\”किरण के पास कथा कहने की समर्थ शैली है और कथा के चरित्रों की मन:स्थितियों की गहरी समझ है.\” २०११ में नामवर सिंह के दिए इस कथन के साथ \’पहल\’ के नए अंक में किरण सिंह की लंबी कहानी ‘राजजात यात्रा की भेड़ें’ प्रकाशित हुई है.
यह कहानी वरिष्ठ कथाकार ‘बटरोही’ की टिप्पणी के साथ आपके लिए.
किरण सिंह की कहानी \’राजजात यात्रा की भेड़ें\’
बटरोही
राजजात यात्रा की भेड़ें
“\’दीदी! सुन तो…वो जात्रा की…!\’\’ बुलबुल काई लगी ढलान पर दौड़ता हुआ सा उतर रहा था. बदहवासी में भी उसे खूब ध्यान था कि रोज के चढऩे-उतरने वाले अपने परिचितों के साथ भी ये पहाडिय़ाँ कोई मुरव्वत नहीं करतीं. जरा लडख़ड़ाए कि गये खाई में. वह घुटनों पर हाथ रख कर झुका हुआ सा ठहर गया. उसकी साँस उखड़ रही थी. छह पहाड़ी नीचे बसे अपने गाँव कांसुवा की ओर मुँह करके उसने बात पूरी की, \’\’दीदीऽऽ वो जात्रा की भेड़ गायब हो गई… ढेबरूमेठ ख्वेगी!\’\’ नीचे से दीदी का जवाब न पाकर उसकी चाल धीमी हो गई. ठहर कर चलने पर महसूस हुआ कि नन्दा-मंदिर से उठते सामूहिक रूदन की लहरों से हवा में थरथराहट है.
इस घटना का जिक्र मैं पहले भी कई बार कर चुका हूँ, किरण सिंह की कहानी पढ़ने के बाद वो मुझे फिर से याद आ गई.
राजेन्द्र यादव ने जब ‘हंस’ की योजना बनाई, पत्रिका की थीम को लेकर उन्होंने अपने घनिष्ठ मित्रों को लम्बे-लम्बे पत्र लिखे. पत्र में उन्होंने बड़े अधिकार से लिखा कि जब भी वो अपनी सर्वोत्कृष्ट कहानी लिखें, उसे सबसे पहले ‘हंस’ को भेजें क्योंकि उनका सपना ‘हंस’ को भारतीय रचनाशीलता की सर्वोत्कृष्ट पत्रिका के रूप में देखने का है. मेरे पास भी पत्र आया, जाहिर है कि मेरे लिए यह सबसे बड़ा सम्मान था और मैंने खूब मेहनत के साथ एक कहानी तैयार की.
चिट्ठियों का जवाब देने में राजेन्द्र जी (उनकी पीढ़ी के दूसरे अनेक लेखकों की तरह) काफी गंभीर रहे हैं. करीब डेढ़ सप्ताह के बाद कहानी वापस आ गयी इस नोट के साथ कि उन्हें मुझसे इससे बेहतर कहानी की उम्मीद थी. हम जैसे छोटे कस्बों के लेखकों के लिए रचनाओं की अस्वीकृति कोई घटना नहीं होती. दो-चार दिन तक मन खिन्न रहा, अंततः मैं नई कहानी लिखने मैं जुट गया. एक साल के अंतराल में मैंने तीन-चार कहानियां भेजीं और सभी एक निश्चित अवधि में वापस आती चली आईं. जाहिर है, मन में शातिर दिमाग संपादक को लेकर अनेक संदेह पैदा हुए; फिर भी संपादक के निर्णय को आप किस बिना पर चुनौती दे सकते थे! मैंने इस बार गुस्से में उनकी गुटबाजी का पर्दाफाश करते हुए उनसे बुरा-भला कहा और ‘अब कहानी अस्वीकृत करके तो देखो’ की तर्ज पर चुनौती देते हुए खूब मेहनत के साथ एक नई कहानी लिखकर उन्हें भेजी.
दो सप्ताह के बाद पहले की तरह डाक से कहानी का यह लिफाफा भी वापस आ गया. लिफाफे के अन्दर पाण्डुलिपि के साथ ‘हंस’ के लैटर-हेड पर हाथ से लिखा उनका पत्र था, ‘प्रिय बटरोही, कहानी अच्छी है, मगर अनुभव की नहीं, जानकारी की उपज है. तुम इससे बेहतर कहानी लिख सकते हो. इंतजार रहेगा. सस्नेह, रा. या.’ (यह बताने में मुझे कोई शर्म नहीं है की ‘हंस’ में राजेन्द्र जी ने मेरी कोई कहानी प्रकाशित नहीं की. कहानी की आलोचना के प्रसंगों को लेकर हम आपस में खूब झगड़े, व्यक्तिगत रूप से भी और पत्रिकाओं में लेख लिखकर भी. मगर न वो मेरी रचनात्मक दृष्टि से सहमत हुए, न मैं उनकी. अलबत्ता उनके अंतिम दिनों मे अर्चना वर्मा जी ने एक दिन फोन से मुझसे मेरा संक्षिप्त परिचय और फोटो मंगाया जिनके साथ उन्होंने ‘हंस’ में मेरी एकमात्र कहानी ‘खश राजा के साथ कुलदीप’ प्रकाशित की.
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भाई अरुण देव ने जब पिछले दिनों ‘पहल’ में प्रकाशित किरण सिंह की कहानी ‘राजजात यात्रा की भेड़ें’ की ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया, एकाएक राजेन्द्र जी की खीझ मेरी समझ में आई. मेरी खीझ दो कारणों से थी. ‘पहल’ और ज्ञानरंजन जी की छवि मेरे दिमाग में ‘हंस’ और राजेंद्र जी की ही तरह बड़े रचनाकार की रही है. अमूमन ऐसी पत्रिका में किसी कमजोर रचना के प्रकाशन का अर्थ है, एक पाठक के रूप में मेरे समझने में ही कोई चूक रही होगी. खीझ का कारण यह भी था कि मैं किरण सिंह की कहानियों का शुरू से प्रशंसक रहा हूँ. इसलिए मैं कुछ भी कहने से पहले अपने दुराग्रहों के बारे में सोचने लगा था.
किरण सिंह की कहानी ‘राजजात यात्रा की भेड़ें’ पहाड़ी समाज के सांस्कृतिक अंतर्विरोधों और पलायन के दंश की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करती है. इसलिए नहीं कि लेखिका ने मेरे भौगोलिक क्षेत्र में घुसपैठ की है, और मेरे अन्दर का स्वाभिमानी ‘पहाड़ी’ जाग गया हो; मेरी तकलीफ की वजह सिर्फ यह है कि लेखिका ने अपनी पर्यटक नजर को ही हमारे क्षेत्र के सांस्कृतिक अंतर्विरोधों की जड़ मान लिया है. अब इस बात का क्या तुक है कि एक गढ़वाली ग्रामीण के संवादों के क्रिया-रूप पश्चिमी हिंदी के हैं. (‘जयकारी नेगी जी का, दाम लेने से मना कर दिए…’ ‘चौसिंघिया खाडू मंगवाए पुरोहित जी…’
जिस क्षेत्र की यह कहानी है वह गढ़वाल-कुमाऊँ का दोसाद क्षेत्र है जहाँ आदरसूचक संबोधन ‘ज्यू’ है, ‘जी’ नहीं. ‘पुरोहित’ जैसा शिष्ट शब्द तो आज तक नहीं आया है, अलबत्ता ‘पंडिज्यू’ प्रचलन में है, कस्बों-शहरों में भी ‘पुरहेत’ शब्द भले सुनने में मिल जाए. गढ़वाल-कुमाऊँ का ग्रामीण इलाका तो अन्दर तक भी संस्कृत के पढ़े-लिखे कर्मकांडी पंडितों से भरा पड़ा है, तो भी गाँवों में साग-सब्जी के लिए ‘भाजी’ और भोटी (वास्कट) के लिए ‘सदरी’ का प्रयोग नहीं होता.
छोटे भाई के लिए ‘भुल्ला’ नहीं, ‘भुला’ शब्द का प्रयोग होता है. कहानी में एक रोचक सूचना यह है कि “पहाड़ों में चिल्लाकर बातें नहीं करते. पहाड़ियां पहले कांपती हैं, फिर चिल्लाने वाले पर गिर पड़ती हैं.” ‘असभ्य’ उत्तराखंडी पहाड़ियों की वनस्पतियों के बारे में जानकारी का आलम यह है कि “वो ‘सियूण’ (बिच्छू घास- शुद्ध उच्चारण ‘श्योण’ या ‘शिश्योण’) को जहरीला मानते हैं.” (“विषैले सियूड़ (बिच्छू घास) से श्यामलाल भाई की मौत हो गयी थी”. उत्तर-पूर्व के पहाड़ी लोग तो सबसे स्वादिष्ट सूप के रूप में इसे पीने के बाद ही मुख्य खाना शुरू करते हैं और इसमें सबसे अधिक लौह तत्व होता है. हालाँकि कुमाऊँ में इसे संपन्न लोग नहीं खाते लेकिन थोकदार परिवार की मेरी दादी इसके कोमल कल्लों को तोड़कर उसका बेहद स्वादिष्ट साग बनाती थी.
छोटे भाई के लिए ‘भुल्ला’ नहीं, ‘भुला’ शब्द का प्रयोग होता है. कहानी में एक रोचक सूचना यह है कि “पहाड़ों में चिल्लाकर बातें नहीं करते. पहाड़ियां पहले कांपती हैं, फिर चिल्लाने वाले पर गिर पड़ती हैं.” ‘असभ्य’ उत्तराखंडी पहाड़ियों की वनस्पतियों के बारे में जानकारी का आलम यह है कि “वो ‘सियूण’ (बिच्छू घास- शुद्ध उच्चारण ‘श्योण’ या ‘शिश्योण’) को जहरीला मानते हैं.” (“विषैले सियूड़ (बिच्छू घास) से श्यामलाल भाई की मौत हो गयी थी”. उत्तर-पूर्व के पहाड़ी लोग तो सबसे स्वादिष्ट सूप के रूप में इसे पीने के बाद ही मुख्य खाना शुरू करते हैं और इसमें सबसे अधिक लौह तत्व होता है. हालाँकि कुमाऊँ में इसे संपन्न लोग नहीं खाते लेकिन थोकदार परिवार की मेरी दादी इसके कोमल कल्लों को तोड़कर उसका बेहद स्वादिष्ट साग बनाती थी.
यह कहानी अतीत और वर्तमान की एक साथ यात्रा करती हुई पहाड़ी समाज में घुसपैठ कर चुके अंधविश्वासों और जड़ताओं को लेकर सवाल उठाना चाहती है. असल में जो विषय लेखिका ने चुना है वह उत्तराखंडी समाज के बीच सदियों से रसा-बसा प्रसंग है. यह प्रसंग यहाँ के जन-जीवन के बीच इतना घुलमिल चुका है कि उसकी कोई नयी व्याख्या स्वीकार कर सकने की स्थिति में कम-से-कम आज का समाज तो हो ही नहीं सकता.
