असहमतियों ने मनुष्य के इस संसार को रचा है, विकसित किया है, रहने योग्य बनाये रखा है. असहमतियों की तारीखों से इतिहास की किताबें भरी पड़ी हैं. इसकी प्रशंसा में महाकाव्य लिखे जा सकते हैं. आदि कवि की रचना जैसा कहते हैं असहमति की सृजनेच्छा से पैदा हुई. बुद्ध असहमति की विराट करुणा हैं. भक्त कवियों ने असहमति को कालजयी कविता में बदल दिया. कबीर से बड़ा असहमति का कवि कौन है? महान कलाएँ विराट असहमतियों से पैदा हुई हैं. पिकासो की गुएर्निका असहमति का साहस है.
सहमत समाज नष्ट हो जाता है, पहले वह आंतरिक रोगाणुओं की अनदेखी की आम-सहमति में गिरता है और फिर किसी काल्पनिक लोक में जाकर बिखरने लगता है. मनुष्य अपने असंख्य तौर-तरीकों से जो कुछ भी पैदा करता रहता है उसमें बहुत कुछ ऐसा है जो घातक है. अस्तित्व के लिए खतरा है. उसे समझने का विवेक और उससे असहमति का साहस किसी भी स्वस्थ समाज की न्यूनतम अर्हता है.
सहमति सत्ता मूलक होती है. वह एक बंद व्यवस्था का निर्माण करती है. असहमतियाँ दरवाज़े खोल देती हैं. कालान्तर में असहमतियों की भी सहमति बन जाती है. उससे फिर अंकुरित होती हैं असहमतियाँ.
आधुनिकता से असहमति की अभिव्यक्ति का सुंदर फूल खिला था. ऐसा लगता है वह मुरझा रहा है. उसके पत्ते जीर्ण होकर गिर रहें हैं. उसे सच के जल, साहस की धूप और सौन्दर्य के खाद-पानी की जरूरत है.
इधर आम सहमति की महामारी तेजी से फैली है. नियंत्रित संचार माध्यमों ने इसे वैश्विक बना दिया है. सोच, समझ, सृजन को जैसे अर्थहीन कर दिया गया है. असहमत को संदेह से देखा जा रहा है. असहमति जैसे कुफ़्र हो. ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि असहमति को आवश्यक नागरिक कर्तव्य समझते हुए उसके पक्ष में हम खड़े हों. उसे स्वर दें. असहमतियाँ सिर्फ राजनीतिक नहीं होतीं, उनका दायरा बड़ा है. समाज, संस्कृति सब उसकी परिधि में हैं.
समालोचन ‘असहमति की सौ कविताएँ’ के अपने विशेष अंक का यह पहला हिस्सा प्रस्तुत कर रहा है. इसमें सच, साहस और सौन्दर्य है. ये सबसे पहले कविताएँ हैं. इस अंक में अरुण कमल, विजय कुमार, विष्णु नागर, कुमार अम्बुज, अनामिका, तेजी ग्रोवर, अमिताभ, लाल्टू, कृष्ण कल्पित, कात्यायनी, आशुतोष दुबे, संजय कुंदन, बोधिसत्व, कल्लोल चक्रवर्ती, चंद्रभूषण, मुसाफ़िर बैठा, फ़रीद खान, पंकज चौधरी, अनुज लुगुन, अनिल कार्की, विहाग वैभव, ज्योति शोभा, शचीन्द्र आर्य और विपिन चौधरी शामिल हैं. असहमति का दूसरा अंक भी शीघ्र ही प्रकाशित होगा.
अरुण देव
अ स ह म त विशेषांक (एक) |
मैं असहमत
मैं असहमत सर्वसम्मत
मैं असहमति में उठा एक हाथ
मैं असहमति में कटा एक माथ
लुढ़कता जा रोकता रक्त-रथ के चाक
इतना जहर है, घृणा इतनी, चेहरे सब क्रूर विकृत
जहर की बारिश से बचता रुई का गोला अरक्षित,
कहाँ जाऊँ किधर जाऊँ सब जगह तो काट मार
कहाँ अमृत, जल किधर है, यहाँ तो बस थार थार;
हर ललाट पर ठुँका हुआ है जाति धर्म का ठप्पा
हर बंदा अब खोज रहा है अपना दुश्मन सच्चा,
जब सब हँसते खाते-सोते अपने घर निश्चिन्त
खून भरी एक चीख तभी उठती गलियों को बींध
मैं असहमत मैं असहमत है असह सह मत असहमत
एक कोकिला अमराई में चुप हुए बैठी गगन ताकती
नहीं नहीं यह वो वसंत हा हंत
मैं असहमत मैं असहमत
मैं असहमत
|
अरुण कमल के छह कविता संग्रह, दो आलोचना पुस्तकें, साक्षात्कारों की एक किताब और दो अनुवाद पुस्तकें प्रकाशित हैं. ‘अनुस्वार’ नाम से अनुवाद का एक स्तम्भ. नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, केदारनाथ सिंह की दस-दस कविताओं के अँग्रेजी अनुवाद, लेख सहित, इंडियन लिट्रेचर में प्रकाशित हुए हैं. |
2.
न्याय की तमाम परिभाषाएँ थीं
पर साफ नहीं हुआ कभी
सुनिश्चित अर्थ कौन से हैं
ताकत के ज़ोर पर
कुछ शब्द जन्म लेते थे रोज
और घेराबन्दियाँ रच दी जाती थीं
पाबंदियां थीं रसद पर
रोकथाम हवा पर थी
दृश्य प्रतिबंधित थे
जहाँ हत्या हो रही थी
एक सच को
वहाँ जाना मना था
पानी की घेराबंदी थी
नदियों को बताने थे अपने पासपोर्ट
पहाड़ों के घमंड तोड़े जा रहे थे
बुलडोज़र चले आते थे आधी रात
सोचने की हदें तय थीं
गश्ती निगाहें
भटकते कदमों को रोक कर पूछती थीं
उनकी मंज़िलें
सन्देहों, अनिश्चयों, दुविधाओं, उहापोहों से
बखूबी निपट रहे थे चुंगी अधिकारी
राह में मील के पत्थर भी तो
उन्हीं के लगाए हुए थे
जरूरतें तय करते थे कुछ अदृश्य हुक्मनामे
और
आपके बदन की एक-एक शिरा की
जानकारी उनके यंत्रों में थी
उनके फैसले थे
उनके आदेश
उनकी निर्धारित आचरण संहिताएँ
उनकी मन की बात
और
हुक्मउदूली के ख़िलाफ़
तैयार किये जा रहे थे नए नए अभियोग पत्र
मगर मतभेद फिर भी ज़िंदा रहते थे
साँस चलती थी
अभी जिंदगियाँ खत्म नहीं हुई थीं
अभी हित टकराते थे
संचारबंदिया थीं
पर
एक बच्चा मचल उठता था कहीं
और एक सन्नाटा टूट जाता था कहीं
कहीं पर लचक जाती थी एक टहनी
या एक लहर
अपना उठना और गिरना बंद नहीं करती थी
टूटे हुए थके हुए आदमी की एक बेसुध नींद थी
पर वह बंदा सोया हुआ कहाँ था
उसकी इस नींद में घुस आते थे कुछ सपने
उसकी एक आहत पुकार
या उसकी एक कराह निकलती थी गले से
अचानक सारी घेराबन्दियाँ तोड़ देती थी
सरकारी गज़ट कहीं से इसे यह रोक नहीं पाते थे
हाकिम के ख़िलाफ़
हिस्साकशी की कैसी अजीब अजीब दास्तान थीं
कभी
रिपोर्टर की तरह बादल का एक टुकड़ा
तैरते हुए आता था
वध स्थलों की गवाही रचता हुआ
गुज़र जाता था चुपचाप.
अवज्ञा
|
‘अदृश्य हो जाएंगी सूखी पत्तियॉं, ‘चाहे जिस शक्ल से’, ‘रात पाली’ (कविता संग्रह).‘साठोत्तरी कविता की परिवर्तित दिशाएँ’, ‘कविता की संगत’. ‘अंधेरे समय में विचार’ (आलोचना) आदि प्रकाशित. |
3.
