शिव किशोर तिवारी
“हिंदी का प्रथम काव्यशास्त्र” कृष्ण कल्पित का ‘कविता-रहस्य’ (2015) छपने के कोई साल भर बाद ई-कामर्स की कृपा से मेरे पास आया (अब गूगल करने पर कविता-रहस्य के नाम पर मेरी ही लिखी एक टिप्पणी का सुराग मिल रहा है, बस). तब यह सोचना स्वाभाविक लगा कि इस अनूठी कृति पर सबका ध्यान जायेगा. आख़िर यह पहला मौक़ा था जब किसी हिंदी कवि ने अपने युग, परिवेश और भाषा के परिप्रेक्ष्य में अपनी भूमिका और प्रासंगिकता को परखने का साहस किया था और अपने अनिर्णय, संदेह, भय, उलझन आदि को खुलकर साझा किया था.
महत्त्वपूर्ण यह नहीं था कि उसने कौन सी नवीन व्युत्पत्ति प्रस्तुत की. महत्त्वपूर्ण यह था एक स्थापित साठ वर्षीय कवि ने अपनी सफलता को एक किनारे डाल अपने आप से पूछने का ख़तरा उठाया – मैं ऐसा क्या कर रहा हूँ जो युग के लिए अर्थ रखता हो. हो सकता है कृति में फैले हुए तमाम एल्यूज़ंस ने पाठक के अंदर आलस्य उत्पन्न किया हो. या संभव है इस कृति की कंगारू शैली ने पढ़ने वालों को हतोत्साहित किया हो. या शायद हिंदी में किताबों के चर्चित-अचर्चित रहने का अपना तर्क हो. मोटी बात यह है कि इस कृति की ख़ास चर्चा नहीं हुई. अब अपनी पहली कुछ पंक्तियों की टिप्पणी के ठीक दो साल यह कुछ विस्तृत टिप्पणी लिखने में प्रवृत् हुआ हूँ.
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(कृष्ण कल्पित) |
लेखक ने भूमिका में बताया है कि वे राजशेखर (9वीं-10वीं शताब्दी) से प्रभावित हैं. राजशेखर का ग्रंथ ‘काव्यमीमांसा’ 18 अधिकरणों में बँटा था ऐसा मानते हैं परंतु केवल 18 अध्यायों का एक अधिकरण अब तक प्राप्त हुआ है. इस अधिकरण का नाम ‘कवि-रहस्य’ है जिससे कल्पित ने अपनी कृति का नाम ग्रहण किया है. राजशेखर के कुल का नाम यायावर था. स्वभाव से भी घुमंतू थे ऐसा प्रतीत होता है. रामशंकर मिश्र के उपन्यास ‘राजशेखर’ में उनकी घुमक्कड़ी का विस्तर वर्णन किया है.
कल्पित ने अपनी कविताओं और वक्तव्यों में कई बार अपनी यायावरी का ज़िक्र किया है. काव्यमीमांसा में जहाँ राजशेखर ने औरों से अलग अपना मत व्यक्त किया है वहाँ ‘इति यायावरीय:’ लिख दिया है. इसी की अनुकृति में कल्पित ने अपने ग्रंथ के हर अध्याय की समाप्ति पर ‘इति यायावरीय’ लिखा है – माने यह कल्पित का मत है. ‘कविता- रहस्य’ को समझने के लिए यह बात महत्वपूर्ण है. तमाम एल्यूज़न और उद्धरणों के बाद यह कल्पित का काव्यशास्त्र है.
परंतु कल्पित राजशेखर की तरह व्यवस्थित नहीं. अलग-अलग अध्यायों की विषयवस्तु उल्लिखित नहीं है यह बड़ी बाधा नहीं है. मुश्किल है लेखक का अचानक एक विषय से दूसरे विषय पर कूद जाना (जिसे मैंने कंगारू शैली कहा है) और बहुत-सी ओवरलैपिंग. पाठकों के लिए मैं विषयवस्तु को व्यवस्थित करने का प्रयास करता हूँ.
