कृष्ण कल्पित की कविता
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पिछले साल राजकमल से प्रकाशित कृष्ण कल्पित की ‘रेख़्ते के बीज और अन्य कविताएं’ का जिस गर्मजोशी से स्वागत होना चाहिए था, मुझे लगता है, उससे वह वंचित रही. इसके क्या कारण रहे होंगे इसका अनुमान लगा पाना मेरे लिए कठिन है, पर यह बात मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि इस संग्रह की अधिकांश कविताएं किसी भी काव्य-प्रेमी को कविता का विशिष्ट आनंद देने में सक्षम हैं. उदाहरण के लिए यदि मैं इसकी कविता ‘बुलबुल सरकार’ को ही लूं तो मैं यह कहूंगा कि प्रेम और कला के जुनून में बरबादी की किसी भी सीमा तक जाने को तैयार लोगों की दास्तानों में यह कविता एक और दुर्लभ दास्तान जोड़ती है.
‘ढोला-मारू’ और ‘मूमल’ जैसी लोककथाओं वाले राजस्थान का यह कवि जब इस दास्तान को भी उन्हीं मिथकीय लोककथाओं के ढांचे में सफलतापूर्वक ढाल लेता है तब इस पुस्तक की प्रस्तावना में उसके इस दावे को स्वीकार करना ज़रूरी हो जाता है कि
‘हिन्दी की प्राचीन कविता–परम्परा में विलुप्त कवियों की भी सुदीर्घ परम्परा रही है. एक कवि के रूप में अपने को [मैं] इसी परम्परा का कवि मानता हूं.’
इस कविता का अपने ढंग का मिथकीय अंत भी इस कवि के बारे में पाठक से इस विशिष्ट दृष्टि की माँग करता है. मैं इसे कवि की रचनात्मक कुशलता कहूंगा कि इसमें निम्नलिखित पंक्तियां जोड़कर इस कविता के अनुभव को वह एक पारम्परिक राजस्थानी लोककथा के अनुभव के साथ-साथ थोड़ा हमारे समय के अनुभव से भी सफलतापूर्वक जोड़ देता है:
‘इसी मूनलाइट थिएटर में कभी हिन्दी का एक कवि शलभ श्रीराम सिंह
टिकट-काउंटर पर टिकट बेचता था.’
नारी-पुरुष प्रेम की अंतरंगता, रहस्यमयता और जादुईपन का इस कवि का अन्वेषण उसकी अनेकानेक कविताओं में देखा जा सकता है.
उदाहरणार्थ इस संग्रह की कविता ‘अमरकोट की सईदा: एक दुर्दांत प्रेम कविता’ को हम सरलता से धर्म और देश की सीमाओं का अतिक्रमण करके प्रेम करने की साहसिक क्षमता का एक काव्यात्मक दस्तावेज़ कह सकते हैं. ‘दुर्दांत’ प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए कवि इस कविता में घर, शरीर, देश और जलवायु से जुड़े अनेक मूर्त और मांसल बिम्बों का प्रयोग करता है:
‘तुम बचाना सईदा बचाना चूल्हे की आँच
आँख में आँसू कंठ में गान कोठरी में अन्न
तुम बचाना अपने लम्बे केश
अपनी आँखें, पाँव, होंठ, हाथ, स्तन
अपने जिस्म को बचाना सईदा
और अपनी आत्मा’
प्रेम-कथाओं में जिस तरह दुर्दांत प्रेम का मुक़ाबला धर्म, शत्रुताओं, दूरियों और तरह-तरह की बाधाओं से होता है उसी तरह इस कविता के ‘पर्सोना’ का भी होता है और इसीलिए इस एक कविता में पाठक अनेक प्रेमकथाओं की प्रतिध्वनियां सुन सकता है (जिनमें मेरे खयाल से ‘उसने कहा था’ को भी शामिल किया जा सकता है).
प्रेम में निहित एक अलौकिक (किंतु शायद कुछ आत्मकथात्मक भी) विरह और समर्पण भाव के चित्रण के लिए इस कवि ने मीरा की शब्दावली का मुक्त प्रयोग 2003 के अपने काव्य-संग्रह बजता हुआ इकतारा: मीरा की कविता और जीवन में भी किया था जिसे संभावना प्रकाशन द्वारा अभी हाल ही में प्रकाशित वापस जाने वाली रेलगाड़ी में सम्मिलित किया गया है.