इतनी ताकत न देना मुझे कि
मेरी बेचैनियाँ मुझे धोखा दे जाएँ
मेरा हास्यबोध, हास्यास्पदता बन
लोकप्रियता पाए
मेरी मूर्खताएँ
मेरा पोस्टर बन जाएँ
उन्हें फाड़ना गुनाह हो जाए
मेरी कुटिलताएँ-क्रूरताएँ
वंदनीय मानी जाएँ
उनके मंदिर जगह-जगह बन जाएँ
सुबह-शाम भक्तगण उनमें
कान फोड़ घंटा बजाएँ
मुझे जिंदगी थोड़ी देना
मुझे वहाँ पहुँचने की हिम्मत न देना
जहाँ मैं खुद को जितना धोखा देता जाऊँ
उम्र उतनी लंबी पाता पाऊँ.
एक प्रार्थना
|
कविता संग्रह- फिर कहता हूँ चिड़िया, तालाब में डूबी छह लड़कियाँ, संसार बदल जाएगा, बच्चे, पिता और माँ, कुछ चीज़ें कभी खोई नहीं, हँसने की तरह रोना, घर के बाहर घर, जीवन भी कविता हो सकता है के साथ कहानी-संग्रह, व्यंग्य-संग्रह और जीवनी आदि प्रकाशित. |
4.
जब कवि लेखक पत्रकार
बदल जाते हैं चूहों में
तो सिर्फ़ फैला सकते हैं महामारी
फिर तहख़ानों नालियों घरों में
मंच पर सीढ़ियों पर बिस्तरों पर रास्तों में
कोनों-किनारों के वास्तविक
और आभासी संसार में
ये सब चूहे मरते हुए मिलते हैं
तुम सोचते हो कि ये बेचारे चूहे हैं
ये ख़ुद ही मर रहे हैं ये किसी को क्या मारेंगे
लेकिन फिर चारों तरफ़ दिखते हैं
चूहों की तरह चूहों की मौत मरते लोग
जब बुद्धिजीवी होने लगते हैं चूहे
तो फिर चीं-चीं-चीं करती दुनिया में
कुछ भी नहीं रह जाता विश्वसनीय
तुम किस शहर किस उजाड़ किस आबादी
किस वीरानी में जाकर बचाओगे अपनी जान
कि सब जगह है चूहों की भरमार
अकाल तड़पती हुई मृत्यु के दृश्य
रोज़मर्रा में होने लगे हैं आम
बढ़ता चला जा रहा है चूहों का साम्राज्य
फैल रही है महामारी.
प्लेग
|
कविता संग्रह: ‘किवाड़’-1992, ‘क्रूरता’-1996, ‘अनंतिम’-1998, ‘अतिक्रमण’-2002, ‘अमीरी रेखा’-2011, ‘उपशीर्षक’- 2022. कविताओं का चयन ‘कवि ने कहा’-2012, किताबघर से. राजकमल प्रकाशन से ‘प्रतिनिधि कविताएँ’- 2014.कहानी और अन्य गद्य: ‘इच्छाएँ’-2008.‘थलचर’- 2016.‘मनुष्य का अवकाश’-2020. कहानी संग्रह: ‘मज़ाक़’ आदि प्रकाशित. |
5.
थोड़ा मारा, रोए!
बहुत मारा, सोए!
सोकर तो ताज़ादम हो ही जाती है
यह औरत की जात!
हँस देती है और जिदियाकर बढ़ जाती है आगे
उसी राह पर जिससे उसको धकियाया गया था.
गांधी ने ‘सविनय अवज्ञा’ सीखी थी
औरतों से ही तो.
‘रंगभूमि’ वाले सूरदास बाबा की
शीतल झोंपड़ियाँ हैं औरतें
जितनी दफा ढाहा गया
उठीं उतनी दफा शान से.
उनका जीवन ही प्रत्युत्तर है, एक मलंग नकार
अनुचित का बंकिम प्रतिकार.
‘आयोडेक्स मलिए, काम पे चलिए’
बचपन में सुना हुआ रेडियो विज्ञापन
हौसला बढ़ाता हो शायद!
‘मैं भी कहीं नहीं रुकी’
राबिया हुसैन ने कहा.
तेज़ाब से उसका चेहरा जलाया गया था
लेकिन उस दिलकश लुनाई का सत नहीं जला था
जो हिम्मत माई की जाई हुई बेटियों से
छीन नहीं सकता है कोई!
वह मुझको ‘शीरो’ कैफे में मिली थी!
मैंने उसका हाथ धीरे से थामा वह
मुसका दी
‘बादल भी तेजाब ही तो बरसाते हैं
इन दिनों माटी पर
तो ऐसी बड़ी बात क्या है कि
नाकाम आशिकों ने मेरे मुँह पर
तेज़ाब दे मारा.
भली भई मेरी मटकी फूटी
मैं तो पनिया भरन से छूटी.
अब कोई पीछे नहीं पड़ता
अफवाहों के सिवा.
वह देखिए- वह वहाँ जो सिलाई मशीन धरी है
मेरी ही है.
बिखरी हुई कतरनों की तरह
रंगीन अफ़वाहें भी सारी शाम तलक
मैं बुहारकर एक थैली में देती हूँ कोंच!
मौके पर बहुत काम आती हैं!
अक्सर तो उनकी लग जाती है चिप्पी
किसी का फटा ढंकने में
कभी-कभी उनसे मैं पैचवर्क ओढ़नी बनाती हूँ
पैचवर्ग ओढ़नी जैसे यह ज़िन्दगी
आपकी या मेरी
सुख-दुख की चूलें मिलाकर
क्रॉस स्टिच से कढ़ी,
रोज स्टिच से संवारी
साटिन स्टिच से मढ़ी!
कितनी सदियाँ बीतीं
अब जाकर यह हुनर सधा है!
जो बातें मुझको चुभ जाती हैं
मैं उनकी सुई बना लेती हूँ
चुभी हुई बातों की ही सुई से मैंने
काढ़े हैं फूल सभी धरती पर.
हरे-भरे सारे नजारे
आसमान के ये सितारे
मुझसे ही टँकवाए थे उस खुदा ने!
मेरा पुराना मेहरबान है वह खुदा
सच पूछिए तो है मेरा
एकलौता आशिक वही
बाकी तो सब बाल-बुतरू हैं!
पूरी यह दुनिया ही मेरा
गोद लिया बच्चा हो जैसे.
बच्चों की चिल्ल-पों कान नहीं धरती,
रहती हूं मस्त और किसी से नहीं डरती!’
कहती हुई अबकी राबिया हँसी
और एक बार तो लगा
आठवीं सदी में इराक से चली थी जो
आज वही राबिया फ़क़ीर
सामने बैठी है
हाथ में उसके वही सब्र का धागा
साहस की तीखी सुई
जिससे कि सदियों से
वक्त किया करता है
पाक दिलों की रफ़ूगरी.
(लखनऊ के ‘शीरो’ कैफे की मलंग, कर्मठ नायिकाओं को समर्पित)
शीरो
|
ग़लत पते की चिट्ठी, बीजाक्षर, समय के शहर में, अनुष्टुप, कविता में औरत, खुरदुरी हथेलियाँ, दूब-धान, टोकरी में दिगन्त : थेरी गाथा : 2014, पानी को सब याद था (कविता); स्त्रीत्व का मानचित्र, मन माँजने की ज़रूरत, पानी जो पत्थर पीता है, साझा चूल्हा, त्रिया चरित्रम् : उत्तरकांड, स्वाधीनता का स्त्री-पक्ष (विमर्श); प्रतिनायक (कहानी); एक ठो शहर था, एक थे शेक्सपियर, एक थे चार्ल्स डिकेंस (संस्मरण); आईनासाज़, अवान्तर कथा, दस द्वारे का पींजरा, तिनका तिनके पास (उपन्यास) आदि प्रकाशित |
6.
