राष्ट्रभक्त कवियों की टोली
(कहानी)
गंगा सहाय मीणा
कुछ मंचीय कवियों की टोली ने जिस निर्लज्जता के साथ सत्ता की चापलूसी की राह पकड़ी है उसे देख कर दुःख होता है. सत्ता के हर छोटे- बड़े आयोजन में यह टोली अफसर – नेताओं की ऐसी वंदना करते हैं कि लगता है हम कविता के किसी दरबारी युग में हैं. निर्वाचन में इनकी भूमिका बढ़ जाती है. युवा अध्येयता गंगा सहाय मीणा ने इसी को आधार बनाकर यह कहानी लिखी है जो इस समय बहुत प्रासंगिक है.
शर्मा जी बचपन से, या कहें जन्म से साहित्यिक अभिरुचि के व्यक्ति हैं. जन्म से इसलिए कि उनके जन्म की पूरी प्रक्रिया में उनके पिता पंडित विद्याधर अपनी प्रिय पुस्तक रामचरितमानस का पाठ करते रहे. पंडित विद्याधर का तो मानना है कि उनका बेटा रसोत्तम उनकी भक्ति और रामचरित गान का ही प्रतिफल है. इसलिए वे उसका नाम पुरुषोत्तम रखना चाहते थे लेकिन नामकरण के वक्त पंडित ब्रजनंदन शास्त्री ने ‘र’ से नाम रखने का सुझाया, इसलिए उन्होंने पुरुषोत्तम को रसोत्तम में बदल दिया. इसके पीछे भी उनका एक तर्क था. दरअसल वे मानते थे कि भक्ति भाव के साथ श्रंगार की साधना करने से पुत्र की प्राप्ति हुई और श्रंगार रसों में उत्तम है, इसलिए बेटे का नाम हुआ रसोत्तम.
पंडित रसोत्तम शर्मा बचपन से ही खुद को प्रतिभा का धनी मानते हैं. उन्होंने मात्र 8 वर्ष की उम्र में संस्कृत के एक श्लोक की रचना कर दी थी. इस पर उनके पिता ने उन्हें समझाया कि बेटा अब संस्कृत का युग बीत गया और अंग्रेजी का स्वर्ण युग चल रहा है, हिंदी की भी चांदी है. जानता हूं अंग्रेजी हमारे बलबूते की नहीं इसलिए जो रचना है, हिंदी में रचो. साथ ही पिता ने हिदायत दी कि कुछ ऐसा रचो जिससे धनार्जन भी हो क्योंकि अब जजमानी के दिन लद गए. तब से बेटा हिंदी साहित्य की सेवा करने में लगा है. शर्मा जी ने हिंदी में उच्च शिक्षा भी प्राप्त की है लेकिन एम.ए. में अपेक्षित अंक नहीं मिल पाने की वजह से कई प्रतियोगी परिक्षाओं से वे वंचित रह गए. फिलहाल वे एक स्थानीय प्राइवेट कॉलेज में पढ़ाते हैं.
शुरू में रसोत्तम ने श्रंगार की मनोरम छटा बिखेरती कविताएं रची लेकिन तत्सम-बहुलता के कारण वे चल नहीं पाई. इसके बाद रसोत्तम ने देशभक्ति को अपना विषय बनाया. वे भी उतनी नहीं चली. फिर उसके किसी शुभचिंतक ने उसे कवि से राजनेता बने विजय शर्मा के बारे में बताया कि कैसे बिना किसी प्रतिभा के भी साहित्य की दुनिया में लाखों कमाये जा सकते हैं. किसी नौजवान की मदद से उसने विजय का यू्-ट्यूब वीडियो देखा. वीडियो देखकर पंडित रसोत्तम की आंखें खुल गई. वाह! उसके समझ में आ गया कि कविता किसे कहते हैं और कवि किसे! उस दिन से ही रसोत्तम विजय का भक्त हो गया और विजय उसका भगवान. ऐसा भगवान जिसके दर्शन के लिए तपस्या या कुंडलिनी जागरण की जरूरत नहीं, बस अच्छी स्पीड का इंटरनेट कनेक्शन चाहिए था.