प्रथम – अध्याय
कविता-कवि-आलोचना
पहले अध्याय में एक थीम शुरू होती है जो ग्रंथ के अंत तक चलती है – “पूरब की कविता भली औ’ पश्चिम का गद्य”. याने लेखक East is east and west is west इस कथन को नये ढंग से दुहराता है. बाद के अध्यायों में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, ब्रजभाषा, उर्दू और फ़ारसी के काव्य की चर्चा करते हुए इस पौर्वात्य कविता का एक ख़ाका खींचने का प्रयास हुआ है. इस अध्याय में कविता पर जो सूत्र लिखे हैं उनमें भी यह प्रयास स्पष्ट हैं. कुछ तो ऐसे आत्यंतिक सूत्र हैं जिनसे लेखक को स्वय आने वाले अध्यायों में हटना पड़ा है; जैसे-
“कविता पूरब की एक गाँजा पीने वाली सिद्ध योगिनी का नाम है.“
“जीवन की आलोचना गर कविता का काम.
कौन करेगा बच गये इतने सारे काम ..”
यह एक निर्णायक अवस्थिति है कि कविता अन्तर्मुखी, स्वानुभव-केन्द्रित, आत्मतत्त्वान्वेषी और लोकनिरपेक्ष उद्यम है. आर्नल्ड की ‘जीवन की आलोचना’वाली धारणा को यहां सम्पूर्ण नकार रहे हैं. परंतु दूसरे अध्याय में ही कविता की पक्षधरता की वकालत है –
“कविता प्रताड़ित और निर्धन के हृदय की हाय है
यह सनातन विपक्ष है.” (अध्याय 2, पृ 26)
इसी तरह आर्नल्ड के कथन को अध्याय 5 में पुन: उद्धृत करके लेखक उसका इतनी स्पष्टता के साथ प्रत्याख्यान नहीं करता –
“कविता जीवन की आलोचना है या नहीं
कुछ कहा नहीं जा सकता
लेकिन यह पत्थर की लकीर है
कि आलोचना कविता का जीवन है. (पृ 89)
इस अध्याय में लेखक ने कवि और आलोचक के संबंध का भी ज़िक्र किया है. यहां राजशेखर की अवधारणा को दुहराया गया है कि कवि को भावक (पाठक/आलोचक) भी होना चाहिए. लेखक बाद के अध्यायों में भी इस विषय पर कई बार आता है. इसका अभिप्राय है कि कविता एक रचना है न कि “सबल भावों का सहज वन्यप्रवाह” (वर्ड्सवर्थ). इस तरह कल्पित काव्यानुशासन की क्लासिकी भारतीय परंपरा से जुड़ते हैं. गांजा पीने वाली योगिनी का चित्र इस दृष्टि से असंगत लगता है.
यहाँ यह स्पष्ट करते चलें कि जिन अंतर्विरोधों का दृष्टांत ऊपर दिया गया है वे इस युग के हिंदी कवि के अपरिहार्य अंत:संघर्ष से पैदा होते हैं. किसी ने पहली बार इस सत्य का इस तरह सामना किया यही इस ग्रंथ में विशिष्ट है.
द्वितीय – अध्याय
कवि के लिए अध्येय – कवि की मूल प्रकृति –काव्यप्रतिभा- लेखन बनाम वाचन
लेखक राजशेखर के इस निर्देश पर लौटता है – “एक कवि को शास्त्रों का अवगाहन, लोक का अवलोकन और अपने पूर्ववर्ती कवियों की कविताओं का पारायण सूक्ष्म रीति से करना चाहिये.”
कारण?
“इससे पूर्वलोक और परलोक के विलोकन की दिव्य अंतर- दृष्टि प्राप्त होती है.”
पूर्वलोक लेखक का गढ़ा शब्द है. इसका पूर्वकाल के अतिरिक्त अन्य अर्थ संभव नहीं लगता. उसके विपरीतार्थक के रूप में प्रयोग होने के कारण परलोक का अर्थ आने वाली दुनिया याने भविष्य का संसार यह अर्थ लेना पड़ेगा. इन पंक्तियों में भी क्लासिक नियमों के प्रति श्रद्धा दिखती है.
