्रसार के साथ-साथ ‘संस्कृति’ का विकास भी होता चले यह आवश्यक नहीं है. उनका मानना था कि जैसे-जैसे सभ्यता फैलती जाती है, मनुष्यता घटती जाती है. यांत्रिक सभ्यता के भयावह परिणामों की एक स्पष्ट समझदारी थी उनके पास. उन्होंने चिंता प्रकट की है कि पहाड़ों और जंगलों में रहने वाले मनुष्य सहज ही सत्य और अपने धर्म तथा मनुष्यता के आदर्शों को निबाहनेवाले थे किन्तु यांत्रिक सभ्यता की पहुंच ने उन्हें भी आलसी, अकर्मण्य, बेईमान और छली बना दिया है. वास्तविक देशोद्धार से शिवपूजन सहाय का अभिप्राय था
‘‘भारत का भौतिक विकास तो हो रहा है, पर आध्यात्मिक पतन भी हो रहा है. जबतक नैतिक पतन होता रहेगा तबतक बाहरी विकासों से कोई लाभ या सुख प्राप्त नहीं होगा. देश में जो सांस्कृतिक आयोजनों की धूम है वह भी सांस्कृतिक विकास की वृद्धि नहीं कर रहा, उससे प्रजा की वासनाओं का उद्दीपन हो रहा है. जान पड़ता है कि वासना की भूख अनेक रूपों में अपनी तृप्ति के साधन जुटा रही है. किन्तु यह दृढ़ निश्चय है कि नैतिक उत्थान से ही देश सुखी और समृद्ध होगा.’’ 7
शिवपूजन सहाय ने कई स्थानों पर यह भाव प्रकट किया है कि भारत जैसे पराधीन देश में प्रजा का कल्याण तो राष्ट्रीय एकता से ही हो सकता है; पर केवल मौखिक एकता नहीं- भाव, विचार, सिद्धान्त, कार्य-प्रणाली और ध्येय आदि सबकी दृढ़ एकता चाहिए.
युगानुकूल संदर्भों में अपने सच को कहने में शिवपूजन सहाय बड़े ही साहसी थे. ‘
मतवाला’
में उन्होंने बलवन्त सिंह के नाम से भगत सिंह का एक लेख भी छापा था. यह उनके साहस का ही प्रमाण है कि उन्होंने ठीक उस समय महात्मा गांधी की जबरदस्त आलोचना की थी जब भारतीय राजनीति में गांधी का स्वर ही भारत का स्वर माना जा रहा था. उन्होंने साफ स्वर में गांधी के सत्याग्रह की आलोचना की थी. उनका कहना था कि सारे ‘
देश’
की नजर केवल महात्मा गांधी पर टिकी हुई है,
वह अपनी शक्ति संचय कर केवल गांधी बाबा के निर्देश की प्रतीक्षा कर रहा है. कांग्रेस की कार्यपद्धति पर तीखा व्यंग्य करते हुए शिवपूजन सहाय ने उसे देश की भोलीभाली जनता की भावनाओं से खेलनेवाला बताया है
‘‘‘देश’ से आप क्या समझे? ‘देश’ मोटर पर नहीं चढ़ता, ताली नहीं पीटता, पत्र-सम्पादन नहीं करता, लेक्चर नहीं झाड़ता, प्रस्ताव पास नहीं करता, तर्कशास्त्रियों का गड़बड़झाला नहीं समझता-उसको तो स्वत्व का भी ज्ञान नहीं-वह भोलाभाला है-गौ है-अबोध है-अगर उसे कसाई को दे डालिए तो बिना चीं-चपड़ किए चला जाएगा. वह तो सिर्फ चार शब्द जानता है-‘गांधीबाबा’, ‘भारतमाता’, ‘कांग्रेस’ और ‘स्वराज’.’’ 8
शिवपूजन सहाय के इस कथन में यह लक्षित कर सकना कठिन नहीं है कि केवल अधिवेशनों, बहसों, तर्कों, प्रस्तावों आदि से ‘स्वराज’ पाने के कांग्रेसी ढंग से वे एकदम सहमत नहीं थे.राजनीति के क्षेत्र में धैर्य और संतोष वाली कांग्रेस की कार्य-पद्धति को शिवपूजन सहाय उचित नहीं मानते थे. नागपुर में सशस्त्र-सत्याग्रह का आंदोलन करने वाले मंचरेशा आवारी की जब महात्मा गांधी ने यह कहकर आलोचना की थी कि ‘मरने या अपनी जान देने को निकला सत्याग्रही अपने हाथ में तलवार कैसे रख सकता है?’तब शिवपूजन सहाय ने यह टिप्पणी कीथी कि
‘‘महात्माजी की नागपुर-सत्याग्रह के विरूद्ध उक्त दलीलें उन्हीं के योग्य हैं. पर हम जैसे साधारण संसारी प्राणियों का महात्माजी की उक्त दलीलों से इस युग में कोई भी उपकार न हो सकेगा इसमें कोई सन्देह नहीं. हम श्री अवारी की इस बात को मानते हैं, और बड़े जोर से मानते हैं कि दुर्बल की शान्ति और सत्याग्रह का कोई मूल्य नहीं. मजा और खूबसूरती तो तब हो जब हम सशस्त्र और सबल होकर भी शान्त और सत्याग्रही रहें.’’ 9
