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Home » कथा – गाथा : अनीता भारती

कथा – गाथा : अनीता भारती

अनीता भारती 9 फरवरी, 1965 दिल्ली. दिल्ली विश्वविधालय से एम.ए. बी.एड.     मासिक पत्र अभिमूकनायक का संपादन. दलित समाज सुधारक तथा चिंतक गब्दूराम बाल्मीकि पर एक पुस्तिका दलित, स्त्री-लेखन और उसके सवालों पर विभिन्न पत्र- पत्रिकाओँ में लेख- कविता,कहानियाँ     अपेक्षा के संपादक मंडल में शामिल रहते हुए दलित स्त्री चिंतन विशेषांक मे […]

by arun dev
August 1, 2012
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अनीता भारती

9 फरवरी, 1965 दिल्ली.
दिल्ली विश्वविधालय से एम.ए. बी.एड.    
मासिक पत्र अभिमूकनायक का संपादन.
दलित समाज सुधारक तथा चिंतक गब्दूराम बाल्मीकि पर एक पुस्तिका
दलित, स्त्री-लेखन और उसके सवालों पर विभिन्न पत्र- पत्रिकाओँ में लेख- कविता,कहानियाँ    
अपेक्षा के संपादक मंडल में शामिल रहते हुए दलित स्त्री चिंतन विशेषांक मे विशेष सहयोग.
युध्दरत आम आदमी के स्त्री नैतिकता का तालिबानीकरण की अतिथि संपादक.  
दिल्ली प्रशासन मे हिन्दी प्रवक्ता के पद पर कार्यरत तथा दलित लेखक संघ की महासचिव
बेस्ट सोशलवर्कर सम्मान, इन्दिरा अवार्ड, राज्य शिक्षक पुरस्कार से सम्मनित 

अनीता की यह कहानी पंचतन्त्र की शैली में है और व्यंग्य की अच्छी खुराक रखती है. साहित्य की दुनिया के जंगल तन्त्र पर कटाक्ष करती इस  कहानी में  सहज भाषागत रवानी है.