परंतु कवि का जो रूप इस अध्याय में व्यक्त हुआ है वह इतना मासूम नहीं है. लेखक का मत है कि हर नये कवि को पुराने कवि का वध करना होता है. छंद में इस बात को किंचित् कवि-सम्मेलनी भाषा में इस तरह व्यक्त किया गया है –
बिजलियों की तरह झपटता है
क़ातिलों का गिरोह लगता है
क़त्लो गारत के बाद ही यारो
शायरों का नसीब जगता है
स्पष्टत: लेखक का अभिमत है कि पुरानी परिपाटी को नष्ट करके ही नई परिपाटी आ सकती है. यह आधुनिकतावाद – जैसी घोषणा लगती है जिसने रेनेसाँ से आरंभ करके 1900 तक के काव्यशास्त्र को सिर के बल खड़ा कर दिया था. परिवर्तन हर युग में हुआ है, जैसे अंग्रेज़ी में रेस्टोरेशन, आगस्टन, रोमैंटिक, विक्टोरियन आदि युगों में हुआ परंतु 1400 से 1900 तक की काव्यकला को दरकिनार कर एकदम नई काव्यभाषा का निर्माण आधुनिकतावाद ने ही किया. कल्पित का क़त्लो ग़ारत कुछ ऐसे परिवर्तन की बात करता प्रतीत होता है. लेखक संभवत: समकालीन हिंदी कविता के लिए एक नया मुहावरा चाहता है.
काव्य-प्रतिभा की व्याख्या कल्पित राजशेखर की पद्धति पर ही करते हैं जो स्वयं राजशेखर ने पूर्ववर्ती आचार्यों से ग्रहण की है. इसके तत्त्व हैं
1) अवधान या समाधि और
2) अभ्यास. अर्थात् काव्यशक्ति का एक तत्त्व आभ्यंतर और एक बाह्य है. (राजशेखर ने और भी बहुत लिखा है पर कल्पित इतना ही ग्रहण करते हैं.)
राजशेखर ने कारयित्री प्रतिभा और भावयित्री प्रतिभा का भेद माना है जिसे कल्पित ने इन शब्दों में व्यक्त किया है – “कवि बिन भावक कुछ नहीं, भावक बिन कविराज.“ यह बिंदु लेखक पहले अध्याय में भी उठा चुके हैं कि कवि और भावक (पाठक/आलोचक) अन्योन्याश्रित हैं.
इस अध्याय में कविता के वाचन (कहना) को लेखन के ऊपर रखा है. यह भी कविता की पौर्वात्य पद्धति का एक वैशिष्ट्य प्रतीत होता है.
तृतीय – अध्याय
पूरब की कविता – कव्यार्थ– कविता की लोकधर्मिता
यह पूरा अध्याय कल्पित की पूरब की कविता की अवधारणा को समर्पित है, यद्यपि एक जगह ब्रेष्ट भी घुस आये हैं. इस ग्रंथ की सबसे सशक्त पंक्तियां इस अध्याय में हैं –
“कविता दुधारू गाय नहीं होती
जिससे काव्यार्थ दुहा जाता हो
कविता की काया-कहन-शिल्प-कथ्य ही उसका भावार्थ है
कविता अन्तिम अमृत है
जिसे और नहीं निचोड़ा जा सकता.”
इन पंक्तियों में कुछ ऐसा नहीं है जो पहले न कहा गया हो पर जिस समास और प्रभोत्पादकता के साथ यहाँ कहा गया है वह दुर्लभ है. इस उद्धरण की मूल प्रस्तावना यह है कि कविता को अन्य शब्दों में समझना- समझाना निरर्थक है. वह एक पूर्ण ऑर्गैनिक सत्ता है जिसे उसकी पूर्णता में ही समझा जा सकता है.
कविता के संबंध में कल्पित की दूसरी स्थापना है कि वह नैतिक होती है “जिसे पढ़कर बुरे लोग गुस्से से काँपते/ और अच्छे लोग प्रसन्नता से नाचने लगते हैं.“
पूरबी कविता के तीन तत्त्व इस अध्याय में तीन प्रतीकों के माध्यम से बताये गये हैं – क्रौंच के प्रतीक से संस्कृत का काव्य, दूहा या दोहा के माध्यम से देशज या लोक काव्य तथा ग़ज़ल के माध्यम से अरबी-फ़ारसी की काव्य- परंपरा. इन तीनों के संयोग को कल्पित पूरबी कविता मानते हैं ऐसा प्रतीत होता है.