प्रेम भाव के इस अन्वेषण में यह कवि नई फंतासियों के सृजन से भी परहेज़ नहीं करता. इसे ‘मेरी प्रेम कथाएं रेख़्ते के बीज और अन्य कविताएं’ में भलीभांति देखा जा सकता है. इसी तरह की एक और फंतासी का सृजन यह कवि इस संग्रह की एक अन्य कविता ‘वसंतसेना और गधागाड़ी’ में करता है जो एक विशिष्ट प्रेमकथा का रूप ले लेती है जो साहित्य, इतिहास और समकालीन जीवन के बिम्बों का उपयोग करते हुए पाठक को एक भिन्न प्रकार की सृजनात्मकता से रू-ब-रू करवाती है.
प्रेम-भाव के अन्वेषण का इस कवि का अपना एक स्वतंत्र तरीका है. प्रेम के इस स्वतंत्र अन्वेषण के नमूने हम अन्यत्र भी देख सकते हैं. उदाहरण के लिए मैं जायसी, मीरा, रवीन्द्रनाथ, ग़ालिब, इक़बाल और राजकमल चौधरी के नाम लेना चाहूंगा. कल्पित की ‘बसंतसेना’, ‘जाग मछन्दर’, ‘चेतना पारीक की याद’, ‘एक कुम्हार की कथा ‘और ‘उर्वशी और लकड़बग्घा: एक संवाद’ जैसी कुछ कविताओं को भी मैं इन प्रेम-अन्वेषण कविताओं में ही शामिल करना चाहूंगा.
कृष्ण कल्पित ने इस संग्रह की अनेक व्यंगपूर्ण कविताएं हिंदी कविता के वर्तमान परिदृश्य पर लिखीं हैं जिसे कोई नकार नहीं सकता. यह शायद आज के हमारे समय की ही विशेषता है कि बहुत से लोग किसी भी तरह अपने नाम के साथ ‘कवि’ का विशेषण लग जाने को अपनी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में देखते हैं और इसके लिए कैसा भी प्रयत्न करने को तैयार रहते हैं. इस संग्रह की पहली कविता ‘एकल कविता पाठ’ ऐसे ही एक प्रयत्न के संबंध में लिखी गई है:
‘सब कुछ था वहाँ पर सब कुछ
सिर्फ़ कविता को छोड़कर !’
हिन्दी कविता के आज के इस असंतोषजनक परिदृश्य से उत्पन्न अपनी व्यथा को यह कवि इस संग्रह की दूसरी भी बहुत सी कविताओं में व्यक्त करता है जिनमें ‘टिटहरी की आवाज़’, ‘कबूतर की बीट’, ‘दिल्ली के कवि’, ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’ ‘खंडहर पर घास’ का नाम आसानी से लिया जा सकता है.
किसी पाठक को यह बात किंचित भयजनक लग सकती है कि हत्या और ख़ूनख़राबे से परहेज़ न करने वाला कोई व्यक्ति भी आज अपने आप को कवि या कविता का जानकार और प्रशंसक कहलवाने का इच्छुक हो सकता है. मुझे लगता है कृष्ण कल्पित की ‘दिल्ली के कवि’ और ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’ जैसी कुछ कविताओं को उनके लिए उपयुक्त दृष्टिकोण से नहीं पढ़ा गया है. इन कविताओं को संभवत: अन्य समकालीन कवियों के प्रति उनके विद्वेषपूर्ण रवैये के रूप में देखा गया है जो शायद ठीक नहीं है. वस्तुत: इन कविताओं के व्यक्तिचित्रों को किसी कुशल कार्टूनिस्ट की कला की नज़र से देखा जाना चाहिए.
