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Home » अनूप सेठी की कविताएँ : चौबारे पर एकालाप संग्रह

अनूप सेठी की कविताएँ : चौबारे पर एकालाप संग्रह

लगभग पन्द्रह वर्षों के अन्तराल में अनूप सेठी (२० जून, १९५८) का दूसरा कविता संग्रह ‘चौबारे पर एकालाप’इस वर्ष भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ है. ‘जगत में मेला’ (२००२) उनका पहला संग्रह है.   विजय कुमार ने इस संग्रह के लिए लिखा है कि ‘अपने इस दूसरे कविता-संग्रह में अनूप सेठी की ये कविताएँ एक विडम्बनात्मक […]

by arun dev
November 19, 2018
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लगभग पन्द्रह वर्षों के अन्तराल में अनूप सेठी (२० जून, १९५८) का दूसरा कविता संग्रह ‘चौबारे पर एकालाप’इस वर्ष भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ है. ‘जगत में मेला’ (२००२) उनका पहला संग्रह है.  
विजय कुमार ने इस संग्रह के लिए लिखा है कि ‘अपने इस दूसरे कविता-संग्रह में अनूप सेठी की ये कविताएँ एक विडम्बनात्मक समय-बोध के साथ जीने के एहसास को और सघन बनाती हैं. औसत का सन्दर्भ, नये समय के नये सम्बन्ध, खुरदुरापन, स्थितियों के बेढब ढांचें, वजूद की अजीबोगरीब  शर्तें, तेजी से बदलता परिवेश जिनमें जीवन की बुनियादी लय ही गड़बड़ायी हुई है. अपने इस वर्तमान को कवि देखता है, रचता है और कई बार उसका यह बिडम्बना बोध सिनिकल होने की हदों तक छूने लगता है.”
अनूप सेठी हिंदी कविता की नई सदी के इस अर्थ में कवि हैं कि उनकी कविताएँ इस सदी की यांत्रिकता और अतिवाद से जूझती हैं. उनकी कविताएँ आप समालोचन पर पढ़ते रहें हैं. उनके नये संग्रह से पांच कविताएँ आपके लिए.

  
अनूप   सेठी   की   कविताएँ              
_________________________________



रिश्‍तों की गर्मी

रेलगाड़ी छूट न जाए इस हड़बड़ाहट में
चार जनों  को पूछ लेने के बाद जब मेरी चमकती जेब दिखी
तो लपक के मांग ली मुझसे कलम
मैं झिझका पहले इस महंगे फाउटेंन पेन की निब भोंथरी न कर दे कहीं पर
हाथ ने मेरे निकाल कर दे दी अपने आप 

निरच्‍छर दिखती मौसी ने खुद से आधी उमर की धीया से
पर्ची पर लिखवा कर मुट्ठी में भींच लिया मोबाइल नंबर
धीया ने भी मुसे हुए रुमाल में लुका ली अपनी पर्ची टीप करके पकड़ाने के बाद
अतिकीमती सामान की तरह फिर गहरी तहों में ओझल कर दिया रुमाल 

रेलगाड़ी से निकल जाएंगी ये गंवनियां सजी-धजी दुनिया के हाशिए फलांगती
खूंदने अपनी अपनी जिंदगानियां
किसी अपने का नंबर है दोनों के पास
दो संसारों को जोड़ता अनदीखती सी आस जैसा
बैठा हुआ कोई बहुत ही पास जैसा
मीलों लंबी दूरी में भी जुड़े अपनेपन के बेतार वाले तार जैसा 

फाउटेंन पेन आया जब लौट कर रिश्‍तों की गर्मी की ले-दे में पगा हुआ
अपनी हेकड़ी से शर्मसार किंचित झुका झुका
मेरी धड़कन बढ़ाता रहा
सीने पर मेरी जेब में पड़ा पड़ा 

विजेताओं का आतंक

इतनी जोर का शोर होता था कि खुशी की भी डर के मारे चीख निकल जाती थी 
असल में वो खुशी का ही इजहार होता था जो शोर में बदल जाता था   
खुशी को और विजय को पटाखों की पूंछ में पलीता लगा कर मनाने का चलन था 
सदियों से 
ये सरहदों को रोंद कर दूसरे मुल्‍कों को फतह करने वाले नहीं थे 
ये तो अपनी ही जमीन पर ताजपोशी के जश्‍नों से उठने वालों का कोलाहल होता था
धमाके इतने कर्णभेदी होते थे कि पटाखे चलाना कहना तो मजाक लगता था 
विस्‍फोट ही सही शब्‍द था बेलगाम खुशी और महाविजय के इस इजहार के लिए 
ए के फॉर्टी सेवन की दनदनाती हुई मृत्‍यु वर्षा की तरह 

धुंए और ध्‍वनि का घटाटोप था आसमान में ऐसा कि हवा सूज गई थी 
गूमड़ बन गए थे जगह जगह, कोढ़ के फोड़ों की तरह
जिस भूखंड में जितनी ज्‍यादा खुशी वहां के अंबर में उतना ही बड़ा और सख्‍त गूमड़

