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समालोचन

Home » केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य : बजरंग बिहारी तिवारी

केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य : बजरंग बिहारी तिवारी

नवारुण प्रकाशन सी- 303 जनसत्ता अपार्टमेंट्स सेक्टर -9 गाज़ियाबाद  बजरंग बिहारी तिवारी आलोचना में शोध के महत्व को समझने वाले आलोचकों में हैं. स्रोतों की तलाश और विवेकपूर्ण ढंग से उनका उपयोग उनकी विशेषता है. केरल के दलित साहित्य पर वह पिछले एक दशक से सोच और लिख रहें हैं. यह आलेख इसी प्रक्रिया का […]

by arun dev
January 13, 2020
in आलोचना
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नवारुण प्रकाशन
सी- 303
जनसत्ता अपार्टमेंट्स सेक्टर -9
गाज़ियाबाद 





बजरंग बिहारी तिवारी आलोचना में शोध के महत्व को समझने वाले आलोचकों में हैं. स्रोतों की तलाश और विवेकपूर्ण ढंग से उनका उपयोग उनकी विशेषता है. केरल के दलित साहित्य पर वह पिछले एक दशक से सोच और लिख रहें हैं. यह आलेख इसी प्रक्रिया का परिणाम है.

हिंदी में केरल के सामाजिक आंदोलन और दलित उपस्थिति को समझने के लिए यह एक जरूरी आलेख है. इतिहास से होते हुए वर्तमान तक की यात्रा करता हुआ.

केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य                                

बजरंग बिहारी तिवारी     

केरल की समाज व्यवस्था कई मामलों में शेष भारत से भिन्न रही है. यहाँ की जाति प्रथा अपनी जड़ता, क्रूरता और विचित्रता के लिए जानी जाती थी. यह व्यवस्था पिछड़ों और दलितों के प्रति घोर असंवेदनशील थी. इसकी विचित्रता असमीपता, अदृश्यता और अस्पृश्यता में व्यक्त होती थी. स्पर्श से छूत लगती ही थी, यहाँ देखने भर से छूत लग जाती थी. दो भिन्न जातियों के लोग कितनी दूरी बनाकर रहेंगे, यह तय था. यह दूरी क़दमों से नापी जाती थी. 

जाति पिरामिड में कंगूरे पर बैठे ब्राह्मण से ईषव को छत्तीस कदम की दूरी बनाकर रखना पड़ता था जबकि एक पुलय को ईषव जाति के व्यक्ति से अड़तालीस कदम की दूरी बनाए रखनी पड़ती थी. ईषव अति पिछड़ी जाति थी तथा पुलय दलित जाति. दो दलित जातियों के मध्य छुआछूत का प्रावधान था तो दो ब्राह्मण जातियाँ भी दूरी बनाकर रहती थीं. यह पूरी तरह कठोर जाति मर्यादाओं में बंधा हुआ समाज था.

    

केरल की उत्पत्ति को लेकर कई मिथक प्राप्त होते हैं. ये मिथक मौखिक और लिखित दोनों रूपों में मिलते हैं. यह तय करना मुश्किल है कि उत्पत्ति संबंधी ये मिथक लिखित रूप में पहले आए या प्रचलित लोक विश्वासों को लिखित रूप दे दिया गया. केरल का प्राचीन इतिहास बताने वाले जो ग्रंथ हमें प्राप्त होते हैं उनके लेखकों के नाम अज्ञात हैं. इन ग्रंथों का रचनाकाल भी ठीक-ठीक नहीं पता. ऐसे ग्रंथों में मुख्य हैं ‘केरल माहात्म्यम्’ और ‘केरलोल्पति’. ‘केरल माहात्म्यम्’ सौ शीर्षकों और 2217 द्विपदियों में रचित ग्रंथ है. यह गर्ग ऋषि और युधिष्ठिर के मध्य संवाद के रूप में रचित उपपुराण है. ‘केरलोल्पति’ को इस ग्रंथ से प्रभावित माना जाता है. ‘केरलोल्पति’ मलयालम में रची गद्यकृति है. इन दोनों ही ग्रंथों में केरल निर्माण का श्रेय परशुराम को दिया गया है. 