तुमसे एक उस्ताद के हृदय से मुख़ातिब हूँ, मेरी माँ
वर्ष दो हज़ार सोलह में जिसकी कब्र पेर-लाशेज़ में हम ढूँढ नहीं पाये
मेरी कविता में आना हो तुम्हें
मेरी विस्मृति में तुम आना
कोई एक शब्द हो कोई मन्त्र जिसे उच्चारते हुए भूल जाऊँ
दुआ करो मैं भूल जाऊँ तुम्हें
क्या अंश-मात्र भी देख पायीं तुम्हारी आँखें इस नक्षत्र की छटाएं
एक मशीन के सामने एक तपते हुए कक्ष में
यही और सिर्फ़ यही
बस सिलते हुए कपड़ों से तन्द्रा टूटती रही उन अन्य आँखों की
जिनमें शायद रूह का वास था
वह रूह जो सिर्फ़ दीमक के लिए लिखती थी
वे आँखें सिर्फ़ दीवार की ओर देखतीं, मेरी माँ
तुम्हारी सुन्दर छब से उदास
निस्पृह और निस्पन्द उन आँखों में तुम नहीं थीं
किसी की भी आँख में तुम नहीं हो,
आततायी घेरे हुए हैं तुम्हारी मृत्यु-शैया को
फट चुके हैं मेरे ओंठ उन्हें कोसते हुए मन-ही-मन
फिर मानुस मेरा ख़ुद को भी कोसता है अक्षम्य
माटी मेरी ही तिड़क रही है तुम्हारे विदा लेने से पहले, मेरी माँ
रहम करो कि भूल जाऊँ तुम्हें
कितनी छोटी निकल आयी थी काँच की वह बर्नी
जिसे सर्जन की उँगलियाँ थामे हुए आज भी दिखती हैं मुझे
इतना फैल गया था शोपैं का हृदय
मैं उसी की धुन में मुख़ातिब हूँ तुमसे
“सियाह लहू जो उसने अन्त में उच्चारा था किसी हाइकु सा
काश वह, वाक़ई, वही किंवदन्ती उच्चार देता:
‘मैं सुख के स्रोत पर पहुँच चुका हूँ’”.२
१-विख्यात पोलिश कम्पोज़र जिसका हृदय वारसॉ के एक गिरजाघर में दफ़्न है. पेरिस के पेर-लाशेज़ नामक कब्रिस्तान में शोपैं की कब्र है.
२-पोलिश उपन्यासकार ओलगा टोकारकजुक के उपन्यास उड़ानें में इस सन्दर्भ का वर्णन है.
फ़्रेदेरिक शोपैं का हृदय १
|
छह कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास, एक निबंध संग्रह और लोक कथाओं के घरेलू और बाह्य संसार पर एक विवेचनात्मक पुस्तक आदि प्रकाशित. नोर्वीजी, स्वीडी, फ़्रांसीसी, लात्वी साहित्य से अनेक पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित. |
7.
उसने पूछा कि मैं अंग्रेज़ी के खिलाफ़ क्यों हूँ
मैंने कहा कि चूंकि अंग्रेज़ी मेरे ख़िलाफ़ है
उसने कहा कि पर आपको तो अंग्रेज़ी आती है
मैं हँसा
हँसकर ही उसे समझा सकता था कि
अंग्रेज़ी बोलता मैं दरअसल अपने ही ख़िलाफ़ हूँ.
उसने कहा कि आप राजा जी के ख़िलाफ़ हो
यह आसान बात थी
गोकि खुद को बचाने का तरीका हो सकता था
मैं उसे कहूँ कि अबे, भाग
पर मैंने निहायत शराफ़त से उसे कहा कि
आप बड़े सुंदर आदमी हैं.
तंग आकर वह बोला
आप तो हर बात की मुख़ालफ़त करते हो
खैर आप तो कवि हो.
मुख़ालफ़त
|
एक झील थी बर्फ़ की, डायरी में २३ अक्तूबर, लोग ही चुनेंगे रंग, सुंदर लोग और अन्य कविताएँ, नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध, कोई लकीर सच नहीं होती, चुपचाप अट्टहास कविता संग्रहों के साथ कहानी संग्रह, नाटक और बाल साहित्य आदि प्रकाशित. हावर्ड ज़िन की पुस्तक ’A People’s History of the United States’ के बारह अध्यायों का हिंदी में अनुवाद. जोसेफ कोनरॉड के उपन्यास ’Heart of Darkness’ का ’अंधकूप’ नाम से अनुवाद, अगड़म-बगड़म (आबोल-ताबोल), ह य व र ल, गोपी गवैया बाघा बजैया (बांग्ला से अनूदित), लोग उड़ेंगे, नकलू नडलु बुरे फँसे, अँग्रेजी से अनूदित आदि. |
8.
हत्यारा अकेला होता है
अधिक होते ही हत्यारा कोई नहीं होता
तीन या चार
पांच या सात मिलकर किसी अकेले को कभी भी कहीं भी मार सकते हैं और मारने के बाद आप भारत माता की जय या गौ-हत्या बंद हो के नारे लगा सकते हैं
इसी पद्धति पर चलती हैं पदातिक-टोलियां, पदाति-जत्थे हिंदी-पट्टी के मैदानों पर गश्त करते हुये अलवर से आरा और मुज़फ़्फ़रपुर से मुज़फ़्फ़रनगर तक किसी को मारते हुये किसी को जलाते हुये किसी को नँगा करके घुमाते हुये
कहीं धर्म की हानि तो नहीं हो रही
कहीं विरोध की आवाज़ बची तो नहीं रह गयी
कहीं किसी की भावनाएं भड़की तो नहीं
पदातिक-टोलियां पथ पर करती हैं न्याय
बेहिचक बेख़ौफ़ अब न्याय के लिये कहीं जाने की ज़रूरत नहीं न्याय आपके दरवाज़े तक आयेगा
अदालतें कब तक रोक सकती हैं होते हुये न्याय को
न्याय का नहीं होना ही अन्याय है
न्यायालयों के पास न्याय के अलावा अभी अन्य ज़रूरी और महत्वपूर्ण मसले हैं और अदालतें अपने ही बोझ से दबी हुईं हैं लेकिन न्याय किसी न्यायालय, किसी सरकार की प्रतीक्षा नहीं करता वह कभी भी कहीं भी प्रकट हो सकता है
न्याय रुकता नहीं है होकर रहता है
न्याय होकर रहेगा न्याय किसी का विशेषाधिकार नहीं है न्याय कोई भी कर सकता है कोई भी प्राप्त कर सकता है इसके लिये ख़ुद माननीय न्यायमूर्ति होने की कोई ज़रूरत नहीं
कोई भी हो सकता है न्यायाधीश
वह कोई सड़क का गुंडा भी हो सकता है
मुझे एक दिन नँगा करके सड़क पर घुमाया जायेगा
मैं एक दिन रास्ते में मरा हुआ पाया जाऊँगा !
पथ पर न्याय
|
भीड़ से गुज़रते हुए (1980), बढ़ई का बेटा (1990), कोई अछूता सबद (2003), एक शराबी की सूक्तियाँ (2006), बाग़-ए-बेदिल (2012), हिन्दनामा (२०१९), रेख्ते़ के बीज और अन्य कविताएँ (2022) कविता-संग्रह तथा जाली किताब (उपन्यास) प्रकाशित. |
9.
वह सोचती थी कि इस बार मिलने पर
वह उसे सबसे सुन्दर गीत सुनायेगी
ऐसा कि जिसमें मानो पूरा दिल
निचोड़ कर रख दिया गया हो.
लेकिन होता यह था कि
इन्तज़ार करते हुए और
वक़्त का एक लम्बा फ़ासला तय करते हुए
मिलने का जब समय आता था
तो वह गीत पुराना लगने लगता था.
फिर ज़िन्दगी की बहुत सारी ज़रूरी बातों
और उलझनों में सिर खपाते
एक-दूसरे से विदा होने का समय आ जाता था
और फिर वह सोचती थी कि अगली बार
ऐसा ही गीत वह उसे ज़रूर सुनायेगी
और अगली बार भी वैसा ही होता था.
इसतरह उसकी पूरी ज़िन्दगी
एक मनचाहे सुन्दर गीत का
पीछा करते बीत गयी.
वैसे सोचा जाये तो यह बात भी
अपने आप में
एक बेहद सुन्दर गीत है,
मतलब कि इस तरह जीना भी.
सबसे सुन्दर गीत का पीछा करते हुए
|
‘चेहरों पर आँच’, ‘सात भाइयों के बीच चंपा’, ‘इस पौरुषपूर्ण समय में’, ‘जादू नहीं कविता’, ‘राख अँधेरे की बारिश में’, ‘फ़ुटपाथ पर कुर्सी’ और ‘एक कुहरा पारभाषी’ आदि काव्य-संग्रह प्रकाशित. ‘दुर्ग-द्वार पर दस्तक’, ‘कुछ जीवंत कुछ ज्वलंत’ और ‘षड्यंत्ररत मृतात्माओं के बीच’ आदि विमर्श की पुस्तकें प्रकाशित. |
10.
हत्यारे तुम्हें बुला रहे हैं
अपने मंच पर
हत्या के ख़िलाफ़ बोलने के लिए
मत जाओ वहाँ तुम
मत बेचो उनके हाथ अपनी उदारता
तुम उनकी परीक्षा लो
अपने ओसारे पर
या सुबह-सुबह पार्क में निकल जाओ घूमने
जहाँ तुम्हारे सीने में
दर्जनों गोलियाँ उतारकर
वे रफूचक्कर हो जाएँ हमेशा
भूमिगत रहने.
