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समालोचन

Home » कथा – गाथा : सर्वेश कुमार सिंह

कथा – गाथा : सर्वेश कुमार सिंह

The Death of Marat is a 1793. painting by Jacques-Louis David अकादमिक संसार  के छल-छद्म पर सर्वेश कुमार सिंह की यह कहानी \’अपराधी\’ आचार्यों की  ताकत और तानाशाही से जूझती है. साक्षात्कार के वध – स्थल से लौटे यह उस  अध्येयता की कहानी है जो आचार्य की आत्म- ग्लानि और आत्म-घात का साक्षी बनता है. […]

by arun dev
August 20, 2012
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The Death of Marat is a 1793. painting by Jacques-Louis David



अकादमिक संसार  के छल-छद्म पर सर्वेश कुमार सिंह की यह कहानी \’अपराधी\’ आचार्यों की  ताकत और तानाशाही से जूझती है. साक्षात्कार के वध – स्थल से लौटे यह उस  अध्येयता की कहानी है जो आचार्य की आत्म- ग्लानि और आत्म-घात का साक्षी बनता है. यह कहानी यथार्थ को  सघन करने के लिए कहानी – कला के कई कौशल साथ रखती है. 



अपराधी :                                                              
सर्वेश कुमार सिंह
देशी अदब के बेहद ताकतवर आचार्य, सत्य व्रत पाण्डेय, अपने घर की लाईब्रेरी में, आग लगा जल मरे थे. किताबों की राख के साथ हड्डियां भर बची रह गयी थीं. यकीन न था कि ऐसा शख्स आत्महत्या भी कर सकता है.
गिनती के लोग उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुए थे. उनका एकमात्र पुत्र, जिसने समाचारों में लिख कर उन्हें पिता मानने से कभी इंकार कर दिया था, बहुत बुलाने पर भी नहीं आया था. पर, गंगा किनारे जलती उनकी चिता को अपलक देखता मैं मौजूद था…मंत्र-मुग्ध…..’अग्ने नय सुपथा राये अस्मान विश्वानि देव वयुनानि विद्वान ’….
मैं, जो कुछ की निगाह में, उनकी मौत का कारण भी हो सकता था.
आग और गंगा से सब पवित्र और विस्मृत हो जाता है. उन्हें जलता देख मैं हल्का हो रहा था. एक-एक कर सब जा चुके थे. अकेला मैं गंगा के पानी में उनकी राख बहा रहा था. शांत जल में स्मृतियों के अक्श उभरने लगे थे………
बहुत ऊपर, शिवालिक पहाड़ों पर, यही गंगा अलकनंदा के नाम से बहती हैं. कहतें हैं कि वासना की अथाहों में डूबे रहने वाले राजा ययाति अपने प्रायश्चित के दिनों में इसी के किनारों में भटकते रहे थे. और अंत में इसी के जल में डूब मरे थे. यह कथा उन्हीं किनारों से शुरू हुई और सुनाई भी गयी थी……
(और सुनाने वाला इतना अजीज ठहरा कि लगता है यह कहानी मेरी भी है)
__________________________