जिस तरह एक कार्टूनिस्ट किसी व्यक्ति की कुछ आंगिक विशेषताओं को बढ़ा चढ़ाकर दिखाता है और उससे परिहास और मनोरंजन उत्पन्न करने की कोशिश करता है कुछ उसी तरह कृष्ण कल्पित इन कविताओं में कुछ कवियों की चारित्रिक, शैली या जीवन संबंधी कुछ विशेषताओं को उभारकर पाठक के लिए हास्य और मनोरंजन पैदा करते हैं:
‘एक कहता था मैं इतालवी में मरूंगा
एक स्पेनिश में अप्रासंगिक होना चाहता था
एक किसी लुप्तप्राय भाषा के पीछे
छिपता फिरता था’
धर्म के नाम पर भेदभाव या क्रूरता करने वालों के प्रति इस कवि के मन में बहुत गहरा रोष है और वह इसे बड़े सशक्त और प्रभावी तरीके से अपनी कुछ कविताओं में अभिव्यक्त करता है. इस विषय पर कवि की एक बहुत मार्मिक कविता ‘क़त्लगाह/ईदगाह’ है जिसमें प्रेमचंद की एक सुपरिचित और लोकप्रिय कहानी का उपयोग करते हुए यह कवि अपने क्षोभ को अत्यंत काव्यात्मक तरीके से व्यक्त करता है और साहित्य द्वारा लोकमानस में प्रतिष्ठित किए गये और अब तक प्रतिष्ठित रहे सांप्रदायिक सद्भाव को नष्ट करने वालों की इस कविता के माध्यम से कठोर भर्त्सना करता है.
साम्प्रदायिक मामलों में कवि की इस व्यथा को इस संग्रह की कविता ‘कल्पनालोक’ में भी देखा जा सकता है. ‘नया भारत में कवि’ और ‘असली-नक़ली’ जैसी कविताओं में भी हमारे काल के सांप्रदायिक यथार्थ पर कवि का व्यंग काफ़ी कुशलता के साथ व्यक्त हुआ है.
‘सरमद’ की कहानी भी कल्पित को शायद एक कविता की रचना के लिए इसीलिए आकर्षित करती है कि अतीत में भी यह दुनिया सच कहने वालों के प्रति कभी बहुत रहमदिल नहीं रही. सत्य के प्रति निष्ठा रखने वाले लोग इस सबके बावजूद असत्य के साथ समझौते के लिए तैयार नहीं हो पाते और भारी से भारी सज़ा को भी हँसते हुए झेल लेते हैं. इस कविता का पांचवां और अंतिम अंश सचाई के प्रति इस कवि की प्रतिबद्धता को काव्यात्मक अभिव्यक्ति देता है:
‘जब सरमद ने तौबा नहीं की क्षमा मांगने से इंकार कर दिया तो धर्माचार्यों की
सभा और बादशाह की सहमति से शहर क़ाज़ी मुल्ला क़वी ने क़लमदान का
ढक्कन खोला , उसमें क़लम की नोक डुबोई और काग़ज़ पर
सरमद के मृत्युदंड का फ़रमान लिख दिया.’
अपने रेगिस्तानी प्रदेश के प्रति लगाव की जड़ें इस कवि के मन में बहुत गहराई तक पैठी हुई हैं और वे इसकी कविताओं में एक से एक नये रूपों में प्रकट होती है. इस संग्रह की कविता ‘रेगिस्तान’ इस दृष्टि से पठनीय है:
‘यह अपने आप बुहर जाता है
रेगिस्तान को बुहारा नहीं जाता !’
रेगिस्तान में स्थित अनेक कस्बों के चित्र भी कल्पित को आकर्षित करते हैं और उनकी अनेक कविताओं में उभरते रहते हैं. ‘गोरक्षक और हेमिंग्वे का सांड’ ‘बुलबुल सरकार’ और ‘वसंतसेना और गधागाड़ी’ जैसी कविताओं को हम इस प्रसंग में उद्धृत कर सकते हैं.