परशुराम ने अपने मन की शांति के लिए विष्णु की सलाह पर यहाँ ठिकाना बनाया था और समुद्र से यह भूमि मांग ली थी. उन्होंने यहाँ की भूमि ब्राह्मणों को दे दी और उनकी सेवा के लिए नायर, ईषव व अन्य जातियों को लाकर बसाया. ब्राह्मण सर्वोच्चता को प्रतिपादित करने वाली तीसरी किताब है ‘शांकरस्मृति’. सरल संस्कृत में लिखी इस कृति को धर्मशास्त्र (भार्गव स्मृति) का संक्षिप्त रूप माना जाता है. इसके रचनाकार का नाम भी अज्ञात है यद्यपि इसे अद्वैत दर्शन के संस्थापक शंकराचार्य रचित होने का दावा किया गया है. ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों को सुरक्षित रखने की चिंता इस कृति के मूल में है. अन्य विश्वासों और लोक मान्यताओं के साथ परशुराम मिथ का उपयोग करके आधुनिक काल में डॉ. के. एन. एषुताचन ने ‘केरलोदय’ (1977) नामक महाकाव्य लिखा. पांच मंजरियों, 21 सर्गों और 2500 पद्यों में पूर्ण इस महाकाव्य में केरल की उत्पत्ति से लेकर बीसवीं शताब्दी के मध्य तक का ‘इतिहास’ वर्णित है. इसकी प्रथम मंजरी में केरल के अस्तित्व में आने की कथा है. इसमें चित्रित है कि परशुराम ने अहिच्छत्र से लाकर ब्राह्मणों को यहाँ बसाया था. केरल को ‘ईश्वर का अपना देश’ कहे जाने का आधार यह परशुराम मिथ ही है.
    

एक अन्य महत्त्वपूर्ण मिथ वररुचि से जुड़ा है. महान वैयाकरण वररुचि राजा भोज के सभापंडित थे. केरल में उनसे जुड़ी कथा ‘परयि पेट्ट पंतिरुकुलम’ नामक लोकोक्ति में सुरक्षित है. कथा के कई रूप हैं. कथासार संक्षेप में यह है कि प्रतिद्वंद्वी सभासदों के षड्यंत्र का शिकार होकर वररुचि को राजसभा छोड़कर यात्रा पर निकलना पड़ा. एक पेड़ के नीचे लेटे वररुचि को आकाशवाणी सुनाई पड़ी कि उस गाँव के परय परिवार में जो लड़की पैदा हुई है वही उनकी पत्नी बनेगी. इससे डरकर वररुचि ने राजा को विश्वास में लेकर नवजात बालिका को मरवा देना चाहा. राजा से यह पाप न हुआ. उसने बीच का रास्ता निकालकर काठ के एक पटरे पर उस बालिका को रखकर नदी में प्रवाहित करवा दिया. बालिका के माथे पर चिराग था. 


समयांतराल में यह घटना सबको विस्मृत हो गई. किसी दूसरी यात्रा में वररुचि को एक ब्राह्मण परिवार में विलक्षण बुद्धि वाली एक विवाह योग्य कन्या मिली. उसकी कुशाग्रता से प्रभावित वररुचि ने उसके माता पिता से अनुमति लेकर उससे विवाह कर लिया. कुछ समय बाद पत्नी के माथे पर दाग देखकर वररुचि को सब याद आ गया. अपने को जाति बाहर समझकर उन्होंने तीर्थयात्रा आरंभ की. पत्नी पंचमी भी साथ ही रही. इस अनवरत यात्रा के दौरान पंचमी को एक-एक कर बारह संतानें हुईं. अंतिम संतान को छोड़कर शेष सभी संतानों को वररुचि जन्मस्थान पर ही छोड़ते गए. उन्हें अलग-अलग जातियों के परिवारों ने अपनाया. इनमें अग्निहोत्री (नम्बूदिरी ब्राह्मण) से लेकर नायर, लुहार, धोबी, शिल्पी, पुलय, परय आदि सब थे. अंतिम संतान मुखहीन थी जिसे वररुचि ने एक पहाड़ी पर मंदिर में रखा. बड़े होने पर 11 भाई-बहनों (दस भाई और एक बहन) ने आपस में संपर्क किया. बड़े भाई अग्निहोत्री ने माता-पिता के देहावसान के बाद सारे संस्कार किए. यथावसर सब भाई-बहन इकट्ठे होते और सामूहिक आयोजन करते रहे. यह परंपरा आज भी किसी न किसी रूप में कायम है. पलक्काड जिले के विभिन्न भागों में बसे वररुचि-पंचमी के वंशज आज भी उस साझेपन को बनाए हुए हैं.
    
केरल में बौद्ध और जैनधर्म भी फले-फूले. संगम साहित्य से इसकी सूचना मिलती है. प्रारंभ में यह प्रांत तमिल इलाके में ही माना जाता था लेकिन चेर राजवंश के शासनकाल में इसकी अलग पहचान स्थापित हो गई. एकीकरण से पहले यह राज्य त्रावणकोर, कोचीन और मलबार तीन प्रांतों में विभक्त था. कालांतर में यहाँ ईसाई और मुसलमान आए. प्रारंभ में आए ईसाइयों को सीरियन कहा गया. अरब से आने वाले व्यापारी इस्लाम के अनुयायी हुआ करते थे. ज़मोरिन राजाओं ने उन्हें प्रश्रय दिया और उन्हें अपने राज्य में बसाया. मछुवारों को प्रोत्साहित भी किया गया कि वे इस्लाम अपनाएं. अर्नाकुलम के पास यहूदियों की सघन बस्ती रही. इतने धर्मों के अनुयायियों के होने के बावजूद केरल साम्प्रदायिक तनाव और धर्माधारित दंगों से बचा रहा. वररुचि के वंशजों में एक परिवार इस्लाम का अनुयायी हुआ. शेष कुनबों के साथ उनका रिश्ता तब भी बना रहा. यह ध्यातव्य है कि किसी भी पुराने धर्म ईसाई, इस्लाम या यहूदी ने केरल की जाति व्यवस्था में हस्तक्षेप की कोशिश नहीं की. दलित जातियों के प्रति सीरियन ईसाइयों का रवैया मोटे तौर पर वही रहा जो उच्च जातियों का होता है. यह व्यवस्था आधुनिक काल में आकर ही प्रश्नांकित होती है. 1840-50 के मध्य यूरोप से आने वाली ईसाई मिशनरियां पहली बार केरल की समाज व्यवस्था में निर्णायक दखल देती हैं.
    