                       
एक आत्मकथा की चोरी              
अनीता भारती

चतुरों में चतुर व होशियारों में होशियार बा मुलायजा जंगल के राजा मिस्टर सिंहराज आज अपनी “साहित्यिक न्याय” की कुर्सी पर विराजमान थे. हंसी-मजाक-ट्टठा-लताड-पछाड, धिक्कार, व्यंग्योक्ति-लोकोक्तियां चल रही थी. सब का मानना था कि इस जंगल और उसके जगंलराज में मिस्टर सिंहराज का नाम ही नहीं कद भी बहुत ऊंचा था. उनके आस-पास घूमने वाले, पैर दबाने वाले और उनकी एक निगाह के ताबेदार हमेशा उनके सामने हाथ बांधे लाईन लगाए खड़े रहते थे. सुना था एक समय गुरुकुल में रहते हुए उन्होंने ढेर सारी किताबें एक ही रौ में लिख डाली थी. अभी तक लोगों ने बारिश के मौसम में नदी नालों पहाडों जंगलो गली मुह्ल्लों में उमडी बाढ़ ही देखी थी. पर लेखकों की दुनिया में एक व्यक्ति की किताबों द्वारा पैदा की बाढ़ उनके लिए इतनी हैरतअंगेज थी कि लेखकों ने उस किताबी बाढ के दुबारा ना आ जाने के खतरे औऱ उसमें अपने डूबने  से बचने के लिए उनको “लेखक-ए-सरताज” घोषित कर दिया. अब उन ढेरों किताबों में लिखा क्या था, रसिक जन लाख सिर धुनने के बाद भी समझ नहीं पाते थे. हर साल वही अनसुलझी किताबें हर साल नये रंग- रुप- कलेवर में शीर्षक अदल-बदल कर आ जाती थी, इससे उनकी पुस्तकों की संख्या में और इजाफा हो जाता था. जैसे जैसे इधर किताबों की संख्या बढती जाती उधर उनकी \’पदविया\’ भी बढती जाती. मसलन ‘लेखक- ए- सरताज’ से बढकर “किताबें- ए- महामहिम” “किताबे-ए- रत्न” फिर “किताबें-ए-धनपति” आदि-आदि. मिस्टर सिंहराज का रुतबा इन पदवियों से दिन दुगनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा था. अब किसी लेखक का रुतबा इतना बढ जाए और उसके आस-पास गुणगान करने वाले ना रहे तो वह क्या खाक रुतबेदार रहा? तो स्वाभाविक ही था कि उनके आस- पास नव लेखक- लेखिकाओं की भीड़ उसी तरह जुटती चली जाती थी, जैसे पेट्रोल के दाम बढ़ने की घोषणा-मात्र से ही पैट्रोल पंप में पेट्रोल भरवाने के लिए मंहगी-महंगी उच्च साईज की गाडियों की लाईन. धीरे-धीरे उनके बायें और दाये हाथ के आशीर्वाद की सफलता की कीर्ति चहुं ओर फैलने लगी. लोग उनका हाथ का आशीर्वाद मांगने के लिए रात-दिन बिना नहाए धोए उनके दरवाजे पर हरदम डेरा जमाए पडे रहने लगे. चारों तरफ उनके हाथ की आलौकिक शाक्ति के बारे एक किवदंती सी मशहूर होनी लगी लोग यहाँ-वहाँ चारो तरफ यह कहते हुए पाए जाने लगे कि \”आदमी धतूरा और सोना खाने-पाने से पागल पुरातन काल में होता होगा, अब तो राजा मिस्टर सिंहराज का हाथ अपने उपर होने के संदेह मात्र से ही पागल हो जाता है\”.
राजा मिस्टर सिंहराज अपने भारी भरकम कद से एक काम रोज बेनागा करते थे . वह काम यह था कि वे जहां कहीं भी किसी पुस्तक विमोचन, सेमिनार या गोष्ठी में जाते तो कोई एक आधा ऐसा वाक्य बोल देते कि वही वाक्य एक मनोरंजक जुमले में बदल जाता. फिर उस जुमले पर महीनों तक चर्चा रहती. रसिक लोग भोजन की जगह चटकारे लेकर उस जुमले को खाते- पीते- ओढ़ते और सो जाते. फिर जगकर यहीं काम करने लगते. कभी-कभी ये जुमला रसिक टोली साहित्य की सभा-महफिल भी लगा लेती थी. उस रसपूर्ण-मयपूर्ण वातावरण को सार्थक बनाने के लिए तब देश के कोने- दुकानों से तरह-तरह के लेखक लोग जुटते.
भारी भरकम कद वाले राजा सिंहराज आज भी ऐसी ही महफिल जमाए बैठे थे. आश्चर्य था कि ये लोग भगवान-उगवान, आत्मा-सात्मा को नही मानते थे तब भी यह कुछ ऐसे ही धार्मिक ग्रन्थों को अपने घरों में सजा कर रखने में अपनी प्रगति समझते थे. गाहे-बगाहे उन ग्रन्थों पर उठ रहे सवालों को निर्ममता से दरकिनारे करते हुए उनपर चढी धूल उतारकर उन्हें चमकाकर अपने जीवन की प्रिय पुस्तकों में नाम शुमार कर उसकी उपयोगिता का अहसास करा देते.
ऐसी ही अल्हड-मौज-मस्ती-हंसी-खुशी भरी सभा में अचानक राजा सिंहराज जी के सामने एक छोटे-से बकरे चिन्टू की आत्मा सामने आ खड़ी हुई. चिन्टूजी कुछ साल पहले मर चुके थे. लेकिन उन्होने मरने से पहले अपने जीते-जी ही अपनी एक बहुत छोटी- प्यारी सी आत्मकथा लिखकर छपवा ली थी. चिन्टूजी की आत्मकथा सच में अनुपम थी. क्योंकि उसमें उसके जीवन के खरे और मार्मिक अनुभव थे. जैसे कि कैसे उसने अपने आप को भेडिये-भेड़नियों-घाघ-बाघ से भरे जंगल में बचाए रखा. फिर कैसे उसकी बकरी से भेडिनी बनी पत्नी ने उसे टार्चर किया. इस टार्चर से बचने के लिए उसे अन्य कुछ भेडनी मित्रों से क्रमश: प्रेम-मिश्रित सहानुभूति के बल पर कानून को गाली देते हुए अपनी भेडिनी पत्नी से लोहा लिया. और अंतत एक दिन सब भेडिये दोस्तों की मदद से बकरी को पीटते-पीटते खुद ही चोट खाकर ह्रदयाघात से मर गया. चिन्टू बकरे की कहानी बेरहम-बेवफा औरतों की दुनिया का कच्चा चिट्ठा थी. बेचारे चिन्टू जैसे मैं मैं करने वालों बकरों के प्रतिनिधि बकरे के रुप में उन मादाओं द्वारा सताएं हुए दुखी अन्यायग्रस्त मर्द की मार्मिक दस्तान थी. उसकी कहानी सुनकर महफिल में एकदम सन्नाटा छा गया. लोगों की आँखों से आंसुओं की अविरल धारा बहने लगी. रसिक लोगों के हाथ में थमे पैग वहीं रुक गए. ऊंची कद वाले सिंहराज जी भी इस मार्मिक दस्तान से आहत हो गए. एक तरफ उन्हें ऐसा लगा जैसे उनकी सांस कुछ पल के लिए एकदम ही रुक गई हो पर दूसरी तरफ वे उसी रुकी सांस से चिन्टू बकरे की किताब को लेकर गंभीरता से सोचने लगे. उनके मन में चिन्टू के लिए सहानुभूति का समंदर लहराने लगा. उन्होंने सांस को वापिस लाने के लिए दो-तीन बार लंबी-लंबी सांस खीची. उधर चिन्टू भी अपनी आप-बीती याद कर कुछ देर के लिए व्यथित हो गया. इस व्यथा से अपने आप को निकालने के लिए वह अपने नाखूनों से जमीन कुरेदने लगा. शायद उसका गला भर आया था औऱ आवाज उसका साथ नही देना चाहती थी. चारों तरफ पसरे सन्नाटे को एक लोकप्रिय विवाद की तरह अपने सामने बेरहमी से निपटाते हुए महामहिम सिंहराज ने पूछा- देखो भाई अब यहीं मत रुको ,हमें कुछ और बताओं और साथ-साथ यह भी बताओं तुम्हे मुझसे आखिरकार क्या चाहिए है ?
राजा सिंहराज जी से हिम्मत पा चिन्टू बोला- “जी हजूर सब जानते है कि मैंने अपने जीते-जी ‘कलंदर प्रकाशन’ से अपनी आत्मकथा “ मैंने क्यों थूका“ लिख कर छपवा ली थी. वह खूब बिकी भी थी और अभी तक खूब बिक रही है. पर आज मेरी सोई हुई आत्मा बहुत उदग्नि होकर आपके पास आई है मिस्टर कालेश्वर मिआऊ ने मेरी आत्मकथा को अपने नाम से छपवा लिया है. मिस्टर कालेश्वर मिआउं ने मेरी आत्मकथा का कवर पेज बदलकर उसमें छपे मेरे नाम को मिटाकर अपना नाम प्रत्यारोपित करके उसका कॉपीराईट तक अपने हाथ में ले लिया है. चिन्टू की बात सुनकर सभी रसिक जनों के मुंह आश्चार्य से खुले रह गए. सब के मन में एक साथ विचार किसी हुक्के में जमें पानी की तरह हुडहुडाने लगे कि अभी तक कविता, कहानी उपन्यास, आलोचना, जीवनी तक की चोरी तो सुनी थी पर आत्मकथा की चोरी? यह तो बिल्कुल नई ही बात हुई. यह तो एकदम असंभव है. चिन्टू ने फिर अपनी बात पर जोर देते हुए कहा – तो राजा सिंहराज जी मिस्टर कालेश्वर मिआउं ने मेरी आत्मकथा चोरी की है. राजा सिंहराज ने मिस्टर कालेश्वर मिआऊं की तरफ प्रश्नसूचक नजरों से देखकर पूछा- \”मिस्टर मिआउं ऐसा कैसे हो सकता है? तुम तो अलग-अलग प्रजाति में जन्मे हो, इसलिए एक माँ-बाप की औलाद मेरा मतलब भाई-भाई भी कभी नही हो सकते? फिर क्यूं की यह चोरी? और इससे क्या फायदा होगा तुम्हे?\”
मिस्टर कालेश्वर मिआऊं ने जब मिस्टर सिंहराज साहब को अपनी तरफ आश्चर्य से तकते हुए और प्रश्न पूछते हुए पाया तो मिस्टर कालेश्वर मिआउं के एकबारगी तो जैसे होश ही उड गए हो पर वह तुरंत उसने अपने आपको संभालते हुए बड़ी मासूमियत से जवाब देते हुए कहा –
\”जी यह सही है कि महामहिम सिंहराज जी हम दोनों एक मां बाप की औलाद नहीं है और कभी हो भी नही सकते. पर हम दोनों को पलने-खेलने के लिए एक जैसा ही माहौल मिला था. हमारे दोनों के मां बाप हमें समान मुसीबतें झेलते हुए पाल रहे थे. हम जब दोनों पढ़ते थे तो चिन्टू मेरे से बस लिखने-पढने भर में तेज था, पर दिमाग मेरा उससे कई गुना तेज चलता था. एक दिन हमने देखा कि जंगल में आत्मकथाओं की बहार आ रही है. यहां आम से भी ज्यादा आत्मकथाएं पक रही है. अब मैं आपसे और क्या कहूँ, आप खुद भी गवाह है कि हाल यहां तक हो गया है कि अगर मैं पेड़ पर आम खाने के लिए पत्थर मारूं तो पेड़ से आम की बजाय एक आत्मकथा टपक पड़ती थी. उसी समय मेरे दिमाग में एक आईडिया आया कि क्यों ना आत्मकथा के इस मौसम में  मैं भी अपनी एक आत्मकथा तुरंत-फुरंत लिख डालूं. आत्मकथा के लिए मैने खूब सोचा विचारा.