हत्यारे तुम्हें बुला रहे हैं
|
लम्बी पत्रकारिता. ‘समस्तीपुर और अन्य कविताएँ’, कविता-संग्रह प्रकाशित |
11.
सहमत समवेत के बीच
एक असहमत आवाज़
नक्कारखाने में
अनसुनी रह जाने के बावजूद
एक असहमत आवाज़
अकेले रह जाने
और धमकाए जाने के बाद भी
अपनी एक जगह थमी हुई
एक असहमत आवाज़़
सहमत क्लांति के मलबे से
उठाती हुई सिर
इस छोर से उस छोर तक
तनी हुई प्रत्यंचा सी
निष्कम्प, अचल, अविजित, निर्भय
अन्ततः वही रहेगी प्रतीक्षा में
उसी की प्रतीक्षा रहेगी अन्ततः
असहमत
|
चोर दरवाज़े से, असम्भव सारांश, यक़ीन की आयतें, विदा लेना बाक़ी रहे, सिर्फ़ वसंत नहीं, कविता-संग्रह प्रकाशित. |
12.
कवि
तुम्हें ख़त्म करने के और भी तरीक़े हैं
उनके पास
यह ज़रूरी नहीं कि
सफ़र के दौरान ट्रेन में
तुम्हें गोली मार दी जाए
या अचानक सड़क पर रोककर
तुमसे जबरन कोई
नारा लगाने कहा जाए
और मना करने पर
तुम्हारी जान ले ली जाए
यह भी ज़रूरी नहीं
कि भीड़ तुम पर हमला कर दे
या हिंसा के किसी मामले में
तुम्हारा लिप्त होना बताया जाए
या पड़ोसी देश का जासूस कहा जाए
वे तुम्हारी कविताओं के सामने भूसे की तरह
अपनी कविताओं का ढेर लगा देंगे
वे मसखरों को इतना सम्मानित करेंगे
कि तुम अप्रासंगिक हो जाओगे
वे तुम्हारे नायकों को इतना बदनाम करेंगे
कि तुम संदिग्ध लगने लगोगे.
कुछ और तरीक़े
|
काग़ज़ के प्रदेश में, ‘चुप्पी का शोर’ और ‘योजनाओं का शहर’, दो कहानी-संग्रह- ‘बॉस की पार्टी’ और ‘श्यामलाल का अकेलापन’ और दो उपन्यास ‘टूटने के बाद’ और ‘तीन ताल’ प्रकाशित. |
13.
हमारे बाग से कट कर गई
ताज़िए की लकड़ी हूं.
ताज़िए में जुड़ कर इस्लाम हो गया मैं
मेरी कहानी मुहम्मद साहब के नवासों से गुंथ गई
हसन हुसैन मेरे हो गए
मैं उनका हो गया
रात की रात मैं भी ताजिया हो गया.
वैसे बहुत दूर है मक्का मदीना
बहुत दूर है आमना का आंगन.
वो चरवाहों की बस्ती
वो पानी के लिए हुआ खून खच्चर
वो सलीबें धूप में सूखती लाशे
हसन हुसैन के बाग में पता नहीं
महुए के बिरिछ होते हैं कि नहीं!
पहले मैं एक पंडित का पेड़ था
एक पंडित के बाग में
पंडित को देता फूल फल पत्ते छाया!
अब जब पुराना हो जाएगा ताजिया
सब चमकदार नक्काशियां जब उतर जाएंगी
एक ढांचा भर रह जाएगा ताजिया
मैं ताज़िए से फिर काठ हो जाऊंगा
फिर पता नहीं कहाँ जाऊंगा.
कितनी प्रतीक्षा करनी होगी
कहीं और जुड़ने जुड़ाने में
पंडित के बाग के सब पेड़ अब भी पंडित हैं
सारे फल सारे फूल सारे पात
सारी जड़ें
सब पेड़ो की परछाइयां भी
मैं भी पंडित हूं
ताज़िए में जुड़ा पंडित का पेड़ हूं
जो हसन हुसैन के आंगन की छाया है अब!
भदोही के एक गांव में.
फिर मैंने पाया हमारे
पंडित जी ने ताजिया उठाया जिनका मैं पेड़ था
उन्होंने मुझे कांधा लगाया
करबला पहुंचाया
हसन हुसैन की याद में आंसू बहाया
भदोही के एक गांव में.
ताजिया हमारे बाग की बगल से गुजरा
कुछ दूसरे पेड़ो की छाया में सुस्ताए
ताज़िएदार
और बाग के बगल वाले करबला में
ताज़िए ने मुकाम पाया.
कई बार सोचता हूं तो रुंध जाता है गला
मन धुंआ धुंआ हो उठता है कि
अगर मैं कभी गलती से भी जला
तो पंडित का पेड़ जलेगा या ताजिया की लकड़ी?
मैं एक ताज़िए की लकड़ी!
|
सिर्फ कवि नहीं (1991), हम जो नदियों का संगम हैं (2000), दुख तंत्र ( 2004), खत्म नहीं होती बात(2010) ये चार कविता संग्रह प्रकाशित हैं. लंबी कहानी वृषोत्सर्ग (2005) तारसप्तक कवियों के काव्य सिद्धांत ( शोध प्रबंध) ( 2016) महाभारत यथार्थ कथा नाम से महाभारत के आख्यानों का अध्ययन (2023) आदि प्रकाशित |
14.
बहुत गर्मी है, इतना पसीना-पसीना होने की आदत नहीं
रास्ते में कहीं नहीं दिखीं हमारे मणिपुर की तरह साफ नदियां और झीलें
आप कहते होंगे इन्हें राहत शिविर हमारे लिए राहत कहाँ!
ईसा मसीह से पूछना चाहता हूं कि इतनी मुसीबतें हमारे लिए ही क्यों
हालांकि कहा गया कि दिल्ली की सरहद में घुसने पर
मसीह और अल्लाह को छोड़ सिर्फ ईश्वर की शरण में जाने की इजाजत है
मैं अभी छोटा हूं
उतना बड़ा नहीं हुआ कि ईश्वर और अल्लाह और क्राइस्ट पर बात कर सकूं.
डरी हुई मेरी माँ कहती हैं कभी इस पर बहस करना भी मत.
अपने पहाड़ और जंगल से बहुत दूर यहाँ दिल्ली में
चादर के पार्टीशन वाले एक छोटे कमरे में
हम सात लोग रहते हैं एक साथ गड्डमड्ड
पंखे से उतनी हवा नहीं आती
जितनी खुले आसमान तले हमारे कच्चे घर में आती थी।
यहां सिर्फ एक ही चीज अच्छी है
रात को गोलियों की आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती
न ही एक साथ छिपने और भागने की तैयारी करनी पड़ती है.
फिर भी आदतन रात को आंख खुलती है तो
सब को एक साथ शांति से सोए हुए पाने का सुख मिलता है.
लेकिन इतने छोटे-छोटे दड़बों, दीवारों और बंधनों के बीच
कोई भला कैसे रह सकता है
जहाँ की नदी और आकाश की कालिमा एक दूसरे से होड़ करती है!
पिता को कई बार मजबूरन रहना पड़ा है
राहत शिविरों में
इसलिए उन्हें आदत हो गई है चुप रहने, सिर झुकाने
और स्वीकृति में सिर हिलाने की,
लेकिन हम खुले में रहने वाले
झरने, झीलों और नदियों में नहाने वाले
नोंगिन चिड़िया की एक झलक पाने के लिए
जंगल में कोसों भटकने वाले लड़के बिना जुर्म के जैसे कैद हैं यहां।
सुना है इतनी छोटी-सी दिल्ली
अपने अंदर समाए हुए कई मणिपुर!
मैं जितनी जल्दी हो सके चुराचांदपुर लौट जाना चाहता हूं
अपने परिवार के साथ अपने गांव में
पर बाबा कहते हैं अपना घर राख हो चुका है
नीचे खेत में बंकर बना है जहाँ हम धान उगाते थे
और खूबसूरत खूगा नदी का नीला रंग लाल हो चुका है इतना
मछलियां भी लाल-लाल दिखती हैं।
हमारे मणिपुर में अब ऐसा भी हो रहा है,
दफनाने की जमीन न मिलने के कारण महीनों से इंतजार में हैं शव!