कृष्ण कल्पित अपनी अनेक कविताओं में किसी हाइकू में प्रयुक्त किए जाने योग्य ‘इमेजिस्ट’ बिम्बों का प्रयोग करते हैं. वापस जाने वाली रेलगाड़ी में पुनर्प्रकाशित उनके काव्य-संग्रह बढ़ई का बेटा की कविताओं में हम इस तरह के कई बिंब देखते हैं. इसी तरह के कुछ रोशन बिंबों का प्रयोग हम रेख़्ते के बीज की अन्य रचनाओं में भी देख सकते हैं. अपनी शैली की मौलिकता में इस कवि का विश्वास हर हाल में अडिग रहा है. इसका प्रमाण बढ़ई का बेटा की ‘दिल्ली के कवि’ शीर्षक कविता है. अपने काव्य की गुणवत्ता को लेकर कृष्ण कल्पित के मन में कहीं कोई संदेह नहीं है. अपने आत्मविश्वास को बरकरार रखते हुए वह अपने आपको हुसैन जैसे चित्रकारों और रुश्दी जैसे मूर्तिभंजक विचारकों की पंक्ति में रखता है. अच्छी कविता की समझ और प्रशंसा की वर्तमान स्थिति को देख कर इस कवि के मन में गहरी निराशा है. पर दादुरों के वक्ता हो जाने पर वह मौन साध लेने में ही वह अपनी भलाई समझता है :
‘कवि हो तो मत कहो कवि हो
छिप कर रहो
किसी अपराधी की तरह’
जहाँ तक कृष्ण कल्पित की काव्य-प्रतिभा का सवाल है, शायद ही कविता का कोई जानकार होगा जो उसे नकार सके. शब्दकोश के कहीं से भी उठाए हुए शब्दों से वह जिस तरह की काव्यात्मकता पैदा कर सकता है उसका एक उदाहरण हमें ‘रेख़्ते के बीज’ की निम्नलिखित पंक्तियों में मिल जाएगा :
‘वे बाहर ही करते हैं क़त्ले-आम तांडव बाहर ही मचाते हैं क़ातिल सिर्फ़
मुसीबत के दिनों में ही आते हैं किसी शब्दकोश की जीर्ण-शीर्ण काया में सर
छिपाने वे ख़ामोश बैठे रहते हैं सर छिपाए क़ाज़ी क़ायदा क़ाबू क़ादिर और
काश के बगल में और क़ाबिले–ज़िक्र बात यह है कि क़ानून और क़ब्रिस्तान
इसके आगे बैठे हुए हैं पिछली कई सदियों से और और इसके आगे बैठे
क़ाबिलीयत और क़ाबिले –रहम पर हम तरस खाते रहते हैं जैसे मर्ग के एक
क़दम आगे ही मरकज़ है और यह कहने में क्या मुरव्वत करना कि मृत्यु
के एकदम पास मरम्मत का काम चलता रहता है’
इसी तरह हमारे द्वारा आम तौर पर सुने जाने इस जुमले से कि ‘बच्चे में ईश्वर बसता है’ इस कवि की कल्पना ‘ईश्वर से मुलाक़ात’ जैसी एक सशक्त कविता निकाल लाती है. इस कविता को लिखते समय हमारे समय के इस कवि के मन में बहुत से वे प्रश्न भी रहे होंगे जो कोई हमारे प्राचीन मन्दिरों की धरोहर को नष्ट करने के सन्दर्भ में पूछता है:
‘मन्दिर यदि प्राचीन नहीं है तो अश्लील लगता है
जर्जरता में ही छिपी होती है अमरता’
‘साइकिल की कहानी’ शीर्षक कविता में यह कवि साइकिल को जिस तरकीब से देवमहिमा-मंडित करता है वह अपने आप में अद्भुत है. इसका मतलब यह नहीं कि हमारे समय के ग़रीबी, विषमता, पर्यावरण और आतंकवाद जैसे मुद्दों को भी यह कविता नहीं छूती; पर इन विषयों को एक अत्यंत जटिल और कलात्मक कीमियागीरी द्वारा यह कविता अपना हिस्सा बनाती है:
‘चलती हुई कोई उम्मीद
ठहरी हुई एक सम्भावना
उड़ती हुई पतंग की अँगुलियों की ठुमक’
कविता के वर्तमान परिदृष्य से उत्पन्न अपनी व्यथा को यह कवि अपनी कुछ अन्य कविताओं में भी प्रकट करता है. ‘दुर्लभ ख्याति’ की ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं:
सामने ख़ामोश रहूं
जब बोलूँ अनुपस्थिति में बोलूँ
जीते-जी क्या बोलना
मरने के बाद बोलूँ
अपने समर्थ और प्रभावी सृजन के बावजूद साहित्यिक उपेक्षा की यह व्यथा इस कवि के मन के उस आंतरिक अंधकारपूर्ण लोक का सृजन करती है जो ‘अविनय पत्रिका’ और ‘ख़ुद की तलाश’ जैसी कविताओं में असफलता और दुर्भाग्य के अनेकानेक बिम्बों में अभिव्यक्ति पाता है.