दरअसल इस प्रसंग की नयी व्याख्या समाज में तभी स्वीकार हो सकती है जब कि वर्तमान के पास भावी सपनों के साथ कोई अधिक मजबूत मॉडल मौजूद हो. ऐसा भी नहीं है कि ऐसा कोई मॉडल आज के पहाड़ी समाज के पास नहीं है. जिस रूप में नए समाज की जानकारियों का वृत्त बढ़ा है, इसके बीच यह असंभव भी नहीं है. मगर क्या यह उसी रास्ते जाकर संभव है, जिस रास्ते पर हमारी नयी वैश्विक दुनिया बढ़ रही है! और इस नए समन्वय का कर्ता कौन होगा! खासकर ऐसे समाज में, जहाँ सत्ताधारी वर्ग खुद अन्धविश्वास और जड़ताओं के बीच घुसकर रास्ता तलाश रहा हो, क्या किसी सार्थक रास्ते की तलाश संभव है? और ऐसे तंत्र में, जहाँ बहुसंख्यक वर्ग समूचे तंत्र की दिशा तय करने के दंभ से भरा हो, और यही स्पष्ट न हो कि जिसे हम जनमत कह रहे हैं वह (बहुसंख्यक) भीड़ है या समाज, उसका लक्ष्य कैसे तय होगा… कौन करेगा तय!
कथा का आरम्भ कत्यूरी राजवंश की इष्टदेवी राज-राजेश्वरी नंदा देवी के नैहर से विदा-प्रसंग से होता है. “अणबेवाई नौनी मैंत बीटिन जाणीच… गाजा-बाजा के साथ कैलाश पर्वत पर अपने सुहाग स्वामी देवाधिदेव औघड़ बर्फानी… महादेव के पास…चार सींगों वाला भेड़ा (चौसिंगिया खाडू मेठ यानि अगुवा… पथ-प्रदर्शक”…
जिन लोगों ने गढ़वाली लोक-गायक नरेंद्र सिंह नेगी के स्वर में नंदा राजजात की गाथा सुनी है, वे जानते हैं कि इस कथा की लोक जीवन में कितनी गहरी पैठ है. ऐसे में एक साहित्यिक कथा को स्थानापन्न के रूप में खड़ा करना कितनी बड़ी चुनौती है, खासकर ऐसे समय में जब साहित्य खुद ही जन-अभिव्यक्ति के बीच से लगभग गायब हो चुका हो. लोक और जन के बीच इतना फासला क्या अतीत में कभी दिखाई दिया था?…
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मुझे माफ़ करेंगे, अगर मैं बड़बोला हो गया होऊँ; लेकिन पाठकों को वास्तविकता से वाकिफ तो होना ही चाहिए. मैं ऐसा न करता, असल में एक जगह गरीबी की इन्तहा दिखाने के लिए लेखिका ने कहानी के नायक ‘बुलबुल’ (यह नाम भी मैंने परंपरागत गाँव के गढ़वाली लड़कों का नहीं सुना) से दरवाजे का फट्टा तोड़कर आग जला दी है. पहाड़ी समाजों में ही नहीं, किसी भी संस्कारशील भारतीय परिवार में दरवाजा जलाने का क्या अर्थ होता है, बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. खैर.
प्रख्यात कथाकार-आलोचक विश्वम्भरनाथ उपाध्याय हमें एम. ए. में ‘कवि-प्रसिद्धियाँ’ पढ़ाते थे. भक्ति और रीति काल को समझने के लिए उन्होंने इनके जरिये हमें नयी समझ दी. उन्होंने ही हमें बताया कि किस तरह चर्चा किसी लेखक के अन्दर घुन की तरह घुसकर उसकी रचनाशीलता की हत्या कर देती है. यही घुन उसे मिथक का अवतार लेने में मदद करती है और एक बार चर्चा के भंवर में फँस जाने के बाद उसका इतना चस्का लग जाता है कि लेखक खुद ही उससे बाहर नहीं निकलना चाहता. जीतेजी मिथक बन जाने का शौक…
अगर आपको आजादी के बाद चर्चा में आई विभिन्न प्रतिभाओं की अति महत्वाकांक्षी पीढ़ियों की याद हो तो मेंरे इस आशय को आसानी से समझा जा सकता है. अब वो जमाना तो गया, अलबत्ता नए ज़माने में संपादकों-पत्रकारों ने नए तरह की कवि-प्रसिद्धियों और मिथकों को जन्म दिया है. इसने लेखकों का अनुभव-संसार तो सिकोड़ा है मगर जानकारी का विस्तृत वितान सौंपकर खुद को ही सर्वेसर्वा समझने का अहंकार प्रदान किया है. क्या कारण है कि वही जैनेन्द्र, अज्ञेय, अश्क, मुक्तिबोध, रामविलास, शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन, रेणु, मोहन राकेश, रघुवीर सहाय, निर्मल वर्मा, अशोक वाजपेयी, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, ज्ञानरंजन, उदय प्रकाश, दूधनाथ, रवीन्द्र कालिया वगैरह लेखक छठे दशक से पहले कितने शांत और उर्वर ढंग से अपनी रचनाशीलता को विस्तार देकर हिंदी का नया पाठक वर्ग तैयार कर रहे थे. मगर यही लोग आठवें-नवे दशक तक आते-आते एक बार जो महंत की गद्दी में बैठे, वहां ऐसे चिपके कि अपनी रचनाशीलता की शक्ति का उपयोग खुद को अपने आसन से चिपकाये रखने के लिए करने लगे. और यह केवल साहित्य की बानगी नहीं है, हर क्षेत्र में ऐसा ही होने लगा.
फिल्म की दुनिया को ही लीजिये, पचास के दशक में प्रेम करने की जो उम्र पच्चीस से शुरू होती थी, आठवे दशक में वह पंद्रह हो गयी और नयी सदी के दूसरे दशक में तो हर तीसरा बलात्कारी माईनर सुनाई देता है. जाहिर है, इसका कारण सिर्फ यही नहीं है कि समय के साथ लड़कों में पौरुष ग्रंथि का जल्दी विकास होने लगा है. आखिर ग्रंथियों को विकसित करने वाले तत्व पैदा तो सामाजिक परिवेश में ही हैं.
हो सकता है कि कुछ लोग मेरी बातों से सहमत न हों, मुझे लगता है, मनुष्य की मूल प्रवृत्ति कम-से-कम मेहनत से बड़ी उपलब्धि हासिल करने की होती है, नैतिकता, मर्यादा वगैरह कभी मूल्य नहीं रहे हैं. पुराने समय में लोगों के पास अवसर नहीं थे, इसलिए मर्यादित रहना उनकी मजबूरी थी. अब अवसर हाथ लगे हैं तो उनका भरपूर फायदा उठाया जा रहा है, भले ही उपलब्धियाँ समय से पहले पक गए फल या बोनसाई के रूप में क्यों न हों.
हिंदी की ताज़ा पीढ़ी की विसंगति मुझे यही लगती है. चर्चाएँ आदमी में आत्मविश्वास पैदा जरूर करती हैं, मगर एक सीमा के बाद वह अहंकार के रूप में बदलने लगती हैं. और किसी के लिए भी खुद के अहंकार और आत्मविश्वास में फर्क कर पाना लगभग असंभवहोता है.
किरण सिंह, जिनकी शुरुआत एक कल्पनाशील, प्रयोगधर्मी और संवेदनशील कथाकार के रूप में हुई थी, हमारे समय की इस तरह की कोई अकेली रचनाकार नहीं हैं. उनके हमउम्र लगभग हर लेखक की यही विडंबना है. नाम गिनाने में वक़्त बर्बाद करने का कोई अर्थ नहीं है.
मैं अब वहीँ आ रहा हूँ, जहाँ से मैंने शुरुआत की थी. निष्कर्ष यह कि किरण सिंह के युग तक आते-आते ‘संपादक-राजेन्द्र यादव’ हमारे बीच से गायब हो गए हैं और जो नए संपादक ज्ञानरंजन के रूप में उभर रहे हैं, उनके लिए साहित्य नहीं, ‘पहला प्यार’ कुछ और ही चीजें हैं. मसलन पत्रिका के लेखक की राजनीतिक पक्षधरता क्या है, उसकी ‘पहली भाषा’ क्या है, उसका लिंग क्या है, वर्ण क्या है, उसमें ‘समर्पण’ का भाव कितना है आदि-आदि!
राजेन्द्र यादव ने मेरी कहानी भले ही न छापी हो, उन्हें लेकर यह ‘कवि-प्रसिद्धि’ तो है ही कि महिला रचनाकारों के प्रति उनका निर्णय सख्त नहीं होता था. उनके वक़्त की सबसे चर्चित कहानियाँ देह की उत्तेजना से जुडी प्रेम कहानियां हैं. अलबत्ता बाद में इस पंक्ति में दलित और पिछड़े भी जुड़ते चले गए, और यह सिर्फ साहित्य का मामला नहीं है. नए भारतीय समाज में आज यह हर क्षेत्र की बानगी है.
अरुण देव इस टिप्पणी के साथ किरण सिंह की कहानी भी छापेंगे ही, अंत में एक बात की ओर मैं पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ. सहृदय पाठक इस पर विचार करें और मेरी जिज्ञासा का समाधान कर मेरी मदद करें.
सही है कि यह एक घटनापरक कौतूहल शांत करने वाली सपनीली कहानी नहीं है, फिर भी कहानी में भाषा और संवेदना का परस्पर जुड़ाव तो होता ही है. इस कहानी के बीच में बर्तोल्त ब्रेख्त का एक उद्धरण और लार्ड डलहौजी से जुड़ा लेखिका का एक उपसंहारात्मक वाक्य है.
कहानी आप के सामने है. मेरी जिज्ञासा सिर्फ इतनी-सी है कि कहानी के साथ निम्नलिखित दो वाक्यों और उनके रचनाकारों को किस तरह पढ़ा जाए :
पहाड़ों की यातनाएँ हमारे पीछे हैं
मैदानों की हमारे आगे…
एक घाटी पाट दी गई है
और बना दी गई है एक खाई.
–बर्तोल्त ब्रेख्त.
और कहानी का यह अंतिम वाक्य :
“ओ डलहौजी! वहीँ रुक! मैं जीते जी अपना कांसुआ नहीं दूँगी!”
कौन हैं ये बर्तोल्त ब्रेख्त और डलहौजी ?
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बटरोही
जन्म : 25 अप्रैल, 1946 अल्मोड़ा (उत्तराखंड) का एक गाँव
पहली कहानी 1960 के दशक के आखिरी वर्षों में प्रकाशित
हाल में अपने शहर के बहाने एक समूची सभ्यता के उपनिवेश बन जाने की त्रासदी पर केन्द्रित आत्मकथात्मक उपन्यास \’गर्भगृह में नैनीताल\’प्रकाशित
अब तक चार कहानी संग्रह, पांच उपन्यास. तीन आलोचना पुस्तकें और कुछ बच्चों के लिए किताबें प्रकाशित.