ग्रंथ में बार-बार कविता की लोकधर्मिता का उल्लेख है. इस अध्याय में चलते- चलते लेखक ने दुरूह आधुनिक कविता पर एक उद्धरणीय व्यंग्य किया है –
“सूख गईं नदियाँ सभी, उजड़ गये सब खेत.
गुज़रे थे इस राह से कठिन काव्य के प्रेत..”
चतुर्थ – अध्याय
कवि की प्रासंगिकता – काव्यार्थ – संप्रेषणीयता- मानवीयता
कालिदास का उदाहरण देते हुए कल्पित कहते हैं कि कवि कालजयी (पुरातन पर प्रासंगिक) नहीं बल्कि अकालजयी (शाब्दिक अर्थ अस्पष्ट पर अभिप्राय चिरनवीन, हर युग में नई दृष्टि से प्रासंगिक) होता है. रामायण में ब्रह्मा वाल्मीकि को वर देते हैं कि तुम्हारा लिखा सदैव सत्य होगा. इस उद्धरण के अलावा रामायण से एक अन्य उद्धरण से सहमति प्रकट करते हुए कल्पित कहते हैं कि न केवल काल अपितु स्थान का अतिक्रमण भी कवि के लिए संभव है. राजशेखर को उद्धृत करके लेखक ने कहा है कि कवि भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों को समझने में समर्थ है. कवि की प्रासंगिकता से संबंधित विचारों में नवीनता नहीं है न कोई अनिश्चय. लेकिन पुस्तक में अन्यत्र प्रचुर अनिश्चय है –
“ख़ुदा-ए-सुख़न कहे जाने वाले
मीर तक़ी मीर की क़ब्र कहते हैं
लखनऊ के पास रेलगाड़ी की दो पटरियों के बीच
अपनी क़िस्मत पर आँसू बहा रही है” (पृ 89)
काव्यार्थ और संप्रेषणीयता पर लेखक अलग-अलग तीन प्रकार के विचारों का समर्थन करते हैं जिनमें दो इसी अध्याय से हैं –
1. सरलता कविता का काम नहीं हो सकता : कविता का कार्यभार भाषा की कठिनता/ और उसके अंतरस्यूत गूढ़ रहस्यों को बचाये रखना है. (पृ 14)
2. कविता को एक झीने पर्दे की तरह होना चाहिए/कुछ पर्दा कुछ बेपर्दा /आधा उजाला आधा अँधेरा /चले आओ ये है कविता का डेरा.(पृ 65)
3. (संस्कृत शास्त्रकार को उद्धृत करते हुए) “जो ग्वाले से लेकर स्त्रियों तक को रुचिकर प्रतीत हो, ऐसा काव्य पाठ करने वाला कवि वाग्देवी का परम प्रिय होता है.“
अध्याय के अंत में कविता के माध्यम से युद्ध का विरोध, राष्ट्रीयता का अस्वीकार, काव्य में समानुभूति की प्रधानता आदि पर फुटकर विचार हैं जो अन्य अध्यायों में भी आये हैं.
पंचम – अध्याय
काव्यशास्त्र – प्रेम-कविता – मर्सिया शैली – पश्चम का काव्यशास्त्र – हिंदी कविता का वर्तमान
लेखक ने इस सामान्य तथ्य का उल्लेख किया है काव्यशास्त्र साहित्य के बाद आया. उसके बाद प्लेटो, अरस्तू, क्रोचे, रिचर्ड्स, आर्नल्ड आदि विद्वानों के विचारों का उल्लेख है. मैथ्यू आर्नल्ड को छोड़कर किसी का विरोध नहीं किया है.
प्रेम-कविता को स्त्री-पुरुष के प्रेम तक सीमित करने की निंदा करते हुए कल्पित निराला की ‘सरोज-स्मृति’ को दुनिया की श्रेष्ठ प्रेम कविता ठहराते हैं. सरोज-स्मृति एलेजी है. उसे प्रेम कविता की श्रेणी में रखने का तर्क स्पष्ट नहीं है.