कुछ महीने पंडित रसोत्तम शर्मा ने विजय की नकल करते हुए स्थानीय मंचों पर लोकप्रिय कविता का अभ्यास किया. इस बीच उन्होंने अपने नाम का नवीकरण कर लिया. नवीकरण का वैज्ञानिक आधार था. लोगों के बीच जाने के लिए 21वीं सदी में पंडित और शर्मा की कोई दरकार नहीं थी. उसे हटा दिया गया. रसोत्तम को भी परिवर्द्धित करके रसिकोत्तम कर दिया गया. कवि का कुछ रोचक उपनाम भी होना चाहिए, यह सोचकर उन्होंने अपना उपनाम रसिक रख लिया. इस तरह अब उनका नया नाम हुआ- महाकवि रसिकोत्तम रसिक. उनके पुराने परिचित उन्हें शर्माजी ही कहकर पुकारते थे.
महाकवि रसिक ने अपने आदर्श विजय शर्मा से बहुत प्रेरणा ली. भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन के दौरान विजय की कविताएं अन्ना के मंच को सुशोभित, सुरभित करती रही. उसी आंदोलन में उन्होंने विजय को बहुत करीब से देखा और हाथ भी मिलाया था. विजय समाज सेवा करने राजनीति में चले गए. महाकवि रसिक ने राजनीति में सीधे न जाकर समाज सेवा करने का बीड़ा उठाया.
भाषा और भावों को सरल बनाने से महाकवि रसिक की कविता लोकप्रिय होती चली गई. अब वे कस्बों और छोटे शहरों में लोकप्रिय हो रहे थे. उनको स्थानीय कवि सम्मलनों के अलावा स्कूलों-कॉलेजों के वार्षिकोत्सवों, शादी-ब्याहों, जाति सम्मेलनों, पार्टियों आदि अन्य अवसरों में बुलाया जाने लगा.
उनकी कविता का रुझान राष्ट्रवादी था. वे किसी जाति-बिरादरी के पक्ष में कविता किये जाने के एकदम खिलाफ थे. वे ‘राष्ट्र सबसे पहले’ के विचार में यकीन करते थे जिसकी प्रेरणा उन्हें संघ की शाखाओं से मिली थी. वे अपनी कविताओं में इतना ओज भरते थे कि सुनने वाले के रौंगटे खड़े हो जाएं. वीर रस उनकी कविताओं का केन्द्रीय भाव था. श्रंगार में भी उनकी विशेषज्ञता थी. श्रंगारपरक कविताएं करते-करते वे इनमें इतने दक्ष हो गए कि कार्यक्रम में बैठी किसी सुकुमारी के सौदर्य को देखकर मंच पर बैठे-बैठे कविता रच लेते थे. वे अपनी वीरपरक कविताओं को समाज सेवा की श्रेणी में मानते थे और श्रंगारपरक कविताओं को आजीविका का स्रोत, तथा इनसे होने वाले मनोरंजन को बाइ-प्रॉडक्ट मानते थे.
धीरे-धीरे महाकवि रसिकोत्तम को यकीन हो गया कि कविता भी सामाजिक बदलाव में बड़ी भूमिका निभा सकती है. देशभक्ति की भावना का प्रसार, अपनी परंपरा और संस्कृति का गौरवगान, मानवता के मूल्य की स्थापना आदि वे कविता की भूमिका मानते थे.
पिछले विधानसभा चुनावों में उन्हें कविता की राजनीतिक भूमिका के बारे में भी पता चला. बहुत कम लोग जानते हैं कि उनके पश्चिम प्रदेश में महारानी को 80 प्रतिशत से अधिक सीटें मिलने में कवि सम्मेलनों की भी बहुत बडी़ भूमिका है. अगर उनमें से कुछ कवि-सम्मेलनों में वे स्वयं शामिल नहीं होते तो उन्हें भी शायद कविता की राजनीतिक भूमिका पता नहीं चल पाती. ये कवि सम्मेलन विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों द्वारा आयोजित किये जाते और इनमें महाकवि रसिक जैसे कुछ कवियों को विशाल जन-समुदाय के समक्ष कविता पाठ के लिए बुलाया जाता. ये कवि कविता के अलावा भी किसी न किसी पेशे से जुड़े हुए थे. अधिकांश सरकानी या प्राइवेट नौकरियां करते थे. कई कवि तो अपनी पैतृक परचूने की दुकान भी संभालते थे, जो अब काफी आधुनिक सुविधाओं से युक्त हो चुकी थीं. वे दुकानदारी के अलावा छोटा-मोटा व्यापार का काम भी देखते थे. ठीक ही कहा गया है कि सामंतवाद से पूंजीवाद तक व्यवस्था कोई भी रही हो, व्यापारी वर्ग ने स्वयं को उसके अनुकूल ढाल लिया है.