इन दिनों नैनीताल में रहना. मोबाइल : 9412084322
राजजात यात्रा की भेड़ें
किरण सिंह
“\’दीदी! सुन तो…वो जात्रा की…!\’\’ बुलबुल काई लगी ढलान पर दौड़ता हुआ सा उतर रहा था. बदहवासी में भी उसे खूब ध्यान था कि रोज के चढऩे-उतरने वाले अपने परिचितों के साथ भी ये पहाडिय़ाँ कोई मुरव्वत नहीं करतीं. जरा लडख़ड़ाए कि गये खाई में. वह घुटनों पर हाथ रख कर झुका हुआ सा ठहर गया. उसकी साँस उखड़ रही थी. छह पहाड़ी नीचे बसे अपने गाँव कांसुवा की ओर मुँह करके उसने बात पूरी की, \’\’दीदीऽऽ वो जात्रा की भेड़ गायब हो गई… ढेबरूमेठ ख्वेगी!\’\’ नीचे से दीदी का जवाब न पाकर उसकी चाल धीमी हो गई. ठहर कर चलने पर महसूस हुआ कि नन्दा-मंदिर से उठते सामूहिक रूदन की लहरों से हवा में थरथराहट है.
बुलबुल के गाँव कांसुवा से, नन्दा मन्दिर की ध्वजा भर दिखाई देती थी लेकिन सूनी घाटियों में घंटे की आवाज ऐसी साफ सुनाई देती जैसे मन्दिर दो घर छोड़ कर हो. छह पहाड़ी ऊपर बसानन्दा-मन्दिर था तो नन्हा सा पर \’आदमी के जनम से भी पुराना और मान्नता वाला\’ था. \’\’बुलबुल! आज बसन्त पंचमी है. जा मैया के दरबार हाथ जोड़ के आ!\’\’ यह तो दीदी बचपन से सिखाती चली आ रही हैं. वाह भई बुलबुल ! अभी छह महीने पहले से दीदी ने गाँव की पहाडिय़ाँ पार करने की छूट दी है. और छह महीने पुरानी बातों को वह बचपन की बातें कहने लगा है. वह मुस्कुराया. नौटियालों के कुरूड़ गाँव के सिद्ध पीठ से हर साल नन्दा देवी की राजयात्रा शुरू होती है. इस बार, बारह बरस पर महाजात्रा का योग बना है. दीदी ने उसे अँधेरे में ही उठा दिया था. पुरानी साइकिल के गार्डर से वह करीर के फूलों का जंजाल काटता चल दिया था. मन्दिर में मैया की छतर-डोली का पहला पड़ाव था. ढोल-दमाऊ के साथ जगरिये, देवी कथा सुना रहे थे-
\’\’भक्त जन! कत्युरी राजवंश की इष्ट देवी राजराजेश्वरी नन्दा देवी नैहर से विदा हो रहीं हैं. अड़ बेवई नौनी मैत बीटिन जाणींच (कुमारी कन्या मायके से जा रही है.)…गाजा-बाजा के साथ…कैलाश पर्वत पर…अपने सुहागस्वामी देवाधिदेव…औघड़ बर्फानी…महादेव के पास. हम सभी मैया की छतर-डोली के साथ होमकुण्ड तक चलेंगे. उसके आगे हिमगिरी के धुँआ-धुंध में…देवी के आगे-आगे कौन जायेगा भला ? यही चार सींगों वाला भेड़ा…चौसिंग्या खाडू…मेठ यानी अगुवा… पथप्रदर्शक. पहाड़ों का सीना चौड़ा रहे कि यह चार सींगों वाला भेड़ा, दशोलीपट्टी के किसी न किसी घर में जन्म लेता है. इस बार वह घर है सुरेन्द्र नेगी का. मेले के कर्ता-धर्ता… राज्य सभा के माननीय सदस्य… कत्युरी शिरोमणि श्री धर्मवीर सिंह जी, उन्होंने चौसिंग्या भेड़ा के लिये मुँहमाँगा ईनाम देना चाहा. लेकिन जयकारा नेगी जी का…दाम लेने से मना कर दिये…सवा रुपये में दान कर दिया चौसिंग्या को…मैया के नाम पर…हे लहकार जयकारा!\’\’
\’\’चौसिंग्या खाडू मँगवाए पुरोहित जी! जनता दर्शन चाहती है.\’\’
\’\’भक्त जन! दो सौ इक्यावन किलोमीटर की इस कठिन पद यात्रा में जहाँ शाम होगी वहाँ लंगर बैठेगा…भण्डारा होगा. रूपकुण्ड, नन्दकेशरी, चंदिन्या घाट, होमकुण्ड के बीच पडऩे वाले गाँवों की छतर-डोलियाँ हमसे राह में मिलती जाएँगी. जयकारा-जागरण…सुन ओ औजी! (ढोल-दमाऊ बजाने वाले) साज-बाजा घड़ी एक न रुके और….\’\’
बुलबुल लौटने लगा था. इतने दिनों का साथ और ये लोग चौसिंग्या को बर्फ में छोड़ कर क्या सचमुच लौट आयेंगे? ऊँचाई पर बसे उसके गाँव के सूरज बहुत नजदीक था. तेज धूप से आँखें चकमक हो रही थीं. बाई ओर की पहाड़ी से झायँझम लाल-पीले कपड़ों में जात्रा, नीचे उतर रही थी. कि अचानक शोर उठा चौसिंग्या खाडू कहाँ गया ? खोजो उसे…वे ढूढ़ा! पहाडिय़ों से भरभराते हुए यात्री उतर रहे थे. स्त्रियाँ पत्थरों बैठ कर झूमने लगीं. उन्होंने झोटा खोल लिया और उन पर देवी मैया आ चुकी थीं.
\’\’दीदी! तुम कहाँ थी…चुन्नी में धूल-जाला लगा है…क्या चौसिंग्या को खोज रही थी.\’\’
\’\’नहीं, मैं काकी के साथ थी. आओ, चलो!\’\’ लछमी बैसाखी के सहारे घर की ओर बढ़ रही थी.
\’\’अब क्या होगा दीदी ?\’\’
\’\’होगा क्या! उस भेड़ा को सब मिल कर खोज लेते हैं. कहते हैं कि यह भेड़ा अशुद्ध हो गया. राह भटक गया था. इसलिये उसकी बलि देते हैं. फिर जात्रा शुरू हो जाती है…सब ठीक हो जाता है.\’\’
\’\’पुरोहित बाबा बता रहे थे कि सोलह साल और नौ साल पहले…दो बार ऐसा हो चुका है. दोनों साल आँधी-तूफान आया था…पहाड़ टूटा था.\’\’
\’\’अच्छा सोचो तो अच्छा होगा! अब तू घर चल…अपनी रोटी-पानी की चिन्ता कर.\’\’
\’\’पाँव दुख रहा है दीदी!\’\’ बुलबुल चारपाई पर पड़ गया था.
\’\’बात नहीं सुनते…दिन भर दौड़ोगे तो क्या होगा!\’\’ लछमी, भाई के पाँव दबाने लगी.
करवट बदलते हुए बुलबुल ने नींदासी आँखों से देखा कि लछमी दीदी चीटियों की कतार को एकटक देख रही हैं. आज उसने पूछ ही लिया-\’\’दीदी! हमेशा चीटियों सैं क्यों देख दें ?\’\’
\’\’चीटियाँ अपना घर नहीं छोड़तीं. आसमान छूने की चाह वाले अपना घोसला छोड़ देते हैं. तुम्हें रास्ते में बलवन्त चाचा दिखे थे ?\’\’
\’\’हाँ ! पीठ पर गडोलू छि…गठरी छोटी थी. जात्रा में जा रहे होंगे.\’\’
\’\’नहीं, कांसुवा से विदा ले चुके हैं…जाते समय उनसे तुम मिल नहीं पाये. मैं तो जानबूझ कर पहाड़ी के पीछे चली गई थी. उसी समय, जब तुम मुझे पुकार रहे थे.\’\’
बुलबुल नींद पोछते हुए पहाड़ी की ओर बढ़ रहा था- \’\’बल्ली दादा! मत जाइए…न जाइए…नी जा बल्ली दादा ऽ ऽ !\’\’
घाटी उसकी पुकार लौटा दे रही थी. बल्ली दादा को खोजने के लिए उसने निगाह दौड़ाई. विदा समय के रिवाज से बल्ली दादा ने अपने पाँव धोये होंगे. पहाड़ी से उतरते हुये मिट्टी सने पैरों की छाप धुँधली हो रही थी. दो पहाडिय़ों के बीच सूरज ऐसे बैठा था जैसे दिन भर दौडऩे के बाद लाल मुँह वाला बन्दर, गुलेलनुमा शाख पर आराम कर रहा हो. नन्दा देवी के मन्दिर में स्त्रियाँ अभी भी रो रही थीं. चौसिंग्या को खोजने के लिये जला दी गई झाडिय़ों से धुँआ उठ रहा था. कभी इसी तरह सैकड़ों चूल्हों से गोल-गोल धुआँ उठता था. आज ये छोटे दुमंजिले घरों के अ_ारहों गाँव लता-गुल्मों से ढके है… हरे रंग का कफन ओढ़े हुए. खाली हो चुके घरों के दरवाजों पर लटके बड़े ताले, ताबूत में ठुकी कीलों की तरह चमक जाते. सूनी घाटियों में बादल भटक रहे थे, प्रेतात्माओं की तरह.
\’\’ये प्रेतात्माएँ नहीं है बुलबुल! गाँव छोड़ कर चले गये लोगों की स्मृतियाँ हैं…पुरणीं बत्थ छन! पुरानी बातें घूम-घूम कर एक दूसरे से बतियाती रहती हैं.\’\’ दीदी उसे टोक दिया करती हैं.
\’\’दीदी चाय बनाओ…मीठी पत्तियाँ थोड़ी चूल्हे में भी झोंक देना…देर तक धुँआ उठने देना !\’\’ उसने पहाड़ी पर खड़े-खड़े, सामने के धूल-धूम से खाली गाँवों को देखते हुए कहा.
\’\’विद्या के दरवाजे से लाती हूँ भइया!\’\’ लछमी ने अपने आठ साल के भाई को स्नेह से देखा. रोज तो \’मीठी तुलसी मैया की पत्ती\’ कहता था.
एक दो…तीन…बैसाखी के सहारे चलते हुए साठ कदम पर विद्या का घर पड़ता है. बाहर की सीढिय़ों पर वह सुस्ताने के लिये बैठ गई. पुरानी बातें वह इतनी बार अपने मन में दुहरा चुकी है कि सब कुछ रट गया है. नींद में भी सुना सकती है कि इन्हीं सीढिय़ों पर उसके बगल बैठी विद्या कह रही थी-
\’\’लछमी! चन्दन से सलाह-बात करती रहना. समझ रही हो न…वो मुझे याद न करे…मतलब थोड़ा तो करे ही…बहुत उदास न हो जाये. \’\’
\’\’तुम खुद तो यहाँ से भाग रही हो…और चंदन को मेरे सिर लादे जा रही हो ?\’\’
\’\’तुम मेरे भाई की हालत नहीं देख रही हो लछमी ? जिस बस से भाईजी आ रहे थे उसी बस पर बादल फटा. अस्सी में से पचपन यात्री उनकी आँख के सामने बाल्दा नदी में बहते चले गये. फिर भी तुम मुझे कांसुवा में रुकने के लिये कह रही हो ?\’\’
\’\’राजधानी…स्वर्ग…जहाँ तुम जा रही हो…दो लड़कियों की देहखाई में मिली है. मन्दिर का अखबार मैं अक्षर जोड़ के पढ़ लेती हूँ. तुम्हारा नया स्वर्ग बसाने के लिए जो मजूदरों की बस्ती बनाई गई है वहीं की लड़कियाँ थीं. वे कौन सी बिजली गिरने से जली थीं…उन पर कौन सा बादल फटा था!\’\’
\’\’भाईजी इन पहाड़ों में किसी कीमत पर नहीं रहना चाहते.\’\’
\’\’मुझे तो लगता है तू भी शहराती बनना चाहती है.\’\’
कांसुवा गाँव सोलह घरों का था. बड़ी सी दरी जैसी चौक या घोटियार के तीन ओर, दिखाई देने भर की दूरी पर ये घर थे. कुछ सीढ़ीदार खेतों के बीच, कुछ पहाडिय़ों पर. ईंट-पत्थर से बनीं छोटी-छोटी कोठरियों वाले दो मंजिले घरों के बाहर लकड़ी की सीढिय़ाँ थी. बाई ओर एक ही घर था लछमी-बुलबुल का. वहीं पीछे से ढाल शुरू होती थी. सामने की पहाड़ी पर काकी और चंदन का दुमंजिला था. इस समय कांसुवा के दो घरों में तीन लोग रह गये थे.