इस शिविर में हम चौदह लड़कों के पास एक किताब है
जिसे हम बारी-बारी से पढ़ते हैं
और सोचते हैं उन दोस्तों के बारे में जो वहीं छूट गए
सुना है उनमें से जो ज़िंदा हैं वे हथियार चलाने की ट्रेनिंग ले रहे हैं
आखिर वे किन्हें मारेंगे?
अपने ही भाइयों और साथियों को?
किताब के पन्ने पलटते ही दिखते हैं जलते हुए पहाड़
ध्वस्त कर दिए गए मकान
और खुले मैंदान में मशाल जलाए लोगों की भीड़,
जिनके साथ खेलता था फुटबॉल, तीर-धनुष और गुलेल चलाने का खेल
उनमें से कुछ अब कभी नहीं लौटेंगे.
वे कौन लोग हैं जिन्होंने हमारे यहां आग लगाई है
और बांट दिया है हम भाइयों को?
वे कौन हैं
जो हमारे पूर्वोत्तर को दिल्ली से दूर रखने की साजिश रचते हैं?
कौन हैं वे जो हमारी माँओं, बहनों को गंदी और चिंकी कहते हैं
बालों के रंग पर फब्ती कसते हुए जो
हमारे लोगों को पीट-पीटकर मार डालते हैं?
आपको हमारे यहां के मोमोज पसंद हैं,
कुंजरानी देवी के लिए आप तालियां बजाते हैं
फिर आपने मौत, हिंसा और विस्थापन के बीच हमें क्यों छोड़ दिया है?
जहाँ के बादल भरे आकाश और नीली नदियों-झीलों की खूबसूरती में
डूब जाने का मन करता है,
और जहाँ सूरज रोज सबसे पहले उगता है,
वहाँ के लोगों की किस्मत में इतना अन्धेरा क्यों है?
हमसे अच्छी तो वह चिड़िया है जो मणिपुर का आकाश छोड़
दिल्ली नहीं आती,
हमारे बादलों भरे आसमान के नीचे
नीली झीलों का किनारा छोड़
और कहीं नहीं खिलते शिरुई लिली के सुंदर फूल.
भूख और पढ़ाई और नौकरी जरूर हमारे हजारों लोगों को
पटक जाती है यहां इस दिल्ली में,
और पहाड़ों में आग लगती है तो
हमें अपने घर, खेत, जंगल, नदियों और झीलों के पास से उठाकर
फेंक दिया जाता है छोटे-छोटे दरबों में
जहाँ बच्चे दूध, बूढ़े दवा और हम पढ़ाई के लिए तरस जाते हैं.
सत्ता और शक्ति के प्रदर्शन में
अब औरतों को नग्न किया जा रहा है
मणिपुर की औरतों को नग्न कर हमें तोड़ देंगे आप
तो गलत समझ रहे हैं
मनोरमा की बलात्कार के बाद हत्या के विरोध में
नग्न महिलाओं का प्रतिरोध शायद आप भूल गए हैं.
सत्ता की बंदूकों के खिलाफ सबसे लंबा प्रदर्शन इसी
मणिपुर की एक दुबली-पतली महिला ने किया था
हमारे दुर्गम पहाड़ों के कठिन जीवन ने हमें अपनी तरह जीना सिखाया है.
जमाने के असंख्य मुक्कों का सामना करने के बाद ही
बन पाती है कोई मैंरीकॉम,
उबड़-खाबड़ रास्तों में भूख व तकलीफों के बीच दुखों का पहाड़ उठाकर ही
यहाँ तक पहुंची हैं मीराबाई चानू
और भूलिए मत, पांच सौ साल पुराने महिलाओं के बाज़ार की
सबसे प्रसिद्ध चीज है सबसे तीखी मिर्च ‘मोरोक’.
राजधानी के राहत शिविर में
|
तस्लीमा नसरीन के लेखों के हिंदी अनुवाद की दो किताबें- ‘दूसरा पक्ष’ और ‘एकला चलो’ प्रकाशित. विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के ‘आरण्यक’ का हिंदी अनुवाद. पहला कविता संग्रह-‘कतार में अंतिम’ पिछले वर्ष प्रकाशित. |
15.
अभी तो लगता है,
पारसी सिर्फ अपने बैंक खातों में
दर्ज आंकड़ों से खेलते होंगे
लेकिन सौ साल भी नहीं गुजरे
देश में अंग्रेजों के जोड़ का
क्रिकेट खेलने वाले वे अकेले थे
बॉलीवुड की जन्मकुंडली में पड़ा
‘पारसी थियेटर’ वे ही चलाते थे
और पहली फुर्सत में भारत की
आजादी का आर्थिक सिद्धांत भी
लंदन से लिखकर भेज देते थे
फिर एक दिन आजादी आ गई
और पचास साल के अंदर ही
पारसी, यहूदी, आर्मीनियाई
एक हवाई किले में बंद हो गए
जिन भी चीजों से सत्ता बनती थी
सारी की सारी ऐसे लोगों के पास गईं
जो न रचना जानते थे, न कुछ खेलते थे
न आजादी में उनकी कोई दिलचस्पी थी
इस तरह उभरी हमारे देश की मुख्यधारा
जिसने देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति को
वेदमंत्रों के अनवरत पाठ के बीच एक शाम
वैचारिक वन से निकाल कर भवन में पहुंचाया
उसी भवन में, जहां से विदा होते हुए
पिछले वाले ‘दलित राष्ट्रपति’
ऐन सामने हाथ जोड़े ताकते रहे
प्रधानमंत्री ने उन्हें देखा तक नहीं
तीन दिन कैमरा उड़ीसा से दिल्ली तक नाचा
340 कमरे गिना दिए, ‘वनवासी’ नहीं बोला
बोलेगा, आदिवासी क्षेत्रों में चुनाव के वक्त
जैसे पिछले को कुछ दिन ‘कोली’ कहा था
यही है हमारी मटमैली मुख्यधारा
जिसकी कोई सहायक धारा नहीं है
जो बाढ़ के पानी की तरह बस्तियों में बहती है
और मैले के रंग में ही सारा कुछ रंग डालती है
यहां जैन भी त्रिशूलधारी दिखना चाहते हैं
बौद्ध-सिक्ख दलाल काम पर लग चुके हैं
कुक्कड़ चबा रहे हिंदू ‘हैं तो शाकाहारी’
और मुसलमान-ईसाई का तुक
भाई-भाई से ऊपर वाले ने ही जोड़ रखा है
इस तरह बनती जा रही है हमारी मुख्यधारा
जैसे बे-सरोसामान कोई ऐसी दुकान
जिसके टूटे शटर पर मोटे काले ब्रश से लिखा है-
नक्कालों से सावधान, हमारी कोई ब्रांच नहीं है.
मुख्यधारा
|
तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत’ (यात्रा-राजनय-इतिहास) और ‘पच्छूं का घर’ (संस्मरणात्मक उपन्यास) से पहले दो कविता संग्रह ‘इतनी रात गए’ और ‘आता रहूँगा तुम्हारे पास’ प्रकाशित. |
16.
जीवन यह
असंख्य असहमति-पत्रों का
पवित्र पुलिंदा
जिसे आस्ताने की सबसे
मजबूत खूँटी पर टाँगे रखा.
चला-चली की वेला तक
चोट सहते और चोट देते रहे जो
पुरखे ही निरंकुश सत्ता को
समझने की प्राथमिक पाठशाला हुए.
असहमतियों ने हमें
कम लहूलुहान नहीं किया.
असहमतियों के लिए जगह
बनाते हुए ही भाई बंधु के साथ
यह जीवन संभव बना.
प्रेम भी कहाँ संभव था
असहमतियों की धारदार कटार को
हृदय में स्थान दिये बगैर.
कविता लिखना तो
कतई असम्भव व्यापार था
असहमतियों को जिये बगैर.
जाति पर टिके समाज से
मेरी गहरी असहमति रहेगी
जहाँ सदा एक का खून चूसकर
दूसरा सदियों से मोटा होता रहा.
मजहबों में बँटी मनुष्यता से
मेरी सहमति बन ही नहीं सकेगी
अकारण जन्मी शत्रुतायें यहाँ
शताब्दियों की जमा मुहब्बत को
अपनी खुरदुरी जीभ से चाट रही हैं.
और यह जो कविता लिखते लिखते
बाज़ार में सामान की तरह सज गये
उन कलमखोरों से आर पार की
लड़ाई इसी जीवन में लड़ी जाएगी.
