यह कहानी फिल्मों की दुनिया में संघर्ष कर रहे चार युवाओं – मिनर्वा, अंजुम, रफीक और अदृश्य ‘चौथे लडके’ की कहानी है जो दरअसल हर \’असफल\’ युवा की कहानी है. कहानी असर छोडती है. सारंग उपाध्याय मुंबई में हैं और करीब से इस दुनिया को देख रहे हैं, यह देखना यहाँ दिखता भी है.
सपने
सारंग उपाध्याय
बारिश की बूंदों में घुला स्याह अंधेरा तेज हवा में दूर तक फैल रहा था. अशोक, बरगद और पीपल के पेडों की पत्तियों की सरसराहट काले पसरे सन्नाटे को फाडे जा रही थी. मेंढकों की टर्र टर्र कौओं की बैचेनी में घुली हुई थी. बिल्डिंगों के उंचे छज्जों पर बैठे कबूतरों की आंखों में डर फडफडाकर चौंकता था. वह रात का दूसरा पहर था, जो तेज बारिश से तरबतर था, बारिश किसी स्टेशन से गुजरने वाली तेज ट्रेन की तरह ही सरपट निकल चुकी थी और पीछे, बदन मे कांटे की तरह चुभती, चीखती, हरहराकर घूमती हवा छोड गई थी.
वह सपनों के एक शहर की बरसाती रात थी जो एक पॉश इलाके की चमचमाहट में डूब रही थी. उंची बिल्डिंगों से घिरी गलियों के बीच इक्का दुक्का नेपाली गोरखे छाता लिए, सीटी बजाते और हाथ में पकडी लाठी को कॉंक्रीट से लिपी सडक पर रह रहकर ठोंकते थे. उनकी लाठी की आवाज कुत्तों के सामूहिक रूदन में मिलकर एक अलग सी तान दे रही थी. कुत्तों, लाठियों और हवा की सरसराहट के बीच सन्नाटे की खामोशी से लिपटा स्वर उंची इमारतों की खिडकियों से बह रहे लाइटों को चौंका देता था.
कमा, खाकर और जमकर पीने के बाद बैडरूम में जिंदगी का फलसफा रचने वाले उस चमचमाते रईस इलाके में कई प्रोडक्शन हाउस, कुछ कॉल-सेंटर और कुछ विज्ञापन एजेंसियों के ऑफिस थे, जहां रात की शिफ्ट में काम चलता था. उस गहराती, स्याह होती और बारिश में डूबती उतरती रात में एक गली औंधी खामोश पडी हुई थी. गली के छोटे से मुंह के भीतर दूर एक हाइवे अपनी अजानबाहुओं के साथ लेटा हुआ था] जिस पर गश्त लगाती पुलिस की जीप का साइरन आवाजों की आवाजाही भरी रात को थोडी थोडी देर में धमकाता था. दिन भर के शोर से थकी, ढकी, दबी और अकेली पडी उस गली में बनी एक इमारत की दसवी मंजिल के एक फ्लैट के कमरे की एक लाइट सिगरेट के धुएं में जिंदगी को गर्म कर रही थी. कमरे से आ रही ठहाके, अट्टाहस, दबी सी हंसी और मुस्कुराहटों को बाहर पडा सन्नाटा मेंढक, झिंगुरों की आवाजों के साथ बारिश में घोलकर निगले जा रहा था.
उस बडे से कमरे में, जो उस फ्लैट का बेडरूम था, ठीक बीच में एक अधेड उम्र का सुंदर, गोरा, तीखी नाक और कसे हुए बदन का आदमी उघाडे बदन अपने दोनों पैर दूसरी कुर्सी पर फैलाए बैठा था. उसकी मोटी और कटाव भरी जांघों पर लैपटॉप था और वह अपनी उंगलियों में सिगरेट फंसाकर सामने बडी सी खिडकी से बाहर की ओर देख रहा था, जबकि खिडकी से हवा में घुलकर आवारा घूम रही बारिश की बूंदें कमरे की रोशनी को निगल जाना चाहती थी.
उस आदमी की कुर्सी के दाएं-बाएं और सामने की ओर बिछे पलंग पर तीन, जवान, खूबसूरत लडके लेटे हुए थे. उसमें से पहले का नाम मिनर्वा था उसकी नाक लंबी लेकिन सुंदर गोलाई में आकार लिए हुए थी. भोंएं सुर्ख काली और ललाट फैला हुआ था. वह खूबसूरत था और उतना ही अंदर से भी था जितना चेहरे से दिखता था.