दास प्रथा केरल की पुरानी जाति व्यवस्था का अंग थी. पुलय और परय जैसी दलित जातियाँ दास थीं जिनका व्यापार होता था. इस प्रथा की सूचना केरलोत्पत्ति की गाथा बखानने वाले संस्कृत और मलयालम ग्रंथों से नहीं मिलती. ईसाई धर्मप्रचारकों को सबसे पहले यह प्रथा अखरी. उन्होंने दास प्रथा को गैरकानूनी घोषित करवाने की मुहिम शुरू की. ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी इस व्यवस्था में कोई दखल नहीं देना चाहते थे. वे इस बात को लेकर शंकित थे कि दास प्रथा का अंत करवा देने से कंपनी के हितों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा. स्थानीय प्रभावशाली जातियाँ उनसे नाराज हो जाएंगी. उनका व्यापार और प्रशासन दुष्प्रभावित होगा. त्रावणकोर और कोचीन के शासक भी दास प्रथा के अंत को लेकर उदासीन थे. मलबार पर मद्रास प्रेसीडेंसी का सीधा शासन था. मलबार में दास प्रथा पर पहले रोक लगी. त्रावणकोर और कोचीन ने इसका अनुकरण किया. 1850 से 1860 के बीच समूचे केरल में दासप्रथा पर प्रतिबंध लग गया. प्रतिबंध के बावजूद दासों की खरीद-बिक्री होती रही. जनवरी 1862 में इंडियन पीनल कोड (आइ.पी.सी.) लागू हुआ. दास प्रथा पर प्रतिबंध आइ.पी.सी. के अंतर्गत आ गया. आपराधिक कृत्य हो जाने के बाद ही दासप्रथा का उन्मूलन संभव हुआ.
    

धर्मांतरण के कार्य में यों तो कई मिशनरी संगठन लगे हुए थे लेकिन इनमें प्रमुख संगठन दो थे- लंदन मिशनरी सोसाइटी (एल.एम.एस.) और चर्च मिशनरी सोसाइटी (सी.एम,एस.). इन दोनों में आपस में भले ही मतभेद रहे हों, दासप्रथा के अंत के मुद्दे पर ये सोसायटियां मिलकर काम कर रही थीं. निश्चित ही इन धर्म प्रचारकों के मन में दासों की स्थिति को लेकर करुणा का भाव रहा होगा. वे इंसानियत के नाते इन दासों को मुक्त कराना चाह रहे होंगे. लेकिन, सच का एक पहलू यह भी है कि गुलामी से छुटकारे के बाद दास जातियाँ बड़ी तेजी से धर्मांतरित हो रही थीं. धर्मांतरण उनके लिए एक अवसर बनकर आया था. जितनी तेजी से दास मुक्त होंगे उतनी गति से यीशु के अनुयायियों की संख्या बढ़ेगी, यह हिसाब भी मिशनरियों के सामने रहा होगा. आरंभिक उदासीनता के बाद कंपनी/ब्रिटिश शासन भी दासप्रथा उन्मूलन में दिलचस्पी लेने लगा था. एक-एक कर तीनों राज्य दासों की खरीद-बिक्री पर रोक लगाने लगे थे. नव धर्मांतरित ईसाई पुराने अभिजन ईसाइयों से संख्या बल में आगे हो गए. इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ा और चर्च प्रतिष्ठान से उन्नति के अवसर पाने की संभावनाएं भी प्रबल होती गईं.
    


बढ़े आत्मविश्वास की पहली उल्लेखनीय अभिव्यक्ति चानार विद्रोह में दिखाई पड़ी. त्रावणकोर के दक्षिण इलाके में रहने वाली चानार जाति तब अछूत जाति थी. इस जाति के अधिसंख्य लोगों ने धर्मांतरण कर लिया था. तमिलनाडु में इस जाति को नाडार कहते थे. एक जातिवादी समाज पदानुक्रम बनाए रखने के लिए कई तरह के उपक्रम करता है. निचली जातियों पर भांति-भांति की बंदिशें थोपता है. पोशाक को लेकर जो अलिखित क़ानून कायम था- 

उसके अनुसार चानार स्त्रियाँ कमर से ऊपर वस्त्र नहीं पहन सकती थीं. मतलब यह कि उन्हें अपने वक्ष ढंकने की मनाही थी. जिन दिनों (1810-1819) कर्नल मुनरो त्रावणकोर के रेजिडेंट थे उन्होंने आदेश जारी करके ईसाई चानार स्त्रियों को वक्ष ढंकने की अनुमति दे दी थी. 


