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Home » कथा – गाथा : अपर्णा मनोज

कथा – गाथा : अपर्णा मनोज

पेटिंग : Saqiba Haq                        परम्पराएँ जब धर्म का आवरण ओढ़ लेती हैं तब उनका शिकंजा और सख्त हो जाता है. अगर श्वसुर बहू का बलात्कार करे तो वह उसका भी पति हो जाता है. फिर क्या रिश्ता बनता है पिता, माँ, बेटे और बहू के […]

by arun dev
April 17, 2013
in कथा
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पेटिंग : Saqiba Haq                       





परम्पराएँ जब धर्म का आवरण ओढ़ लेती हैं तब उनका शिकंजा और सख्त हो जाता है. अगर श्वसुर बहू का बलात्कार करे तो वह उसका भी पति हो जाता है. फिर क्या रिश्ता बनता है पिता, माँ, बेटे और बहू के बीच. 

और सबसे बड़ा सवाल की क्या रास्ता बचता है उस स्त्री के पास जो अब अपने पति की माँ है. सामाजिक विडम्बनाओं पर अपर्णा मनोज बेहद संवेदनशील ढंग से लिखने वाली कथाकार हैं. मर्मस्पर्शी और सशक्त कहानी है नीलाघर


नीला घर                       

अपर्णा मनोज 

1.


वह देर तक उस घर को देखती रही.
जैसे मरने के बाद वह अपना घर देख रही हो. जैसे उसकी रूह में इस घर की आवाजाही बहुत पुरानी बात हो. जैसे इस घर को ढाँपते हुए पीपल का पेड़ उसकी कोशिकाओं से भीतर उतर आया हो. जैसे कोई बाँझ कुंआ अपनी घिरनी को देखे कि शायद कभी कोई रस्सी उसके तल में लोटे के साथ आ टकराए और नीरवता टूटे. 
कुछ इस तरह चुप निगाहों से उसने अपने घर को देखा.
ये एक बहुत प्राचीन घर था जहाँ से प्राचीन आवाजें बेतहाशा बाहर को भाग जाना चाहती थीं पर कोई सूरत नज़र न आती थी. दुःख की खंजड़ी तेज अंधड़ में हौले से हिलती दीवार पर – खन्न -खन्न  –छन्न-छन्न ..और फिर चुप हो जाती …

घर के पार-द्वार दूर-दूर तक बरछी की तरह खरपतवार उग आई थी. यहीं ऊँची उठी घास के बीच सालों से एक कुक्नुस ने अपना बसेरा बना लिया था. कभी -कभी उसकी आवाज़ इस कदर पुकार मचाती कि घास-फूस में लाल दहकती काली आँखों वाली चिरमी खिल जाती. पुकार घर की छत पर मंडराती और उसके भार से  घर मिटटी में कई अंगुल धंस जाता. तब उसकी कदीम दीवारें मकबरे की तरह लगती थी.

घर था या मकबरा  – किसी रात अपने गुनाह कुबूल करने आये, \’ऐसे अंदेशों की तामील करता हुआ …..

कहते हैं इस घर में जो बुढ़िया रहती थी उसकी शक्ल चाँद की बुढ़िया जैसी थी .. आदिम बुढ़िया. दूर से उसकी ग़बस पेहरन ही दीख पड़ती. एक गप्प की तरह उसकी सूरत लोगों ने अपने अफसानों में उतार ली थी. चाँद की ये बुढ़िया कभी जवान न थी.  उसकी नियति दुनिया भर की चांदनी थी जिसे धुनकर वह अपने होने की रवायतें पुख्ता करती. 

अजब दास्ताँ थी ये – पहले नीला घर बना. एक अकेला घर. रेगिस्तान में सराय की तरह दीखने वाला. बाहर पुआल के छप्पर वाली प्याऊ बनी थी, जहाँ आदमकद काले रंग का मोटे पेट और पतली गर्दन वाला घड़ा रखा रहता जैसे अबीसीनिया का सिद्दी हब्शी प्यास और दर्द लिए खड़ा हो. केवड़े की सुगंध इस प्यास में शामिल रहती. प्याऊ के आगे छोटा चौबारा था जिसे कुदरत ने अल-सांत के छतरीदार कटीले पेड़ों से ढांप रखा था. बसंत में इस पर सुनहरी गेंदे झूलतीं. नीले घर पर फूलों की परछाई मिल-जुलकर अलग रंग तैयार करती ..काँपता हरा ..घुलता पीला.