वह फिल्म बनाने की फैक्ट्री बन चुके सपनों के शहर में हीरो बनने आया था. एक ऐसे शहर से था जहां टीवी पर दिखने का मतलब कुछ वैसा ही था जैसे आज से पचास साल पहले किसी के घर में टीवी के आने जैसा था. उसकी परवरिश गांव से कस्बे बनती जा रही जगह पर हुई थी. और दाढी पर बाल उस जगह के हाइब्रीड हो जाने पर ही आए थे.
चूंकी जगहें लोगों से बनती है इसलिए वहां के लोग न तो शहर के ही रह गए थे न ही गांव के. वे बोलते कुछ थे और पहनते कुछ और ही थे, और जीवन जीते हुए वे एक नायाब संस्कृति के अंडे दे रहे थे जिसमें पल रहा जीवन आने वाले समय में परंपरा और आधुनिकता के घर्षण से उत्पन्न होने वाले मनुष्य रचने वाला था. उसके पिता की शहर की एकमात्र टॉकिज के पास दूध और मिठाई की दुकान थी. पर दुकान उसकी होने के बावजूद वह मीठा बहुत कम खाता था और दूध ज्यादा पीता था. हालांकि उसकी उम्र दूध और मिठाई दोनों ही छक कर खाने पीने की थी. पर वह दूध पीकर रोज एक ही पिक्चर को तब तक देखता था जब तक पेट मे गया हुआ दूध पच नहीं जाता. इस तरह वह दुकान के गल्ले से टॉकिज में रोजाना फिल्में रिलीज करता था. जल्द ही दुकान पर आने वाले लोगों ने उसके बदन में बह रहे दूध के सपने को पहचान लिया था जो उसके पिता के कम होते खून में उछाल के साथ आकार ले रहा था. इस तरह वह सपनों के शहर आ गया. उसकी उम्र सपनों के शहर में सात साल थी, वह बहुत मेहनती था, और रोजाना पांच किलोमीटर दौडता था, दो हजार रस्सियां कूदता था, चार घंटे नाचता था और हर तरह की फोटो लेकर सपनों के शहर की जादूई गलियों में हीरो बनने के लिए बांट दिया करता था.
दूसरा लडका, जिसका नाम अंजुम था, वह लगातार सिगरेट पीता था और सिगरेट पीते हुए वह देश के उस स्वास्थ्य-मंत्री को कोसा करता था, जिसने फिल्मों में सिगरेट पीने का दृश्य दिखाने पर पाबंदी लगा दी थी. सपनों के शहर में उसकी उम्र तकरीबन पांच साल थी, लेकिन वह हीरो नहीं, बल्कि विलेन बनना चाहता था जबकि सिगरेट पीने के बावजूद वह अपनी रियल जिंदगी में कुरकुरे की तरह सीधा आदमी था. उसकी एक पत्नी और बच्ची भी थी, जो सपनों के शहर से दूर असली जिंदगी जी रहे थे, और रिटायर हो चुके पिता और लगातार खांसी से जूझती मां के साथ वैसे ही सुखी थे जैसे की वह सोचता था. वैसे वह सोचता ज्यादा था और तब से सोचता आ रहा था जब से उसके शिक्षक पिता को उसके ही दोस्तों ने शिक्षक दिवस के अवसर कक्षा के एक लडके के साथ गुरु शिष्य संबंधों की प्रगाढता निभाते हुए देख लिया था. वह तब से ही सोचते आ रहा था और सोचते सोचते पढाई छोडकर एक वीडियो पार्लर चलाने लगा था. वह फिल्में दिखाता कम था और देखता ज्यादा था. बीच में कुछ नीली फिल्में देखकर उसका चेहरा पीला पड गया था, लेकिन जल्द ही दाढी के आने से उसका धंसा हुआ पीला चेहरा नीला होने लगा जबकि दिल गुलाबी, इस तरह गुलाबी दिल सुर्ख लाल हो गया. एक दिन उसने अनिल कूपर की चमेली की शादी फिल्म देखी और अनिल कपूरबनने का सपना पाल लिया. चूंकि जमाना मर्डर 2 का था इसलिए अनिल कपूर की जगह उसने चमेली की शादी का वर्जन 2 ही बना डाला और सेवंती जैसी लडकी को जूही की कली की मां बना दिया. इसके बाद वीडियो पार्लर में आने वाले लोग उसे हीरो कहते थे क्योंकि उसने काम भले ही विलेन का किया था लेकिन लडकी के भाइयों से भरे बाजार में बाप सहित जूते खाने के बाद वह लडकी से शादी कर चुका था. इसलिए वह एक तरह से हीरो ही था.