उनके हटते ही स्थिति पूर्ववत हो गई थी. मगर, अब अछूतों की मनःस्थिति बदल चुकी थी. धर्मांतरित चानार समुदाय ने नई राजाज्ञा को मानने से इनकार कर दिया. इन्हें सबक सिखाने के लिए चानार बस्तियों पर हमले किए गए. स्त्रियों के कपड़े फाड़ डाले गए. उन पर भरपूर हिंसा की गई. प्रतिहिंसा का दौर चलना ही था. इस दंगे की चपेट में कई जिले आ गए. त्रावणकोर के चानारों ने तमिलनाडु में रहने वाली अपनी बिरादरी नाडारों से सहयोग माँगा. स्थिति निरंतर बिगड़ती जा रही थी. आखिरकार, राजा मार्तण्ड वर्मा को नया प्रोक्लेमेशन जारी करके चानारों की मांग पूरी करनी पड़ी. ‘चानार विद्रोह (1859)’ की सफलता ने अछूतों की जैसी हौसला आफ़जाई की उसके बाद सामाजिक आंदोलनों का सिलसिला चल निकला.

    

परिवर्तित हो रही सामाजिक चेतना का एक प्रमाण मिला ‘मलयाली सभा’ से. यह सभा नायरों द्वारा नायर हितों के लिए स्थापित की गई थी. इसने ब्राह्मण वर्चस्व को हटाने में रुचि ली. 1884 में स्थापित इस सभा के उद्देश्य थे पश्चिमी शिक्षा का प्रसार, स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन और विवाह-व्यवस्था में सुधार. सभा ने ‘मलयाली’ नामक एक समाचार पत्र का प्रकाशन भी शुरू किया और स्कूल खोले. सभा की एक व्यापारिक कंपनी भी थी. सभा के अखबार में ब्राह्मण सत्ता के विरुद्ध लेख छपते थे. इससे सरकार नाराज़ हो गई. सभा की गतिविधियाँ चलती रहीं. सरकार को अपनी मांगों से परिचित कराने के लिए सभा ने एक मेमोरियल तैयार किया. इसे ‘मलयाली मेमोरियल’ कहा गया. मेमोरियल का स्वरूप ऐसा रखा गया कि वह सिर्फ़ नायरों की चिंता करने वाला मेमोरियल न लगे. इस मेमोरियल में मांग की गई कि प्रशासन में सभी नेटिव लोगों की नियुक्तियाँ हों, जाति, वर्ग या धर्म के आधार पर कोई भेदभाव न किया जाए, त्रावणकोर के मूल निवासी कौन हैं– इसे परिभाषित किया जाए और राज्य को विदेशी ब्राह्मणों के आधिपत्य से मुक्त किया जाए. इस मेमोरियल पर दस हज़ार लोगों ने दस्तखत किए. दस्तखत करने वालों में ईषव, सीरियन, नव धर्मांतरित (दलित) ईसाई और कुछ नम्बूदिरी ब्राह्मण भी थे. सरकार ने इस मेमोरियल पर पहले तो चुप्पी बनाए रखी. फिर, सरकारी पक्ष को सही बताते हुए कहा गया कि नियुक्ति की प्रक्रिया में कोई दोष नहीं है. इधर उक्त मेमोरियल के जवाब में गैर मलयाली ब्राह्मणों द्वारा तैयार मेमोरियल सरकार को सौंपा गया. इसमें कहा गया कि नियुक्ति का आधार ‘मेरिट’ हो न कि जन्मस्थान.
    

ईषवों की तरफ से डॉ. पी. पाल्पू ने एक मेमोरियल तैयार किया. इसे ‘ईषव मेमोरियल’ कहा जाता है. इस मेमोरियल पर तेरह हज़ार से अधिक ईषवों ने हस्ताक्षर किए. मेमोरियल में कहा गया कि ईषव बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिला नहीं मिलता. योग्य होने के बावजूद वे सरकारी नौकरी में नहीं लिए जाते. इस पर त्रावणकोर के दीवान का जवाब था कि जातिगत अंतर हिन्दू समाज की विशेषता है और सरकार सामाजिक प्रथाओं में कोई उलटफेर करके सामंजस्य को बिगाड़ना नहीं चाहती. ईषवों ने त्रावणकोर सरकार को यह ‘पेटिशन’ (जिसे मेमोरियल कहा गया) सितंबर 1896 को सौंपा था. सरकार के रवैये से ईषवों को निराशा हुई. फिर उन्होंने अपने दम पर अपनी स्थिति में सुधार का बीड़ा उठाया. 