घर में कुल जमा तीन लोग रहते थे और तीनों ही स्त्री जात. बुढ़िया तो थी ही, साथ में थी एक जवान लड़की-जो जाने बेटी थी या कोई नातेदार. खूब भरे बदन की पर दिमाग से कुछ कमजोर. तीसरी जो थी वह उन दोनों के जीवन की धुरी ठहरी- पांच से कुछ ज्यादा की, एकदम गोल-मटोल, पर जब-तब पगली के स्तनों से चिपकी रहती. बुढ़िया ने सारे इलाज किये – कुचाग्र पर कभी नीम की पत्तियां पीस कर लगाईं तो कभी कुनीन या पीपली, पर सांवली का दूध न छूटा.
नीला घर, रेतीली टेकरी और वे तीन …सिवाय इसके कुछ नहीं था वहां. रेत के इस द्वीप से करीब आधे किलोमीटर की दूरी पर गाँव शुरू होता.

फिर धीरे-धीरे सरककर यही गाँव टेकरी से आ लगा. भेड़ें-बकरियां और ऊंट ..पूरे के पूरे रेवड़ यहाँ बस गए.एक झील हो गई. वो भी बरसाती.  बरसात होती तो झील लबालब हो जाती. इसका नाम चाँद रेवा कैसे हुआ,कोई नहीं जानता था.और झील के नाम से ही गाँव भी आबाद हुआ.  रेवा जल से भरती तो खेतों के दिन और सुहाने हो जाते और बुढ़िया प्रेम गीत गाती नज़र आती ..कांपती आवाज़, हाथ में तीन तारा, शबनम से भीगती सुबह ..और गाते-गाते झर-झर आँसू ..पगली बुढ़िया की गोद में लेटी गीत सुनती और उसकी गोल-मटोल बन्नो सटक-सटक सीने से चिपकी पगली के दूद्दू फफोडती.

नीले घर का गीत दूर-दूर तक सुनाई देता ..और प्रेम करने वाले जोड़े हाय हाय कर अपना सीना भींचते. उनका दिल रंगरेज़ा -रंगरेज़ा कर तेज़ी से धडकता और ओंठ कुन फ़यकुन -फ़यकुन बुदबुदाते. न जाने कितने भागे हुए दीवाने बुढ़िया के दर मत्था टेक ग़ालिब हुए.


नीले घरवाली ज़रदोज़ थी सो गाँव भर की बेटियों और दुल्हिनों के लिए घाघरे,चोली, दुपट्टों का काम उसे मिलने लगा. उसके जड़े सलमे -सितारे एक बार टंके तो क्या मजाल कि उनका धागा टूट जाए. फड़द का रंग नाज़ुक हो सकता था पर उसका लगाया टांका एक बार जो सूई से आर-पार ज़री में लगता तो ज़रदोज़ी दमक उठती…उसकी आँखें सितारों को उठातीं और लगातीं. दिन में भी एक दीप वह अपनी बगल में बाले रहती. उसे केवल अपने दीप का भरोसा था. इसी उजाले में वो रंगीन गोरबंद बनाती — कौड़ियों – सीपियों में गुंथे अनबूझे से जीवन के झुनझुने – कि उनकी झंकार से ही ऊंट चलने का इशारा पाते. रेगिस्तान के ये पोत न जाने कितनी सदियों से अपनी पीठ पर कहानियाँ लादे फिर रहे हैं.
  