पहाड़ों की, वह एक ऐन्द्रजालिक सुबह थी.
सुबह के आसमान में मेरे सपनों की गुनगुनाहट थी. नीचे बहती अलकनंदा की धवल जल-रश्मियों को छू मेरा मन निश्चिन्तताओं की बाहों में बहता चला जा रहा था. अलकनंदा के किनारे ही खड़ा वह विशाल भवन था जिसके एक कमरे में मेरे सपने घुसने की कोशिश कर रहे थे. पर सपनों पे पहरा था. उन्हें गलियारे में रोक लिया गया था. कई दूसरे सपने भी वहाँ ठिठके खड़े थे. सब सपनों का रंग-रूप एक था, पर मिजाज जुदा. सबको अपनी बारी का इंतजार करना था. सपने और हकीकत के बीच वो कमरा था जो हिमालय से भी ऊँचा और दुर्गम था.
सबकी निगाहें उसके दरवाजे पर टिकी थीं. एक तिलस्मी दरवाजा, जो मुझे मुँह बाते और बंद करते अजगर-सा लग रहा था. बीच-बीच में बज उठती बेल फुफकारों की सिहरन दौड़ा जाती. कमरे से बाहर निकलते हर चेहरे को देख मुझे सुकून होता. मैं निश्चिंत हो जाता. पर, दो घंटे की उस धुक-धुक प्रतीक्षा से हजार मौतें भी अच्छी थी. फाईलें वहीँ फेंक अलकनंदा के शीतल जल में डुबकियांने का मन करता.
बारी आने पर, उचाट मैं अंदर घुसा था. सुसज्जित उस कमरे में, अँधेरा प्रकाशित था. अजीब-सी गंध थी. एक गंध, जो आपमें उदासियाँ भर दे. जिससे आप फैले नहीं, सिकुड़ जाएँ. जो आपकी भावनाएँ सुला दे, सोच को रोक दे. उफ्फ ! एक कमरा, जिसमें घुटन लगे, जाने का पछतावा होने लगे, जहाँ से भाग आने का मन करे. घुसते ही जहाँ उबकाईयां आने लगे, आप असहज होने लगें. जहाँ होने की वजह सिर्फ एक मजबूरी हो. जहाँ सपनों से भी बाहर आने का मन करने लगे.
दुनिया का एक बेहद शक्तिशाली और खौफनाक कमरा, जहाँ सपनों के साथ खेला जाता हो.
काश ये कमरा कोई बदल सकता ! किसी भूकंप से यह ध्वस्त हो सकता. कोई बाढ़ इसे समुन्दर में बहा ले जाती. आतंकियों के पनाहों के शक में, किसी अमेरिकी हमले में यह जमींदोज हो जाता.
कमरे में, मेरे सपने के मुकाबिल, गोलाकार मेज के उस ओर वे पाँच बैठे थे. आँखों में पहाड़ बसाए, अध्यक्ष जी बीच में थे – गालों से बीयर की ललाई बिखेरते, मेरे दिमाग को घूरते. उनके दाहिने, आचार्यवर थे – कमनीय काया लिए, धवल वस्त्र, माथे पर टीका, पान को क्रूरता से दंतियाते तथा गुलगुलाते, अपने होने के आतंक को डुगडुगाते. आचार्य के दाहिने, स्मार्टी (बकौल अध्यक्ष जी) थे- कातिल हँसी के साथ मुझे देखते. अध्यक्ष जी के बाएँ मैडम जी बैठी थीं- उन्हें देख मुझे पहाड़ों के पन्त याद आये थे ‘शांत स्निग्ध ज्योत्सना उज्जवल,अपलक अनंत नीरव भूतल’. मैडम के बाएँ तथा अपने को उनसे सटकर बैठा दिखाते उनमें क्या था ? नहीं कह सकता. पर वे मुझे जानी दुश्मन से लगे. मैं उदास हो आया. सपना निंदियाने लगा.
उनके आगे सहमा, डरा, बेबस, किस्मत का मारा, बेचारा फिर भी अपने को किसी तरह समेटता मैं कुर्सी पर बैठा था. सामने दीवाल पर गांधीजी का फोटो टंगा था. ठीक उनकी छाती पर एक कीड़ा सन्न बैठा था. दीवाल से चिपकी छिपकली उसे सम्मोहित कर रही थी. कमरे की एकमात्र खिड़की खुली थी तथा दूर, अलकनंदा के उस पार,एक मंदिर झलक रहा था जहाँ रामचरितमानस के किर्तनियों का अहर्निश पाठ जारी था.
यह अदब की दुनिया के उस्तादों की भर्ती हेतु लिए जाने वाले इंटरव्यू का कमरा था. इसे अक्षरों के एक विदेशी कीमियागर ने माँ की छातियों की तरह दुनिया का पवित्रतम स्थल माना है. यहाँ, मेरे साथ हुआ यह पूरा वाकया हिंदी की उन जुबानों में हुआ जो दुनिया की शुरुवाती आसमानी किताबों के लफ्जों से आशनाई रखती हैं.
उधर मंदिर में किर्तनियों ने सम्पुट-गान किया- ‘मंगल भवन अमंगल हारी. द्रवहुं सो दशरथ अजिर बिहारी.. ’ और इधर मेरा अमंगल-कांड शुरू हुआ.
‘क्या हाईट होगी आपकी ?’- बेतकल्लुफ़-से अध्यक्ष जी बोले.
‘जी,पद के लिए पर्याप्त है.’- नासमझ मैं.
‘ये क्या जवाब हुआ ?’-वे गुर्राए.
सोचा पूंछू कि ये क्या सवाल हुआ. फार्म में तो लिखा था नहीं. इस नौकरी के लिए हाईट की क्या बंदिश. अपने गुरु तो नाम-मात्र के हैं. पर मंदिर से आती चौपाईयों ने चुप करा दिया- ‘ होईहईं सोई जे राम रचि राखा. को करि तर्क बढ़ावई शाखा..’
‘देखो बबुआ,जो पूंछा जाए वही जवाब दो. फालतू का समय मत खराब करो. अभी डेढ़ सौ बाहर इंतजार में बैठे हैं.’-आचार्य जी ने घुड़का.
