प्रसिद्ध चित्रकार अखिलेश (जन्म : २८ अगस्त, १९५६) हिंदी के समर्थ लेखक और अनुवादक भी हैं. मक़बूल फ़िदा हुसैन की जीवनी, मार्क शगाल की आत्मकथा का अनुवाद, तथा ‘अचम्भे का रोना’, ‘दरसपोथी’, ‘शीर्षक नहीं’ और ‘देखना’ आदि उनकी प्रसिद्ध गद्य कृतियाँ हैं.
आकाश, रंग-रहस्य और अखिलेश
‘क्षिति के साथ, क्षिति के ऊपर गुजारा गया जीवन, किस वक़्त तक उन रंगों से भरा है जो वहीं दिखते हैं और वहीं रह जाते हैं, यह कहना मुश्किल नहीं जान पड़ता. लेकिन इस रंग अनुभूति को समेटना थोड़ा मुश्किल है.’
कला और साहित्य की अंतहीन बहसों में उलझकर अपने आप को तलाशती दुनिया. वह दिन-रात स्वप्न-लोक में उड़ते, तैरते हुए जमीन पर आ जाने का मौसम होता. रात एक-दो बजे किसी होटल में लजीज खाने के बाद तीन बजे के आसपास एक-दूसरे से विदा ली जाती. तब जो नींद आती, वह भी अवचेतन मन में दूसरे दिन के मिलने की उत्सुकता के इर्दगिर्द देह को आराम करने देती. अब वह दिनचर्या सोचकर ही हैरानी होती है. यह भी शिद्दत से महसूस होता है कि जीवन का ढर्रा हमेशा एक जैसा नहीं होता. किशोरी अमोनकर को सुनना हमेशा एक जैसा श्रुति-रस नहीं देता. चित्र में लगा रंग बार-बार देखने पर हमेशा एक ही रंग-अनुभव नहीं देता. फिर वह क्या है जो हमारी स्मृतियों में से रह-रहकर उभरता है और जिद करता है कि कम से कम शब्दों के जरिए ही उसे पुनः सृजित कर थोड़ा समय विगत के साथ गुजारा जाए.
जिन वर्षो के दौरान मैं \’कलावार्ता\’ का सम्पादन करने भोपाल रहता था, तब अखिलेश से शाम को मिलने का मतलब आधी रात हो जाने से होता था. न मालूम कितनी मर्तबा किसी भी चलताऊ फ़िल्म का आखिरी शो देखने उसके स्कूटर पर हम जाया करते थे. उसे देखने का हमारा सबब यही होता था कि उसके घटियापन पर शो के बाद एक-दो घन्टे बतकही की जाए. उस समय हमें यह नहीं मालूम था कि हम ऐसा क्यों करते थे और आज भी यह लिखते हुए वह सब करने का कारण तर्क की परिधि से बाहर ही है. शायद वह सिरफिरापन ही था, जो अन्य स्वरूपों में आज भी थोड़ा-बहुत तो बचा ही हुआ है.
भोपाल से जुड़ी कई यादें हैं. वह समय मेरे लिए जीवन की उच्च शिक्षा प्राप्त करने का समय रहा. हालांकि इसका पाठ्यक्रम बिना अबोधता के पढ़ा नहीं जा सकता. मित्रों के साथ विशिष्ट किस्म के नियोजित हुड़दंग करने और खुद को भुला देने का दौर भी वही था. उन दिनों अखिलेश और मेरी सामान्य बातचीत कब कला पर केंद्रित हो जाती और कब कला पर चर्चा सहज जीवन-चर्या पर ठहर जाती, इसका पता नहीं चलता. उस वक़्त भविष्य के चित्रकार के रूप में नहीं, वर्तमान के कलाकार मित्र की तरह अखिलेश का कुल जमा व्यवहार था. कोई भी काम हड़बड़ी से करने की आदत अखिलेश को उस समय भी नहीं थी और आज भी नहीं है. हड़बड़ी में भागते-दौड़ते समय को भी उसने धैर्य से देखा-जिया है. उन दिनों हरचन्दन भट्टी, देवीलाल पाटीदार, अतुल पटेल, जावेद जैदी, हेमन्त, अशोक साठे इत्यादि मित्र अक्सर मिला करते और उस नए शहर में अपना-अपना अकेलापन बाँटते रहते.
फिर मैं कुछ नया जीने-करने के लिए मुंबई चला गया. अखिलेश से पत्र-व्यवहार चलता रहा. मुंबई आने पर वह मेरे साथ ही रुकता. लोअर परेल वाले घर में एक बार अखिलेश ने मेरे बिस्तर की चादर, शाल, तकिए का कवर निकाला और मेरे ही साथ लाँड्री में जाकर देते हुए मुझे कहा कि रहने का भी एक ढंग होना चाहिए. उस वक़्त मैं सिंगल था और घर का मतलब मेरे लिए नींद निकालकर तैयार हो निकल जाना था. अखिलेश के साथ ही मैं मुंबई में रजा, राजीव सेठी, योगेश रावल, प्रभाकर बर्वे इत्यादि से मिला. मुंबई में उसके साथ जहांगीर आर्ट गैलरी के बाहर बटाटा बड़ा खाना और इस पदार्थ के नाम को लयबद्ध तरीके से गाना हमारी आदत में शुमार हो गया था. लोकल ट्रेन में सीट नहीं मिलने पर भीड़ की धक्कम-पेली में उन दृश्यों पर किसी शार्ट फ़िल्म के कथानक की काल्पनिक चर्चा करना पूरे सफर का विषय होता. उस फिल्म के सम्वाद में बने दृश्यों में अतियथार्थवाद का होना जरूरी होता. कभी उस चलती ट्रेन की भीड़ के सारे पात्रों को निवस्त्र कर दृश्य को रचा जाता.