बुढ़िया ज़रदोज़ होने के साथ इस गाँव की मीरे काफ़िल थी, मुंसिफ थी.लोग उसे बप्पा जी बुलाते.सिर पर उसके छींट का फेंटा बंधा रहता,लम्बा पठानी कुरता और लूंगी पहनती. पैरों में नोकदार जोधपुरी जूतियाँ ..बाकी न साज ,न श्रृंगार. कौन जात, कौन धर्म , कहाँ से आयीं ,क्यों आयीं बप्पा? कोई न जानता था,लेकिन बप्पा न होंगी तो ढाणी पर विपदा गिरेगी ऐसा सब मानने लगे थे और बप्पा की जिंदगानी तो ये चाँद -रेवा ही रह गया था. चाँद रेवा की ज़मीन संगीत बस और-और  संगीत की ज़मीन थी. राम जाने किसने इन्हें सिकंदर के गीत रटवाए,कौन मीर इनके कंठ में राम-कृष्ण बनकर बैठा था. जुलाहे कबीर और मीरा की संगत ये कब में पा गए थे? गाँव के औलिया – कीकर जब हिलते तो उनसे मूमल की कहानी सुनाई देती….ढोले(प्रेमी)री ई मूमल हालो नि री जानो ढोले रे देस ….


आम की लकड़ी के बने खमायचे (खमंचे ) में सफ़ेद साफों और झब्बे वाले बावलों की  सूरत दिखाई देती. खडताल और ढोलक की आवाज़ों से रेवा का पानी रोज़ शाम ज़मज़म हो जाता.देस-मल्हार-बिहाग-केदार यहाँ की मिट्टी से पैदा हुए थे. 

रोज़ ही पूरा गाँव उठकर चल देता.जगह -जगह से गाँव को न्योते आते.कहीं ब्याह की महफ़िल सजानी है,कहीं भजन-कीर्तन, कहीं सोहर तो कहीं सरकारी हुक्मरानों के आदेश से सांस्कृतिक शामों को गुलज़ार करना है. बड़ी पूछ थी इनकी. इनमें से कुछ तो बिदेश जात्रा तक कर आये थे, पर जीवन इनका वही रहा. बदहाली और फकीरी का.

लाख यायावरी के बाद इन्हें अपना कुटुंब और गाँव बुलाने लगता और ये बेचैन आत्माएं सारे ठाठ छोड़ चाँद-रेवा लौट आतीं.

सुनहरे धोरों के ये बावले मोरचंग, सारंगी, अलगोज़ा, बपंग, मुरली, बाजा पेटी और तमाम साज का सामान बने-संवरे ऊंटों की पीठ पर लाद देते फिर कई मील दूर किले या उसके आस-पास की जगहों को चल पड़ते. छूटी रहतीं तो ढाणी की बींदनियाँ ,उनकी छोकरियाँ,छोटे-छोटे  टाबर-टूबर, ढोर और इस घर की ये तीन औरतें.



  2

आज ढाणी में खूब चहल-पहल थी. बड़ी हवेली से न्योता था. खुद वीर जी चलकर आये थे न्योतने. हवा में उड़ने वाली खुली जीप गाँव की चौखट पर धूल में धंसी थी. वीर जी के साथ पूरी पलटन थी. कंजी आखों वाला दुष्ट दिखने वाला डिराइवर, दो दरबान, चार नौकर जो हाथ में मिठाइयों के थाल लिए हुए थे. डूंगरी पर खेलते बच्चों की फ़ौज इन नौकरों के पीछे हो ली. नीले घर के बाहर पूरा टोला आन उमड़ा.

वीर जी ने खुद नीले घर की सांकल खड़खड़ाई. बप्पा ने द्वार खोला. वीर जी सामने खड़े हैं. बप्पा को काठ मार गया. मुंह फाड़े वह इस सुदर्शन युवक को देखती रही ..टुकुर-टुकुर. थोडा चेती तो हाय-हाय कर उसका सीना पृथ्वी की तरह फटने को आया. दिल ने कहा – न जी, न ..ये कैसे हो सकता है? कोई दो एकदम एक सरीखे, हमशक्ल …या खुदा, वीर जी की सूरत एकदम उसके जैसी है ..सब कुछ वैसा; बस अलग है तो पहनावा, देस और समय .. वो तो अब दुनिया में न है…जो न है उसे तो वह कब का सहना सीख गई. फिर ओख-ओख -ओख ..आँसुओं का गुब्बारा फट पड़ा ..हाय रे हलक .. यादें कैसे फंसी रहीं तुझमें..ये कैसे हो सके है? वही शमशादकद ..वैसो ही उजलो, नदी के किनार जैसा साफ़-सुथर लीलवट ..गोरा पठानी रंग..