बहरहाल, उसका कडक, पसली वाला बदन भर चुका था और चेहरा खिल चुका था. सपनों के शहर में आए हुए उसे तीन साल हो रहे थे और सिगरेट पीते हुए तकरीबन छ महीने. सिगरेट के साथ सोचने में उसे ज्यादा मजा आया. लेकिन कई बार वह सोचता कम सिगरेट ज्यादा पीता था, इसलिए क्योंकि उसे डर था कि कहीं उसे सपनों का यह शहर ही न पी जाए, इसलिए वह शाम को सिगरेट के जरिये शहर को ही पी लेता था.
तीसरा लडका सो रहा था, क्योंकि उसे सुबह जिम जाना, वह जिम में ट्रेनर था और कई बडे स्टार्स और हीरो के बदन को चुस्त कर चुका था. वह समुंदर पार एक गांव से आया था और वहीं पहलवानी करता था, लेकिन अखाडे में लडते सीखते हाथ पैरों की जगह उसका दिमाग मोटा होने लगा था. अक्सर उसके पिता से पसीने की कीमत को लेकर झगडा होता था. वह अपना पसीना खेती की जगह अखाडे में बहाना चाहता था, और पिता को पसीना खेतों में बहता ही ठीक लगता था. लेकिन वह मां का लाडला था इसलिए अखाडे से निकलकर मशीनी कसरत के हुनर सीख गया और सपनों के शहर भाग आया. उसे सपनों के शहर में तीन साल हो रहे थे और अब उसका कुछ दिमाग पतला हो गया था और उसने अपने अंदर दारा सिंह का लिटिल थ्रीडी वर्जन देख लिया था. पर फिलहाल वह निढाल था और सपनों के शहर में आज वहां से लौटा था जहां समुंदर के सामने सारे लोग अपनी भडास निकाला करते थे.
वे दोनों लडके, जो जाग रहे थे, मिनर्वा और अंजुम, जबकि वह तीसरा लडका जिसका नाम रफीक था फिलहाल सो गया था, वे सब आदिल नाम के उस अधेड आदमी से उस चौथे-लडके की कहानी सुनना चाहते थे जो वहां नहीं था. उन तीनों ने ही उस चौथे-लडके के बारे में बहुत सुना था, कि सपनों के शहर का वह चौथे-लडका अपनी मंजिल के बहुत करीब पहुंच गया था, लेकिन वह आखिरी तक करीब ही रहा और बाद में खुद एक सपना बन गया, पर चूंकि वह, वहां तक पहुंच गया था जहां उसके सपने बस सच ही होने वाले थे, इसलिए वह उन तीनों में चौथा था, (जो कोई भी हो सकता था), लेकिन वहां नहीं था जहां उसे होना चाहिए था.
वैसे उस बेचारे चौथे लडके की कहानी जो उसके खुद के लिए एक ट्रेजेडी ही थी, लेकिन इन तीनों के लिए मोटीवेशनल थ्योरी या असफलता ही सफलता की पहली सीढी जैसी कोई किताब थी, इसलिए बाकि के तीन लडके उस ट्रजेडी को जानना चाहते थे ताकि वे यह जान सकें कि सपनों के शहर में, सपनों को कब, कितना और किस मात्रा में किस तरह से देखना चाहिए, जैसी महत्वपूर्ण बातों को जान सकें और उस शहर में अपने भी सपनों को पूरा कर सके.
सो कहानी शुरू हुई, वह अधेड उम्र का आदमी जिसका नाम आदिल था जो लगातार लैपटॉप नजरे गडाए हुए सिगरेट फूंके जा रहा था, उसने एक आखिरी सुट्टा लगाकर चौथे लडके कि कहानी सुनानी शुरू की.