विधानसभा चुनावों के दौरान ही राष्ट्रभक्त कवियों की इस टोली को कविताओं का आर्थिक महत्व भी पता चला. महारानी के प्रचार के दौरान आयोजित कवि सम्मेलनों में उन्हें सम्मान स्वरूप शेष कार्यक्रमों से लगभग दस गुना राशि का भुगतान किया गया. सुनने वालों की संख्या भी हजारों में होती थी. राष्ट्रभक्त कवियों की टोली की नजर में ये सम्मेलन समाज सेवा का सबसे बड़े केन्द्र थे. महाकवि रसिक तथा उनके साथी कवि महारानी को कभी धर्म का अवतार मानते तो कभी महारानी में उन्हें साक्षात भारत माता की छवि दिखाई देती. यह महारानी का ही साहस था कि अपने शपथ ग्रहण समारोह में उन्होंने पुरोहितों को सम्मान दिया और हवन-यज्ञ द्वारा विधानसभा व राजधानी को पवित्र कर शपथ ली.
महारानी ने तो मानो प्रदेश की काया ही पलट दी थी. प्रदेश की राजधानी का सौंदर्यकरण उनकी प्राथमिकता था. वे राजधानी को राज्य का प्रतिनिधि मानती थीं, फलतः राजधानी के सौंदर्यीकरण को राज्य के विकास का प्रतीक मानना लाजिमी था. आखिर प्रदेश की प्रतिष्ठा का सवाल था. बाहर के मेहमान तो राजधानी में ही आते थे और इसी को देखकर राज्य के बारे में अपनी राय बनाते थे. इसलिए महारानी का सिद्धांत था- राजधानी और मुख्यमंत्री संपन्न तो प्रदेश और प्रदेश की जनता संपन्न.
विधानसभा चुनावों में महारानी की विजय प्रधानमंत्री पद के लिए समीपवर्ती प्रदेश के मुख्यमंत्री सुरेन्द्र भाई सोढ़ी की मजबूत दावेदारी का स्पष्ट संकेत थी. कवियों की यह टोली जिसने प्रदेश में महारानी की विजय में अहम भूमिका निभाई थी, अब सुरेन्द्र भाई सोढ़ी को प्रधानमंत्री बनवाने के लिए कृत संकल्प थी. कवियों की इस टोली ने ‘महारानी विजय’ में काफी कमा लिया था, इसलिए अब यह ‘राष्ट्र सबसे पहले’ के सिद्धांत पर अमल करते हुए पारिश्रमिक तथा अन्य सुविधाओं की मांग नहीं कर रही थी. किसी भी नगर से विकासप्रिय आयोजकों का निमंत्रण मिलता, राष्ट्रभक्त कवियों की यह टोली तत्पर तैयार हो जाती. सबके मन में राष्ट्रीय संकल्प था. राष्ट्रीय कर्त्तव्य के निर्वाहन के क्रम में कवियों की इस टोली ने भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवादी परंपरा से लेकर राष्ट्र-गौरव सोढ़ी जी के छप्पन इंची सीने तक पर कविताएं रच डाली थी जिन्हें सुनकर राष्ट्रभक्त श्रोता भाव-विभोर हुए बिना नहीं रह पाते थे.
चुनाव की तारीखें करीब आ रही थी और राष्ट्रभक्त कवियों की इस टोली का हौसला बढ़ रहा था. इसी बीच पश्चिमी प्रदेश की साहित्य अकादमी के पुरस्कारों की घोषणा भी हो गई जिसमें टोली के कई कवियों को महत्वपूर्ण पुरस्कारों से नवाजा गया. राष्ट्रभक्त कवियों की टोली की प्रतिष्ठा और उत्साह लगातार बढ़ता जा रहा था.
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गंगा सहाय मीणा
सहायक प्रोफेसर
भारतीय भाषा केन्द्र
जेएनयू नई दिल्ली -67
81, न्यू ट्रांजिट हाउस, जेएनयू, नई दिल्ली-67. मोबाइल- 9868489548
ई पता : gsmeena.jnu@gmail.com
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