शिकागो धर्म-संसद से लौटे विवेकानंद से डॉ. पाल्पू ने मुलाक़ात की थी. उस मुलाक़ात में विवेकानंद ने डॉ. पाल्पू को अपना संगठन बनाने की सलाह दी थी और कहा था कि संगठन का मुखिया किसी संन्यासी को ही बनाया जाना ठीक होगा. इस सलाह के मद्देनजर डॉ. पाल्पू ने श्रीनारायण गुरु को संगठन का मुखिया बनाने का निश्चय किया. 



मार्च 1903 में ‘श्रीनारायण धर्म परिपालन योगम्’ (एस.एन.डी.पी. योगम्) लिमिटेड कंपनी के रूप में पंजीकृत कराई गई. इसके अध्यक्ष श्रीनारायण गुरु, उपाध्यक्ष डॉ. पाल्पू और सचिव (महाकवि) कुमारन आशान बनाए गए. स्कूलों और प्रशिक्षण विद्यालयों के निर्माण, उद्योगों के प्रोत्साहन और व्यापार में हिस्सेदारी का दीर्घकालीन सघन अभियान चलाकर एस.एन.डी.पी. योगम् ने न केवल ईषवों के जीवन बल्कि पूरे मलयाली समाज में गहरा असर पैदा किया. योगम् ने जितने भी मंदिर बनवाए उन सबमें अवर्ण (मुख्यतः ईषव) पुजारी ही रखे गए. ‘मनुष्य मात्र के लिए एक जाति, एक धर्म और एक ईश्वर’ यह योगम् के मुखिया का नारा था. अब सरकार को सरकारी स्कूल ईषवों के लिए खोलने पड़े. कुमारन आशन को त्रावणकोर की पॉपुलर असेम्बली का सदस्य मनोनीत किया गया. यहाँ उन्होंने अछूत बच्चों की शिक्षा और रोजगार के मुद्दे प्रमुखता से उठाए.

    

योगम् ने जो रास्ता दिखाया उस पर परवर्ती परिवर्तनाकांक्षी समुदाय और जननायक चले. अय्यनकाली ऐसे ही जननायक थे. पुलय समाज ईषवों व अन्य जाति समुदायों से बहुत पीछे था. इस समुदाय को नेतृत्व मिला अय्यनकाली से. अय्यनकाली (1863-1941) का जन्म तिरुअनंतपुरम के पास एक गाँव वेंगनूर में हुआ था. उनके परिवार के पास पाँच एकड़ जमीन थी जो उन्हें भूस्वामी से सेवा के बदले में मिली थी. इस आर्थिक आधार ने परिवार का मनोबल मजबूत किया था. आठ भाई-बहनों में सबसे बड़े अय्यनकाली आत्मसम्मान से आपूरित थे. उन्होंने सवर्णों की हिंसा का मुकाबला करने के लिए अपने समुदाय के युवकों की एक टीम बनायी थी. यह टीम ‘अय्यनकाली पद’ (सेना) कही जाती थी. इस सेना को प्रशिक्षित करने के लिए अय्यनकाली ने मार्शल आर्ट के जानकारों की व्यवस्था की थी. उस समय दलितों को सार्वजनिक रास्तों पर चलने की मनाही थी. बैलगाड़ी पर बैठना तो उनके लिए अकल्पनीय था. 



इस प्रतिबंध को तोड़ने के लिए अय्यनकाली ने एक बैलगाड़ी खरीदी और सवर्णों की हिंसा का डटकर मुकाबला करते हुए अपनी टीम के साथ वर्जित मार्गों पर शान से चले. चालियर गली में जब नायरों ने उन पर हमला किया तो उन्हें मुँहतोड़ जवाब मिला. पूरे इलाके में यह दंगा फैल गया. इसे ‘चालियर दंगे’ के नाम से जाना जाता है. इसी तरह दलितों के बाज़ार में प्रवेश पर चली आ रही रोक को उन्होंने चुनौती दी थी. सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों को प्रवेश न मिलता देख अय्यनकाली ने स्वयं स्कूल खोलने का निर्णय किया. यह स्कूल बनकर तैयार हुआ तो सवर्णों ने उसमें आग लगा दी. अय्यनकाली ने पुनः उसी जगह पर स्कूल का छप्पर रखवा दिया. बच्चों को पढ़ाने के लिए एक दलित अध्यापक की व्यवस्था कर दी. अय्यनकाली को स्कूल जाने का मौका नहीं मिला था. यह बात वे जानते थे कि शिक्षा ही दलितों की मुक्ति का द्वार खोल सकती है. उन्होंने अपने समर्थकों के साथ 1907 में ‘साधुजन परिपालन संघम्’ की स्थापना की. संघम् ने दलितों की लड़ाई लड़ने का काम किया. स्कूलों में दलित बच्चों को प्रवेश दिलाने के लिए संघम् ने भरपूर प्रयास किया. इस प्रयास का परिणाम सकारात्मक रहा. 