चौथे लडके की कहानी
वह सपनों के शहर में सालों पहले आया था. उसे सपने देखना बहुत पसंद था और बचपन से ही लगातार सपने देखता आ रहा था. वह दिखने में बहुत सुंदर था, एकदम गोरा, चिकता, तीखी नाक, गुलाबी होंठ और रेशम जैसे सिल्की बाल. वह हर काम में परफेक्ट था. मसलन नाचने गाने, से लेकर कराटे जानने और शानदार एक्टिंग करने जैसे हुनर में.
स्कूल और कॉलेज में चाहे नाचने का कॉम्पिटशन हो, या गाने का, या किसी ड्रामें में एक्टिंग का हुनर दिखाने का, वह हर जगह अव्वल था. शायद यही वजह थी कि वह बहुत ज्यादा सपने देखता था और उसके सपने देखने की स्पीड इतनी थी की वह कुछ ही मिनिटों में खुदको किसी भी तरह के सपनों में ट्रांसफर कर सकता था.
मसलन, जब वह साइकिल चलाता, तो वह, अक्सर बाइक पर होता और जहां कहीं हरी-हरी झाडियां देखता, या तो वह शिकारी बन जाता था या फिर किसी लडकी के साथ हीरो बनकर गाना गाने लगता था. ऐसे ही जब वह स्कूल में होता था, तब वह कॉलेज में पहुंच जाता था और एक लडकी से प्यार करने लगता था जो उसके स्कूल की कोई भी लडकी हो सकती थी. एक बार तो वह अपनी मम्मी के साथ जब शिव मंदिर गया था, तब उसे उसके पडोस में रहने वाली दीप्ती मिली थी, उसे देखकर उसने झट से एक सपना देखा था, जिसमें वह दीप्ती का पति बन गया था और अपनी बूढी मां को मंदिर के दर्शन करवाने लाया था.
वह वर्तमान में बहुत ही कम रहता था क्योंकि वह उसे वह बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था. हां, कभी कभार वह वर्तमान में तभी होता जब उसे भूख लगती या प्यास, या फिर कुछ बेहद जरूरी काम जहां सपने देखने में उसे तकलीफ होती थी. जैसे जब वह स्कूल में था और उसे परिक्षाएं देनीं होती थी, या फिर जब उसे अपने पिता की उस छोटी सी फूल की दुकान में बैठकर या तो मालाएं बनाने का उबाउ काम करना पडता था या इक्का-दुक्का ग्राहकों को निपटाना पडता था. पर हां कभी-कभी इस काम में उसके सपनों को नई ताजगी भी मिलती थी, खासकर तब जब वह पिता के साथ साइकिल पर बैठकर फूलों के बागीचे से फूल लेकर आता था और जहां उसके सपने गुलाब के फूलों की तरह खिल जाते थे. एक बार उसने एक फूल के बागीचे में खुदको एक लडकी के साथ गाना गाते और नाचते हुए देखा था, बिल्कुल फिल्मों की तरह, तो वहीं उसके पिता को एक ठाकुर के रूप में देखा था जो इस तरह के कई बागानों व खेतों के मालिक थे.
खैर, बागीचे से निकलने के बाद उसके इस तरह के सपने फीके पड जाते थे और माला बनने वाले फूल भी बासे, मुरझाए और गंधविहीन हो जाते थे. वैसे उसे सपने देखने में सबसे ज्यादा तकलीफ तभी होती थी जब उसके पिता उसे निठल्ला, कामचोर कहते थे और उसकी मां को मारते थे. उसका एक बडा भाई भी था जो बेहद सीधा-सादा था, लेकिन सपने नहीं देखता था क्योंकि उसकी आंखों में यथार्थ का मोतियाबिंद हो गया था. पर वह अपने छोटे भाई को हमेशा सपने देखने के लिए उत्साहित करता था. वह कई बार उसे पिता से छिपकर फिल्में देखने के लिए पैसे भी देता था. हालांकि उसके सपनों की दुनिया में इस तरह की तकलीफें जल्द ही दूर हो गईं थी. विशेष रूप से तब, जब वह कॉलेज में आ गया था, जहां उसके सपनों को लडकियों और फिल्मों को देखकर एक सप्लीमेंट्री फूड मिलने लगा था. वह जब भी लडकी देखता, तो जाकर कोई फिल्म देख आता, और जब भी कोई फिल्म देख आता तो उसका मन लडकी देखने के लिए इतना आतुर हो उठता कि उसे किसी भी किस्म की लडकी देखनी ही पडती.