बताइये, इतनी इतनी असहमतियों
के साथ ज़िंदगी एक गाली नहीं तो और क्या है.
नामंज़ूर!
कान में कह जाता है
भूल गलती कविता का वह नायक
(कि ‘उसको ज़िंदगी की शर्म की सी शर्त नामंज़ूर’).
मैं नहीं मानता!
सरहद पार कोई शायर गाता है सम्मोहक स्वर में.
(संकेत: “उसको ज़िंदगी की शर्म की सी शर्त नामंज़ूर” मुक्तिबोध की मशहूर कविता “भूल गलती” की एक पंक्ति. “मैं नहीं मानता” हबीब जालिब की मशहूर नज़्म.)
असहमति-पत्र
|
दो कविता संग्रह ‘हाथ सुंदर लगते हैं’ तथा ‘यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है’ तथा ‘गद्य वद्य कुछ’ प्रकाशित हैं. |
17.
आसमाँ को झुकाने में यकीं नहीं रखो कवि
याद रखो कवि
एक तो तुम्हारे सिर के ऊपर से ही
आसमाँ शुरू होता है इसलिए उसके झुकने झुकाने की बात ही बेमानी है
दूसरे कोई अंकुश लगी लग्गी नहीं है तेरे पास
और न ही आसमाँ में किसी अंकुश को थामने के प्वाइंट
जो उसे झुकाने के काम आ सके
तू धरा को ही आसमाँ के ऊपर
बिठा आने की जुगत में रह
ऐ ख्वाबी अतीच्छा पालक कवि!
कि अपनी प्रगतिशील उड़ान में
कवि आसमाँ को झुकाने को न बहक
न ना-हक शील त्याग
कि न छोड़ो कवि रचने का विवेक और शील
बल्कि हक़ और कुव्वत पाओ तुम
धरा को आसमाँ के ऊपर पहुंचा आने की
अपने यथोचित श्रम और सामर्थ्य के बूते!
रहो होश में कवि
और रहें होश में सभी कवि तुझ जैसे
कि जोश को अपने ताड़ पर चढ़ा आने के अपने खतरे हैं
कि खजूर पर अटकने के मौके भी
न मिले कहीं गिरने से ऐसे में
कवि इतना न निवेश करो रचना में अपनी
बिम्ब, प्रतीक और अलंकार थोथे
कि रचना में कल्पना की ऊंची उड़ान तेरी
बच्चों के कागज का जहाज उड़ाने तैराने जितना ही
खुशफ़हम सिरज सके!
कवि होश में रहें
|
दो कविता-संग्रह ‘बीमार मानस का गेह’ और ‘विभीषण का दुःख’ प्रकाशित तथा एक सामूहिक काव्य संकलन ‘बिहार-झारखंड की चुनिंदा दलित कविताएँ’ का संपादन. |
18.
जब भीड़ ने कपड़ा उतारा होगा उस औरत का
तो उसका शरीर भी तो
उनकी माँओं जैसा ही नज़र आया होगा.
मैं कल्पना करके समझना चाहता हूँ
कि माँ की छवि से उस औरत की छवि मिलने के बाद
कैसे वे सब और उन्माद से भर गए होंगे
और उसे नंगा घुमाने की लालसा से भर गए होंगे ?
वह माँ ही है जो
किसी भी पुरुष के लिए स्त्री की पहचान
का पहला सन्दर्भ बनती है.
माँ के बाद बहन, नानी, दादी,
फिर प्रेमिका, पत्नी.
फिर बेटी, भतीजी, भांजी.
वे आसमान से टपके नहीं थे.
वे मानव संस्कृति में निर्मित पुरुष थे.
इसलिए यह कल्पना से परे है कि
कैसे उस निर्वस्त्र स्त्री का शरीर उन्हें
माँ, बेटी, बहन, पत्नी जैसा ही नज़र आया
और इसी बात पर उन्होंने
अपने बलात्कारी साथियों को आवाज़ दी –
“हाँ हाँ यह बिल्कुल उनके जैसी ही है.”
क्या यह संभव नहीं है कि
कठुआ और उन्नाव की पीड़िता में
उनको अपनी बेटी ही दिखी
इसलिए उन्होंने बलात्कारियों के समर्थन में
जुलूस निकाले और झंडे भी लहराये
और गुजरात की बिलकीस का चेहरा तो
शत प्रतिशत उनकी पत्नियों जैसा ही दिखा.
इसीलिए उसके बलात्कारियों का स्वागत
फूलमालाओं से हुआ, बिल्कुल उस विज्ञापन की तरह
जहाँ बारातियों का स्वागत पान पराग से होता है,
और उन बलात्कारियों के संस्कार अनुकरणीय भी बताए गए.
माँओं को समझना होगा कि
वे अपनी कोख से जन रही हैं बलात्कारी.
बहनों को भी समझना होगा
कि वे किसी संभावित बलात्कारी पर ही
अपना लाड लुटा रही हैं
जो कभी न कभी उनको
एक भीड़ के सामने फेंक देने वाले हैं
और सरकार द्वारा सम्मानित भी होने वाले हैं.
वह स्त्री उनकी माँ जैसी ही थी
|
गीली मिट्टी पर पंजों के निशान’ (कविता-संग्रह); ‘मास्टर शॉट’ (कहानी-संग्रह); ‘अपनों के बीच अजनबी’ (कथेतर गद्य) आदि प्रकाशित |
19.
भूमिहारों का टिकट कटा
ब्राह्मणों को टिकट मिला
यादवों को ज्यादा सीटें मिली
कुर्मियों को उससे कम.
राजपूत सब पर भारी पड़े
कायस्थों को शहरी क्षेत्र से टिकट मिले.
चमारों को दो सीटें ज्यादा मिलीं
दूसाधों को दो सीटें कम.
वाल्मीकियों ने खटिकों की सीटों पर दावा किया
खटिकों ने राजभरों की सीटों पर.
गुर्जरों ने जाटों के लिए अपनी सीटें छोड़ीं
लोधों ने टिकट के लिए कीं मारामारी.
मल्लाहों का खाता खुला
कुम्हारों का रास्ता बंद.
कहारों ने चक्का जाम किया
हज्जामों ने पार्टी दफ्तर पर बोला हमला.
संतालों ने मुंडाओं को दिया शिकस्त.
अशराफों ने पसमाँदों की सीटें हड़पीं.
यह जातिसभा का चुनाव है
लोकसभा का नहीं!
यह जातिपर्व का लोकतंत्र है
लोकतंत्र का महापर्व नहीं!
जातिपर्व
|
कविता संग्रह ’उस देश की कथा’, ‘किस किस से लड़ोगे’ तथा पिछड़ा वर्ग और आंबेडकर का न्याय दर्शन (संपादित) आदि प्रकाशित. |
20.
इक्कीसवीं सदी की इस बारिश में मैं चिड़ियों को देख रहा हूँ
जबकि मुझे इस वक्त अपनी बेटी के साथ होना चाहिए
उसे चिड़ियों के गीत सुनाने के लिए
मैं चिड़ियों को देख रहा हूँ कि वे बचे हुए पेड़ों की ओर भाग रही हैं
बारिश में अक्सर ठिकाने की दिक्कत होती है
कई बार तो आँधी घोंसलों को उजाड़ देती है
तो कई बार साँप उनके चूजों को निगल जाते हैं
जबकि चिड़ियों के बच्चों के फुदकने का यही समय होता है
लेकिन वे बचे हुए पेड़ों की ओर भाग रही हैं
वे अपना माल-असबाब छोड़ रही हैं
वे चिल्लाती हैं– ‘आग लगी है, आग लगी है, आग लगी है’
वे धू-धू कर जलती आग की लपटों से निकल रही हैं
उनके साथ उनका इतिहास भी पीछे-पीछे भाग रहा है
इक्कीसवीं सदी की सुबह काले घने बादलों को फसलों के लिए बरसना चाहिए
लेकिन जहाँ ये बरस रहे हैं वहाँ किसी बूढ़े के एकलौते सहारे की हत्या हुई है
कहीं अनाथ हो गए बच्चे सिसक रहे हैं
चाँद का आँचल सहेजने वाले बादल वहाँ नंगी स्त्री का बदन ढँक नहीं पा रहे
बेशर्म और निर्दय हो चुकी सदी की पीठ पर बरस रहा है पानी
चिड़ियों को पता है आगे शरणार्थी शिविर है
जहाँ कीचड़ भरा हुआ है
वहाँ न उनके पैरों के निशान बन पायेंगे
न उनके बच्चों की कश्ती वहाँ से समुद्र तक जा सकती है
वे जानती हैं भय और निराशा की दौड़ का कोई ओलिम्पिक नहीं होता
मैं चिड़ियों को देख रहा हूँ वे बचे हुए पेड़ों की ओर भाग रही हैं
पेड़ों की झुलसी हुई हरियाली में इक्कसवीं सदी की सूई चल रही है
यह सूई मणिपुर में टिकती है और समय खूनी हो जाता है
यह नूह की ओर चलती है और बापू के बन्दर सिसकने लगते हैं
कई जगहों से होती हुई यह सूई अभी और कई जगहों की ओर जाएगी
शिकारी इसकी सूई पर सवार हैं धर्मोच्चार करते हुए
मैं चिड़ियों को देख रहा हूँ वे जानती हैं कि कितनी ही बची हैं वे
और कितनी ही गरिमा मिली उनकी स्मृतियों को?