‘जी,पाँच फुट सात इंच.’-मैं क्या करता ?
‘लग तो नहीं रहे.’-आचार्य ने दूसरा पान चबाया.
‘जी, हूँ.’-बेबस मैं, हँसा.
‘अरे हाँ ! ऐसे ही मान लूँ.मैंने भी आँखों से दुनिया देखी है.’-वे दहाड़े.
‘जी, मैं आँखों देखी नहीं बल्कि इंच-टेप से नापी हाईट बता रहा था.’-मैंने सही बोला.
‘चुप रहो.झूठ मत बोलो.’-वे चढ़ बैठे.
‘झूठ मत बोलो. झूठ मत बोलो. झूठ मत बोलो….’-वे सब चढ़ बैठे.
‘जी,इसीलिए तो मैंने पहला वाला जवाब दिया था ’.-मैंने अंतिम प्रयास किया.
‘अब बस ! गलती मानना सीखो.’-अध्यक्ष जी नरमे
गलतियों के समुन्दर में मैं ड़ूब गया. चुप्पियों को हिमालय से दबा दिया. सपनों को उनके चरणों पे रख दिया.
‘अच्छा बताओ,रिसर्च किसके अंडर में किया.’- हो हो हँस आचार्यवर पिघले.
‘जी, श्री मान्यवर पाण्डेय के अंडर में. ’- अब मैं सहज था.
‘ये क्या नाम हुआ ?’-वे चौंके.
‘जी,उनका यही नाम है.’-फिर बोला मैं.
‘हाँ,वो तो ठीक है.पर ये भी कोई नाम हुआ.’-अध्यक्ष जी सिर खुजाते बोले.
‘जी,अब इस पे मैं क्या कहूँ ’-फिर मायूस मैं.
‘अरे कैसे नहीं कहूँ ? हर बात का एक जवाब होता है महाशय ’.-स्मार्टी बोले.
मैं एक चुप,हजार चुप. कीड़ा ठिठक चुका था. छिपकली ने एक कदम आगे बढ़ाया. उसके सपने में कीड़ा उसके पेट में था. अपने सपने में कीड़ा गांधी की छाती से उड़ अध्यक्ष की खोपड़ी पर बैठा था.
‘ऐसे चुप रहेंगे तो पढायेंगे क्या खाक !’-मैडम के हाथ पर हाथ रखते जानी दुश्मन बोले.
पढाना मेरा पैशन था,मेरी पवित्रता,मेरा मकसद. गड्डमड्ड-सा मैं अंदर उतरता गया. 
‘भाई आप तो हद हैं. अच्छा चलिए ये बताइए की रिसर्च में टापिक क्या था ?’- करुणा कर करूणानिधि आचार्य बोले.
‘जी,अज्ञेय की कथा भाषा.’- बेमन मैं बोला,पीपर पात सरिस मन डोला.
‘टापिक गलत है. ’-साड़ी के पल्लू को कोंछ में बाँधती मैडम बोली.
‘जी ?’-मैं अवाक्.
‘हाँ,गलत है.’-सब को सुनाते वे फिर बोलीं.
‘आप सही कह रही हैं. कहती रहें.’- चूना चाटते आचार्य ने चढ़ाया उन्हें.
‘जी,लेकिन पांडे जी हमारे समय के बड़े साहित्यकार हैं. उनसे ये गलती?’- मैंने टका-सा सुनाया.
‘हुँह, पांडे जी ! मैंने कहा कि टापिक आपका गलत है तो गलत है. वो यूँ होना चाहिए था- अज्ञेय के कथा साहित्य की भाषा. ’-फिर सबको सुनाया उन्होंने.
‘जी,कथा और भाषा के बीच साहित्य का वजूद अंडरस्टुड है.’- मैंने स्पष्ट किया.
‘पर मुझे वो अंडरस्टुड नहीं होता.’-बोली पापिन बैन.
‘जी,आपका संशोधन कुछ ऐसा हुआ जैसे वैश्या के पहले स्त्री लगाना यानी स्त्री-वैश्या.’- वाह रे मैं!
और इसी के बाद वह महाविस्फोट हुआ.
‘क्या? क्या कहा तुमने?वैश्या कहा?तुमने मुझे वैश्या कहा? ’-चिल्लायीं वे.
‘नहीं मैम्,मैंने उदहारण दिया था.’-मैं हकलाया,अंदर की हँसी और बाहर के डर के बीच झूलता.
‘नीच,तुझे शर्म नहीं आयी ’-मैडम के कंधे पर लगभग हाँथ रखते जानी दुश्मन बोला.
छिपकली का ध्यान भंग हुआ. सम्मोहन टूटा. कीडे में हलचल हुई. बचने का यही सही समय था.
‘व्हाट हैपेंड? व्हाट हैपेंड ? ’-अध्यक्ष जी अचंभित थे.
‘अब क्या बताएँ डाक साहब, देखिए जनाब मैडम को वैश्या कह रहे हैं.’- आचार्य की आँखों में शरारत थी.
‘बताइए, एक भली, भोली, सुन्दर महिला की बेइज्जती कर रहे हैं. ऐसे लोग यूनिवर्सिटी का क्या करेंगें? ’-स्मार्टी के चेहरे से कमीनापन टपका.
‘डिड यू से दैट ?’-अध्यक्ष दहाड़े.
‘नो सर. आई हैव सिम्पली गिवेन एन इग्जाम्पल.’- मैं गिडगिडाया 
‘बेवकूफ समझे हैं का जी हम सबको.अंग्रेजिया से हिंदिया वाला अर्थ मत बदलिए.आप भारी मिस्टेक कर गए हैं.’- आँख नचाते,पान घुलाते आचार्य जी थे.
‘मिस्टर,आप माफ़ी मागिये मैडम से.’- अध्यक्ष का आदेश आया.
‘पर मेरी गलती क्या थी सर. मैं समझ नहीं पा रहा.’- कठोर हुआ मैं.
‘वो सब पकड़ने के लिए हम यहाँ बैठे हैं बाबू साहब.’- जानी दुश्मन की आँखे मैडम पे फिसल रही थी.
‘ठीक है.आई ऐम सारी मैम.’-उदास मैं कह रहा था.
‘और अब आप सीधा बाहर जाइए महापुरुष.’-पानक रस पीते आचार्य का निर्देश.
‘गलती नहीं थी फिर भी माफ़ी तो मांग ली मैंने.अब क्यों सजा? मुझसे और कुछ पूंछ लीजिए.’-मैं लगभग रोया.
‘ नो.यू जस्ट गेट आउट फ्रॉम हीयर.’-खड़े हो अध्यक्ष ने दुत्कारा.