इस तरह सपनों की दुनिया में रहते-रहते उसे बहुत बाद में पता लगा था कि उसका दिल सपनों से इस कदर भर चुका था कि सपने अब उसके दिल से निकलकर गालों पर उग आए थे और अक्सर आंखों में तैरते रहते थे. वह कई बार बिल्लू-बारबर के यहां खुदको निहारता था और अपने सपनों की ब्लीचिंग, फेशियल और मसाज किया करता था.
एक दिन फिल्में देखते-देखते उसने टॉकिज में लगे पोस्टर में हीरो की जगह अपनी तस्वीर देखी थी, और सपना देखने के बाद तब तक घर लौटने का फैसला नहीं लिया था जब तक कि उस पोस्टर में उसकी तस्वीर नहीं लग जाती. बस वह पिता, मां और भाई को छोडकर सपनों के शहर में आ गया था और सपनों के शहर की ऑक्सिजन, वहां का दाना पानी लेते-लेते उसके खून में सपनों की मात्रा बढ गई थी वह खुद भी एक सपना बन गया था.
इस तरह वह सपनों के शहर आ गया जहां आने पर उसे एक अजीब तरह का अहसास होने लगा और उसके सपने भी लाल, हरे, नीले, पीले रंगों से भरने लगे. उसे लगा कि उसका जन्म इसी शहर के लिए ही हुआ है, लेकिन बहुत जल्द ही सपनों के इस शहर में उसके सपनों के सभी रंग सूखने लगे और बजाय लाल, हरे, पीले, नीले रंगों के उसमें भूख के कारण मुंह से निकलने वाले बुलबुले भरने लगे, जिससे उसके सपने देखने की स्पीड कम हो गई. यहां तक कि वह अब थोडा भी सपना देखने का प्रयास करता तो उसकी आंखों के सामने सपनों की जगह मटमैले, कसैले और अजीब तरह के अंधेरों से भरे छल्ले बनने लगते, जिन्हें अक्सर मक्खियों के झुंड ही तोडते थे. उसे जल्द ही अपने सपनों में अजीब सी गंदी बदबू आने लगी थी, जो उनके गलकर सड जाने की होती है.
वह महसूस करने लगा था कि उसके सपने, सपनों के शहर में ही सडने लगे थे, पर क्यों उसे यह समझ नहीं आ रहा था. उसे तो लगा था कि उसके सपनों को यहां एक ताकत मिलेगी और वे यहां ज्यादा खिलेंगे, लेकिन वे यहां सडने लगे थे, और उसमें हताशा, निराशा, थकान और घुटन के कीडे पडने लगे थे. उसने महसूस किया था कि कभी-कभार बार वह सडक किनारे एकाध सपना देख भी लेता तो उसका सपना जगह-जगह से काला, भद्दा और बदसूरत सा दिखाई देने लगा था, पर बावजूद इसके, उसने एक बात गौर की थी कि उसके सपने मरे नहीं थे. उसने तय किया था कि वह उसके सपनों को बचाएगा इसलिए पहले उसने भूख के बुलबुलों को छांटने का फैसला किया, जिसके कारण ही उसके सपने अंधेरों भरे छल्ले बन जाते थे और वह सपने नहीं देख पाता था.
इस तरह चौथे-लडके ने अपने सपनों को सडने, गलने, बदबू से बचाने और भूख के बुलबुलों के बंद करने के लिए शुरूआत में स्टेशनों, बस स्टैंडों, बागीचों, सडकों, व झुग्गियों में दिन काटे और कुछ छोटे-मोटे काम किए.
पहला काम उसे सपनों के शहर में चूहों को मारने का मिला था. जहां वह रात को तकरीबन दो से ढाई बजे के बीच सपने ढोने वाली पटिरयों, गलियों और कोनों में चूहों को मारने का करने लगा. शुरू-शुरू में उसे इस काम में बेहद दिक्कत आती थी, कई चूहे मरते नहीं थे, तो कई चूहे एकाएक उछलकर उसके शरीर पर आ जाते थे, जिससे उसे लगता था कि वे उससे दया की भीख मांग रहे हैं, लेकिन चूंकि उसे एक चूहे के पांच रूपये मिलते थे और पांच रूपये से वह भूख के बुलबुलों को खत्म करना चाहता था इसलिए वह उन्हें मार देता था. जल्द ही वह उस काम में एक्सपर्ट हो गया और उसे यह काम अच्छा लगने लगा.