लछमी उँगली पर जोडऩे लगी… उस दिन को बीते आज एक साल से ऊपर हो गया… विद्या का परिवार गाँव से विदा ले रहा था. खच्चरों पर गठरियाँ लद गईं थीं. काकी, लछमी और बुलबुल, महावीर जी के भाला के पास खड़े थे. बिजली गिरने से बचाने के लिये यह भाला गाड़ा गया था. चंदन, तेजपत्ता के जंगलों की ओर निकल गया था. उसे ढूढ़ती हुई विद्या की आँखें कांसुवा को अपने में बसा लेना चाहती थीं. लेकिन भरी आँखों से सब बहा जा रहा था. चाचा-चाची सुबह से ही दिशाएँ, पहाड़, नन्दा देवी, चिडिय़ा, वन और कांसुवा से हाथ जोड़ कर भूलचूक के लिये क्षमा माँग रहे थे. इसी जीवन में फिर भेंट हो यह मनौती भी. लेकिन ओझल होने से पहले, उन्होंने पीछे मुड़ कर कांसुवा को देखा तो समझ गये कि अब शायद ही मुलाकात हो.
लछमी बैसाखी सम्भालते हुए खड़ी हो गई. ये समृतियाँ उसे जिन्दा रखती हैं या मार रही हैं! इसका जवाब सोचते हुए वह रास्तों को देखने लगी. कांसुवा की ओर पीठ और राजधानी की ओर मुँह करके सोये हैं ये रास्ते…कोई उधर से पुरखों के गाँव में कुल देवता को चढ़ावा देने तो नहीं आ रहा…नई बहू या नाती-पोता के साथ.
विद्या, विद्या के भैया-भाभी और चाचा-चाची को बस में बैठाने के बाद इन्ही रास्तों से उस दिन चंदन आता दिखाई दिया था-
\’\’यहाँ डॉक्टर-वैद्य नहीं हैं लछमी. वो देखो केवास का वन…विषैले सियूँड़ (बिच्छू घास) से श्यामलाल भाई की मौत हो गई थी.\’\’
\’\’विद्या की ओर से सफाई दे रहे हो चंदन! यहाँ हम चौड़े नथुनों से चकली छाती में हवा भरते हैं, जहर नहीं. हम पहाड़ चढ़ते हुए मरते हैं, पंखों से लटक कर नहीं.\’\’
\’\’लछमी! चारो ओर सन्नाटा है. इसमें मद्धिम हवा भी आँधी लगती है. बुलबुल को मना करो, यहाँ-वहाँ घूमता रहता है.\’\’
\’\’बुलबुल…बुलबुल! कहाँ गया ये लड़का.\’\’ पाँव पर रेंगती हुई चींटियों से वह वर्तमान में लौटी. चीटियाँ अपने अंडे दबाये भाग रही हैं…ये बारिश का इशारा है. नहीं-नहीं! ये अंडे नहीं…चीनी का दाना लिये हैं…गंगाराम चाचा के घर से निकल रही हैं.
गंगाराम चाचा का घर सामने से ताला-बन्द था. पीछे की दीवार खंडहर होकर गिर गई थी. उसकी सहेली विद्या के घर की तो एक ही ईंट निकली थी. उसने उस छेद के ऊपर-नीचे की ईटें निकाल दीं. साँप की तरह देह घुमाती हुई भीतर घुस गई थी. विद्या के बक्से से उसके सारे कपड़े निकाल लाई थी. विद्या के भैया की पैंट काट कर उसने बुलबुल के नाप का बना लिया था. चंदन ने पहचान कर कहा था- \’\’दो साल पहले की राजजात में विद्या यही सलवार-कुर्ता पहने हुए थी. मैंने उससे कहा कि चलो आज ही नन्दा-मन्दिर में ब्याह कर लें. विद्या तैयार नहीं हुई. कहने लगी भाभी के बच्चा हो जाये तब वह भइया से नेग में मुझे माँग लेगी.\’\’
\’\’विद्या को बहुत कुछ याद दिलाना है. मैं दो-चार रोज में लौटता हूँ लछमी!\’\’ कह कर चंदन राजधानी गया था. चंदन के दो-चार दिन को आज दो-चार महीना बीत गये.
लछमी ने लंबी साँस ली और कटोरा उठा लिया. वो तो कहो उसने बुलबुल को सिखा रखा है कि मन्दिर में झाड़ू लगाने के बदले पुरोहित जी से चायपत्ती और अखबार माँग लाया कर. मीठी तुलसी पत्तियों की चाय पीकर मन ऊब गया है. आज चीनी का सुराग मिला है.
गंगाराम चाचा के घर के पीछे के टूटे हिस्से तक वह पहुँची ही थी कि, \’\’दीदी! दीदी!\’\’, \’\’यह तो मेरा बुलबुल पुकार रहा है!\’\’ हाथ का कटोरा गिर गया. टूटी दीवार पर झुकी लतरों को बाएँ हाथ की बैसाखी से हटाती हुई बाहर आई. सामने पहाड़ी से, बुलबुल अपनी देह पीछे किए, छोटे-छोटे कदमों से उतरता चला आ रहा था. बाई पहाड़ी पर काकी निकल आई थीं.
\’\’दीदी! किसी खाली घर में न घुसना!\’\’
\’\’मैं किलै जवों कै क कुड़ माँ !\’\’ (मैं क्यों घूँसू किसी के घर में!)
\’\’पुरोहित बाबा कहे हैं कि चौसिंग्या यहीं आस-पास छिपा है…किसी खाली घर में. मालूम दीदी! कई दिनों से उसे पूजा के लिये भूखा रखा गया था. चार सींगोंवाला मरकहा…उसने एक पुलिस वाले की बांह में सींग घुसा दिया है. मैंने देखा उस पुलिस वाले को…जैसे बाँह पर चक्कू मारा गया हो.\’\’
\’\’बज्जर पड़ी! परलय हवे जाली! देवभूमि के राजधानी बडऩ से एक बरस पैली की बात च. ढेबरू गदना पोडग़ी. व्वै साल भौत मार-काट मची.\’\’ (बज्र गिरेगा! प्रलय होगी! देवभूमि के राजधानी बनने से एक बरस पहले की घटना है. भेड़ा फिसल कर खाई में गिर गया था.) उस बरस की गोलीबारी को याद करती हुई काकी सिर पीटती बैठ गई थीं.
\’\’सब के बीच से चौसिंग्या गायब कैसे हो गया ? जात्रा में इतने लोग थे…सब अंधे हो गये थे क्या ?\’\’
\’\’पुरोहित बाबा सबको बता-बता के थक गये हैं दीदी! वासुकि गुफा से सबसे आगे भेड़ा निकला. चौसिंग्या के पीछे-पीछे राजा साहब को जाना था. उन्हें पालकी से उतरने में देर हुई…बहुत मोटे हैं न. गुफा पार करके देखते हैं कि भेड़ा दूर-दूर तक नहीं है. मालूम दीदी! राजधानी से ये बड़े-बड़े ट्रक भर के सिपाही आए हैं. जंगल में पत्ता उठा कर भी देखा जा रहा है.\’\’
\’\’कखी मैमू न पूछे जाऊ. कि व्वै साल पूछताछ हवे. सिपै बोललू बुढऱी अभी तकै बची च.\’\'(कहीं मुझसे न पूछा जाये…उस साल पूछताछ हुई थी…सिपाही कहेंगे बुढिय़ा अभी तक जिन्दा है.) काकी अपनी कोठरी में चली गई थीं.
\’\’मैं ट्रक से टक्-टक् कूदते सिपाहियों को देखने जा रहा हूँ.\’\’ डलिया में रखी रोटी लपेटते हुए बुलबुल पहाड़ी की ओर मुड़ गया था.
\’\’तू फिर चल दिया! उनसे दूर ही रहना बुलबुल!\’\’ भाई के जाते ही वह गंगाराम चाचा के घर की ओर बड़बड़ाते हुए बढ़ी-\’\’कहता है किसी के घर में नहीं घुसना. अरे ये कोई चोरी थोड़े है. अनाज का…सामान का…आदर करना है. रखे-रखे सब सड़ ही तो जायेगा.\’\’ चंदन के खेत का अनाज वह पहले ही काकी को दे चुकी है. बुलबुल ने एक दिन पूछ लिया-\’\’दीदी! तुम विद्या दीदी के कपड़े क्यों पहने हो ?\’\’ तब वह सच नहीं बोल पाई थी. उसने बुलबुल से कहा कि विद्या ये कपड़े मुझे देकर गई है. वैसे तो विद्या, अपना सबसे कीमती सामान…चंदन को भी उसे सौंप गई थी. ओह ! फिर वही चंदन पुराण….
गंगाराम चाचा के खाली घर में कभी उसकी आने की हिम्मत नहीं पड़ी. सामने की दीवार पर उसके अम्मा-बाबा की फोटो लगी थी. बोरियों में भरे पुराने कपड़ों की भुरभुरी चूहों के काटने से फैली थी. टाँड़ की लकड़ी आधी जुड़ी, आधी टूट कर लटक गई थी. टूटे हिस्से का गूदा दीमक खा गये थे. चूल्हे के पीछे के दीवार की कालिख धूल से सफेद थी. चीटियों की कतार एक लकड़ी के बक्से से निकल रही थी. एक बार की चोट से जंग लगा ताला टूट गया.
गंगाराम चाचा तीन पहाड़ी नीचे, अम्मा के गाँव के थे. अम्मा के गाँव के सभी घरों में ताला पड़ गया. तब वे बाबा के साथ रहने के लिये कांसुवा आ गये थे.
बाबा हमेशा कहते \’\’सैसुरसे मैं से द्वि इनाम मिलेन…एक ये बढिय़ा घड़ी और दूसरा ये खड़ंजा गंगाराम!\’\’
\’\’खडंज़ा नहीं है गंगाराम!\’\’ चाचा कहते-\’\’देख लछमी के बाबा! ये पचास का नोट मुझे भूरी वाली सदरी से मिला है. चल, बीस तू रख और तीस मैं रखता हूँ.\’\’
\’\’मैं भला कैसे रख सकता हूँ गंगाराम! ये तेरे हैं.\’\’
\’\’क्योंकि मेरी किस्मते से ये पैसे खो गये थे. तेरी किस्मत से मिले हैं. तो तेरा हिस्सा हुआ न ?\’\’
\’\’तुझे भूलने की बीमारी है. किस्मत को मत डाल बीच में. हर तीसरे दिन कहता है कुर्ते की जेब से मिले…कपड़ों की तह में मिले.\’\’
\’\’बगडिय़ा! त्वै सड़े चढ़ौड़़ू रलू तब हरच्यूं-खोयूँ सब मिननू रौलू.\’\'(दोस्त! तुझे चढ़ावा करता रहूँगा तो बिछड़ा-खोया सब मिलता रहेगा.)