बप्पा का ध्यान टूटा. देखा,सांवरी उससे लिपटी है. दोनों एकमेक. बप्पा का अंचल भीग-भीग पानी
और वह अचरज से कह रहा था -\”बप्पा, खमा घणी सा ..खमा घणी सा ..हूँ कुंवर वीर सिंह, मेहरों की ढाणी से.\”

बप्पा ने आसन सरकाया. वह चुप बैठ गया. फिर बहुत देर तक कोई कुछ न बोला.
उसीने धीरे से कहा, \”बप्पा पूरी ढाणी को आना है..बहन की सगाई है और सवामनी भी.\”
\”कौन-सी तारीख….\”
\”अगली सोमवार,बप्पा. पिताजी ने गाँव के लिए नेग भिजवाया है.\” कहकर उसने पीली चिट्ठी और नोटों की गड्डी बप्पा की गोद में डाल दी.कुंवर के इशारे से नौकर मिठाइयों के थाल भीतर ले आये और कठपुतलियों की तरह फिर परदे के पीछे चले गए.
वह जाने को उद्दत हुआ तो पगली सांवरी बोल पड़ी -\”बिना कलेवा किये …\”और दोनों की आँखें बरबस टकरा गईं. उलझ गईं.
बप्पा की तेज़ निगाहों ने पगली के गालों पर शर्म की लौ को जलते देखा ..झट ताम्बई और झट उसका बुझना ..
उसने चुप से चौकी सरका दी और वीर बिना कुछ बोले बैठ गया.
वह बाजरे की राब पीता रहा और बप्पा ने सांवरी की आँखों से नदी का पिघलना देखा.

बन्नो जमीन पर बैठी गुट्टे उछाल रही थी. उसके नन्हे हाथ एक भी लाख का गुट्टा पकड़ न पाते ..तब वह खीज कर अपनी घुंघराली लट खींचती और छर्रर से गुट्टे फिर जमीन पर गिर जाते …
वीर जी ने मुस्कराते हुए खेलती बन्नो को देखा और उसे गोद में ले लिया. बन्नो उतरने के लिए मचल-मचल उठी.उसे नीचे उतार , उसकी हथेली पर चमकीले सिक्के रख दिए. पांच साल की बन्नो को इसकी चमक के मायने पता थे.उसे मुस्कान के अर्थ भी पता थे. बन्नो मुस्करायी.ये मुस्कान शुक्रिया से भरी थी और इसमें दोस्ती कर लेने का भाव भी था.
फिर वह  चला गया.

वह तो चला गया किन्तु दोनों औरतों के दिल में धमाके होते रहे.  दोनों जुगत लगाती रहीं कि ये ज्वालामुखी फटने से रह जाए. जब दर्द की चादर सतह से ऊपर बहने लगी और आँखें बेबस हो गईं तो बप्पा ने सांवरी को कलेजे से चिपका लिया …कभी उसका सिर सहलाती, कभी उसे बाँहों में भींच लेती. बदले में सांवरी घुटी-घुटी आवाज़ में ओ बप्पा ..ओ बप्पा ..करती. दुलार और दुःख का ये कैसा रिश्ता था. दोनों एक दूजे को सहलाते ..जितना सहलाते दुलार बढ़ता और दुःख कम होता ..शायद इसीलिए दुनियाभर के जानवर अपने बच्चों को अपनी मोटी जीभ से चाट-चाटकर दुलारते हैं कि उनका संसार में आना ही एक दुःख है ..खुला संघर्ष है, जहाँ किसी तरह की रियायत नहीं. दुःख में दुलार एक संतुलन है.बचाए रखने का एकमात्र तरीका और सलीका.

दुःख घट रहा था ..दुलार बढ़ रहा था .. 
दूर कहीं से गाने की आवाज़ सुनाई पड़ रही थी –
\”काळी काळी काजलिये री रेख जी 
कोई भूरोड़े बादल में चमके बीजली..\”

3.