काव्य की मर्सिया शैली की वकालत करते हुए कल्पित संभवत¨अपनी पूरब की कविता का सूत्र इस अध्याय में बनाये रखते हैं.
वर्तमान हिंदी कविता के विषय में लेखक के विचार निराशापूर्ण हैं –
“कविता के इतिहास में कभी-कभी कविता-विहीन समय भी आता है
ऐसे दरिद्र दौर में मसखरे, विट,प्लवक,शौभिक, भाँड़,जम्भक, हलकट,मवाली, नर्तक,गायक इत्यादि कवि के रूप में मशहूर हो जाते हैं और ऐसा तब होता है जब सच्ची कविता अपनी जड़ों से कट जाती है और कविता अनुवादों, अनुदानों और पुरस्कारों के अँधेरों में गुम हो जाती है.”
(विट- विदूषक, प्लवक- रस्सी का खेल दिखाने वाले मदारी, शौभिक- बाज़ीगर, जम्भक–प्रेत (प्रेतविद्या का जानकार?))
षष्ठ – अध्याय
काव्यार्थ – काव्यभाषा – कविता किसलिए – काव्यरचना – कविता में चोरी – नव समीक्षा
काव्यार्थ पर तीसरे अध्याय में जो लिख रखा है वही यहाँ दुहराते हैं –
“कविता का कब हो सका कोई निश्चित अर्थ.
मूल पाठ ही सत्य है व्याख्यायें सब व्यर्थ ..
काव्यभाषा के संदर्भ में लेखक ने किसी “जातीय अलंकार” का उल्लेख किया है और उसे कविता की प्रथम और मूल भाषा बताया है. जातीय अलंकार का “गुण यथार्थ-चित्रण है, बाकी जितने भी अलंकार हैं वे बढ़ाए हुए हैं और आचार्यों के वाग्विलास हेतु हैं”. रुद्रट ने वास्तव्य अलंकारों की श्रेणी में जाति अलंकार का उल्लेख किया है. वास्तव्य अलंकारों के बारे में रुद्रट कहते हैं – “ क्रियते वस्तुस्वरूपकथनम्” अर्थात् ये अलंकार
वास्तविक स्वरूप का कथन करते हैं. कल्पित का जातीय अलंकार यही प्रतीत होता है. (मेरा ख़्याल है कि अधिकांश पाठकों को संस्कृत काव्यशास्त्र में ऐसी अवधारणा पाकर आश्चर्य होगा.) किंतु कविता की भाषा और व्याकरण के बारे में कल्पित सख़्त हैं. शब्द-समृद्धि को वे सबसे आवश्यक मानते हैं. यहां कल्पित ‘हिंदी शब्दसागर’ के विषय में एक टिप्पणी करते हैं जो उनकी ही कविता रेख़्ते के बीज की याद दिलाती है.
काव्यभाषा की चर्चा के बीच इस अध्याय में उद्धृत एक अद्भुत गद्य कविता को साझा करने का लोभ नहीं रोक पा रहा हूँ –
“झरते चले गए थे शब्द खड़खड़-खड़खड़ की डरावनी गूँज भरने लगी थी भीतर धुँधलके में आकाश की धूसर-धूसर देह के बासी कसाव में बेमन से लिपटे हुए दृश्य के तिलिस्म को झकझोरती हुई ठीक वक़्त पर पहुँचती हुई आख़िरी बस में मेरे पिछले सालों के अनुभवों का पतझड़ शुरू हो गया जब वसंत पंचमी से दो दिन पहले लौट रहा था अपने घर पूरे पौने तीन साल बाद अपने बाएं फेफड़े को कविता में गलाकर मैं दुनिया की बेजोड़ कविता हो गया जब मुझे देखा अपने मोतियाबिंद के बावजूद मां ने जिस तरह उसको क्या कभी लिख सकता हूँ
हवा में ठंड बाक़ी थी और मां की हथेलियों में गरमास”
“कविता किसलिए” शीर्षक देकर कल्पित वामन का उद्धरण देते हैं कि कविता का के दो उद्देश्य हैं – भावक के लिए आनंद की सृष्टि करना और
कवि के लिए अक्षय कीर्ति का अर्जन.