‘ये तो अजीब है सर.’- भाड़ में जाओ निर्मल वर्मा.
‘ गेट आउट. जस्ट गेट आउट यू बास्टर्ड . ’ – सब एक स्वर में चीखे.
मुँह चलाते छिपकली कीड़े को हडबड पेट में डाल रही थी. उसकी सभीत आँखें हमारी ओर थीं. जानी दुश्मन मैडम का हाथ पकडे ‘तुझे तो खा जाऊँगा’ अंदाज में मुझे देखते खड़ा था. स्मार्टी उन्हें छिपकली की तरह देख रहा था. आचार्यवर पान आत्मसात कर‘ मैं आपको खुश करता हूँ’ भाव से दुखी मैडम की तरफ जा रहे थे. अध्यक्ष जी ‘मैं ही यहाँ एकमात्र मर्द हूँ’ मुद्रा धर मुझ पर चिल्ला रहे थे- ‘जाने कहाँ-कहाँ से आ जाते हैं.न जान न पहचान.’ आचार्यवर ने जोड़ा – ‘न रस न पान ’.
सब कुछ मात्र पाँच मिनट में हो चुका था. झटके से मैं उठ खड़ा हुआ. उदास व् निराश हो लौट चला. बाहर अन्य उत्सुक सपनों को मेरा इंतज़ार था. क्या हुआ, कैसे हुआ, जैसे प्रश्न थे. हताश हो मैं कुर्सी पर लुढक गया. मेरी दशा देख वहाँ प्रतीक्षारत कई सपनों के रंग बदलने लगे. एक मादा सपने के होठों पर कुटिल मुस्कान थी. यह देख मैं दंग था. शैतानियत का सपनों तक दखल है. काश! एक जैसे इन सब सपनों में अपनापा होता.
निराशा अब हिमालय बन चुकी थी. हृदय का पानी सूख रहा था. पथरीली आँखों को अलकनंदा के जल से गीला करता रहा. अजगर का चेहरा आँखों में रह-रह कौंधता. मन के उत्थान-पतन का वह क्षण बेहद कष्टकारी था. पर न जाने कौन था,क्या था, जो मुझे ढकेल रहा था. सच कहूँ तो मुझमें जमा ज्ञान का साहस न था यह सब करने का. वो,मेरे सपनों की साजिश थी,उनका प्रतिशोध था. ये मैंने दूसरे दिन सुबह अखबार में पढ़ा.
अलकनंदा की भीषण लहरों-नुमा उस बहाव में सब खत्म हो गया. इंटरव्यू निरस्त हो चुका था. मेरे सपनों ने उस दिन शाम को पहाड़ी इमानदारी को धिक्कारा. ठीक उस वक्त, जब किर्तनियों ने लंका कांड का गायन शुरू किया था, मैं, उस शराबखोर शहर के बुजुर्गों के सामने गिडगिडा रहा था. अपनी नशीली रुलाई से मैंने उन्हें भिगो दिया. उनके भीतर गुस्सा फूट पड़ा. और फिर पहाड़ों पर इमानदारी का वह अंतिम करतब शुरू हुआ था. कहतें हैं कि और अन्य सपने भी इसमें शामिल हो गए थे. रात को आठ बजे,जब अलकनंदा के उस पार मैं मंदिर में सिगरेट पीता बैठा कीर्तन सुन रहा था, नशीले ईमानदारों का एक रेला उस कमरे में घुस चुका था. अध्यक्ष को कालर पकड़ बाथरूम में अगले दो दिनों के लिए बंद कर दिया गया. मैडम को मेरा दिया उदाहरण समझाया गया. जानी दुश्मन लहूलुहान पुलिस चौकी में बैठा था. स्मार्टी अस्पताल में पड़ा था. पर, आचार्यवर किसी तरह बच के भाग निकले और अलकनंदा को पुल से पार कर मंदिर की तरफ आते दिखे, जहाँ मैं बैठा था.
‘बैठें सर.साक्षात्कार खत्म हो गए क्या.’-निर्मम हो मैंने पूंछा.
‘हाँ. हो गए.’-सब छुपा वे बोले.
‘ कोई पसंद आया आप सबको.’-मैंने चुटकी ली.
उन्होंने समय लिया. सोचते रहे. और अचानक वे क्रोध की ज्वाला बन चुके थे. वे चिल्ला रहे थे –‘सब तुम्हारे बाद ही शुरू हुआ. तुम्हीं ने मजमा खराब किया. सब कुछ कितना नियत था ! पर तुमने वहाँ और बाहर खलल डाला. क्या समझते हो अपने-आप को ? याद रखना,जब तक जिन्दा हूँ कहीं घुसने नहीं दूँगा.’
अब तक मैं विचलित हो चुका था. रही सही शर्म उस कमरे ने खत्म कर दी थी. बेधड़क बोल बैठा-‘औकात आपकी जान चुका हूँ मैं इसलिए आराम से बोलिए. ये पहाड़ है, बनारस से काफी दूर, आपकी हत्या भी कर सकता हूँ. जान-बूझकर मेरा इंटरव्यू खराब किया गया. आप सब अपराधी हैं. बल्कि अपराधियों से भी बदतर. रही बात घुसने की, तो सुन लीजिए, रास्ता आज हिमालय ने दिखा दिया है और निमित्त बने हैं आप. दावा करता हूँ कि बहुत जल्द घुस जाऊँगा,और उसमे एक हस्ताक्षर आप का भी होगा.’
‘बच्चे हो तुम अभी. अंदाजा नहीं तुम्हें की किसके सामने खड़े हो. यहाँ से लेकर दुनिया के अंतिम कोने तक मौजूद इन कमरों में मेरा दखल है. हर जगह से उठाकर तुम बाहर फेंक दिए जाओगे.’- सगर्व वे गहरे शब्दों में बोले.
घृणा से थूँक और सिगरेट उनके पैरों के पास फेंक मैं उठ चुका था. वे आश्चर्यचकित और कुछ सभीत, मुझे जाता देखते रहे. किर्तनियों के मुँह से निकलती चौपाई में रावण का आत्मविश्वास गरज रहा था-
‘ निज भुज बल मैं बैर बढ़ावा……’
____________________________