चिड़िया होना ही उनके लिए आफत का होना है
फिर भी वे अपने चिड़िया होने को बचाना चाहती हैं
वे इस बात को ठीक से जानती हैं कि
इस सदी में चिड़ियों का न होना आदमी के होने पर सवाल है.
इक्कीसवीं सदी की बारिश
|
उलगुलान की औरतें, अघोषित उलगुलान, बाघ और सुगना मुंडा की बेटी कविता-संग्रह प्रकाशित. |
21.
दथुली के झुमके बजाते हुए
ईजा ने पहाड़ों के सर पर कंघी फेरी
मूसल को थामते हुए
साँसों के धुन में थिरकी
और ओखल कूटा
रस्सियां जिनसे बांधना था
लकड़ी का गठ्ठड़
उसी से डाला झूला
ईजा के एकान्त में सावन आया
ईजा ताउम्र दोलती रही
जीवन के माध्य से
दुःख और सुख की दोनों दिशाओं में बराबर
भयावह नुकीले, धारदार और तीखे औजारों ने
ईजा के पास रहते हुए
भाषा, संगीत,कला की तालीम ली
छलनी के बहत्तर छेदो ने बोलना सीखा
सूप ने सीखे वाक्य बनाने
हथ चक्की ने धुरी पर नाचना सीखा
घराटों ने सीखी फ़िजिक्स
मथनी ने सीखा गाते हुए
बिन्डे में दही मथना
बहुत दुर्गम थे पहाड़
तिल तिल मथते रहे ईजा को
हाड़ पर साँसों की तार लिए
दुर्गम रास्तों पर अब भी गाती है ईजा
उसने हर उस चीज में लय खोजी
जो भी थमा दी गयी उसे
वाद्य न उसके जन्म पर बजे
न मृत्यु पर बजेंगे.
ईजा और वाद्य
|
उदास बखतों का रमोलिया‘ (कविता-संग्रह, 2015), ’भ्यास कथा तथा अन्य कहानियाँ’ (2015), ’एक तारो दूर चलक्यो’ (गुमनाम कुमाऊँनी लोकगायक भानुराम की रचनाओं का संकलन व सम्पादन, 2016), ‘लोक पहरुवे’ आदि प्रकाशित |
22.
अभी और भी लोग आएंगे
तुम्हारी भाषा में अपना पता पूछते हुए
अभी और भी लोग आएंगे कहते हुए-
हमारे वस्त्रों के भीतर तुमने जिसे टाँग दिया
यह हम नहीं
लोग आएंगे और कविताओं की परत-दर-परत उघाड़ी जाएगी
पंक्तियों के बीच बिच्छू की तरह छिपकर बैठी हुई तुम्हारी घृणा
पकड़ी जाएगी
ध्वनियों के चिमटे से पकड़कर उठायी जाएगी कवि की मंशा
कहानियों के पात्र कहानियों से बाहर निकल आएंगे
जो कहानी में नहीं मौजूद
वह भी आएंगे कहते हुए-
चलो इधर से हटो, यह जमीन मेरी है
अभी पहाड़ आएंगे अपने ठूँठ अर्थों को धकियाते हुए
फूल आएंगे खिलने की यातना लेकर
बाँस आएंगे गालियों में धकेल दिए जाने के विरुद्ध
जुलूस मार्च करते हुए
तुम्हारी भाषा की तलाशी ली जाएगी
गवाही ली जाएगी-
एक कहानी के लिए तुमने कितने बच्चों को मार दिया
एक टुच्ची सी कविता के लिए कितनी स्त्रियों को नंगा किया ?
अभी बहुत से लोग आएंगे नारे लगाते हुए
तुम्हें उन सबको सुनना होगा
दु:ख की छाया से नहीं रचा जा सकता दुःख
नदियों की गवाही नदियाँ देंगी
मनुष्य शब्द से बहुत बड़ा है मनुष्य
तुम्हारी कहानी के ख़िलाफ़ आएंगे कहानी के पात्र
तुम्हारी कविता के ख़िलाफ़ आएंगे कविता के दुःख
विरोध करेंगे, धरने देंगे, नारे लगाएंगे
अभी और भी बहुत से लोग आएंगे.
अभी और भी लोग आएंगे
|
पहला कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य |
23.
बावजूद के ठंड में ठिठुरी है भोर
और नहीं दिखता प्रजा को राजा का अहंकार
मैं आ सकती हूँ तुम्हारे पास
अपनी कमीज़ पर वही पुराना नारा लिख के
बावजूद के धरने पर बैठे हैं बस चालक
और मुझे चल कर पार करना है हावड़ा ब्रिज
मैं बांधे लाती हूँ पल्लू में काले तिल और गुड़
अंत तक बचे रहना अधिक जरूरी है
ग्रीवा पर दिए गए सभी चुंबनों से
भूख खा जाती है भूख को
बावजूद के पेट भरा है
मैं नहीं खा पाती हूँ अपने देश का अतीत
रात गए छपते अख़बार में
वह रोज़ दोहराया जाता है मेरे सामने
बावजूद के रोबी हिन्दू थे
क़ाज़ी नज़रुल मुस्लिम
बांग्ला साहित्य में खोजती हूँ कवियों को तो
छज्जे पर बैठे पाखियों की तरह
पंक्तिबद्ध देखती हूँ उन्हें
तुम्हारी स्मृतियों के कारन मारी जाऊँगी
नहीं तो उनके बिना मरूँगी किसी रोज़
यह जान कर भी नहीं बचती हूँ लिखने से
कि मेरे केश की लट अटकी है
तुम्हारे वक्षों के अरण्य में
बावजूद के प्रलोभन गाढ़ा है
नहीं जाती मैं जल में डोंगियों के पीछे
देश छोड़ने से और मिल कर लौटने से
साँस उखड़ती है.
अंत तक बचे रहना अधिक जरूरी है
|
‘बिखरे किस्से‘ और ‘चाँदनी के श्वेत पुष्प’ कविता संग्रह प्रकाशित. |
24.
धूल ही है, जो चारों तरफ है
कभी
किसी कागज़ पर, किसी किताब पर
किसी कपड़े, किसी चेहरे पर
मेज पर,
आईने पर,
कभी बर्तन पर,
कभी किसी सच पर,
कभी किसी झूठ पर.
यह धूल ही है
हमारी आंखों में
पलकों के पास, दिमाग पर.
इधर ‘आंख में धूल झोंकना’,
मुहावरा न होकर जीवन हो गया है.
इसी में सब धुंधला-धुंधला सा गया.
कहीं कुछ साफ-साफ दिखाई नहीं देता.
धूल कितनी भी क्यों न हो,
धूल के बारे में
एक बात,
कभी भूलनी नहीं चाहिए,
धूल हटाने पर हट जाती है,
चाहे जहाँ भी हो.
धूल
|
‘दोस्तोएवस्की का घोड़ा’ शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित. |
25.