दीवार पर टंगी खंजड़ी बजी ..छन्न -छन्न और देर तक बजती रही ..
कोई चाँद रेवा की सरहद पर बांसुरी बजा रहा था और वह नंगे पाँव दौड़ी जा रही थी. वह रोज़ आता था और वह रोज़ मिलने जाती थी. ऐसा कई सुबहों तक हुआ, कई शामों तक हुआ. ये तब  तक हुआ जब तक सरहद पार से अजीब शोर न उठा ..
फिर उस दिन पूरी ढाणी ने देखा कि पौ फटे ही वह नीले घर में दाखिल हुआ और लकड़ी के किवाड़ों के बंद होने की आवाज़ बहुत देर तक किर्राती रही ..उस दिन पीपल के सारे पात झड़ गए, रेवा लाल हो गई, आंधियां बेमौसम की आकाश के सीने को कुचलती रहीं. गाँव का मुंह भय से पीला पड़ गया. 

नीला घर तीन लोगों की फुसफुसाहट सुनता रहा – दो औरतें एक प्रेमी पुरुष ..
बन्नो बेफिक्र नींद की गोद में लिहाफ में ..
नीला घर स्याह ..
फिर वही बोला-\”बप्पा,  तुम्हारे सिवा कौन है हमारा…देखो, ये चूनर ज़रीदार सांवरी के लिए  …हरी चूड़ियाँ भी हैं माई. मैं लाया खरीदकर.  कई महीने शहर के परकोटे में बांसुरी बजा-बजा कर रूपये जोड़े, तब कहीं ये खरीद पाया. \”
\”बाँसुरी .. वीरा ..सेठों का लड़का है तू. आह, तूने मुझे माई कहा .. हिय जुड़ गया रे वीरा ..पर सब इतना आसान न है .. एक बेटा खो चुकी अब और नहीं   ..गम इस लड़की को खा गया …न,न ये न होगा…इसमें झगड़ा -फसाद है. और जो तू  इस बावरी की कहानी सुनेगा तो कलेजा चिर-चिर जावेगा. हिम्मत जवाब दे जावेगी थारी ..यूँ आग में हाथ न डाल. शीरीं फरहाद न हो तुम, न रांझे -हीर.\”
\”बप्पा, अब पीछे न हटूंगा …तय है ये.\”
\”तो सुन, सच सुन ..तेरी सांवरी बेवा है.\”
\”हाय, बप्पा चुप कर …चुपकर  बप्पा ..बप्पा वो सब याद न दिला,हाथ जोडूं तेरे  ..\”फ़ुगा -फ़ुगा सांवरी की घुटती आवाज़ घर में गूंजने लगी ..
पर बप्पा कहती गई.
वह सुनता रहा.

\”क्या जानती थी कि इस नसीबन के हिस्से ही ये आना था ..आह! कैसी सुंदर थी मेरी लाडो ..ऐसी जोड़ी किसी की न थी. बिना नज़र उतारे मैं इसे बाहर पग न धरने देती थी. पर क्या जानती थी कि जिस नज़र को मैं उतार रही थी उसकी बदी को मेरे घर ही  पलना था. मेरे ही आँगन में  निगोड़ा गीध मेरी लाडो को नोंच खायेगा कौन जानता था .. जिस पर मैं बलिहारी गई ..जिसके मैं कसीदे पढ़ती रही ..ताउम्र जिस पर मरी .. नाशुक्रा,मेरा शौहर वो ही कसाई निकला…

हामिल: थी मेरी सांवरी. चौथा ठहर गया था ..फिर भी उसे तरस न आया. बेटी होती तो उसकी यही उम्र ठहरती ..ये भी वो सोच न पाया. परवरदिगार, मैं क्यों न हुई उस दिन घर में ..मुंह झोंस देती उसका.\”
और सुन वीरा, मैं लौटी तो ये मेरी गोद में सिर पटक-पटक कर रोई ..घंटों अम्मी-अम्मी करती रही. जैसे गाय कटते में रंभाती है ..बाँ s s  –इसका यूँ रोना किसने न देखा?किसने न सुना? मोहल्ले की औरतों की दिल ताबूत न थे. पर दुःख ने उनकी जुबानें बर्फ की सिल्ली जैसी कर दीं थीं.