\’\’अरे सुनती हैं लछमी की माँ! येरुंसूढ़ (रसोई) ओर देख रहा है. अपने मायके वाले को चाय दीजिये.\’\’
\’\’खाना भी बन गया है.\’\’ रसोई से अम्मा कहतीं.
गंगाराम चाचा को फौज से पेंशन मिलती थी. उसके बाबा-अम्मा के पास अनाज तो था पर पैसे नहीं रहते थे. चाचा के पैसों से किरासिन, चीनी-चायपत्ती और बाद के दिनों में बाबा की गठिया की दवा आने लगी थी.
गंगाराम चाचा के किसी सदरी या कुर्ते की जेब में आज भी तो पैसे नहीं होंगे? चाचा की सदरियाँ निकाल कर वह जेबें टटोलती गई. कुछ नहीं मिला-\’\’चाचा! सिर्फ बाबा के लिए तुम्हारा रुपया था…मेरे लिए कुछ नहीं ?\’\’ सदरियाँ तह करके वह दबा कर रखने लगी. कुछ हथेली में गड़ रहा था. उसने फिर टटोला हाँ, कुछ है… इसी सदरी में है. सदरी की भीतर की जेब फट गई थी…उसके अन्दर…अस्तर में क्या है ? वह काठ जैसी खड़ी रही-
हथेली पर…यह तो उसके बाबा की घड़ी है!
\’\’तू सुन रहा है बगडिय़ा! रिश्ते का भतीजा मुझे राजधानी बुला रहा है. मैं पहाड़ छोड़ कर कहीं नहीं जाऊँगा.\’\’
\’\’लेकिन तुम बीमार रह रहे हो गंगाराम!\’\’
\’\’मैं अब तुम्हारे पास आ गया न! अपने गाँव में अकेला पड़ गया था…भौजी के हाथ का खाना…बेटी लछमी के हाथ का पानी…मैं ठीक हो जाऊँगा. यहाँ से गया तो पक्का मर जाऊँगा.\’\’
\’\’रोटी और भंगजीरे की चटनी से कहीं सेहत बनती है. ठंडा घर ने रेट भौत बढ़ा दिया…पहाड़ी अल्लू के बीज ऐस्से महँगे हुए. इस बार बो नहीं पाया.\’\’
\’\’ये ले…मेरी पेंशन रख. चिन्ता किस बात की यार!\’\’
\’\’देख रही हो लछमी की अम्मा! तुम्हारे गाँव के यही लच्छन हैं? थाली के पैसे दे रहा है.\’\’
\’\’नहीं-नहीं दोस्त! ऐसा मत कहो. तुम्ही लोग मेरा परिवार हो.\’\’
गंगाराम चाचा के पैसों से अब साग-भाजी भी आने लगी. अम्मा जब गंगाराम चाचा की थाली में भात रखतीं तो फैला देतीं. बाबा की थाली का भात खूब दबा देती और भात के बीच में मसले आलू रख देतीं. हम सबकी कटोरियों में दाल डालने के बाद भगोने में थोड़ी दाल बची रहती. उसमें पानी मिला कर भगोना हिलाती और गंगाराम चाचा की कटोरी में डाल देतीं. अम्मा, दाहिने हाथ में बाबा की और बाएँ हाथ में गंगाराम चाचा की थाली पकड़ा कर उससे कहतीं- \’\’जा लछमी! बाहर दे आ, ध्यान से…हाथ न बदले.\’\’
कम खाकर भी गंगाराम चाचा सेहत मन्द हो रहे थे. उसके बाबा दुबले होते जा रहे थे. उस रात, भरे बादलों जैसी आवाज सुन कर उसकी नींद खुल गई थी. यह बाबा थे जो अम्मा से कह रहे थे-
\’\’तुम्हारे पिताजी ने मंडप में वो घड़ी मेरी कलाई पर बाँधी थी. अपने घड़ी वाले हाथ से तुम्हारा कंगन वाला हाथ पकड़े हुए मैं दिन भर बिना थके चला था. बाराती आगे निकल चुके थे. मैं तुम्हारे साथ बाल्दा नदी के किनारे-किनारे… नन्दा-मन्दिर… पहाडिय़ाँ चढ़ता… दिन ढले कांसुवा पहुँचा था. पहाड़ी पर खड़े मेरे बाबूजी राह देखते हुए मुस्कुरा रहे थे. मैं दिन में कई बार अपनी घड़ी देखता था. और मेरे लिये समय वहीं ठहर जाता. मुझे लगता था कि मैं आज भी अपने बाबूजी का वही जवान लड़का हूँ, गुलाबी पगड़ी बाँधे. लछमी की अम्मा! मेरी घड़ी खो गई…हर जगह देखा…ये देखो झाडिय़ों में खोजते हुए देह फट गई…घड़ी नहीं मिली. ऐसा लग रहा है…मेरा समय खो गया…मैं बूढ़ा हो जाऊँगा जल्दी ही !\’\’
\’\’मेरे रहते आप क्यों बूढ़े होगे भला! पुरणूं सामान छौ…हरचीगै!\’\’ (पुराना सामान था… खो गया!)
\’\’इन पहाड़ों में जिन्दा रहने के लिए वो सनक मेरा सहारा था.\’\’
\’\’हम भी राजधानी चलें क्या ? \’\’
\’\’लछमी को लेकर हम कहाँ भटकते फिरेंगे ? हमारा कौन है राजधानी में!\’\’
\’\’सुनिए, आप गंगाराम भाई को क्यों रोकते हैं ? मैं आपसे कितनी बार कह चुकी हूँ… उन्हें शहर जाने दीजिए.\’\’
\’\’वो चला जायेगा तो बात किससे करूँगा ?\’\’
\’\’आप हमसे बात कीजिए.\’\’
\’\’तुमसे ? तुम हर समय…मेरी नौनी लछमी कू क्या होलू…मेरी बच्ची का क्या होगा…कैसे पार लगेगी…यही रटती रहती हो. गंगाराम मुझे हँसाता है.\’\’ बाबा थोड़ी देर चुप रहे फिर बोले,\’\’जिस दिन तुम कह दोगी कि गंगाराम को शहर मत जाने दीजियेगा… यहीं गाँव में रहने दीजिए… उस दिन मैं इस दुनिया में नहीं रहूँगा.\’\’
\’\’आप सब जानते हैं तब शान्ति से सो जाइये.\’\’
बाबा राजधानी नहीं गये इसका कारण वह थी. लेकिन गंगाराम चाचा, गाँव से प्रेम में नहीं बल्कि…ओह! पहले ही दिन उन्होंने \’मामा\’ कहने पर टोक दिया था-\’\’बेटी! मैं तुम्हारे बाबा का यार हूँ. मुझे चाचा कहो.\’\’ नहीं-नहीं, गंगाराम चाचा के पास यह घड़ी भूल से आ गई होगी… चाचा वापस करना भूल गये होंगे… वह समझने में भूल न करे… इसके लिये फिर स्मृतियों में जाना होगा-
गंगाराम चाचा पर उनका भतीजा राजधानी चलने के लिये दबाव बढ़ा रहा था. गंगाराम चाचा, बाबा से पहले और अचानक एक सुबह इस दुनिया से चले गये. अम्मा को यह याद नहीं रहता था कि गंगाराम चाचा अब नहीं हैं. वो हर दूसरे-तीसरे दिन चार रोटी या दो मुट्ठी भात ज्यादा बना देतीं. बासी खाना वह घर में किसी को नहीं देती थी. बाबा की नजर बचा कर वह दूसरे पहर खातीं और थाल में बूँद टपक जाती.
\’\’साथ रहते-रहते जानवर से भी प्रेम हो जाता है!\’\’ एक बार जब अम्मा नौला पर बर्तन धो रही थीं और बाबा खेत में काम कर रहे थे तब गंगाराम चाचा ने बहुत जोर से यह बात कही थी. बाबा कुदाल रोक कर हँस पड़े थे-\’\’अबे…तू मेरी बच्ची का चाचा बन बैठा है. मैं तुझे साला कहके ढंग से गरिया भी नहीं कह सकता!\’\’
अब यह बक्सा बन्द करो और चाचा से जुड़ी यादें भीं. उसने कुंडा फँसा कर बक्से को बोरिया से दबा दिया. आदतन, अपने कुर्ते के भीतर कीमती सामान रखने लगी. उसे याद आया कि सारी शमीजें फट गई हैं. कुर्ते के भीतर उसने अम्मा का ब्लाउज पहना है. ब्लाउज भी फट गये… बन्द घरों के भी सामान खत्म हो गये तब क्या होगा ? माल्टा और झरबेर से कैसे काम चलेगा. बुलबुल अब बड़ा हो रहा है. उसकी देह बाबूजी जैसी तैयार होनी चाहिये. चंदन से उसने कहा था कि तुम राजधानी में अपने रहने का इंतजाम करके बुलबुल को ले जाना. तब कांसुवा में सिर्फ वह और काकी रह जाएँगें! घबरा कर उसने पुकारा-
\’\’काकी…काकी ऽ! बाहर आइये.\’\’ काकी और उसके बीच एक समझौता है. काकी हर सुबह कोठरी से बाहर निकल कर \’\’जैऽऽ हो नन्दा मैया !\’\’ जयकारा लगाती हैं. लछमी इधर से, \’\’जयऽ हो!\’\’ में जवाब देती है. इसका मतलब है, \’आज तो हम जिन्दा हैं. कल की देखी जाएगी.\’ काकी से उसने कितनी बार कहा कि नीचे आकर उसके साथ रहें. वो कहतीं-\’\’चार कदम तुमरा बुन्नन उतरलू….फिर क्वी बोललू चार कदम दैणा राजधानी चला! मैं नी हलकण वली.\’\’ (चार कदम तुम्हारे कहने से उतरूँ… फिर कोई कहेगा चार कदम दाहिने राजधानी चल चलो! मैं नहीं हिलने वाली.)जिन दिनों कांसुवा आबाद था उन दिनों निसंतान विधवा काकी की जमीन का लोभ रखने वाले उनकी टहल किया करते थे. धीरे-धीरे जब अपनी जमीन छोड़ कर लोग भागने लगे तब काकी को उनकी जमीन के लिये कौन पूछता.
\’\’काकी! कब से बुला रही हूँ.\’\’
\’\’मिन अपणा डाला का माल्टा…यू देख…ईं जगा गड्ढा मां ढकै लिन. छ: महीना तके खराब नी होण्या. तुम लोग खैल्यान!\’\’ (मैंने अपनी डाल का माल्टा…ये देख…यहाँ गड्ढे में ढक दिया है. छ: महीने तक खराब नहीं होगा. तुम लोग खाना!)
\’\’क्यों, आप क्यों नहीं खायेगी ?\’\’
\’\’मैं छ: महीना बच्यू रोलू तब न ? तब न खोल्यू यूँ माल्टो!\’\'(मैं छह महीने बची रहूँगी तब न!)