प्राचीन सम्राटों के अट्टहास ऊपर उठ कर पत्‍थरों की मानिंद अटके हुए थे 
पृथ्‍वी की गुरुत्‍वाकर्षण की सीमारेखा पर
उनके नीचे बादशाहों के फिर 
राजाओं रजवाड़ों सामंतों जमींदारों सरमाएदारों के ठहाकों के रोड़े
हैरानी तो यह थी लोकतंत्री राजाओं जिन्‍हें जनता के प्रतिनिधि कहा जाता था
उनकी पांच साला जीतों का विस्‍फोट भी 
आसमान में चढ़ कर सबके सिरों पर लटक  गया था  
गूमड़ दर  गूमड़ 

वायुमंडल में बनी इस ऊबड़-खाबड़ लोहे जैसी छत में
परत दर परत पत्‍थर हो चुकी खुशियां थीं 
असंख्‍य विजेताओं पूर्वविजेताओं की  
धरती से ऊपर उठती 
आसमान का इस्‍पाती ढक्‍कन बनी हुई 

दंभ का सिंहनाद 
गूमड़दार लोहे की छत की तरह था 
जिसमें से देवता क्‍या ईश्‍वर भी नहीं झांक सकता था 

दनदनाते विजेताओं के रौंदने से उड़ रही धूल ने सब प्राणियों की आंखों को लगभग फोड़ ही डाला था 
पीढ़ी दर पीढ़ी
जीत की किरचों से खून के आंसू बहते थे अनवरत
जिसे आंखों में नशीले लाल डोरे कहा जाता था 
जड़ता के खोल में बंधुआ होती जनता को 
हर दिन महाकाय होते जश्‍न का चश्‍मदीद गवाह घोषित किया जाता था 
सदियों से

ब्‍लेड की धार पर

कार के एफ एम में जैसे ही विज्ञापन बजा
बिस्‍तर पर जाने से पहले फलाने ब्‍लेड से शेव करो वरना
बीवी पास नहीं फटकने देगी
चिकना चेहरा दिखलाओगे दफ्तर में
बीवी को दाढ़ी चुभाओगे यह नहीं चलेगा
याद आया ओह! रेजर रह गया बाथरूम में बाल फंसा झाग सना
आदतन कार चलती चली जाती थी वो मुस्‍काराया
यह औरतों को बराबरी देने का बाजारी नुस्‍खा है या
ब्‍लेड की सेल बढ़ाने का इमोशनल पेंतरा
फिर उसे लगा सच में ही चुभती होगी दाढ़ी पर
कभी बोली नहीं
उसे प्‍यार आया बीवी पर
और वो स्‍वप्‍न-लोक में चला गया
जैसे ही देहों के रुपहले पट खुलने की कामना करने लगा
दुःस्‍वप्‍न ने डंक मारा मानो वो नर-वृषभ है
नारि‍यों के रक्‍त सने हैं उसके हाथ
मदमत्‍त वह चिंघाड़ता हुआ दौड़ रहा सड़क पर
रोड़ी की तरह बि‍खराता चला जा रहा संज्ञाविहीन नारी देह
एक के बाद एक अखंड भूखंड पर
तभी उसकी दौड़ती कार की विंड स्‍क्रीन पर
टीवी मटकने लगता है जिसमें
लाइव टेलिकास्‍ट आ रहा है दौड़ती बस का
फेंकती जाती नारी देहों का
बस के स्‍टीयरिंग पर वही है, कंडक्‍टर वही
सहस्रमुखी अमानुष वही है
हड़बड़ाहट में चैनल बदलता है
उसके हाथ की रॉड यहां मोमबत्‍ती बन गई है
दुख और क्रोध और हताशा और अपराध-बोध में गड़ा जाता
खड़ा पाता खुद को महिलाओं के साथ
नृप-वृषभों के सम्‍मुख है
सींग अड़ाता वही है युवा-वृष
सारे दृश्‍य को तत्‍काल बदल डालने को आतुर
कोमल और सुकुमार और मानवीय रचना को व्‍याकुल
जैसे टीवी की चैनल न बदली दुनिया बदल डाली
तभी सिग्‍नल पर उसकी कार धीमी पड़ती है
बगल से ट्रैफिक पुलिस शीशा खटखटाता है
कार के शीशे काले क्‍यों हैं
चलान कटवाइए या लाइसेंस लाइए
वह झुंझलाता है निकाल दूगा हां निकाल दूंगा
अभेद्य पर्दे तमाम
फिर भी कितना पारदर्शी दि‍खूंगा
और करोगे रक्षा क्‍या तुम भी इन्‍स्‍पेक्‍टर
हाथ फैलाए खड़ा वह रहा वर्दीधारी नर-पुंगव
भिक्षा की मुद्रा में फैली यह हथेली
दरअस्‍ल काठ के प्रधानमंत्री की हथेली थी
जिस पर देश का भविष्‍य अथाह कटी-फटी रेखाओं के जाले में फंसा था
बिना कुछ किए वो हरी बत्‍ती की पूंछ पकड़ कर
चौराहे का भंवर पार कर गया
अब विंड स्‍क्रीन से उसका बाथरूम दिखने लगा था
जहां बीवी ने उसका रेजर ही नहीं
चड्ढी बनियान भी धोए और
अब वो फर्श पोंछ रही थी
एफ एम वह कब का बंद कर चुका था
सोच रहा था विंड स्‍क्रीन पर निरंतर चलते चैनलों का रिमोट
हासिल करने के लिए
क्‍या वह पीआईएल दायर करे
करे तो करे पर कहां करे