इसके बाद का वाकया अब तारीखी दास्तानों में शामिल है. अदब के लोग, आचार्य और मेरे बीच वर्षों चले इस वाकये को अच्छाई और सच्चाई के बीच हुए झमेले के रूप में कहते, सुनते आए हैं. सफ़ेद कपडे पहन, लाल बत्ती लगी कार में बैठे मंत्री जी भी अक्सर कहते हैं कि ‘अरे भाई,आचार्य जी इतने अच्छे और अपने आदमी थे. उनका साथ भला मैं कैसे नहीं देता. रही बात उस हरामी की, तो शिक्षा व्यवस्था में घुस आए इन अपराधियों को हमें मिलकर उखाड़ फेकना होगा.’ उधर फटी गंजी पहने, बेरोजगार, अपने समय के गोल्ड मेडलिस्ट पीएच.डी., कवि राम जियावनलाल, को आज भी गर्व है कि उनके शब्द सच्चाई के काम आये. वे यह भी कहते सुने गए थे कि – ‘साथियों, इन बंद कमरों में लोगों और पूँछे गए सवालों का मेयार बदलना होगा. और यदि प्यार से न बदलें तो दोनों को लतियाना होगा.’ मुझे उकसाने के लिए अपनी लड़ाकू कविताओं की एक पूरी पेटी वे मुझे पंहुचा गए थे.
सच कहूँ तो मंदिर पर हुई उस घटना के बाद एक जूनून-सा होने लगा था मुझमे. रात-दिन वही सोच. सपने साफ़ थे. पर हकीकत तक पहुँचने का रास्ता एक कमरे से होकर जाता था, जो जहाँ-जहाँ था, वहाँ-वहाँ आचार्य के कब्जे में था. यह कमरा और आचार्य अब मेरे सपनें की जद में थे. पर सफाई से इसमें से गुजर जाना मुश्किल था. मजबूरन, मैंने सपने की डिजाइन बदल दी. उसे अंतर-स्वप्नों की लड़ियों से जोड़ा.
उन्हीं दिनों मेरा एक क्रूरतम हत्यारा मित्र, डा. मेघनाथ चौहान ; जिसने मेरे साथ ही अदब की ऊँची डिग्रियां ली थीं तथा जिसने उस कमरे को रिझाने के लिए कभी निहायत ही जहीन कविताएं लिखी थीं, पर जिसे आचार्य ने इरादतन उन कमरों से लगातार खदेड़ा था, और इस कारण निराश हो जो बाद में खूनी कारनामों में अपना हाथ आजमाने लगा था ; तिहाड़ जेल से जमानत पर छूट मुझसे मिलने आया था. गिडगिडाते हुए मैंने आचार्य से होने वाली लड़ाइयों में उससे मदद मांगी थी. उदास हो मेरा हाथ पकड़ उसने कहा था कि ‘ देखो, इन मरे हुओं को क्या मारना ! अजीब लोग हैं ये जो न दिल में हैं न दिमाग में. इन्हें देख तो वो बंगाली कविता याद आती है कि ‘जवानी का जोश बुढ़ापे की वासना बन गया ’,पर फिर भी तुम जिद करते हो तो ठीक है. लेकिन मेरा यह सिद्धांत याद रखना कि मारना है तो मारना है. बीच की कोई बात नहीं.’ उसकी बात से मुझे सुकून हुआ. आचार्य को अपना शिकार बता बाकी जो भी बीच में आए उन्हें मैंने उसके सिद्धांतों के हवाले कर दिया. मेरे अंदर की कठोरता अब मुकम्मल हो चुकी थी. उसी रात मित्र मेघनाथ चौहान को मैंने कई सुपारियाँ सौंप दी थीं. मुझे गले लगा, मेघनाथ चौहान खून के समुन्दरों में छुप के बैठ गया था.         
मेरे खून में अब हिम्मतों की लहरें उठने लगी थीं. और तब, जबकि मैं खुलेआम आचार्य के नाम की गालियाँ हवाओं के नसों  में भरने लगा था, आसमान के सप्तऋषिओं ने मेरा रास्ता रोक लिया – ‘गुरु जैसे हैं वे तुम्हारे, बेटे. गुरु-द्रोह नीचतम पाप है. ये कर्म तुम्हे घोरतम नरकों में ले जाएगा.’ और मैं उन पे चिल्ला रहा था – ‘नीचतम कर्म जब वे कर रहे थे तो आपने उन्हें रोका क्यों न था. आपके सुझावों पर मुझे संदेह है.’ और तब मुझे पुचकारते वे मेरे कानों में धीरे से कह रहे थे – ‘देखो, सात तारों की मर्जी के बिना तुम ये कर न पाओगे. किन्तु फिर भी हम तुम्हारे ह्रदय को समझते हैं. तुम अपना संकल्प पूरा करो किन्तु हमें तुम्हारी आत्मा को निकाल, खौलते तेल के कड़ाहों में रख, शुद्धिकरण करते रहना होगा ताकि ज्ञान के अहंकारी देवता प्रसन्न रहें. और दूसरे, तुम हमसे वादा करो की गुरु-हत्या का प्रयास नहीं करोगे.’ आत्मा के रहने से मैं बेचैन ही रहता सो उसे तुरंत निकाल उनके हवाले किया और जाते-जाते यह वादा भी करता गया कि ‘ गुरु-हत्या मेरे संकल्पों में शामिल नहीं. हाँ, इस महाभारत में अगर स्वयं उन्होंने आत्मघात कर लिया तो इसमें मेरी जिम्मेदारी न समझी जाए.’ सात तारों ने मुझे आशीष दिया और चले गए.      
और उसके बाद, सात तारों की खुली निगाहों के नीचे, स्वप्न, इच्छा और खतरनाक लगते कर्म के मेल की ताकत से, मैंने, आचार्यवर को ललकारा था. मेरे सपने लगातार उनका पीछा करते. अकादमिक दुनिया में, उनके खिलाफ रोज उड़ती अफवाहों ने उन्हें विक्षिप्त कर दिया था. कलम से उन्होंने पाप की नदियाँ बहा दीं पर मैंने उस कमरे में उनकी घेरा बंदी छोड़ी नहीं.
अदबी दुनिया में हलचलें मच चुकी थी. दुनिया के अंतिम कोने का कलमकार भी मेरे और आचार्य के संपर्कों में था. बड़ी-बड़ी अकादमियों ने आचार्य के पक्ष में बयान जारी किये. यहाँ घुस आए हुकुमत के अधिकारियों ने आचार्य की हौसलाअफजाई की और उन्हें इस्पात की चहरदीवारों के पीछे छुपा लिया. पर मेरे दोस्त मेघनाथ चौहान ने, उनके छुपने के हर सरकारी गैरसरकारी अड्डों को ढूँढ निकाला और आग उगलते बमों से उड़ा दिया. बमों ने मिडिया का ध्यान खींचा और उसने आचार्य की सुरक्षा में हो रहे खर्च को समाचारों में उगल दिया. परेशान हो हुकूमत ने हाथ खींच लिया. और अगर आपको याद हो तो इसी मानीखेज घटना पर, सुदूर जंगलों के उस कम उम्र लड़के ने भावुक हो एक बेहद क्रांतिकारी कविता लिखी थी तथा जिसके लिए उसे उस वर्ष एक बड़े पुरस्कार से नवाजा गया था.
कहना न होगा कि इस लड़ाई में कहानियाँ खुल कर आचार्य के साथ रहीं. उपन्यास तटस्थ रहे. आत्मकथाएँ अनिर्णय का शिकार रहीं. आलोचनाओं का सैद्धांतिक समर्थन आचार्य को मिला. पर, कविताओं ने मेरा साथ दिया.
मेरी लड़ाई में, मोर्चे पर आगे कवितायेँ ही रहीं. और अदब की दुनिया का यह एक अदभुत दौर था जब भयानक और खतरनाक कवितायेँ जगह-जगह से उठने लगीं. गावों, जंगलों और शहर के पिछवाड़ों से निकल ये कवितायेँ बड़ी बड़ी अट्टालिकाओं, गढों और मठों में घुसने लगीं. कविताओं से, आचार्य के खेमे में, डर का एक माहौल सा बन गया. ऐसे में आचार्य के समर्थन में आयीं आलोचनाओं ने ये दिलासा दिया कि घबराने की कोई बात नहीं. ये अशक्त कवितायेँ मात्र हैं. बिना हमारी व्याख्या और समर्थन के ये अर्थहीन और दो कौड़ी की हैं. पर कविताओं ने इसकी परवाह न की. उनका यह दबाव इतना प्रबल था कि अक्सर उस कमरे में मैं लड़ाई में भारी पड़ जाता. पर बाद में इससे घबराकर आचार्य ने उस कमरे में होने वाले सवालों और जवाबो से कविताओं को बेदखल करवा दिया. अपनी इस महत्त्वपूर्ण जीत पर वे काफी खुश हुए थे और कमरे से बाहर निकल गलियारे में मुझे फिर धमकाया था. यह एक डेडलाक-सा था. मैंने उन्हें चेताया था और अदब से बाहर के जंगी मैदानों में उन्हें खींच लाने की प्रति-धमकी दी थी.     