कोई तुमसे बहस में उतरना चाहता हो
कह दो, नहीं जानता
नहीं जानता बस
नहीं जानता मैं कुछ
नहीं जानता इस दुनिया को,
इसके व्यवहार को
इसके प्रेम करके मुकर जाने के स्वभाव को नहीं जानता
मैं कुछ भी नहीं जानता
नहीं जानता कि मैंने रत्ती भर भी जो सीखा था वह कैसे और क्यों सीखा था
और आखिर सीखा भी था तो किसलिए
पर अब नहीं जानता
कुछ नहीं जानता
कुछ भी नहीं
सुन लो आज अभी
यही कहूँगा मृत्यु के रोज़ भी,
“मैं कुछ नहीं जानता, कुछ भी नहीं”
कह दो, नहीं जानता
|
अँधेरे के मध्य से, एक बार फिर कविता-संग्रह प्रकाशित. |
संकलन और संपादन
|
बढ़िया पर ऐसे विशेष अंक प्रकाशित हो तो लम्बे समय तक सहेज कर रख सकते है और जब मन करें पढ़ सकते है
कोशिश करिए कि साल में दो अंक हार्ड कॉपी में आये भाई साहब
असहमति की जबर्दस्त व्याख्या की है आपने। व्याख्या भी आपकी पोईटिक है। अपनी हर गतिविधि में डाइवर्सिटी (विविधता) को लागू करना असहमति का सबसे बड़ा लक्षण है जिसका आपने अपने इस चयन मे भी बाखूबी पालन किया है।
बहुत आभार।
आपकी संक्षिप्त लेकिन प्रभावी संपादकीय टीप उल्लेखनीय है। कविताएँ धीरे-धीरे पढ़ी जाएँगी। । इस अंक की परिकल्पना के लिए #बधाई।
अनेक कवियों की महत्वपूर्ण
कविताएँ भी आगे आएँगी ही।
शुभकामनाएँ।
☘️🌺
इस संग्रह का स्वागत।
भूमिका बहुत अच्छी लिखी है आपने। यह पंक्ति तो याद रह जानेवाली है–कालांतर में असहमतियों की भी सहमति बन जाती है, उससे फिर अंकुरित होती हैं असहमतियाँ।
असहमत होना
——————–
असहमत होना एक जोखिम और साहसिक कार्य है।
जो आपसे असहमत होते हैं वे आपके प्रति एक जीवित इकाई होते हैं। असहमत होना विरोधी या दुश्मन होना नहीं है।
जो लोग मुझसे सहमत होते हैं उनसे मैं खुश होता हूँ।
लेकिन जो मुझसे असहमत होते हैं उनसे घृणा नहीं कर पाता।
“सहमत” एक प्यारा शब्द है लेकिन “अ” उपसर्ग इस शब्द को खूबसूरत बना कर धड़कन प्रदान करता है।
जो आपसे असहमत होता है वह दरअसल आपसे अधिक प्यार और आपके लिए अधिक फिक्रमंद होता है।
असहमति एकालाप के कर्णभेदी शोर को तोड़ता हुआ एक मधुर संगीत है जो अक्सर हम सुनना नहीं चाहते।
जब हम किसी से असहमत होते हैं तो उसे सबसे सुंदर और नायाब बना रहे होते हैं।
जब मैं पॉपकॉर्न खा रहा होता हूँ तो बगैर फूटे मक्का के दानें (जो दाँतों को चुभते हैं) मुझे अधिक स्वाद देते हैं। मुझे लगता है “जी हुज़ूर शोर” के बीच “नहीं” कहने वाले अभी बचे हुए हैं। यकीन मानिए ये बचे हुए अल्पसंख्यक ही इस नष्ट हो रही दुनिया को बचाएँगे।
“जी-हुज़ूर शोर” अद्भुत पत्रकार राजेन्द्र माथुर के एक लेख के शीर्षक का अंश है।
जब हम किसी से एकदम सटे होते हैं तो उसे ठीक से देख नहीं पाते। ठीक से देखने के लिए यह थोड़ा-सा फासला ही असहमति है।
यह पोस्ट बाप के कंधे पर बैठ कर जुलूस देख रहे उस अबोध बच्चे ने लिखवाई है जो लगातार कह रहा था कि “राजा नंगा है”।
मैंने युवा कवयित्री Pallavi Trivedi की कविताएँ ‘रेखांकित’ स्तम्भ में छापी थी। उनकी एक कविता की अंतिम पंक्ति है –‘ एक ऐसा इंसान न मिला जो/ मुझे प्रेम करता मेरे ‘ना’ के साथ’।
आपके सामने यदि कोई असहमत खड़ा है तो आपके सामने एक भरपूर जीवन खड़ा है –साँस लेता, धड़कता हुआ। उसे प्यार करना ज़रूरी है।
विश्वास है आप मेरी इन बातों से ज़रूर असहमत होंगे! 🙂
बहुत सुंदर है।
जब बुद्धिजीवी होने लगते हैं चूहे
तो फिर चीं-चीं-चीं करती दुनिया में
कुछ भी नहीं रह जाता विश्वसनीय
कुमार अंबुज
वाक़ई हमारा समय बहुत खराब होता जा रहा है।
इस बीच यह पहल उस बोध को और गहरा
करने के लिए भी सराहनीय है।
इस बात की खुशी है कि अभी और पढ़ने को मिलेगा।
अरुण देव जी मैं असहमत के लिए पूरी सहमति।❤️❤️❤️
सब कविता सुन्दर है।
समालोचन की प्रतिबद्धता को सलाम। पढ़ के अपना मत साझा बाद मे करता हूं। फिलहाल अनुज लुगुन के फटो इधर उधर हो गया है। कृपया डीडिट कर लें।
फोटो ठीक लगा है.
असहमति के अर्थ को आपकी संपादकीय टिप्पणी ने एक व्यापक धरातल दिया है ।
असहमति के स्वरों में मेरा स्वर मिला लें । कविता लिखनी नहीं आती । परंतु सत्ता के ज़ुल्मों के खिलाफ़ कविताएँ लिखी कविताओं में मेरी गिनती कर लीजिये ।
असहमति से संबंधित मौलिक विवेचन केवल अप्रतिम!बहुत बहुत धन्यवाद,
सृजन के नाम पर एक भ्रामक कोलाहल में आपादमस्तक डूबे इस अपारदर्शी समय में इस अंक का आना एक महत्वपूर्ण रचनात्मक हस्तक्षेप माना जाएगा। कविता के किसी भी गंभीर और एकनिष्ठ पाठक के लिए तो यह विशिष्ट और संग्रहणीय अंक है ही। संपादकीय टिप्पणी शानदार है और इसलिए भी उल्लेखनीय है क्योंकि यह अंक की आवश्यकता और इन कविताओं के प्रयोजन को स्पष्ट और सुविचारित ढंग से व्याख्यायित करती है। भाई अरुण देव जी की संपादकीय प्रतिबद्धता और वैचारिक अंतर्दृष्टि का कायल पहले से रहा हूँ। उनको हार्दिक बधाई और उनकी मेहनत को फिर से सलाम।
ये कविताएँ ज़रा ठहर कर पढ़ी जाने की तलबगार हैं। इस अंक को खंडों में लाने के विचार के पीछे का फ़लसफ़ा भी शायद यही रहा हो।
अधिकांश कविताएँ अच्छी हैं। कुछेक औसत कविताएँ भी हैं, और यह कहने की मुआफ़ी चाहूँगा कि कुछ कविताएँ निराश करती हैं। कई शीर्ष कवि अपनी कविता में जबरन असहमत होते दिखते हैं। दिक़्क़त यह है कि वे मूलतः असहमति के कवि ही नहीं हैं, सो सिद्ध भाषा के बावजूद उनके प्रयासों की कृत्रिमता का मन में चुभना लाज़िमी है। दो-एक कविताएँ ऐसी भी हैं जहाँ असहमति तो बहुत सहज रूप में उपस्थित है लेकिन उन कविताओं की भाषा और शिल्प से मेरे पाठक की थोड़ी असहमति है। ऐसी दोनों ही तरह की कविताएँ (हालांकि ये गिनी-चुनी हैं) उस संपादकीय मानक पर खरी नहीं उतरती हैं कि ‘ये सबसे पहले कविताएँ हैं।’ मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि कविता की भाषा को इस हद तक नग्न नहीं होना चाहिए कि गद्य की भाषा से उसका भेद करना कठिन हो जाए।
अंक में विजय कुमार, तेजी ग्रोवर, लाल्टू, विष्णु नागर, संजय कुंदन, कल्लोल चक्रवर्ती, नीलकमल, कात्यायनी, विहाग वैभव आदि की कविताओं को विशेष रूप से रेखांकित करना चाहूँगा। इस खंड की ये श्रेष्ठ कविताओं में हैं जो अपने-अपने नज़रिए से हमारे समय की सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों को उद्घाटित करती हैं, उनसे असहमत होती हैं और उनके मुख़ालिफ़ खड़ी होती दिखती हैं। पुनः इस विशेष प्रस्तुति के लिए आभार। शेष खंडों की उत्कट प्रतीक्षा है।