1910 में सरकारी आदेश जारी हुआ और सरकारी विद्यालयों के दरवाजे सभी अस्पृश्यों के लिए खुल गए. इस क़ानून को अमली जामा पहनाने के लिए अय्यनकाली खुद एक दलित बच्ची पंचमी को लेकर स्कूल गए. उनकी इस साहसिक पहल के विरोध में स्कूल की इमारत को आग लगा दी गई. इसका प्रतिकार दंगे के रूप में सामने आया. पूरे क्षेत्र में दंगा फैल गया. जानमाल का पर्याप्त नुकसान हुआ. किसी तरह काम न बनता देख अय्यनकाली ने हड़ताल करने का निर्णय लिया. लगभग साल भर (जून 1913 से मई 1914) चली इस हड़ताल में दलित कृषि मजदूरों ने भूस्वामियों के खेतों में काम नहीं किया. अपनी हैसियत का ज्ञान होते ही भूस्वामी समझौते पर उतरे. समझौते ने सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों का प्रवेश कराया और कृषि मजदूरों की मजदूरी भी बढ़ाई. दलितों की संगठित शक्ति का अहसास होने के बाद सरकार ने ‘पॉपुलर असेंबली’ (श्रीमूलम् प्रजा सभा) में पी.के. गोविन्द पिल्लै को दलितों का प्रतिनिधि मनोनीत किया. गोविन्द पिल्लै के प्रस्ताव पर 1912 में अय्यनकाली को मनोनीत किया गया. दो दशकों तक अय्यनकाली असेंबली में दलित समुदाय की आवाज़ उठाते रहे. 


दलितों को आसानी से न्याय मुहैया कराने के लिए उन्होंने साधुजन परिपालन संघम् के तत्वावधान में ‘कम्युनिटी कोर्ट’ की स्थापना की. सरकारी अदालतों में न दलित जा सकते थे और न अपने विरुद्ध चल रही कार्यवाइयों को जान सकते थे. कम्युनिटी कोर्ट हो जाने से उनके झगड़े यही निपटाए जाने लगे. जीवन के उत्तरार्ध में अय्यनकाली को अपने समुदाय के नए नेता केशवन शास्त्री से समझौता करना पड़ा. साधुजन परिपालन संघम् ठहर-सा गया और खामोश अय्यनकाली पुलय महासभा के महासचिव बनकर रह गए.

    

‘पुलय महासभा’ के साथ जाति संगठनों के निर्माण का सिलसिला तेज हो गया. कोचीन में कृष्णति आशान ने 1913 में ‘ऑल कोचीन पुलय महासभा’ का गठन किया और पुलयों की स्थिति सुधारने का यत्न किया. अपेक्षित सफलता न मिलती देख वे निराश हो गए और धर्म परित्याग का निर्णय लेकर प्रोटेस्टेंट धर्ममत में चले गए. अय्यनकाली के एक सहयोगी पम्पाडि जॉन जोसेफ ने 1921में ‘त्रावणकोर चेरमार महाजन सभा’ स्थापित की. पुलय ही मलबार में चेरमार कहे जाते हैं. साधुजन से महाजन होने का आधार यह आविष्कृत ‘तथ्य’ था कि चेरमार प्राचीन चेर राजवंश के उत्तराधिकारी हैं. यही राज्य के शासक लोग हैं. ईसाई चेरमार समुदाय के लिए जॉन जोसेफ ने ‘चेरमार क्रिश्चियन सभा’ (1923) बनाई. अय्यनकाली की सिफारिश पर उन्हें पॉपुलर असेम्बली का सदस्य मनोनीत किया गया. मछुआरों में वाला जाति के पं. के. पी. करुप्पन ने ‘वाला समुदाय परिष्करणम् सभा’ (1910) बनाई. 


श्रीनारायण गुरु के मुस्लिम मित्र मौलवी वक्कम अब्दुल कादर ने अपने समाज में सुधार की चेष्टा की. इस दिशा में कई संगठन काम कर रहे थे. मुसलमानों में एका लाने के मकसद से ‘मुस्लिम एक्य संघम्’ बना. इस संगठन ने अपनी पहली बैठक (1923) में मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियों की निंदा की. इससे परंपरावादी लोग भड़क उठे और संघम् को धर्म विरोधी घोषित कर दिया. नायरों में समाज सुधार के लिए 1915 में ‘नायर सर्विस सोसाइटी’ (एन.एस.एस.) का गठन हुआ. ब्राह्मणों ने अपने समाज में बदलाव लाने के लिए 1910-11 में ‘योगक्षेम महासभा’ का निर्माण किया. इसमें नई पीढ़ी के युवकों का ही बाहुल्य था. सभा के उद्देश्य थे अंगरेजी शिक्षा का प्रसार, अनुज नम्बूदिरियों का विवाह, पर्दा प्रथा का अंत, स्त्री शिक्षा का प्रसार आदि.