इतना ही नहीं महात्मा गांधी के ग्राम सुधार योजनाओं पर भी शिवपूजन सहाय का रूख आलोचनात्मक है. उनका कहना है कि ग्राम-समस्याओं का निराकरण केवल मस्तिष्क-बल या बुद्धि-बल से नहीं हो सकता, उसके लिए वास्तविक प्रत्यक्ष अनुभव की आवश्यकता है. कह सकते हैं कि महात्मा गांधी ने तो निकट से भारत के गांवों को देखकर अपनी धारणा पक्की की थी. किन्तु शिवपूजन सहाय ज्यादा जोर देकर कहते हैं कि गांवों का अनुभव दूर से नहीं हो सकता. लिखित विवरणों और आंकड़ों से भी नहीं, पूछताछ या जांच-पड़ताल और दौरा करने से भी नहीं. शिवपूजन सहाय के अनुसार इसका सबसे बड़ा कारण तो यह है कि विभिन्न प्रान्तों के गांवों की समस्याएं भिन्न-भिन्न हैं.
शिवपूजन सहाय ने निकट से गांव के जीवन को देखा था. उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर लिखा है कि गांवों की पहली आवश्यकता है शिक्षा-प्रचार की. उन्होंने लड़कों और लड़कियों की शिक्षा के उचित प्रबन्ध को सबसे पहले आवश्यक माना है. उनके अनुसार गांवों की दूसरी आवश्यकता है अच्छी सड़कों की और फिर क्रमशः अच्छे जलाशयों, दवाखानों, नदियों और महामारियों की बाढ़ से बचने की स्थायी व्यवस्था, और खेतों की चकबन्दी की जरूरत सबसे अधिक है. शिवपूजन सहाय को आशंका थी कि ग्राम-सुधार के महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों की ओर गांववाले आशा-भरी करूण-कातर दृष्टि से देख तो रहे हैं किन्तु ‘देशभक्त’ कांग्रेसी-कार्यकर्ताओं की श्रद्धा इस ओर होगी भी कि नहीं.
शिवपूजन सहाय के साहस का एक और बड़ा प्रमाण हमें उनके द्वारा कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ पर की गई व्यंग्य-टिप्पणी से मिलता है. शिवपूजन सहाय रवीन्द्रनाथ के व्यक्तित्व के एक पहलू से बहुत अप्रसन्न थे. अपने शांतिनिकेतन में रवीन्द्रनाथ ने हिन्दी की शिक्षा-दीक्षा का बढ़िया प्रबन्ध कर रखा था किन्तु स्वयं हिन्दी सीखने के प्रति उन्होंने आजीवन कोई अभिरूचि जाहिर नहीं की थी. इस बारे में पूछे जाने पर हमेशा रवीन्द्रनाथ का एक ही निश्चित उत्तर होता था कि टूटी-फूटी हिन्दी बोलकर मैं सरस्वती का अपमान नहीं करना चाहता. इस प्रसंग में शिवपूजन सहाय ने बड़ी मारक टिप्पणी लिखी है कि
‘‘नागराक्षर में लिखे हुए महात्मा गांधी के अनेक पत्र यत्र-तत्र छप चुके हैं, जिनमें कुछ अशुद्धियां भी पाई जाती हैं. पर तब भी महात्माजी के हस्तलेखों को पाकर देवनागरी अपने को धन्य ही मानती है. महाकवि के समान युगद्रष्टा महापुरूष की अमर लेखनी से प्रसूत नागराक्षर भी उसे धन्य ही बनाते; पर राष्ट्रभाषा हिन्दी को ऐसी गर्व-गौरव प्रदान करने की कृपा महाकवि ने न दिखाई. उनकी तूलिका से अंकित अनेक अटपटे चित्र दर्शनीय कला की संज्ञा पाकर चित्रकला के क्षेत्र में सुयश पा गए; पर राष्ट्रभाषा हिन्दी न उनकी वाणी के अमृत का एक कण ही चख सकी और न देवनागरी उनकी लेखनी के प्रसाद का कोई कण पा सकी.’’ 10
इतना ही नहीं शिवपूजन सहाय ने इस बात पर भी चिंता जाहिर की थी कि रवीन्द्रनाथ के साहित्य पर कबीर, दादू, विद्यापति आदि हिन्दी के कवियों का प्रभाव तो विद्वानों ने बताया है किन्तु किसी ने इस बात की चर्चा नहीं की है कि आखिर क्यों महाकवि ने अपनी किसी रचना में इन कवियों की चर्चा तक नहीं की है?