इस मासूम का रोना केवल इसलिए नहीं कि उसका सब कुछ लुट चुका था ..इसलिए कि घर की इज्जत बचाने के लिए इसका निकाह मेरे शौहर से होना तय हुआ…कौन होते थे वे लोग ये सब तय करने वाले? किसकी इज्जत को वे बचाने में तुले थे ? हम दो औरतें किसी को न दिखीं? वो जो इसका अपना शौहर था…मेरा बेटा और इसका आशिक ..जान छिडकता था इस पर ..न बोल पाया, न सह पाया..कातरता में छत से कूद पड़ा. कुछ न बचा. सब ख़त्म ..एक झटके में. पागलों की तरह तड़प-तड़पकर रोया करती थी ये. इसे जागते में भी डरावने ख्वाब दीखते. फिर एक दिन चोरी-छुपे मैं इसे लेकर यहाँ इतनी दूर चली आई. सारा गहना और रुपया -रोकड़ा सब ले आई थी. उस जिनावर के लिए धेला न छोड़ा, पर मेरी रूह चीख-चीख कर लडती है मुझसे ..कि ये दंड जो मैंने उसे दिया बहुत कम था… बहुत कम था ये दंड और उसका जुर्म ..खंजर से भी उसका गुनाह कम न होता. हुकुम  सा .. बावरिया,म्हारी बींदणी, इसका धणी म्हारो पूत.


मैं जब चुनरी में धागा लगाती हूँ, सितारा टाँकती हूँ तो सूई की नोक मेरी रूह में छेद करती है और हर बार मेरे बेटे की सूरत सितारों में आग लगाती है ..कि वो जिन्न बनकर इस घर के हर कोने से हमें देख रहा है.कह रहा है कि मेरी दुल्हनिया को दुलार से भर देना अम्मी..\”
 और बप्पा बुक्का फाड़ कर वह रो दी …वो भी रोया साथ, पर पगली फटी आँखों से खंजड़ी देखती रही.



4.

सरहदों के पार से खाप-खाप आवाज़ सुनाई दे रही थी ..आवाजें पास आती जा रही थीं. ढाणी को आगत के भय से लकवा मार गया था.

बप्पा नीले घर के बाहर बनी प्याऊ पर गई.
वही अबीसिनायाई हब्शी घड़ा ..उसके अँधेरे तल से उजाले की किरण फूट रही थी, जो बुढ़िया ने बुरे दिनों के लिए बचा कर रख छोड़ी थी…नाक की बुलाक ..भारी सोने की कंठी, चाँदी की मोटी घुंघरू वाली पाजेब ..हाथों की चूड़ियाँ और कुछ गिन्नियां …
नीला घर फुसफुसाया ..जाओ भाग जाओ ..दूर ..किसी और टेकरी पर ..
चाँद-रेवा का एक रंगीला ऊंट उनके द्वार से आ लगा, रसूल अपना ऊंट चुपके से बाँध गया था वहां. ..ऊंट के गले में वही गोरबंद ..बप्पा के हाथों बुना.
वे दोनों और बन्नो भी गई, पर वह न गई. ढाणी को बप्पा की जरुरत थी. प्रेमियों को उसकी जरुरत थी.
अब नीला घर नीला चाँद हो गया.
चाँद की बुढ़िया ज़रदोस ..उजाले कातती  ..
निपट अकेली ..

अलसांत की कांटेदार छतरी उसके सिर पर छाया दे रही है ….
नीले घर को उसने कुछ इस तरह देखा –जैसे मृत्यु  पानी को देखती है.
रात जब गहराई तो बुढ़िया नीले घर के बाहर खड़ी हो गई …
शब-ए-बरात के दिन न जाने किस किस के गुनाहों के लिए माफ़ी मांगती .. इबादत,तिलावत और सखावत ..सब 
aparnashrey@gmail.com


आवाजें गाँव पर हमला बोल रही थीं. बर्छियां चलीं,बल्लम उठे ..पर वह ऐसे ही खड़ी रही -ध्रुव .

नीला घर अंतिम बार फुसफुसाया फिर वह एक पीर की दरगाह हो गया.
बुढ़िया  की पांच फीट की मज़ार घर के बीचोंबीच बना दी गई.
बच्चों ने भी सीख लिया है कि चाँद पर कोई बुढ़िया नहीं रहती.
________________________________
अपर्णा की कुछ और कहानियाँ
१.खामोशियों का मुल्क 
२.मैवरिक
३.आउट आफ द ब्लू
नीला घर पर आलोचक राकेश बिहारी का आलेख. 

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