एक दिन उसने एक अखबार में चूहे मारते हुए खुदकी फोटो देखी तो पहले तो वह बहुत खुश हुआ, लेकिन बाद में उसे लगा कि चूंकि वह सपनों के शहर में है, और यदि चूहे मारने की फोटो भी अखबार में छप सकती है तो फिर उसे इससे भी अच्छा काम करना चाहिए. इस तरह उसने इस काम को छोडने का फैसला किया, उसे याद था कि जिस दिन इस काम पर उसका आखिरी दिन था उसने कई चूहों को नहीं मारा था क्योंकि उसे लग रहा था कि वह उसके सपनों को ही मार रहा था.
दूसरा काम उसने समंदर से मछली भरकर हाट में पहुंचाने का किया, जिससे वह सालों-साल सपनों के शहर के उस हिस्से में घूमता रहा जहां, सपने ही नहीं थे, और जो थे वह उसे मरी हुई मछलियों की तरह तडपते हुए ही दिखाई देते थे, उसने देखा कि इस तरह के काम करने से उसका सपना भद्भा, गंदा और कुरूप होता जा रहा है और वह यदि यही काम करता रहा तो उसका सपना तो छोडिए वह खुद ही टूट जाएगा, इसलिए उसने वह काम भी छोड दिया. इसके बाद वह जगह-जगह होटलों में मस्का पहुंचाने का काम करने लगा, इस काम में वह दोनों हाथों में मस्का लेकर दिन-रात लाखों सपनों को ढोने वाली, भीड भरी ट्रेन में चढता था और सुबह से शाम तक मस्का पहुंचाता रहता था, पर मस्का पहुंचाते-पहुंचाते उसे समझ आया कि उसके हाथ मक्खन की तरह हो गए हैं, इसलिए वह इन हाथों का दूसरी तरह से उपयोग कर सकता है, सो उसने वह काम भी छोड दिया और लोगों की मालिश करने का काम खोजा. यह काम उसे काफी रास आने लगा, क्योंकि इससे उसके सपने की भी मालिश होने लगी थी. साथ में उस लडकी की भी जो उसके भीतर रहती थी और जो उसे फिल्म देखने के बाद हर एक दूसरी लडकी में दिखाई देती थी. इस तरह मालिश के जरिये उसे फिर से लडकियां देखने की इच्छा होने लगी और उसके भीतर एक लडकी उग आई. वह मालिश करने के बाद घर आकर अपने नरम हाथों से कांच के सामने खडे होकर भीतर की लडकी की मालिश करने लगा. इस मालिश से उसके बदन की भी सिंकाई होने लगी और जल्द ही उसे महसूस होने लगा कि रोजाना सुंदर सजी धजी लडकियों को देखकर उसे बेचैन होने की जरूरत नहीं थी क्योंकि वह जब चाहता था अपने भीतर बडी हो रही उस लडकी से प्यार कर सकता था. इस तरह वह कई सालों तक समंदर किनारे सरसों के तेल से थके-मांदे लोगों की मालिश करता रहा और धीरे धीरे उसने घर जाकर भी अपने ग्राहकों की मालिश करना शुरू कर दिया. समुंदर किनारे और ग्राहकों के घर पर उनकी मालिश करते हुए वह अक्सर उन्हें अपने बचपन के बहुत सारे सपनों के बारे में बताया करता और उस लडकी के बारे में भी जो मालिश करने के दौरान उसे लडकी ही बना देती थी. अपने ग्राहकों को वह उन सपनों में से उसके चुने हुए एक सपने के बारे में भी बताता था.
इस तरह घर पर मसाज सर्विस देने से उसकी आमदानी ज्यादा होने लगी और इस काम से उसे उसका सपना भी साकार होता नजर आने लगा. इस काम को करते हुए उसने देखा कि उसके सपने पहले से कहीं ज्यादा रंगीन हो चुके थे. शहर की ऑक्सिजन ने उसके सपनों को फिर से रंगीन बना दिया था. अब तो उसे यकीन होने लगा था कि वह इस शहर में हर तीसरे मिनिट में, हर चौथे आदमी कि किस्मत बदल जाती है और उसके सपने पूरे हो जाते हैं.