लगभग उदास रहते उन दिनों, जब मैं अँधेरे में उधेड़बुन में बैठा रहता और मेरा दोस्त मेघनाथ चौहान बार-बार यह कहता कि ‘आचार्य जी शेर नहीं भेंडिया हैं, उनसे शेरों की तरह नहीं लड़ा जा सकता, तुम कहो तो सीधे उन्हें काट डाला जाए’, मैं उसे मना करता और भीतर के अंधेरों में खोया रहता. तब कवितायेँ मुझमें साहस भरतीं. रणनीतियों में वे कमजोर थीं, पर विचारों में अडिग. पर, मेरे सारे हथियार फेल हो चुके थे. और अब विराग-सा मन में छा रहा था. लड़ाई की कुछ-एक रणनीतियाँ मेरे मन को भाती न थीं. लेकिन लोग मुझे माफ करें, कविताओं ने ही मुझे मजबूर कर दिया था. एक दिन, एक बेहद ईमानदार कविता के गुप्त तहखाने में मुझे रिवाल्वर मिला. एक बहुत छोटी कविता ने उसमें ढेर सारी गोलियाँ भर दीं. अपेक्षाकृत एक लंबी कविता ने बंदूक से शहरों में लड़ने की ट्रेनिंग दी.
और यही लड़ाई का टर्निंग प्वाइंट था. मुझे अब केवल आचार्य की छाती भर दिखनी थी. कविताओं ने यह काम आसान किया. यह देखना रोमांचकारी था कि उन कविताओं ने आचार्य की कहानियों पर हल्ला बोल दिया. कहानियाँ, इस लड़ाई में, बेतरह हारीं. अदब की दुनिया में यह लड़ाई ‘गद्य और पद्य पर निर्णायक बहस’ के रूप में भी जानी जाती है. जीत की खुशी में कविताओं ने अव्ययों और क्रियाओं को कहानियों से छीन लिया. और तब आप याद करें तो, इन्हीं दिनों उस बड़े मशहूर कवि ने खुले आम निर्भीक हो यह कहा था कि ‘भूमंडलीकरण के खिलाफ / अब / केवल कविता खड़ी है ’. आप को बताता चलूँ कि ये शब्द मेरे दोस्त मेघनाथ चौहान की कभी लिखी एक कविता से उन्होंने लिए थे.
खैर, आचार्य अब खुले में आ गए थे. उन इमानदार पर खतरनाक कविताओं  की ताकत से चल रहे मेरे आपराधिक-से लगते कृत्यों का दबाव बढ़ता जा रहा था. रिवाल्वर की नली में गोली बन बैठी उस बेहद खतरनाक कविता को उन्होंने देख लिया था. भयभीत उन्होंने आलोचकों की ओर देखा,पर रिवाल्वर के टक्कर का कोई प्रतिमान उनके पास न था. उनका साथ छोड़ वे तब भाग चले और अदब के अँधेरे इतिहासों में अपने को छुपा लिया. पर मेरे उस हत्यारे दोस्त मेघनाथ चौहान ने उन्हें खोज निकाला और खून के महासागरों में काट कर फेंक दिया.
आचार्य अब अकेले थे. बंदूक की गोलियों का आकार धर पीछा करती कविताओं से सपनों-तक में अपने को बचाते. मैदानों में अब वे रावणों की तरह नकली माया रचते, कमरों में मंत्रो का उच्चारण कर प्रेतों का आह्वाहन करते. और ऐसी लड़ाइयों में मेरी मन्त्र कविताओं ने उन नकली काले बादलों को तार-तार कर दिया था. अपने ही खून से बने कीचड़ों में फंसे वे मुझे कर्ण से दिखाई पड़ते. पर मैं उन्हें मारना नहीं चाहता था.सात तारों से किये वादे का मुझे ध्यान था. दरअसल, कमरा-दर-कमरा चलती आँखमिचौली के इस खेल में अब मुझे मजा भी आने लगा था. वैसे, कमरों की नयी डिजाइन बनाने के लिए पुरानी डिजाइनों के खोट को जानना भी जरूरी होता है. 
आचार्य अब बदहवास और किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे. दिमागी लड़ाईयों से जुदा, पानीपत के हकीकी मैदानों में जिस्मानी कलाबाजियों से लड़ने का अनुभव उन्हें शायद न था. एहतियातन, एक विदेशी कविता को उन्होंने शांति-दूत बना मेरे पास भेजा. मैं तैयार था,पर शर्तों के साथ. मजबूरन, संधि की इस शर्त को उन्हें मानना पड़ा कि उसी कमरे में पूर्व-नियत एक मजमा बना कर उन्हें प्रायश्चित करना होगा, और असफल होने पर उन्हें आलोचकों की मौत मरने के लिए तैयार रहना होगा. शराबों के दरिया में तैरते और खूनी कल्पनाओं में डूबे मेरे दोस्त मेघनाथ चौहान ने उन्हें आलोचकों के कटे सिरों के वीडियोज दिखा दिए थे.
त्राहि माम करते-करते, आखिर में उन्हें वह करना पड़ा जो उन्होंने सपने में भी न सोचा होगा. उस कमरे को उन्हें सुहागिन की तरह सजाना पड़ा और दुल्हे की तरह मेरा स्वागत करना पड़ा.
दास्तानों में छुपी इन हकीकतों को आप चाहें तो सच मानें. उस कमरे में, इतिहास का यह एक बिल्कुल अनोखा  और अदभुत आयोजन था जहाँ कीड़ा छिपकलियों को चबा रहा था. आज सोच के हँसी आती है, और ग्लानि भी, पर यह बिल्कुल यूँ ही हुआ था. भयानक खबर की कविताओं ने उस कमरे को चारो ओर से घेर रखा था. बिना बारी के उस कमरे में मैं धड़धड़ाते घुसा था. मेरा आतंक वहाँ पहले से मौजूद था. सबके चेहरे लटके हुए थे. आचार्यवर मुझे देख हाथ जोड़ उठ खड़े हुए थे. दीवाल पर टंगी हँसती मोनालिसा की पेंटिंग के ठीक सामने की कुर्सी को खींच, एक टांग पर दूसरी रख, मैं इत्मीनान से बैठ गया था. बहुत देर तक कमरे में सन्नाटा बना रहा था. आखिरकार मुझे ही कहना पड़ा था कि ’कुछ पूंछेगे नहीं क्या आप लोग?’ किसी में साहस न हुआ था. तब मैंने आचार्य को घूरा था. वे हडबडाते हुए कह रहे थे – ‘कुछ विशेष तो क्या पूछना आपसे. उ सब तो आप जानते ही हैं. बाकी इसके बाद मेरी विनती है कि आप हमसे प्रसन्न होइए और वो सब टेंसन खतम कीजिए.’ निर्निमेष मैं उन्हें ताक रहा था. इस एक आदमी के कारण मुझे ये सब करना पड़ा था. अब उस पर दया आ रही थी. कविता से रिवाल्वर निकाल उन्हें निशाना करते मैं धीरे-धीरे बोल रहा था –‘इसका ट्रिगर दबाना बहुत आसान है प्रोफ़ेसर. लेकिन फिर आदमी खतम हो जाता है. पर जैसे आप मारते हैं उससे आदमी मरता नहीं, तडपता रहता है. मरना चिंतनीय नहीं है पर तड़पना है. किसी को मार देना गलती है, विक्षिप्तता है, पागलपन है, पर किसी को तडपता छोड़ देना घोर अपराध है,पाप है. और आप सब यही करते हैं. यह एक तरह की माफियागिरी है. इस कमरे को आप सबने गन्दा कर दिया है. यहाँ होने वाली प्रक्रिया गलत नहीं है. गलत हैं वो लोग जो अपने को नियंता समझ बैठते हैं. ज्ञान की उची श्रेणी पाये एक युवक की गरिमा तक आप छीन लेते हैं. किसी सिरफिरे से तो क्या कहें , पर आप लोगों से तो ये उम्मीद कतई नहीं की जा सकती.’
मुझे नहीं पता कि इसका असर क्या हुआ. रिवाल्वर वहीँ छोड़, मैं निकल चुका था. शाम को आचार्य ने रिवाल्वर लौटाते हुए वह लिफाफा भी दिखाया जिसमे चयनित हुआ मेरा नाम था तथा जिसे उन्होंने मेरे सामने ही सील किया था. यह आश्चर्यजनक किन्तु सच था. ठठाकर मैं हँसा था. मैंने उन्हें चाय पिलाई तथा भगवदगीता भेंट की. हाथ जोड़ धूंधुआती आँखों से मुझे देखते वे वापस लौटे. रिवाल्वर मैंने कविता को वापस सौंप दिया.
__________________________________  