शिवपूजन सहाय के साहस की बात चले तो यह भी बताना अनावश्यक नहीं होगा कि महावीरप्रसाद द्विवेदी के यत्नों और प्रभाव से उस युग में जो ‘
प्युरिटन साहित्य’
का दौर आया था,
उस दौर में भी साहित्यिक सरसता की बात की थी शिवपूजन सहाय ने. ‘
साहित्य’
शब्द की एक साफ समझदारी थी शिवपूजन सहाय की. वो मानते थे कि ‘
‘किसी राष्ट्र या जाति में संजीवनी शक्ति भरने वाला साहित्य ही है इसलिए सब-कुछ खोकर भी यदि हम इसे बचाए रहेंगे, तो फिर इसी के द्वारा हम सब-कुछ पा भी सकते हैं किन्तु इसे खोकर यदि बहुत-कुछ पा भी लेंगे, तो फिर इसे कभी पा न सकेंगे.’’ 11
अपने समय में लिखी जा रही अधिकांश समालोचनाओं से शिवपूजन सहाय प्रसन्न नहीं थे. उनकी अप्रसन्नता का कारण यह था कि उनकी दृष्टि में अधिकांश आलोचनाएं ईर्ष्या-द्वेष और पक्षपात से भरी हुई होती थीं. सच्ची समालोचना की हिमायत करते हुए शिवपूजन सहाय ने अपनी साहित्यिक समीक्षाओं में बाबू श्यामसुन्दर दास और रामचन्द्र शुक्ल तक की आलोचना करने में हिचक नहीं दिखाई. ‘भट्टनायक’ के छद्मनाम से समीक्षाएं लिखा करते थे शिवपूजन सहाय. रामचन्द्र शुक्ल ने महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रसंग में एक स्थान पर लिखा था कि ‘‘द्विवेदी जी के लेखों को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता है कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठकों के लिए लिख रहा है’’. 12
शिवपूजन सहाय ने इसकी समीक्षा करते हुए जिस साहस और स्पष्टवादिता का परिचय दिया है वह उल्लेखनीय है. शिवपूजन सहाय ने लिखा कि ‘‘वास्तव में द्विवेदी जी दूसरों ही के समझने के लिए लिखते हैं, पर शुक्ल जी केवल अपने ही समझने के लिए लिखा करते हैं.’’ 13
शिवपूजन सहाय का जीवन गुलाम भारत की चिंताजनक सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों के बीच प्रौढ़ हुआ था. इन सबके बीच अर्जित जीवनानुभवों ने उन्हें राष्ट्रहित और राष्ट्रभाषा की सेवा के मार्ग में बढ़ने की प्रेरणा दी थी. आधुनिक राष्ट्र की भाषा के रूप में हिन्दी को स्थापित करने में इनकी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. जीवन भर जिस एक चीज को सबसे अहमियत दी थी शिवपूजन सहाय ने वह थी हिन्दी भाषा. उनका मानना था कि रचना में
‘‘भाषा खिलवाड़ करने की चीज नहीं है. भाषा बड़ी नाजुक चीज है. उसका रूप संवारने की कला कथा-रचना की कला से भिन्न है. उसके साथ मनमानी छेड़खानी साहित्य की मर्यादा भ्रष्ट करती है. हमारा मत है कि कथा-साहित्य की परख भाषा की कसौटी पर पहले होनी चाहिए.’’ 14
बिल्कुल पक्की भाषा लिखने वाले शिवपूजन सहाय की इस विशेषता के ही कारण न केवल प्रेमचंद ने अपनी ‘रंगभूमि’ के संपादन का जिम्मा उन्हें सौंपा था बल्कि उन्होंने ‘महावीरप्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ’, ‘राजेन्द्र प्रसाद अभिनंदन ग्रंथ’, ‘अयोध्या प्रसाद खत्री स्मारक अभिनंदन ग्रंथ’ आदि महत्वपूर्ण अभिनंदन ग्रंथों के साथ-साथ राजेन्द्र प्रसाद की वृहदाकार आत्मकथा का भी संपादन किया था.