इधर उधर खूब पैतरे बदले पर कुछ समझ ना आया. तभी मैंने देखा मेरा हमदम मेरा दोस्त व मेरे भाई के समान चिन्टू अपनी आत्मकथा पूरी कर चुका है. जब उसने मुझे अपनी राय बताने के लिए  अपनी आत्मकथा पढ़ने के लिए दी तो मैने उसका एक-एक शब्द बहुत परिश्रम के साथ  पढ़ा. घंटो उसके साथ बैठकर नयी-नयी घटनाएं जुडवाता रहा. इसकी आत्मकथा का शीर्षक देने से लेकर छपवाने के लिए प्रकाशक तक को मैने ही खोजा. इस आत्मकथा के लिए मैंने इसपर चिन्टू से ज्यादा मेहनत की है. सारी मेहनत मेरी और फिर जब यह आत्मकथा छपकर आई तो चारों तरफ चिन्टूजी-चिन्टूजी होने लगा. उसे जगह-जगह पुरस्कार, सेमिनार और पता नही किस किस के लिए बुलाया जाने लगा. अजी जनाब चारों तरफ बिना वजह इसके नाम के डंके बजने लगे. हे देवो के देव, चतुरों में चतुर, होशियारों में होशियार महामहिम सिंहराज जी अब आप ही अपनी चतुर बुद्धि से निर्णय कर बताईये कि यह सब काम तो मेरा ही था ना?  इसे क्या आता था ना तो इसे भाषा के व्याकरण की अक्ल है, और ना ही भाषा की खूबसूरती का ख्याल? कलात्मकता तो इसमें जरा भी नही है. बस सीधी-सीधी भाषा में अपने अनुभव डंडे की तरह हमारे सिर पर देकर मार दिये और सोचा कि लो हो गई आत्मकथा पूरी.\”