\’\’जो बचेगा क्या वो माल्टा खाकर बचेगा !\’\’
\’\’मेरा चौक वाला पुराणां डाला माँ हारिल का घोसला छ. तुमुन त नी देखिन पर बुलबुल देखिणी छै. आसमान देखणी रै…(मेरे आँगन वाले पुराने पेड़ की डाल पर हारिल का घोसला है. तुमने तो देखा है…नहीं, बुलबुल देख रहा था. आसमान ताकती रहना…)
\’\’क्यों भला ? दूसरे भौत काम हैं. ओरे! काका तो नहीं झाँकने वाले आसमान से?\’\’
\’\’चुप रेले! आँधी से पैली मैं वै पुराणां डाला का तौल लखड़ू लगै द्योलू. सहारू रोलू.\’\'( चुप रह! आँधी से पहले मैं पुराने पेड़ की उस ओर की डाल के नीचे लक्कड़ लगा दूँगी. सहारा रहेगा.)
\’\’काकी! तो आज आसमान लाल च (है).\’\’
\’\’इतगं त रो लाल रौन्दू. बुलबुल कख च? बच्चा कू जरा ध्यान राखा. सुबेरे निकल्यूँ श्याम ह्वेगी.(इतना तो रोज लाल रहता है. बुलबुल कहाँ है? बच्चे का तनिक होश रखो. सुबह के निकले शाम हो गई.\’\’)
\’\’अभी बुला लेती हूँ! बुलबुलऽऽ!\’\’
बूँदों की लड़ को, तेज हवा पत्थर पर पछार रही थी. जैसे \’देबी आईं हैं\’ वाली औरतें \’हुम्म…हुम्म!\’ करके झूमते हुए नन्दा-मन्दिर के चबूतरे पर अपने केश पटक रहीं हों. खाली घरों की खिड़कियाँ-दरवाजे टकरा रहे थे. कडड़़कड़!…लगा कि कहीं पास ही बिजली गिरी है. बुलबुल के कान पर उसने धीरे से तकिया रख दिया था. छोटू भुल्ला (छोटे भाई ) की पीठ पर हाथ रखे रात भर बैठी रही. सुबह का अंदाज करके उसने खिड़की की झिर्री के पास मुँह किया और पुकार लगाई-\’\’जय ऽ हो काकी!\’\’ कहने के साथ ही समझ गई कि वहाँ तक आवाज नहीं पहुँचेगी. बुलबुल जरूर उठ गया. \’\’जय हो!\’\’ उसने मुस्कुरा कर जवाब दिया. पिछली बारिश में माचिस सील गई थी और बुलबुल को दो दिन भूखा रहना पड़ा था. इसलिए आसमान लाल होते ही वह रोटियाँ बढ़ा कर बना लेती है.
टूटी छत और दीवारों वाले घरों में पानी भर रहा होगा. क्यों उसने बुलबुल के कहे पर कान दिया…सारा सामान उठा लाना चाहिए था. ये बुलबुल क्या कर रहा है ? अरे वाह रे! बुलबुल एक चमकती आँख वाले चूहे के आगे रोटियों के टुकड़े रख रहा था. लछमी ने एक बार भी नहीं कहा कि \’\’बुलबुल! रोटियाँ क्यों बेकार कर रहे हो ?\’\’ शाम तक चूहा आराम से कोठरी में मँडराने लगा था. लछमी को राहत महसूस हुई. कोई तीसरा भी है आस-पास !
दो रात के बाद तीसरी सुबह बारिश बन्द हुई.
\’\’काकी…काकी ऽ ऽ!\’\’ भीगी घाटियों में उसकी आवाज बैठती जा रही थी.
\’\’बुलबुल! तुम पुरोहित जी के पास जाओ और कहो कि चौसिंग्या भेड़ा हमारे गाँव में नहीं है. लछमी दीदी ने सारे घर देख लिये हैं. और हाँ, माचिस लेते आना!\’\’
\’\’थोड़ी देर में चला जाऊँगा.\’\’
\’\’नहीं, तुरन्त जाओ! कहीं बारिश फिर न शुरू हो जाये.\’\’
आसमान साफ था. बुलबुल के ओझल होते ही वह बाएँ हाथ में बैसाखी सँभाले, दाहिने हाथ से पत्थरों को पकड़ती हुई चढऩे लगी. बजरी से लिपटी हुई मिट्टी बह चुकी थी. लछमी ने एक बड़ी गोल चट्टान को पार किया और चुपचाप बैठ गई.
उसे दो पल यह समझने में लगा कि उसके भय और भ्रम ने आकार नहीं लिया है. जो कुछ सामने दिखाई दे रहा है, वह सच है.
सामने काकी औंधी पड़ी थीं. काकी के घर से यहाँ तक की घास दबी थी. जैसे कोई इन पर फिसलता चला आया हो. चट्टान से टकरा कर सिर खुल गया था. खुला हुआ सिर धुल चुका था. त्वचा सफेद हो कर सिकुड़ गई थी. उसने वन की ओर व्यर्थ ही देखा. लकडिय़ाँ गीली थीं. वह सँभल कर खड़ी हुई और एक हाथ से तेजी से लंबी घास नोचने लगी. उसने काकी की देह को घास और चपटे पत्थरों से ढक दिया. हाँफते हुये हाथ जोड़ा. साँस लेकर बुदबुदाई- \’\’काकी ! दुख-सुख कहने-सुनने वाली कोई हमजात न रही. तुम्हारी आत्मा कांसुवा में न भटकती रहे…बाल्दा नदी में बह जाये. जयऽ हो काकी!\’\’
\’\’दीदी!\’\’ पहाडिय़ों पर खड़े बुलबुल के रोने में उलाहना था-\’\’अब क्या देखने के लिए इस गाँव में रूकी हो?\’\’
\’\’तुम यहाँ कब से? क्या देखा ?\’\’
\’\’निकल चलो नहीं तो ऐसे ही एक दिन हम भी मर जाएँगे.\’\’
\’\’मैं निकल गई तो यह गाँव मर जायेगा…मैं चल जौलू त यू गौं मर जौलू.\’\’
\’\’कहती रहो…मैं तुम्हें यहाँ नहीं रहने दूँगा. पीठ पर लाद कर ले चलूँगा तुम्हें! राजधानी के होटलों में छोटे लड़कों को काम पर रखते हैं. खाना भी देते हैं. पुरोहित बाबा जानते हैं. मैं अभी उनसे बात करके आता हूँ!\’\’
\’\’कोई कहीं नहीं जायेगा जब तक चौसिंग्या भेड़ा मिल नहीं जाता.\’\’ दाहिनी पहाड़ी पर आठ-दस पुलिसवाले खड़े थे. सबसे आगे…सम्भवत: वह पुलिस अधिकारी था…उसी ने वहीं से ठंडी आवाज में कहा-\’\’सुन ऐ लँगड़ी! मेरा मतलब लड़की…तू इन टूटे घरों के कोने-अँतरे देख लेना. और लड़के! तू खाई की ओर देख ले. हम कल फिर आएँगे.\’\’
\’\’ये मेरा गाँव है. तुम्हारी खुली जेल नहीं.\’\’
\’\’अब तक इस भुतहा गाँव में अपने मन से रह रही थी. मैंने रोका तो ऐंठ रही है. चारों ओर घेरा है. कोई निकल नहीं सकता.\’\’
\’\’मैदान का गँवार है कोई. उसे ये नहीं मालूम कि पहाड़ों में चिल्ला कर बात नहीं करते. पहाडिय़ाँ पहले काँपती हैं फिर चिल्लाने वाले पर गिर पड़ती हैं.\’\’
\’\’दीदी! वो पुलिस है. इन गिच्चू नी चलौदन! ऐसे जबान नहीं लड़ाते. चलो! उसका काम कर दें.\’\’
\’\’पहले मेरे साथ चलो. गंगाराम चाचा के घर का दरवाजा उठा कर यहाँ लाना होगा. एक उन्हीं के घर में तेबरी (छज्जा)है…दरवाजा भीगा नहीं है. काकी का शव जला कर राख बिखेर देनी है.\’\’
\’\’दरवाजा तोड़ेंगे तो पुलिसवाला लौट आयेगा.\’\’
\’\’दरवाजा कोई पहले ही तोड़ चुका है.\’\’
\’\’भेड़ा तो दरवाजा तोड़ नहीं सकता.\’\’
\’\’बारिश बन्द होने के बाद मैं सारे घरों को एक बार देख रही थी. दरवाजों को दीमक खा चुके हैं. तोडऩे में बहुत जोर नहीं लगा होगा.\’\’
\’\’अँधेरे में…ताबड़तोड़ बारिश में कोई आया है दीदी! ये…इधर देखो!\’\’
\’\’हाँ! छोटे-छोटे गड्ढे…वह जो कोई है…बारिश में जगह-जगह बैठा है और बार-बार गिरा है.\’\’
चौखट से दिखाई दे रहा था. कोने में, दीवार के सहारे एक युवक कभी बैठ रहा था, कभी लुढ़क जाता. अपने घुटनों पर हथेलियाँ मारता हुआ कराह रहा था-\’\’मेरी मदद करो!\’\’
\’\’कौन हैं आप ?\’\’
\’\’मैं ? मैं…राजजात यात्रा का चौसिंग्या भेड़ा हूँ.\’\’ मुस्कुराने से उसके फटे होंठों में फँसी रक्त की लकीर चमक गई.
बुलबुल ने दरवाजे का एक फट्ठा तोड़ कर जला दिया. लछमी जड़ी पीस कर उसके घायल पाँव पर बाँध चुकी थी. ठंड और दर्द से काँपते युवक के पास दोनों बैठे रहे. आग और इंसान की गर्मी पाकर वह युवक सो चुका था. लकड़ी का एक और फट्ठा जलाकर वहीं, ईटों के चूल्हे पर खाना बना.
\’\’दीदी! आधा दरवाजा बचा कर रखना है, वो…!\’\’
\’\’हाँ, अभी इस मेहमान को बचा लें.\’\’
\’\’ओ भेड़ा भाई जी! उठो खाना खालो.\’\’सोये हुए युवक के नाक के पास बुलबुल रोटी लहरा रहा था. उसका टोटका काम कर गया. उठने के लिये वह युवक करवट घूम रहा था. भाई-बहन एक दूसरे को देख कर बहुत दिन बाद मुस्कुराये थे.
\’\’हमें एक जरूरी काम है भेड़ा भाईजी ! हम लोग जाएँ ?\’\’
\’\’मैं ठीक हूँ.\’\’ उसकी आवाज साफ और पतली थी. चूल्हे की रोशनी में लछमी ने ध्यान से उसका चेहरा देखा. उसके गाल तने हुए थे. आँखों की कोर और माथे पर रेखाएँ पड़ गई थीं जैसे ये हिस्से भींची हुई हालत में रहते हों.
\’\’आप मास्टर हैं?\’\’ लछमी ने उसकी जेब में खोंसी कलम से अनुमान लगाया.
\’\’हाँ!\’\’ रोटियाँ चुभलाने से उसके जबड़ों में दर्द हो रहा था. फिर भी वह जल्दी-जल्दी खा रहा था.