हेबरमास ने देरिदा के दर्शन के कलाकरण की जो विश्लेषणात्मक आलोचना की थी, उसके जवाब में देरिदा ने एक साक्षात्कार में कहा था-
\”सभी पाठ अलग होते हैं. एक ही निकष पर उन्हें कसने की कोशिश कभी नहीं करना चाहिए और न ही एक ही तरीके से उन्हें पढ़ने का प्रयास. कहा जा सकता है कि प्रत्येक पाठ एक अलग \’आँख\’ की मांग करता है. कुछ दुर्लभ पाठों के लिए यह कहा जा सकता है कि लेखन एक ऐसी आँख की सरंचना और बनावट की तलाश भी करने लगता है, जो अभी अस्तित्व में है ही नहीं.\”
अखिलेश के लिए कला और जीवन एक ऐसे ही दुर्लभ पाठ की तरह है, जिसे उन्हें खुद ही पढ़ना है और अपने में ही वे उस आँख की खोज करते रहते हैं, जिससे पढ़ा जा सके. यह अच्छा ही है कि उनका यह पढ़ना उनकी पूरी दिनचर्या में अभी तक शामिल है.
दार्शनिक अंकिसमन्द्रोस ने गगन को संसार का मूल रचना तत्व माना है. किर्क तो यहाँ तक कहते हैं कि-
\”जल तत्व एक है, पर जल अनेक हैं. इसी तरह यह बिलकुल सम्भव है कि आकाश तत्व एक हो, लेकिन हर घड़े के अंदर उसका अपना और हर मनुष्य के भीतर उसका अपना आकाश हो.\”
वहीं अखिलेश अपने चित्रों में आए नीले रंग के बारे में कहते हैं-
\”नीले आकाश का गहरा प्रभाव हम सभी पर होगा, ऐसा मुझे लगता रहा है. बचपन से लेकर आज तक जब भी ऊपर देखा, एक अंतहीन नीला दिखाई देता है, कई रंगों में अपने को प्रकट करता, कई नीले रंग को दिखलाता. इतना अधिक कोई और रंग शायद ही देखा जाता हो. इसका विस्तार मन में फैला है. यह मन का विस्तार भी है.\”
कई सदियों तक यूनान और यूरोप में केवल चार तत्वों की बात ही कही जाती रही. आकाश को शून्य मानने में उसे तत्व रूप में स्वीकारना वहाँ कठिन था. लेकिन अखिलेश उसे तत्व ही मानते रहे हैं. \’नीला रंग\’ और उसके भी कई सारे \’नीले\’ उनके लिए रहस्य का विषय हैं. हालांकि वे आकाश के नीले को साफ और खुला ही पाते हैं. छान्दोग्य में कहा गया है-
\”आकाश तेज से बढ़कर है. सूर्य, चन्द्रमा, विद्युत, नक्षत्र, अग्नि उसी में है. आकाश से प्राणी उत्पन्न होते हैं, आकाश से हम बोलते और सुनते हैं. समस्त भूत आकाश से उत्पन्न होते हैं, उसी में उनका अवसान होता है. वह सबसे बढ़कर है और वह अनन्त है.\”
अपने चित्रों में अखिलेश आकाश और उसके \’नीले\’ के कई सारे रंगों को अपनी अलग दृष्टि से देखते हैं और अपनी स्थापना को चित्र-भाषा में प्रतिष्ठित करते हैं. वे अपने चित्रों में \’नीला\’ उसकी गहराई से देख पाते हैं, उसके चित्र विस्तार से नहीं. उनके चित्रों में आया नीला असल में विस्तार का नीला नहीं है. वे रंगों के जल-तत्व को, उनकी सौम्य आर्द्रता के मध्य, विशेषकर नीले में संतुष्टि से महसूस कर पाते हैं. वे नीले के जल का स्पर्श मात्र करते हैं और वह चित्र का स्थायी भाव बन जाता है. रंग-जल की एक अदृश्य नदी उनके चित्रों की पृथ्वी पर उद्गम हो बहने लगती है और न मालूम किस या किन रंगों में जाकर विलीन हो जाती है. यह अखिलेश के चित्रों का बनाया हुआ जल है. यह अखिलेश का जल है.
अखिलेश के चित्र-धरातल पर जो दृष्टिगोचर होता है, केवल वही उस चित्र की सीमा नही होती. वह एक संकेत है, जिसकी दिशा में दर्शक को ही जाना होता है. यह संकेत भी अदृश्य ही होता है. अखिलेश के चित्र सुषुप्तावस्था के चित्र हैं. न वे वैसे जाग्रत हैं, जैसे हम मनुष्य को जाग्रत अवस्था में पाते हैं, और न ही वे स्वप्नावस्था में हैं.
वरहदारण्यक में मन या चेतना की तीन अवस्था बताई गई हैं.
लेकिन सुषुप्तावस्था में इंद्रियां और मन काम नहीं करते. दृष्टा रूप में केवल अद्धेत आत्मा रह जाती है. यही अखिलेश के चित्रों की दृश्य-गति हैं. ये दृश्य ही रंग-उत्सव हैं और यही उनका रहस्यमय घटाटोप है.
अमूर्त : एक
अमूर्त : दो
अमूर्त : तीन
अमूर्त : चार
अमूर्त : पाँच
अमूर्त : छह
अमूर्त : सात
अमूर्त : आठ
अमूर्त : नौ
अमूर्त : दस
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