वह मालिश बहुत अच्छी करता था, और घर पर जा-जाकर उसने बहुत सा पैसा बना लिया था, इसलिए जल्द ही उसने समंदर किनारे तेल का डिब्बा लेकर घूमना छोड दिया था और कमाए गए पैसों से कार्ड भी छपवा लिए थे, जिसे वह सुबह–शाम समंदर किनारे ताजी हवा खाने आने वाले पुरूष और स्त्रियों दोनों को देने लगा था. वैसे कार्ड छपवाकर सीधे घर पर सर्विस देने का अच्छा आइडिया उसने अपने दोस्तों को भी दिया था जिससे वे भी ज्यादा पैसे कमा सके, लेकिन उसके दोस्त उसकी तरह कस्टमर्स को संतुष्ट नहीं कर पाए थे, इसलिए समुंदर किनारे उसकी डिमांड काफी बढ गई थी. बाद में मालिश करते-करते उसकी भी काफी सेहत बन गई थी और वह काफी सुंदर भी दिखने लगा था. चूंकि इस काम से उसे आमदानी ज्यादा होने लगी थी, इसलिए सपनों के शहर में उसने पहली बार कुछ फिल्में देखीं थीं, और उसे अहसास हुआ था कि फिल्म में हीरो बनने के लिए केवल चेहरा ही नहीं, बल्कि नाचना, गाना, एक्टिंग करना भी आना चाहिए जिसमें वह पहले ही मास्टर था, लेकिन वैसा नहीं था जैसा होना चाहिए था. फिर इसके अलावा गुंडों को मारने के लिए हीरो के पास चुस्त-दुरूस्त बदन भी होना जरूरी है, जिसे देखकर सिनेमा हॉल में दर्शक वाह-वाह कर उठे. इस तरह सिनेमा हॉल से कुछ पिक्चरें देखकर निकलने के दौरान उसे बाकी सारी चीजें तो समझ में आईं, लेकिन उसे उसके शरीर पर काफी तरस आया क्योंकि रोजाना ज्यादा मसाज सर्विस देने की वजह से उसका शरीर काफी थुलथुला और बेढोल हो गया था इसलिए अपने सपने को बचाने के लिए उसने रोजाना मालिश नहीं करने का फैसला लिया.
पर हां रोटी की जगह ब्राउन ब्रेड खरीदने के लिए पैसे तो चाहिए थे इसलिए हफ्ते में अब वह केवल एक बार कुछ चुनिंदा कस्टमर्स के यहां जाने लगा जबकि बाकी समय अपनी छोटी सी किराए की चॉल में हीरो के जैसे शरीर बनाने में जुट गया. चूंकि चौथे लडके पास पैसा आ गया था इसलिए जल्द ही वह यहीं आकर रहने लगा.
यहां आकर, आदिल भाई, यहां कहां रहता था वह, तीसरा लडका जो पहले सोया था, लेकिन चौथे-लडके की कहानी बंद आंखों और खुले कानों से सुन रहा था, उसने अधेड आदमी की धारा प्रवाह बातों को एकाएक तोडते हुए पूछा.
हां, यही रहने लगा,
भाई यहां कहां रहता था वह,
बस यहीं उपर ही रहता था, आदिल भाई ने एक उबासी लेते हुए बगल में बैठे अंजुम को देखते हुए कहा.
बाहर बूंदाबांदी हो रही थी, रात के सवा तीन बज रहे थे, बाहर का पसरा मौन अब कमरे के भीतर प्रवेश कर रहा था. घंटों पहले बनी चाय की प्यालियां सूखी दिखाई दे रही थी, जबकि कमरे में तीनों लडकों के चेहरे पर सपने तैर रहे थे.
फिर, फिर क्या हुआ, आदिल भाई, यार ये लडका तो गजब का स्मॉर्ट निकला, साला बना कि नहीं हीरो.