सपने की बदली डिजाइन को मिटाना मेरे लिए आसान था, पर आचार्य वह नहीं कर पाये. उनका चमकता चेहरा इधर स्याह हो चला था. कभी किसी भी विषय पर धड़धड़ाते बोलने वाले वे, अब अक्सर मंचों पर भकुवाने लगते थे. और अगर कहीं मैं वहाँ दिख गया तो चुप-चाप कुर्सी पर नत-नयन धँस जाते थे. शाम को, घाटों पर लगातार बुदबुदाते उन्हें घूमते देखा जाता था. हाथ की छड़ी को वे आसमान के कलेजे में घोंपते रहते. उनके पड़ोसियों ने बताया कि रातों को वे जोर-जोर मुझे गालियाँ बकते रहते. शहर के लिए वे पागल हो चुके थे. केवल मैं एक अकेला गवाह था कि वे स्वस्थ हैं. पहले से भी ज्यादा स्वस्थ. अक्सर,किसी सड़क पर उनसे निगाहें मिल जाती तो वे सहम कर किसी आदमी, किसी गुमटी का ओट ले लेते. मैं उन्हें देख मुस्कुरा-भर देता. और शायद इससे उन्हें आग लग जाती. पर वे मेरा कुछ न कर पाते और अब शायद चाहते भी न थे.
इधर कई दिनों से उन्हें देखा नहीं गया था. जितने मुँह, उतनी बातें. छात्रों में कुछ यूँ अफवाहें थी कि दुर्गा शप्तशती के उलटे जापों से उनकी प्राणवायु उलट गयी है. चौराहों पर ये खबरें थी कि किसी के खिलाफ उन्होंने देश के वजीर को एक पत्र लिखा था पर पढ़ने-लिखने वालों से बेपनाह नफरत करने वाले उस वजीर ने उन्हीं  के पीछे जासूस लगा दिए. उनका जीते जी घर से निकलना अब असंभव था.
और यह होलियों के आस पास पता चला कि, अपने घर के, किताबों से भरे उस बड़े कमरे में, उन्होंने अपने को आग लगा लिया. अदब के किसी आचार्य द्वारा चुनी गयी यह एक अनोखी मौत थी. कहते हैं आलोचनाओं ने उन पर लगातार घी डाला था. भीतर के दुश्मन उनकी मौत के जिम्मेदार थे. क्योंकि मुझे उन्होंने किसी के भी सामने न कभी दुश्मन कहा न माना. कभी उनका दाहिना हाथ माना जाने वाला पर अब उनके मरने से खुश, एक बहुत बड़ा आलोचक खबरनवीसों को यह बता रहा था कि  ‘उनमें व्यक्तिगत बुराईयाँ भी काफी थीं. पर वे हमारे समय की मजबूरियाँ अतः सच्चाईयाँ हैं. अपनी नीचताओं के साथ वे एक महान इंसान थे. अग्नि में स्वयं का होम कर देना एक संवेदनशील कर्म है. इस देह-त्याग से उन्होंने साहित्य एवं समाज के सामने एक ऊँचा आदर्श रखा है. नयी पीढ़ी को उनसे बहुत कुछ सीखने की जरूरत है.’
आचार्य की मौत से सब सन्न रह गए. वे कमरे एकबारगी अनाथ हो गए. उनके जैसा गणितकार अब दूसरा न था. और कहते हैं कि इन्ही दिनों माँ की छातियों जैसे पवित्र इन कमरों से कुछ सुन्दर और अर्थवान गीत गुनगुनाते हुए निकल गए. खुद मैंने अपने दोस्त मेघनाथ चौहान को प्रेरित किया, जिसने उत्साह में अपने पुराने कागजों को फिर इकठ्ठा किया. उसका गुरु, मुन्ना पहलवान, खुद उसे उस कमरे तक छोड़ने गया था और उसकी सफलता के लिए खुदा से दुआएँ माँगी थीं. अलकनंदा के जिस पानी ने मुझमें नफरतों को घोल दिया था, उसी ने मेघनाथ चौहान को शीतल कर दिया. कहते हैं कि उस कमरे में उसने अपनी बेहद मार्मिक कविताओं से सबका दिल जीत लिया था. सफलता की खुशी वाली रात में, अपने जीवन में अंतिम बार उसने बंदूक की आवाजों से पहाड़ों का सीना पानी कर दिया था. रात भर खूनियों के उस जमघट में ‘वाह वाह’ और ‘फिर से कहो’ की आवाजें आती रहीं. आज वह उसी अलकनंदा के किनारों में बसा अदब का एक बेहतरीन उस्ताद है.