दूसरे उद्देश्य से कल्पित सहमत नहीं हैं. कीर्ति कवि को नष्ट करती है यह उनका मत है. पुरस्कारों का भी उन्होंने ग्रंथ में बार-बार विरोध किया है.
कविता में चोरी पर राजशेखर ने बड़े विस्तार से सख़्ती के साथ विचार किया है. कल्पित असहमत नहीं हैं पर अनुकरण को स्वाभाविक मानते हैं.
अंत में अमेरिकी आंदोलन “न्यू क्रिटिसिज़्म” का संक्षिप्त उल्लेख है. कल्पित इस विचारधारा से असहमति जताते हैं.
सप्तम – अध्याय
यह अध्याय इतना बिखरा हुआ है कि ‘की वर्ड’ निकालना असंभव हो गया है. पहले कल्पित उत्तर आधुनिकता का कुछ पंक्तियों में श्राद्ध करते हैं फिर डेरीडा को दो तीन वाक्यों में ख़ारिज करते हैं. मार्क्वाद और उसके सौंदर्यशास्त्र का उल्लेख सहानुभूति के साथ किया गया है. लेखक को विश्वास है कि इस समय दुरवस्था को प्राप्त होने के बावजूद “कविता और मार्क्सवाद अब भी मनुष्यता की आशा हैं”.
उसके बाद इस अध्याय का मुख्य बल उन सामयिक हिंदी कवियों पर है जिनमें कल्पित को भविष्य की हिंदी कविता के बीज दिखते हैं. उद्धृत कवि हैं असद ज़ैदी, आलोकधन्वा, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, अजंता देव और देवी प्रसाद मिश्र. अनुद्धृत परंतु उल्लिखित कवियों में कुमार विकल और ज्ञानेंद्र पति. इन अपवादों के अलावा “समकालीन हिन्दी कविता बहुत सारे ख़राब कवियों- कांवड़ियों का एक विशाल जुलूस है जो डोमाजी उस्ताद के नेतृत्व में जयपुर, दिल्ली, भोपाल, इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस, पटना होते हुए धीरे-धीरे वैद्यनाथ धाम की और बढ़ रहा है.”
उल्लेखनीय है कि लेखक ने किसी भी उद्धृत कवि का नाम नहीं दिया है. जिन पंक्तियों को उन्होंने कविता की नई भाषा के निदर्शन के रूप में उद्धृत किया है उनके बारे में लिखते हैं – “यह ज़रूर किसी दीवाने- दुस्तर- दुर्लभ कवि की रचना होगी ” यह रहस्योद्घाटन मुझे करना पड़ेगा कि कवि देवी प्रसाद मिश्र हैं. पंक्तियाँ ये हैं –
“जिस टमाटर से यवतमाल के किसान का
ताज़ा ख़ून जैसा रिस रहा था
उस टमाटर के बारे में उसने बताया कि
यह जेनेटिकली मॉडिफ़ाइड बीज वाला टमाटर है
जिसके बीज अमेरिका में तैयार किए गए हैं
जान यह पड़ता था कि बहुत लंबे हाथों वाला वह आदमी भी ऐसे ही किसी
बीज से पैदा हुआ था जिसे विकसित करने में अमेरिका ने बरसों मदद की हो”.
तात्पर्य-निर्णय
ग्रंथ की भाषा-शैली कल्पित की कविताओं से अलग नहीं है. कल्पित की एक आकर्षक औघड़ – फक्कड़ शैली है जो इस ग्रंथ में जोम पर है. पर उनके लिखे में जनरलाइज़ेशन बहुत रहते हैं. जनरलाइज़ेशन कभी-कभी किसी परिचित तथ्य, घटना, मिथ या किंवदंती से एक सामान्य पर चामत्कारिक निष्कर्ष के रूप में प्रकट होता है और कभी पूरी तरह सनक जैसा लगता है. कविता में सनक के लिए स्थान होता है पर शास्त्र में नहीं खपता. कविता-रहस्य से एक उदाहरण –
“पूरब की कविता भली औ पश्चिम का गद्य.