आदिल भाई को झपकी लग गई थी, थकान उनके चेहरे पर वैसी ही पसरी थी जैसी सपनों के शहर की गलियों में इस वक्त सन्नाटा, वे सोना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अंगडाई लेते हुए कहा बाकी कि कहानी कल, अब बहुत नींद आ रही है. उन्हें झपकी लेता देख, मिनर्वा ने कहा, भाई आप सोना मत, बताइए न चौथे लडके का क्या हुआ वो हीरो बना कि नहीं, आदिल भाई का चेहरा देखकर लग रहा था कि वो बहुत थक चुके थे, उनकी थकान देखकर मिनर्वा ने कहा-चाय बनाओ यार, भाई के लिए, ये भैन चौ.., चौथा लडका जीने नहीं देगा,
आदिल भाई कुर्सी से खडे हो गए और बोले- लौंडों कल सुनना बाकी, उस चौथे ने बहुत लौंडों को हिला दिया, आदिल भाई की बात सुनकर कमरे में तीनों लडकों की आंखों से नींद गायब हो चुकी थी, लेकिन आदिल भाई के आंखों में नींद का समुंदर उलट रहा था इसलिए उनके लिए एक मिनिट भी और बैठना व बोलना मुश्किल था. वे मिनर्वा की बात सुनते ही बोले, अब कोई चाय, न कोई सिगरेट, इतना कहते ही आदिल भाई कुर्सी से उठ खडे हुए और अंगडाई लेते उस फ्लैट के दूसरे कमरे सोने के लिए चले गए, जिसकी लाइट दो मिनिट के लिए जली और जल्द ही उनके खर्राटों के साथ अंधेरे में डूब गई.
कमरे में अब तीनों लडकों के भीतर चौथा-लडका बैचेनी के साथ सांसे ले रहा था. वे तीनों ही बाहर बिल्डिंग के कंपाउंड में सिगरेट फूंक रहे थे, कुत्तों का भौंकना लगातार जारी था, बारिश के बाद धुली हुई सडक की सपाटता रात में घुल रही थी. कुछ देर इधर उधर की बतियाने के बाद तीनों लडकों ने चौथे लडके के सपने को लेकर किसी भी तरह का अंदेशा या नया सपना नहीं गढने की सोची, और आपस में बजाय किसी शर्त लगाने के इस बात पर सहमति बनाई कि वे कल सुबह आदिल भाई जैसे सपनों के शहर के बेहद अनुभवी और फिल्म इंडस्ट्री के बडे प्लेटफार्म कहे जाने वाले आदमी से चौथे-लडके के सपने के बारे में उनसे ही जानेंगे, लिहाजा तीनों लडके एक-एक सिगरेट फूंकने के बाद कमरे में आ गए और रात के स्याह अंधेरे से भरा वह कमरा सपनों में तब्दील हो गया.
पहला लडका जिसका नाम मिनर्वा था, और जिसकी उम्र सपनों के शहर में सात साल से भी ज्यादा हो रही थी, जो बहुत मेहनती था, और मैकडॉनल्ड में एक बैरा था, वह उस अंधेरे कमरे में एक रंगीन सपना देख रहा था जिसमें वह हीरो बन गया था और एक प्रोड्यूसर के घर उसकी मसाज कर रहा था. उसके चेहरे पर एक मुस्कुराहट तैर रही थी.
दूसरा लडका जिसका नाम अंजुम था और जो सपनों के शहर में विलेन बनने आया था,
अपने मोबाइल में उस आदमी का नंबर खोज रहा था, जिसने उसे उस दिन ऑडिशन के टाइम तीन दिनों के लिए अपने फार्मा हाउस में मिलाया था. उसने उसका नंबर खोज लिया था और हल्के से डायल कर, कट करने के बाद, उससे सुबह बात करने की योजना बनाते हुए मुस्कुराकर सपने में डूब रहा था.
कमरे में अंधेरा पसरा हुआ था, बारिश एक बार फिर तेजी से शुरू हो गई थी, तीसरे लडके की आंखों में नींद
नहीं थी, उसने बालकनी में जाकर फिर से एक सिगरेट पी, उसकी आंखों में एक बैचेनी थी जो उस चौथे लडके के सपने को खोज रही थी, अचानक उसने सिगरेट खत्म की और अपने कपडे उतारकर आदिल भाई के कंबल में घुस गया जहां पर वह चौथे-लडके के साथ था.
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सारंग उपाध्याय (January 9, 1984, मध्यमप्रदेश, हरदा)
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में संपादन का अनुभव कविताएँ, कहानी और लेख प्रकाशित फिल्मों में गहरी रूचि और विभिन्न वेबसाइट्स और पोर्टल्स पर फिल्मों पर लगातार लेखन. फिलहाल इन दिनों मुंबई से निकलेन वाले हिंदी अखबार एब्सल्यूट इंडिया में कार्यरत है