भाषा सम्बन्धी उनकी इस धारणा का सबसे अच्छा उदाहरण भी उनका ही उपन्यास है ‘देहाती दुनिया’ (1926). इस उपन्यास के आरंभ में ही उन्होंने लिखा है कि ‘‘मैंने आज तक जितनी पुस्तकें लिखीं, उनकी भाषा अत्यन्त कृत्रिम, जटिल, आडम्बरपूर्ण, अस्वाभाविक और अलंकारयुक्त हो गई. उनसे मेरे शिक्षित मित्रों को तो सन्तोष हुआ, पर मेरे देहाती मित्रों का मनोरंजन कुछ भी न हुआ.’’ 15
इस उपन्यास में उन्होंने आंचलिक शब्दों, मुहावरों और देहात में चलने वाली कहावतों का साभिप्राय प्रयोग किया है. इन मुहावरों और कहावतों का प्रयोग करते हुए शिवपूजन सहाय ने निरन्तर यह ध्यान रखा है कि इनका प्रयोग इस प्रकार किया जाए कि प्रसंगानुकूल उनका अर्थ समझने में कोई कठिनाई न उपस्थित हो. ‘आंखों में ही रात काटना’, ‘हंसी ओठों की राह न निकलकर आंखों की राह फूट पड़ना’, ‘कल्पना की हाट में खाली हाथ घूमना’ जैसे नए मुहावरों का प्रयोग भाषा पर उनके जबरदस्त अधिकार का परिचय कराते हैं. ‘कड़ाके की सर्दी’ का प्रयोग तो आम है किन्तु शिवपूजन सहाय ने ‘कड़ाके की धूप’ जैसा मौलिक प्रयोग भी किया है.
भाषा सम्बन्धी उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि कथाकार की भाषा ऐसी मनभावनी होनी चाहिए कि उसकी रचना का उद्देश्य और निष्कर्ष उसके बतलाये बिना ही भली प्रकार पाठक के ध्यान में आप-से-आप आ जाना चाहिए.जब उन्होंने कथा-लेखन के क्षेत्र में पांव रखे थे तब स्वयं उन्होंने माना है कि
‘‘उस युग में ‘कला’, ‘टेकनीक’, ‘वाद’ आदि की कहीं कोई चर्चा नहीं सुन पड़ती थी. कहानी-लेखक तब कलाकार नहीं कहलाता था. वस्तुतः वह आरम्भिक युग था. कलात्मक चमत्कार तो विकास-युग की चीज है.हां, कथावस्तु की कल्पना मैंने कभी नहीं की. देखे-सुने-पढ़े विषयों से ही घटना और चरित्र का मसाला जुटाता रहा. मेरी एक भी कहानी कल्पना-लोक से नहीं उतरी है. आंखों-देखी और कानों-सुनी घटनाओं से हृदय में जब जैसे भावों की अनुभूति हुई तब तैसे उद्गार अभिव्यक्त हुए.’’ 16
शिवपूजन सहाय ने ‘देहाती दुनिया’ के द्वारा हिन्दी में ‘उपन्यास’ की तत्कालीन समझ में तब्दीली लाई थी. इस उपन्यास का महत्व न केवल इसमें उनके द्वारा किए गए नूतन भाषिक प्रयोगों की वजह से है बल्कि हिन्दी में विराम चिह्नों का साधिकार और शुद्ध प्रयोग भी उस जमाने में इसी उपन्यास में देखने को मिलता है. सबसे बड़ी बात इस प्रसंग में यह है कि ‘देहाती दुनिया’ के रूप में शिवपूजन सहाय ने एक अनूठा औपन्यासिक शिल्प हिन्दी के सामने रखा था. यह अनायास नहीं है कि इस उपन्यास को उन्होंने प्रसिद्ध कहानीकार राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह को समर्पित किया है और अपने समर्पण वाक्य में शिवपूजन सहाय ने उन्हें ‘हिन्दी के गद्य-कवि’ कहकर संबोधित किया है. कहने की आवश्यकता नहीं है कि स्वयं शिवपूजन सहाय की दृष्टि में ‘देहाती दुनिया’ का शिल्प ‘गद्य-कविता’ का ही शिल्प है.