मैं एक हारा हुआ जुआरी हूँ
एक दिवालिया व्यापारी
एक ठुकराया हुआ कवि
किसी कवि की अतिरिक्त संवेदशीलता ही वस्तुत: उसके दुख का सबसे बड़ा कारण बन जाती है. वह अन्याय को अपने आगे होते हुए देखता है पर उसके बारे में स्वयं दुखी होने के कुछ कर नहीं सकता क्योंकि एक दूसरे ही किस्म के असंवेदनशील बल उसे संचालित कर रहे होते हैं. इस कवि की अच्छी कविता का नोटिस न लिए जाने की व्यथा ‘कविता के विरुद्ध-1’ और ‘कविता के विरुद्ध -2 ‘ में भी अत्यंत मार्मिकता के साथ अभिव्यक्त हुई है. पर ‘कविता के विरुद्ध -3’ का बिम्ब-विधान मुझे इस दृष्टि से अनूठा लगता है. यह कविता जिस दृश्य का सृजन करती है उसे मैं कवि के मन के नैराश्यपूर्ण अंधकार के एक अत्यंत सशक्त ‘ओब्जेक्टिव कोरिलेटिव‘ के रूप में देखता हूँ. दलित उत्थान और नारी-सशक्तीकरण के मुद्दे इस कवि की कविताओं से ग़ायब नहीं हैं. पर ‘नया काफ़िर बोध’ और ‘आम्रपाली एक्सप्रेस’ जैसी कविताओं में वे एक विशिष्ट और नये ही काव्यात्मक रूप में प्रकट होते हैं:
‘लिच्छिवियों ने अपने रथ आम्रपाली के पीछे दौड़ा दिए
चक्कों से चक्के भिड़ा दिए
रास्ता रोक लिया
जितनी चाहे स्वर्ण-मुद्राएं ले लो, आम्रपाली
अपना आमंत्रण हमें हस्तांतरित कर दो
आम्रपाली ने इंकार में सर हिला दिया’
सौन्दर्य को देख सकने में सक्षम इस कवि की दृष्टि का प्रमाण पाने के लिए हमें इस संग्रह की कविता ‘सौंदर्य दर्पण’ को पढ़ना चाहिए:
‘चमकता हुआ नहीं
छलकता हुआ सौन्दर्य सर्वश्रेष्ठ होता है !’
कहना न होगा कि राजस्थान की मरुभूमि का यह कवि जब पनिहारिनों की बात करता है तो पनिहारिनों को लेकर रचे गए अनेक राजस्थानी लोकगीत और उनसे जुड़े अनेक बिंब भी उसकी स्मृति को समृद्ध किए रहते हैं. कविता में संप्रेषणीयता का एक बड़ा प्रश्न इस संदर्भ में यह खड़ा होता है कि आज के समय जब अधिकांश पाठकों के मन उन अनुभवों से शून्य हों जिन्हें हम काव्यात्मक अनुभव कह सकते हैं तब क्या अच्छी कविता की समझ पर संकट के बादल और भी गहरे नहीं होते जाएंगे? सौन्दर्य के संबंध में बात करते हुए इसी कविता में यह कवि हमारे समय की एक और गहरी विडंबना को चित्रित करता है. आज की भौतिकतावादी संस्कृति में जब सौन्दर्य जैसी अमूर्त अवधारणा को ‘ब्यूटी एण्ड वेलनेस’ की व्यावहारिक गतिविधियों से जोड़कर देखा जाने लगता है तब उसका जो हश्र होता है उसे निम्नलिखित पंक्तियां संवेदनशील ढंग से व्यक्त करती हैं.
‘जब भीतर की दीप्ति नदारद हो जाती है और अंतर्मन का दीपक बुझने लगता
है तब रंगाई , पुताई और लेपन की कांक्षा मनुष्य को बाहर से चमकीला पर
अंदर से स्याह, सन्देहास्पद, असुन्दर और खोखला बनाती है’
प्रसिद्धि और पुरस्कारों की परवाह न करना भारतीय कविता–परम्परा का एक अभिन्न हिस्सा रहा है. कवि के इस वैराग्य और फक्कड़पन को कृष्ण कल्पित की भी इस संग्रह की अनेक कविताओं में देखा जा सकता है. ‘ख़राब कवि’ की ये पंक्तियां देखें:
‘आज सुबह-सुबह एक ख़राब कवि से मुलाक़ात हो गई
जबकि अच्छा कवि कितनी मुश्किल से मिलता है अच्छा कवि तहख़ानों में
छिपा रहता है इस फ़ानी दुनिया में एक ग़ायब आदमी की तरह वह बाज़ारों
मेले-ठेले उत्सव-समारोहों से दूर किसी वीराने में अपने को अपराधी की
तरह छिपाए रहता है’
कृष्ण कल्पित की ‘आख़िरी टेलीग्राम’ और ‘खंडहर पर घास’ जैसी कविताओं को पढ़ते हुए मैंने महसूस किया कि एक अच्छे कवि में भविष्यकथन की भी कुछ क्षमता संभवत: किसी न किसी रूप में मौजूद रहती है. ‘अच्छे दिन’ की निम्नलिखित पंक्तियां:
‘जिसका भी गला रेता जाएगा
अच्छे से रेता जाएगा अच्छे दिनों में’
यह संग्रह यहाँ से प्राप्त करें.