फिर मिस्टर कालेश्वर ने अपनी छाती चौडी करते हुए सबको प्रभावित करते हुए कहा- \”यह सब तो मैने ही उसे सिखाया है. इसलिए आत्मकथा का जब अगला संस्करण आया तो मैने उसमें अपना नाम डाल दिया. पहला संस्करण चिन्टू का और दूसरा मेरा. बस मुझे इसमें नाम ही बदलने की जरुरत पडी क्योंकि बाकि तो बस मेरी जिन्दगी के सारे अनुभव चिन्टू जैसे ही है.\”
राजा सिंहराज साहब मिस्टर कालेश्वर मिआउं की बातें सुनकर बहुत खुश हो रहे थे और मन ही मन में सोच रहे थे कि चलो जीते जी यह अमर विवाद भी उनके हिस्से ही आया. जब भी “आत्मकथा बनाम आत्मकथा” की चर्चा रसिक साहित्य समाज में होगी तो उनका नाम अपने आप इस विवाद के निर्णायक अथवा चैयरमैने के रुप में ‘सवर्ण अक्षरों’ में लिया जाएगा. दूसरी तरफ उनके पैगधारी चेले उन्मुक्तता से खिलखिला कर हंस रहे, उनके मन उन्हें बेहद गुदगुदा रहे थे क्योंकि उन्होंने  मिस्टर कालेश्वर मिआउं से बिना अनुभव किए मगर प्रमाणिक आत्मकथा लिखने और उसका लेखक बनने का गुर सीख लिया था.
___________________________________________
अनीता भारती
anita.bharti@gmail.com
9899700767
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