आचार्य की मौत का, बाखुदा, मुझे दुःख नहीं है. पर अपनी उस जिंदगी से जब एक बार ग्लानि हुई तो उन कविताओं से जिरह किया मैंने. जवाब में, आसमानी किताब की एक आयत मेरे सामने रख दिया उन्होंने. जिसके शब्द थे – ‘ उद्धरेत आत्मानं आत्मानं ’- अर्थात- ‘अपनी ही आत्मा से आत्मा का उद्धार करो ’. ‘ पर, मेरी आत्मा तो सात तारों ने खौलते तेल के कड़ाहों में डाल रखा है.’- मेरे यह कहने पर वे मुस्कुराती हुई सात भूमियों की समाधियों में उतर गयी थीं. उनकी मुस्कराहट देख मुझे मोनालिसा की याद आयी थी, जिसे मैंने अपने आखिरी इंटरव्यू के कमरे की दीवाल पर टंगे देखा था.  


__________________


सर्वेश कुमार सिंह

आलोचनात्मक लेख आदि प्रकाशित

२५ जून १९७५, प्रयाग

जे.एन.यू. से एम.फिल.और पीएच.डी.

उच्च अध्ययन संस्थान शिमला में एसोसिएट फेलो के तहत अनुसन्धान-रत

निर्मल वर्मा की कथा भाषा पर पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य

सम्प्रति : असिस्टेंट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
डी.ए.वी.महाविद्यालय (बी.एच.यू. से संबद्ध), हिन्दी विभाग
ई पता : sarveshsingh75@gmail.com

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