\’\’लेकिन यहाँ दूर-दूर तक स्कूल नहीं है फिर आप मास्टर कैसे?\’\’
\’\’स्कूल था…था न स्कूल. बहुत बच्चे थे. मैं अपने हाथ से उनके लिए पन्ने बटोर कर कॉपी बनाता था.\’\’ खाने के लिये उठाया हुआ कौर वह थाली में ठोंकने लगा.
\’\’आप खाते रहिए. यहाँ सब ऐसे ही है…हमारे कांसुवा के भी सब लोग….\’\’
\’\’मैं कांसुवा के कई लोगों से राजधानी में मिला हूँ.\’\’
\’\’अच्छा! क्या विद्या से मिले हैं ? विसम्भर काका, मदन भैया, शीला चाची….\’\’
\’\’तुम कांसुवा आये भाईजी! बहुत अच्छा किये. गाँव आये. मैं बेर की कांटो भरी डाल पर न ! कैसे कोई चढ़ेगा…सारी पकी बेर ऊप्पर-ऊप्पर बच गई हैं. तुम अपने डंडे जैसे लंबे हाथों से…वाह!\’\’ बुलबुल ने अपनी जंघा पर ताल मारते हुए कहा.
\’\’मुझे बात करने दो बुलबुल!\’\’ लछमी चिरौरी करने लगी-\’\’आप ये बताइये भेड़ा जी… मेरा मतलब मास्टर जी! शीला चाची की बहू के नौनी हुई है या नोनू? चाची नाम क्या रखी हैं… आपको कमजोरी तो नहीं लग रही… कि बात कर सकती हूँ.\’\’
\’\’दीदी! बस एक बात कह लेने दो. भेड़ा भैया! कोयल अपना अंडा कौए के घोसले में रख गयी है…मेरे साथ चलना…मैं दिखाऊँगा कि कौआ कैसा उल्लू होता है!\’\’
\’\’चल बुलबुल! इन्हें सो लेने दे.\’\’ युवक को बहुत देर तक चुप देख कर लछमी ने उठते हुए कहा.
\’\’बुलबुल! पुलिस एक बार इलाका खाली कर दे फिर तुम्हारे लिये बोरा भर झरबेर तोड़ दूँगा.\’\’ उसने सिर झुकाये हुए ही कहा.
\’\’आप बुलबुल का नाम कैसे जानते हैं ?\’\’
\’\’आपने ही कई बार इसका नाम लिया है. आप खड़ी मत रहिये. मुझे गर्दन उठाकर बात करने में तकलीफ हो रही है. आपकी सखी विद्या से मैं आज से तीन महीना पहले मिला था… राह चलते. वह किसी नौकरी पेशा मैडम के बच्चे की देखभाल करती हैं.\’\’
\’\’वो तो कहती थी मैं अनजान लोगों से बात नहीं करती…थोड़ी सुन्दर है न!\’\’ वह बैसाखी एक ओर रखते हुये बैठ रही थी.
\’\’मैंने उससे कहा कि कांसुवा से आपकी सहेली लक्ष्मी ने हाल लेने भेजा है.\’\’
\’\’लेकिन हम और आप पहली बार मिल रहे हैं!\’\’
\’\’लड़कियाँ…उनकी सहेली…भाइयों के नाम…हम लड़के सब पता किये रहते हैं. है न भैया बुलबुल!\’\’
\’\’लेकिन आप कांसुवा के लोगों से क्यों मिले ? ऐसे ही या….\’\’
\’\’लक्ष्मी जी! आप की रुचि मुझमें ज्यादा दिखाई दे रही है, कांसुवा के लोगों में कम.\’\’
\’\’लक्ष्मी नहीं, लछमी कहिये. मेरे बाबा मुझे लछमी कहते थे. हाँ, अब बताइये वहाँ सब कैसे हैं ?\’\’
\’\’आप भी राजजात यात्रा नहीं, राजाजाति की यात्रा कहिए. तब सुनिये…आपके कांसुवा से विश्वनाथ चाचा का बेटा रमेश सबसे पहले राजधानी गया. चार महीने बाद गाँव आया और पत्थर कटाई के लिये मेटाडोर में भर के लड़कों को ले गया. कमीशन पर वह ठेकेदार के लिये चौड़े फेफड़े और मजबूत बाहों वाले मजदूरों की डिलीवरी देने लगा. रमेश तो ठीक है. पर उसके साथ के तीन मजूदर दिल्ली के बड़े अस्पताल में भर्ती हैं. उनके फेफड़ों पर पत्थर कटाई की गर्द जम गई है…वहाँ के डॉक्टर ने कहा है कि इनको पहाड़ की साफ हवा में रखिए.\’\’
\’\’यहाँ लौट कर कोई नहीं आया है.\’\’
\’\’मालूम है. राजधानी की नयी बनती इमारतों में अब उनकी पत्नियाँ और बच्चे पत्थर ढोने लगे हैं.\’\’
\’\’यहाँ कोई लौटे भी तो कैसे…यहाँ कुछ तो नहीं है. रात-बिरात तबीयत खराब हो…कई पहाड़ पार भी अस्पताल नहीं. \’\’
\’\’अब कल बात करते हैं.\’\’
चूल्हे के पास बुलबुल को गोद में लेकर वह लुढ़क गई. बुलबुल ने धीरे से कहा-\’\’दीदी…काकी!\’\’
\’\’सुबह इस मेहमान की मदद से हम उनका दाह कर देंगे. एक उम्र के बाद तो सभी को मरना है भइया! सो जाओ.\’\’
उजाले का छत्ता ओसारे की जमीन पर सोये अजनबी पर गिर रहा था. लछमी ने उससे कहा-\’\’मास्टर! करवट बदल कर इस बोरे पर आ जाओ! ना..ना, उठो नहीं. लेटे हुए ही.\’\’ईंट निकली दीवार में हाथ फँसा कर वह धीरे से अपने को पीछे खींचती, फिर दोनों हाथों से बोरा घसीटती हुई, मास्टर को पीछे की कोठरी में ले गई.
\’\’आप तो अच्छी-भली नर्स हैं. जड़ी-बूटियों की भी इतनी जानकारी है. आपके बारे में यह बात मुझे नहीं मालूम थी.\’\’
\’\’मेरे बारे में अगर कोई एक बात तुम नहीं जानते हो तो इतना पछतावा क्यों हो रहा है?\’\’
\’\’मेरी जानकारी से कोई बात भले छूट जाये लेकिन तुम्हें और बुलबुल को सब कुछ जानना है. वैद्य की… मास्टरी… अनाज उगाना… मछली मारना सब कुछ सीखना होगा…बन्दूक और चाकू चलाना भी.\’\’
\’\’उठो! मेरे हाथ की चाय पीलो. सन्निपात में तुम जाने क्या-क्या बके जा रहे हो.\’\’ लछमी ने बुलबुल को भी जगा दिया था. गरम चाय की घूँट से मास्टर के चेहरे पर आराम मिलता देख लछमी ने बात आगे बढ़ाई- \’\’राजधानी में आप…नहीं…तुम क्या कांसुवा के सब लोगों से मिले थे ?
\’\’चंदन से न? मिला था. वो गार्ड की नौकरी कर रहा है.\’\’ वह मुस्कुराया.
\’\’उसका सेना में जाने का बहुत मन था.\’\’ लछमी ने जोर से कहा. युवक के तिरछे मुस्कुराने और मजाक करने की आदत पर उसे गुस्सा आ रहा था- \’\’दर्द में आराम दिखाई दे रहा है. उठो, मेरे साथ चल कर कुछ काम करो!\’\’
\’\’मैं तुम्हारा काम कर दूँगा. उसके पहले तुम मेरा काम करो. ये कागज पकड़ो…पढऩा भूल तो नहीं गई…मैं बुलबुल को लेकर दाहिनी ढाल के वन की ओर जा रहा हूँ. जब तक लौटूँ यह कविता याद हो जानी चाहिए.\’\’
\’\’तुम्हारा पाँव चोटिल है. कहीं मत जाओ!\’\’
\’\’मैं तुम्हारी बाहों की ताकत देखने के लिये बोरे पर लेट गया था. बैसाखी की जरूरत तुम्हें नहीं, मुझे है.\’\’ लछमी, \’\’अरे-अरे…नहीं-नहीं मास्टर!\’\’ कहती रह गई. युवक ने बैसाखी खींच ली और बुलबुल का हाथ पकड़ कर बाहर निकल गया.
कागज हाथ में पकड़े वह सोचने लगी कि गार्ड की वर्दी में चंदन कैसा दिखता होगा. पिछली बार उसने चंदन से पूछा था-
\’\’तुम विद्या से प्रेम करते हो और साथ मुझे रखना चाहते हो !\’\’
\’\’विद्या ने ही मुझे तुम्हारी और बुलबुल की जिम्मेदारी सौपी है.\’\’
\’\’बुलबुल मेरी जिम्मेदारी है. और विद्या के जाने के बाद तुम्हे भी मैंने ही सँभाला है.\’\’
\’\’कांसुवा और विद्या में से किसी एक को चुनने की दुविधा मुझे पागल कर देगी.\’\’
\’\’तुम विद्या को चुनो और खुश रहो.\’\’
\’\’देखना है कि राजधानी की जमीन में ज्यादा चुंबक है या कांसुवा में.\’\’
\’\’मानी बात है, राजधानी की जमीनें ज्यादा लोहा हैं. कांसुवा तो पत्थर हो रहा है.\’\’
\’\’मैं विद्या से बात करने जा रहा हूँ. जैसा भी होगा तुम्हें लौट कर बताता हूँ.\’\’
तबसे वह राह देख रही है. चंदन हँसेगा कि आज बुलबुल को मेरे साथ राजधानी भेज रही हो. कल खुद चलोगी.
\’\’चंदन! मुझ पर मत हँसो. हालात पर हँसो!\’\’ वह अपनी ही बड़बड़ाहट से चौंक गई. और अक्षर जोड़ कर जोर-जोर से कविता पढऩे लगी-
“पहाड़ों की यातनाएँ हमारे पीछे हैं
मैदानों की हमारे आगे….एक घाटी पाट दी गई है
और बना दी गई है एक खाई.\’\’
(बर्तोल्त ब्रेख्त)
बाहर झाडिय़ाँ काटे जाने का शोर उठा.
\’\’कौन है बाहर! पुलिस है क्या ?\’\’ जमीन पर हथेलियों के दबाव के सहारे वह घिसटती हुई चौखट तक आई.
\’\’ऐ लँग…लड़की! इन बन्द घरों की चाभियाँ तुम्हारे पास हैं ?\’\’ सैकड़ों राजजात यात्री झाडिय़ाँ काटने में जुटे थे. कई पुलिस वाले वर्दी-बेल्ट में खड़े थे. पिस्टल खोंसे कल वाला अधिकारी भी था.
\’\’नहीं, मेरे पास इनकी चाभी नहीं है.\’\’
\’\’हम इन तालों पर अपना ताला लगा कर सील कर कर रहे हैं. जो घर टूट गये हैं उन्हें ढहा दिया जायेगा.\’\’
\’\’जिनके घर हैं वे लौट कर आयें तो ?\’\’
\’\’तो कह देना प्रशासन की अनुमति के बिना सरकारी ताले नहीं टूटेंगे.\’\’
\’\’ऐसा क्यों कर रहे हैं साहब जी! घर किसी का…ताला किसी का.\’\’ लछमी ने रुक-रुक कर अपनी बात कही.