सदाशिव श्रोत्रिय |
यह सर्वथा उचित निर्णय हुआ।
कृष्ण कल्पित जी को बधाइयां।
बहुत सारगर्भित आलेख।कृष्ण कल्पित की बीहड़ प्रतिभा से हम बहुत पहले से प्रभावित रहे हैं जब एक शराबी की सूक्तियां जैसी छोटी सी पुस्तिका मिली थी।कवि को हार्दिक बधाई और सदाशिव श्रोत्रिय जी को शुभकामनाएं
आपकी शुभकामनाओं के लिए आभारी हूं !
कृष्ण कल्पित को बहुत बधाई।
सदाशिव जी काव्य मर्मज्ञ गहन अध्येता हैं। उन्होंने कल्पित की कविता के मर्म को उजागर कर उसकी खूबियों से अवगत कराया है। एक कवि के रूप में कृष्ण कल्पित उपस्थिति कई दशकों से महसूस की जाती रही है।
बहुत डूबकर लिखा है, सदाशिव जी ने! मुबारक!
सदाशिव श्रोत्रिय ने कल्पित जी की कविताओं की बहुत गंभीर और महीन आलोचना की है। दरअसल लगातार बेलाग ‘अप्रिय सत्य’ बोलने के कारण इनकी कविता की नोटिस कम ली जाती रही है। इनकी कविता का आयाम अत्यंत व्यापक है और काव्य-दृष्टि पैनी। डॉ सावित्री मदन डागा स्मृति सम्मान हेतु कवि कृष्ण कल्पित जी को बहुत बहुत बधाई।
कृष्ण कल्पित हमारे समय के उन दुर्लभ कवियों में एक हैं जिन्हें काव्यशास्त्रीय सिद्धातों और छंद का गहरा ज्ञान है. इस विषय पर उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक भी लिखी है.
कोरोना के शुरुवाती दिनों में अचानक हुई तालाबंदी के दौरान अपने बीमार पिता को सायकिल पर लादकर गुरुग्राम से दरभंगा तक की दूरी तय करने वाली ज्योति पासवान पर केंद्रित कल्पित जी की श्रेष्ठ कविता विकास ले दावे के बावजूद गरीबी रेखा से नीचे रहने को अभिशप्त भारत की सबसे बड़ी आबादी की त्रासदी का जैसा चित्रण करती है, वह किसी भी सह्रदय की आँखें नम कर देने में सक्षम है.
कहना यह भी है कि हमारे समय के छोटे-बड़े हजारों कवियों में से अकेले कृष्ण कल्पित ने ही कोरोना काल में अचानक हुई तालाबंदी के दरम्यान अपने ही देश में अप्रवासी कहे जाने वाले मजदूरों की दुर्दशा पर कविता लिखी है. उस समय हमारे एक मित्र ने इसका अंग्रेजी और संभवत: तेलुगु में भी अनुवाद किया था जिसे यहाँ के अकादमिक समुदाय में बहुत पसंद किया गया.
आज के मेरुदण्डविहीन समय -समाज में कवि कृष्ण कल्पित की उपस्थिति रचना के क्षेत्र में चीज़ों को उनके सही नाम से पुकारने की कला का अन्यतम उदाहरण है.
उन्हें पुरस्कृत करना हिंदी के शब्द -चेतन समुदाय का सम्मान है.
सादाशिव जी की इस समीक्षा की एक बड़ी खूबी पाठकों को मूल कृति की ओर उन्मुख करने में समर्थ होना है.
इससे गुजरते हुए हमें कवि की मूल संवेदना को अनुभव करने और समझने में बहुत मदद मिलती है.
कवि और आलोचक, दोनों को मुबारकबाद.
हार्दिक आभार,रवि रंजन जी ! समीक्षात्मक लेख में मेरी कोशिश यही रहती है कि उसे देख कर पाठक मूल कृति को पढ़ने के लिए प्रेरित हो।