    

पुलयों से हीनतर स्थिति में परय थे. परयों में जिस व्यक्ति ने नेतृत्व संभाला वह पोयिकयिल योहन्नान थे. इन्हें अप्पचन और श्रीकुमार गुरुदेवन भी कहा जाता है. इनके संगठन का नाम था ‘प्रत्यक्ष रक्षा दैव सभा’ (पी.आर.डी.एस.). इस सभा ने बाइबिल को दलितों के लिए अपर्याप्त बताते हुए कहा कि चर्च परय ईसाइयों के साथ भेदभाव करता है. जंगलों में गुप्त सभाएं करके योहन्नान अपने अनुयायियों को सजग करते रहे और यह भाव भरते रहे कि दलित के त्राणदाता पोयिकयिल अर्थात् वे स्वयं ही हैं जो भगवान के अवतार हैं. अपनी ओजस्वी वाणी और मोहक शैली के कारण योहन्नान शीघ्र ही अति लोकप्रिय हो गए. चर्च प्रतिष्ठान उनसे खौफ खाता रहा. योहन्नान ने गीत लिखे और इतिहास की व्याख्या की. उन्होंने दलितों के इतिहास को अभिशप्त इतिहास कहा. उनके संगठन का स्वरूप आध्यात्मिक-धार्मिक रहा. वे दो बार श्रीमूलम प्रजासभा के लिए नामित किए गए. असेंबली में उन्होंने सभी दलित जातियों के मुद्दे उठाए. दलितों को जमीन, नौकरियों में आरक्षण, काश्तकारों को आसान शर्तों पर ऋण और स्कूलों में दलित बच्चों को दोपहर का भोजन उनके द्वारा उठाए मुद्दों में प्रमुख थे. प्रत्यक्ष रक्षा दैव सभा ने अंगरेजी माध्यम के स्कूल खोले और बोर्डिंग की सुविधा दी. सभा की औद्योगिक इकाइयाँ स्थापित हुईं और बस्तियां बसाई गईं. इन बस्तियों में सभी दलित जातियों के लोग रहते थे.
    

आध्यात्मिक और जाति संगठनों द्वारा समाज सुधार का प्रयास केरल रेनेसां के नाम से जाना जाता है. रेनेसां की उपलब्धियां ऐतिहासिक रहीं. समाज में आमूल परिवर्तन आए. केरल अब रेनेसां से आगे बढ़कर रेवोलुशन के लिए तैयार हो रहा था. संसार में घट रही गतिविधियाँ उसे भी प्रभावित कर रहीं थीं. रूस की क्रांति की चर्चा यहाँ पहुँच रही थी और सोवियत संघ को प्रबुद्धों का समर्थन मिल रहा था. लोकप्रिय ‘मितवादी’ पत्रिका ने दिसंबर 1917 में संपादकीय लिखकर रूसी क्रांति का समर्थन किया और जनता के शासन की हिमायत करते हुए मलयाली समाज की रूसी समाज से समानता दिखाई. मलयाली समाज में हो रहे परिवर्तनों को क्रांति की तरफ मोड़ने का काम इस दौर के प्रबुद्धों ने किया. अनुर्वर होती जा रही आंदोलन की इस जमीन पर कम्युनिस्टों ने मोर्चा संभाला. जाति आधारित संघर्ष को धार देते हुए उन्होंने वर्ग संघर्ष का नया आयाम जोड़ा. 


अंगरेज सरकार इस विचारधारा से भयभीत थी इसलिए उसे गैरकानूनी घोषित कर रखा था. ऐसी स्थिति में कम्युनिस्ट कार्यकर्ता भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल होकर काम कर रहे थे. उन्होंने साक्षरता पर विशेष ध्यान दिया. किसानों और मजदूरों के लिए रात्रिकालीन पाठशालाएं चलाईं. वाचनालय स्थापित किए और अनपढ़ जनता को अखबार और किताबें पढ़-पढ़कर सुनाने का काम किया. जनता से जुड़कर उन्होंने बहुत-कुछ सीखा साथ ही जनता का विश्वास भी अर्जित किया. 1937 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया की चार सदस्यीय ‘सीक्रेट कमेटी’ कालिकट में बनी. पार्टी की स्थापना दिसंबर 1939 में हुई. 26 जनवरी 1940 को इसे सार्वजनिक किया गया. लेकिन, यह अभी तक प्रतिबंधित राजनीतिक पार्टी ही थी. प्रतिबंध जुलाई 1942 में हटाया गया.
    