\’\’इन अठ्ठारह गाँवों में कुल आठ-दस लोग हैं. वे चौसिंग्या को छिपा रहे हैं. बारह बरस बाद जन्मा है चौसिंग्या…कल विधान सभा में प्रश्न उठा है. कहाँ गया? मिलना चाहिए.\’\’
पुलिस और राजजात यात्रियों के जाने के बहुत देर बाद बुलबुल और मास्टर आये थे- \’\’मास्टर! क्या तुम खाई की ओर गये थे. उस ओर उगा तेजपत्ता तुम्हारे बाल में फँसा है.\’\’
\’\’मैं काकी के शव को खाई में फेंकने गया था.\’\’
\’\’तुम अनजान आदमी! अपनी औकात से बाहर जा रहे हो! काकी हमारी थीं. बुलबुल काकी को अग्नि देता.\’\’
\’\’दीदी! पुलिस दूर नहीं गई होगी.\’\’ लछमी की गोद में बैठ कर बुलबुल ने उसका चेहरा अपनी ओर घुमा लिया था.
\’\’लकड़बग्घे भी आबादी की ओर भाग रहे हैं. मरने के बाद देह किसी काम आये. जीवन की बात करो. यह बताओ कविता याद कर ली? \’\’ मास्टर शान्त था.
\’\’नहीं, कविता याद करने से क्या मिलेगा जो याद कर लूँ मास्टर ?\’\’ बोलने से पहले लछमी, बुलबुल को गोद से उतार चुकी थी.
\’\’बुलबुल! तुम मेरे पास आओ भैया! कल बुलबुल उस चट्टान पर बैठ कर पाठ याद करेगा. बुलबुल! चारों तरफ निगाह भी रहना भैया! उस समय मैं और आप…हम दोनों नीचे औषधि छांटने चलेंगे.
\’\’तुम होते कौन हो मुझे हुक्म देने वाले ? मैं तुम्हारे साथ नहीं जाऊँगी! \’\’
\’\’विनती है. सिर्फ दो घंटे के लिये मेरे साथ चलो. वे औषधि की पत्तियाँ दिखा दो जो तुमने मेरे घाव पर बाँधी हैं.\’\’
\’\’ठीक है. काम खत्म करो…फिर हमारा-तुम्हारा कोई नाता-वास्ता नहीं.\’\’ लछमी बड़बड़ाती हुई दाहिने हाथ से मास्टर का कंधा पकड़े और बाईं ओर बैसाखी लगाए नीचे उतर रही थी.
\’\’सुनो! तुम कैसे आये इस रास्ते ? इस छोटे रास्ते के बारे में सिर्फ हम जानते थे. इधर से ही स्कूल आते थे. वो देखो हमारे स्कूल का चबूतरा जिस पर बैठ कर रमादीन मास्साब पहाड़ा रटाते थे…दो एकम दो…दो दूनी चार…! मैं, विद्या, चन्दन, रघुपति, महेश्वर, बिमला…हम लोग पानी…वो घास का मैदान नहीं… सेवार से ढका ताल है. वहाँ हम अपनी स्लेट धोने जाते थे. मैं जाने से मना करती तो वे मुझे पीठ पर लाद लेते. एक बार मैं फिसल गई और डूबने लगी…चंदन ने मेरे लंबे बाल…पानी पर लहरा रहे थे…वो पकड़ कर खींचा…बापरे!\’\’
\’\’रमादीन मास्साब अब कहाँ हैं ?\’\’
\’\’पता नहीं. वो यहीं उस कोने वाली कोठरी में रहते थे. वोऽ उधर टूटी कोठरी दिखाई दे रही है! जाने से पन्द्रह दिन पहले उन्होंने पढ़ाना बन्द कर दिया था. सारी खडिय़ा बाल्टी में डाल दिये. और स्कूल की पुताई करते रहते थे. वो थक कर खडिय़ा में लिपटी दीवार के सहारे बैठ जाते. हम उनकी मदद को आते तो कहते बस बैठो… मुझे देखते रहो… मुझे भूलना मत… याद रखना. मेरे मास्साब का खडिय़ा पुता चेहरा…!\’\’
\’\’रुको! तुम्हारे आँसू पोंछने के लिए मेरे पास रूमाल नहीं. इसलिये रोना मत.\’\’
\’\’मरने से पहले मैं यहाँ आना चाहती थी.\’\’
\’\’मरने से पहले का क्या मतलब ?\’\’
\’\’मेरी बातें खत्म हो चुकी हैं. मैं और काकी, हम दोनों को कांसुवा के बारे में जितनी बातें मालूम थीं, हम दोनों एक दूसरे को बता चुके थे. फिर हम दोनों फसलों की बात करने के लिए अपने सीढ़ीदार खेतों की ओर देखते. जहाँ झाडिय़ाँ थीं. चिडिय़ों की किस्मों की बात करने के लिये आसमान देखते जो सूना था. उसी आसमान में चिडिय़ाँ उड़ती हैं जिसकी जमीन पर दाना होता है. जिन पगडंडियों को आदमी छोड़ देता है उन पर साँप चलते हैं… जैसे मेरे स्कूल का रास्ता…कितनी आसानी से मैं यहाँ आ जाती थी.\’\’
\’\’तुम्हें अपने स्कूल के सामने लाने के पीछे मेरा एक मकसद था.\’\’
\’\’क्या तुमने चौसिंग्या भेड़ा को यहाँ छिपाया है ?\’\’
\’\’जिन लोगों ने अस्पताल यह कह कर बन्द करवा दिया कि यहाँ डॉक्टर नहीं हैं. फिर स्कूल बन्द करवाया कि यहाँ बच्चे नहीं हैं. उन लोगों ने भेड़ा चुराया है.\’\’
\’\’मैं नहीं मानती…उजाड़ कर किसी को क्या मिलेगा ? \’\’
\’\’उजड़वाने में, बनाने जितना ही पैसा खर्च करना पड़ता…वो बच गया. विस्थापितों की बगावत से छुट्टी मिली. और कराड़ों में मुआवजा नहीं देना पड़ा.\’\’
\’\’ये क्या कह रहे हैं? अपने ही घर में हमें कोई मुवावजा क्यों देगा?\’\’
\’\’ये पहाडिय़ाँ आपकी नहीं हैं. बेची जा चुकी हैं. जहाँ हम खड़े हैं… जहाँ हम रहते हैं सब बिक चुका है. यहाँ रिसार्ट बनेगा. हम लोगों के विरोध के कारण काम रूका है.\’\’
\’\’हम लोग कौन ?\’\’
\’\’हम कई साथी हैं. खाली हो चुके घरों में रहते हैं. पहाड़ उजाडऩे में लगे अधिकरियों को उनका काम नहीं करने देते. इन्हें राजधानी के भवनों के लिये मजदूर चाहिये और भवनों में रह रहे मालिकों के मनोरंजन के लिये पहाड़ चाहिये. हम यहाँ से निकल कर नगरों में बस गये लोगों से मिलते हैं. मेरे जिम्मे कांसुवा से राजधानी गये लोगों से मिलना था. उनसे मिल कर यह समझाना था कि वे अपनी जड़ों की ओर लौटें. हम अपना अस्पताल, अपना स्कूल खोलें.\’\’
\’\’तुम संभवत: इनके अगुवा…मेठ हो.\’\’
\’\’पहरा ढीला पड़ते ही मैं अपना काम शुरू कर दूँगा. तुरन्त राजधानी जाऊँगा.\’\’
\’\’चंदन मेरे कहने से कांसुवा लौट आयेगा.\’\’
\’\’तुम चंदन के नाम एक पत्र बोल कर लिखवा दो. और तेजी से पढऩा-लिखना सीखो.\’\’
\’\’आज से ही शुरु करते हैं.\’\’
\’\’आज मैं तुम्हें लक्ष्मीबाई के बारे में बताऊँगा.\’\’
\’\’तय रहा. चलो पहले मैं तुम्हें मीठी तुलसी पत्ती की अच्छी सी चाय पिलाती हूँ.\’\’
\’\’नंदा देवी की जय!\’ जय राजजात यात्रा!\’\’ जयकारे की आवाज सुन कर लछमी की नींद खुली. आँखों पर गीली हथेली फेरते हुए जल्दी से बैसाखी उठा कर बाहर निकल आई.
ऊँचे पत्थर पर वह कल वाला पुलिस का अधिकारी खड़ा था. ढलान पर फैले सैकड़ों राजजात यात्रियों को संबोधित कर रहा था-\’\’भक्तो! चार सींगों वाला भेड़ा बहुत तेज था. नंदा मैया की तरह बहादुर. लेकिन सरकारी अमला भी श्रद्धा से लगा हुआ था. …जात्रियो! हमारे बीच राजा साहब जो हमारे माननीय सांसद भी हैं… इनके आशीर्वाद से… मइया की कृपा से…
…भेड़ा की बलि दी जा चुकी है!\’\’
\’\’जय चौसिंग्या मेठ!\’\’
\’\’मैं माननीय से आग्रह करता हूँ कि वे यात्रा पुन: आरंभ करने की घोषणा करें.\’\’
\’\’यात्रा आरंभ हो! जय नंदा देवी…जय चौसिंग्या मेठ!\’\’ ढोल-दमाऊ, झाल-मजीरे बज उठे.
\’\’बुलबुल! उठो भइया! अब सब ठीक होगा… राजजात शुरू हो गई है.\’\’ वह सामने गंगाराम चाचा के घर की ओर तेजी से बढ़ी-\’\’साथी! मास्टर जी! सोओ मत…उठो! शुभ दिन है! काम शुरु करें!\’\’
टूटे दरवाजे वाले ओसारे में वह युवक पेट के बल पड़ा था. उसकी पीठ में छेद था. हृदय से रक्त बह कर जम चुका था.
\’\’नन्दा देवी! पालकी से उतरो!\’\’ जयकारा लगाते यात्री एक चीखती हुई आवाज सुन कर मुड़ गये. उन्होंने देखा कि बाई कांख में बैसाखी दबाये, दाहिने हाथ में पत्थर लिये, पीठ पर एक लड़के को चिपकाये, वह पहाडिय़ों पर खड़ी है. उसने नंदा देवी के मंदिर की ओर खींच कर पत्थर उछाला- \’\’वह अगुवा था…धुंध में तुम्हारा पथ प्रदर्शक था नन्दा देवी!\’\’
\’\’ऐ लड़की!\’\’ अधिकारी और राजा साहब झपटते हुए बढ़े.
राजजात यात्री देख रहे थे कि लड़की सँभलते हुए पत्थर पर बैठ रही है. उस छोटे लड़के को पीठ से चिपकाये है… बैसाखी को लाठी की तरह दोनों हाथों में उठा लिया है और उसकी पूरे दम की आवाज पहाड़ों से टकराने लगी-\’\’ओ ऽ डलहौजी! वहीं रुक! मैं जीते जी अपना कांसुवा नहीं दूँगी!\’\’
(लेखिका की अनुमति और पहल के प्रति आभार के साथ कहानी यहाँ भी प्रकाशित)
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(लेखिका की अनुमति और पहल के प्रति आभार के साथ कहानी यहाँ भी प्रकाशित)
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किरण सिंह : कहानी संग्रह ‘यीशू की कीलें’ 2016 में आधार प्रकाशन से प्रकाशित. ‘इप्टा’ से मिलकर अभिनय भी.
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