कवि को तीनों चाहिए गद्य पद्य औ मद्य.. ( पृ19)
इसका क्या अभिप्राय समझा जाय?
एक दूसरी समस्या है उद्धरणों के अर्थ को अनावश्यक खींचना, जैसे,
“आचार्य वामन काव्यालंकारसूत्रवृत्ति में काव्य-रचना के उद्योग को अभियोग कहते हैं …कविता लिखना यदि अभियोग है तो कवि अभियुक्त है…” (पृ 115)
वामन ने अभियोग शब्द का प्रयोग अभ्यास के अर्थ में किया है. अभ्यास शब्द का प्रयोग अनेक काव्यशास्त्रियों ने किया है. इल्ज़ाम का अभिप्राय कतई नहीं है.
ग्रंथ में परस्पर विरोधी कथन काफी हैं. इसके अलावा शुद्ध सनक के उदाहरण भी हैं, जैसे –
“कोई भी शास्त्र शूद्रों, स्त्रियों, असुरों और मूर्खों की निंदा के बिना पूर्ण नहीं होता जबकि नये ज़माने में इनकी निंदा आलोचना करना जान का जोखिम है.” (पृ 64)
यद्यपि यह वाक्य प्राचीन शास्त्रकारों और आधुनिक पोलिटिकल करेक्टनेस दोनों पर व्यंग्य की तरह ग्रहण किया जायेगा तथापि किताब में इसका कोई पूर्वापर संबंध दिखाई नहीं देता. एक अन्य स्थान में श्लोक और उसके दिये गये अर्थ में साम्य नहीं है (“हंस प्रयच्छ मे कान्तां …” पृष्ठ 95).
इन सभी कारणों से कविता- रहस्य का तात्पर्य-निर्णय दुष्कर है. फिर भी कुछ निष्कर्ष स्पष्ट और दृश्य हैं –
1. पूरब की कविता की वकालत बार–बार की गई है. कल्पित मानते हैं कि समकालीन हिंदी कविता अधिकतर ‘अनुवाद’ है अर्थात् कथ्य और शिल्प दोनों के स्तर पर किसी न किसी विदेशी वाद की अनुगामी है. वे एक नई कविता की सिफ़ारिश करते हैं जो हमारे अपने सरोकारों पर पूरब के शिल्प में लिखी जाय. पूरब के शिल्प से उनका अभिप्राय संस्कृत, प्राकृत आदि भारतीय भाषाओं और अरबी- फ़ारसी की परम्परा से जुड़ा शिल्प है जिसमें पश्चिम के शब्दों, बिंबों और प्रतीकों का अनुकरण न हो. पूरबियत का एक अनिवार्य अंग है श्रव्य परम्परा. कविता न केवल पढ़ी जाय बल्कि सुनाई भी जाय.
2. भाषा के संबंध में कल्पित परम्परावादी हैं. वे शब्द-भांडार और व्याकरण पर बल देते हैं.
3. संप्रेषणीयता को लेखक काम्य मानते हैं पर उसके प्रति कोई ‘डॉग्मैटिक’ दृष्टिकोण अपनाने को तैयार नहीं हैं.
4. समकालीन हिंदी कविता के बारे में लेखक के विचार अनुकूल नहीं है. चंद कवियों को छोड़कर बाक़ी को गिरोहबंद कुकवियों का दल बताया है. कुकविता के मठाधीशों का रूपक डोमाजी उस्ताद नामक एक माफिया सरदार को बनाया है जो मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ भी प्रकट हो चुका है.
5. पश्चिमी विचारधाराओं में लेखक को केवल मार्क्सवाद का भविष्य आशाजनक लगता है हालांकि इस दौर में वह ख़स्ताहाल है.
उपसंहार
हिंदी में यह अपने ढंग की पहली पुस्तक है. मैंने इसे शास्त्र के हिसाब से समझने की कोशिश की है, इसलिए इसकी औघड़ शैली का आकर्षण इस प्रबंध में ठीक से विवेचित नहीं हुआ. पर यदि आपको शास्त्र में रुचि नहीं है तो इसे कविता की तरह पढ़िए.
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२००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त.
हिंदी, असमिया, बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी, सिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और लेखन.