जाति व धर्म आधारित संगठनों से अलग हटकर केरल में नए तरह के संगठन बने. ये किसान संघ, मजदूर संघ, महिला संघ, बाल संघ आदि के रूप में थे. कृषि मजदूरों, फैक्ट्री मजदूरों और प्लान्टेशन मजदूरों की चेतना में बदलाव के साथ हड़तालों का दौर भी आरंभ हुआ. मालिकों को मजदूरी बढ़ानी पड़ी. काम के घंटे तय करने पड़े. अवकाश का दिन मंजूर करना पड़ा. जो दलित, गरीब और पिछड़े अपने-अपने जाति संगठनों में थे वे यहाँ आकर एक हुए और अपनी वर्गीय एकता को समझ सके. कम्युनिस्ट पार्टी को पुलयों की पार्टी कहा जाने लगा. एकीकृत केरल में पहला चुनाव 1957 में हुआ. इसमें कम्युनिस्ट पार्टी को बहुमत मिला. कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी. सरकार ने सबसे पहले पुलिस-प्रशासन, शिक्षा और भूमि सुधार की दिशा में काम किया. वर्चस्ववादी तबका इससे भयभीत हो गया. जो कल तक दुश्मन थे वे कम्युनिस्टों को सत्ता से बेदखल करने के लिए एक हो गए. ‘विमोचन समरम्’ आरंभ हुआ. 28 महीनों में कम्युनिस्ट सरकार अपदस्थ कर दी गई. एक अंतराल के बाद जब उनकी सत्ता में वापसी हुई तो उन्होंने भूमि सुधार का काम आगे बढ़ाया. पट्टेदारों को जमीन पर मालिकाना हक मिला. दलित परिवारों को पहली बार जमीन आवंटित हुई. जाति संरचना दरकती हुई धराशायी होने लगी.

    

वैसे तो पुरोगामी (प्रगतिवादी) लेखकों ने जाति के सवाल पर रचनात्मक और वैचारिक साहित्य लिखा था लेकिन उनमें अनुभव की प्रामाणिकता और अभिव्यक्ति की दाहकता नहीं थी. यह विशेषता सिर्फ़ दलित लेखन में आ सकती थी. दलित जीवन सबसे पहले और सबसे अधिक कविताओं में व्यक्त हुआ. कहीं मार्क्स से जुड़कर और कहीं स्वतंत्र रूप से उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष का स्वर दलित कविता में व्यक्त हुआ. दलित कवियों की चेतना को आंबेडकरवाद की ओर जाना ही था. आंबेडकरवादी चेतना ने मलयालम साहित्य में युगांतर उपस्थित किया. कविता के साथ-साथ गद्य विधाओं में रचनाएं होने लगीं. कहानी, उपन्यास के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति देखने को मिली. वैचारिक और आलोचनात्मक गद्य भी खूब लिखा जाने लगा. हाँ, आत्मकथा, नाटक और कुछ अन्य विधाओं में अभी उल्लेखनीय लेखन आना शेष है. दलित स्त्री रचनाकारों की आमद और उनकी सर्जनात्मक-चिन्तनात्मक सक्रियता उत्साहवर्धक व आश्वस्तिकारक है.

     

सामाजिक प्रगति में इतनी शानदार उपलब्धियों की पीठिका पर आसीन केरल एक बार फिर चुनौतियों के सम्मुख है. जिस अतार्किकता, धर्मवाद और जातिवाद को परास्त कर इस समाज ने आदर्श रचा था वह अब संकटापन्न है. जीवन के बुनियादी सवालों को लेकर चलने वाले सामाजिक आंदोलन बहुत पहले स्थगित-से हो गए थे. ऐसे आंदोलनों को चलाने के लिए ख्यात कम्युनिस्टों की टीम बिखर गई लगती है. 




अस्मितावादी संगठन मजबूत अवश्य हुए हैं लेकिन वे दूरंदेशी सरोकारों से रहित बहुत सीमित उद्देश्यों से परिचालित हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है. जमीन के कारोबार में लैंड माफिया का प्रवेश 1990 के बाद हो गया था. ये भूमाफिया उत्तरोत्तर शक्तिशाली होते गए हैं. भूमि सुधार का काम जहाँ अटक गया था वहाँ से आगे नहीं बढ़ा है. प्लान्टेशन की व बेकार पड़ी जमीन को अधिग्रहीत कर भूमिहीनों में बांटे जाने की प्रक्रिया कभी शुरू ही नहीं हुई. यह राज्य अभी सर्वाधिक बेरोजगारी का शिकार है. परिवारों के टूटने की गति तेज हुई है. बुजुर्ग उपेक्षित और स्त्रियाँ हिंसाग्रस्त हैं. ईसाई और इस्लामी कट्टरता को मात देता हिंदुत्व लगातार बढ़त बनाए हुए है. संविधान और संवैधानिक संस्थाओं के कमजोर पड़ने, लोक कल्याणकारी राज्य के क्षीण होने का खामियाजा सबसे ज्यादा दलित-वंचित तबकों को भुगतना पड़ेगा/पड़ रहा है. यह समाज की प्रगति अथवा भलाई चाहने वालों के एक होने, मतभेदों को पीछे रख संगठित होने का समय है.  

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Tags: दलित साहित्य
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