अकेले खाना खाने वाला आदमी

अकेला आदमी खाना खा रहा था
जैसे पृथ्वी पर पहला मनुष्य जठराग्नि का शमन कर रहा था
एक कौर पीस ही रहे होते दांत
अंगुलियां दूसरा चारा डाल आतीं मुंह की चक्की में
आंखें अदृश्य में पीछा करना चाह रही थीं स्वाद का
लेकिन इससे पहले हलक के नीचे ढूंढ रहा था
पेट की खोह में जा कहां रहा है कौर दर कौर
इच्छा तेजी से तृप्ति पाने की थी
मशीन धीमी चल रही थी
नतीजतन गाल एक गेंद में बदल गए थे
और दंदेदार गोले की मानिंद हिल रहे थे
मैं मक्खी की तरह उड़ान भरके देखने गया था खाने का जलवा पर
झापड़ खाकर मेज के कोने में दुबक गया था पंख तुड़ाकर
खाना खाने की मशीन धीमी थी पर मदहोश थी
तृप्ति के तलाश के अधरस्ते में
आंखों के कोने से दो बूंद ढुलक पड़ीं
थाली के किनारे जा बैठीं वो औरतें थीं
जो अकेले खाना खाते आदमी के जीवन में आईं थी
अब तक और आगे भी आने वालीं थीं
किसी ने हाथ से खिलाया था किसी ने छाती से लगाया था
धीरे धीरे होश में आने लगी अकेले खाना खाते आदमी की मशीन
झूमने सी लगी उसकी देह
पीछे हट गए लोग बाग जो उसके जी का जंजाल बने हुए थे
और खाना खाते देखने न जाने कब से
उसकी थाली के इर्द गिर्द जमा हो गए थे
यह सोच कर कि यहां मदारी का तमाशा हो रहा है
किरकिल डंठल कच्ची रोटी की शक्ल में
खाने की मेज की शान बिगाड़ रहे थे ये तमाशबीन 
जब पानी पीने की बारी आई
अकेले खाना खाते आदमी की खाना खा चुकने के बाद तो
नमी सी छा गई सारे माहौल में
सभ्यता में लौटने की हवाएं चलने लगीं
खाने का बिल चुकाने के बाद
अकेले आदमी के माथे पर बल पड़ गए
जहां लिखा था दाम फिर बढ़ गए हैं
पेट भराई का अब कम दामी ठिकाना ढूंढना होगा
अचानक मैंने खुद को उड़ते हुए पाया
जूठन से लिथड़ी हुई थाली के किनारे पर
पीछे मेज चमका दिया गया था चकाचक
अब यहां विराजेगा
अगला अकेला खाना खाने वाला आदमी 

रोजनामचा 

मैं 365 दिन वही करता हूं जो
उसके अगले दिन करता हूं
मुझे मालूम है कि मैं 365 दिन वही करता हूं और
मुझे 365 दिन यही करना है
वही वही नई बार करता हूं
हर बार वही वही नई बार करता हूं
कई कई बार नई नई बार करता हूं
नए को हर बार की तरह
हर बार को नए की तरह करता हूं
वार को पखवाड़े पखवाड़े को महीने महीने को साल साल को दशक दशक को सम्वत् की तरह
सम्वत् को सांस की तरह भरता हूं
फांस की तरह गड़ता हूं सांस सांस
फांस फांस सांस फांस
न अखरता हूं न अटकता हूं
भटकने का तो यहां कोई सवाल ही नहीं
अजी यहां तो सवाल का ही कोई सवाल नहीं
उस तरह देखें तो यहां ऐसा कुछ नहीं
जो लाजवाब नहीं
न, मेरे पास लाल रंग का कोई रुमाल नहीं
न मैं गोर्वाचोव हूं जिसने  फाड़ दिया था
न वो बच्चा हूं जिसके पास था
और कि जो 365 दिन की  रेल को रोक दे
कोई खटका नहीं झटका नहीं
कभी कहीं अटका नहीं
ऐसी बेजोड़ है 365 दिन की
अनंत सुमिरनी
घिस घिस के चमकती
कहीं कोई जोड़ नहीं
न सिर न सिरफिरा
बस गोल गोल फिरा फिरा मारा मारा फिरा
और फिर यहीं कहीं कहीं नहीं गिरा
गिरा गिरा गिरा 
________________

अनूप सेठी

बी-1404, क्षितिज, ग्रेट ईस्टर्न लिंक्स, 
राम मंदिर रोड, गोरेगांव (प.), मुंबई 400104.
 मो. : 0 98206 96684. 
anupsethi@gmail.com 
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