आजादी की लड़ाई के बीच और आजाद भारत की समस्याओं से निपटने में लेखकों की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण रही है. लेखकों-कवियों ने अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के द्वारा देश की जनता की पीड़ा और वेदना की अभिव्यक्ति की है और उनकी आशाओं और आकांक्षाओं को स्वर प्रदान किया है. आजाद भारत में भारत की अस्मिता और खोई हुई प्रतिष्ठा को वापस पाने का एक व्यापक और संगठित अभियान शुरू हुआ थाऔर अलग-अलग प्रांतीय सरकारों द्वारा विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं की संस्थापना के प्रयास आरंभ हुए थे. ऐसी ही एक संस्था थी ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्’. परिषद् के आरंभिक काल से ही बतौर सचिव शिवपूजन सहाय संलग्न थे. इनकी प्रतिभा, क्षमता, दृष्टि और अभिरूचि का परिचय हमें उस समय के परिषद् के प्रकाशनों को देखकर मिलता है. राहुल सांकृत्यायन की महत्वपूर्ण पुस्तकें ‘सहरपा कोश’, ‘दक्खिनी हिन्दी काव्यधारा’, ‘मध्य एशिया का इतिहास’, आचार्य नरेन्द्र देव की पुस्तक ‘बौद्ध धर्म दर्शन’, वासुदेवशरण अग्रवाल की किताब ‘पद्मावत : एक संजीवनी व्याख्या’, कई खंडों में छपे ‘बिहार का साहित्यिक इतिहास’, ‘विद्यापति ग्रन्थावली’ आदि के प्रकाशन के पीछे शिवपूजन सहाय की ही प्रेरणा और कोशिश थी. बिहार प्रांतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशनों के आयोजन और उन सम्मेलनों के संचालन में शिवपूजन सहाय की बड़ी भूमिका रहा करती थी.
शिवपूजन सहाय देश और समाज से गहरे जुड़े थे और उसकी युगीन आवश्यकताओं का निकट अनुभव रखने वाले विद्वान थे. हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास और समृद्धि को लेकर उनमें गहरी और सच्ची चिंता थी. हिन्दी क्षेत्र के साहित्यिक और सांस्कृतिक मानस के निर्माताओं में शिवपूजन सहाय अग्रगण्य थे.
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प्रभात कुमार मिश्र
हिन्दी विभाग, असम विश्वविद्यालय, सिलचर, असम-788011
मो 09435370523 / ई – पता : prabhat432@gmail.com
सन्दर्भ :
1. प्रेमचन्द और उनका युग, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004, पृ. 119
2. मुझे याद है, रामवृक्ष बेनीपुरी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2003, पृ. 61
3. दृष्टि पत्रिका (द्विज विशेषांक), संपादक डॉ. दिवाकर, दृष्टि प्रकाशन, नवादा, बिहार, वर्ष 17-19, अंक 69-77, जनवरी-मार्च 1997-99, पृ. 14
4. वही, पृ. 31
5. मुझे याद है, रामवृक्ष बेनीपुरी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2003, पृ. 60
6. शिवपूजन सहाय : प्रतिनिधि संकलन, सं. मंगलमूर्ति, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, 1996, पृ. 212
7. वही, पृ. 212
8. वही, पृ. 83
9. वही, पृ. 88
10. वही, पृ. 116
11. वही, पृ. 99
12. हिन्दी का गद्यपर्व, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011, पृ. 213
13. वही, पृ. 213
14. शिवपूजन सहाय : प्रतिनिधि संकलन, सं. मंगलमूर्ति, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, 1996, पृ. 114
15. देहाती दुनिया, शिवपूजन सहाय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2001, पृ. 7
16. शिवपूजन सहाय : प्रतिनिधि संकलन, सं. मंगलमूर्ति, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, 1996, पृ. 39