कोरोना : मैं और मेरी तनहाई अक्सर ये बातें करते हैं
कोई कह रहा है कि कोरोना की उँगली दुनिया के फैक्ट्री रीसेट बटन पर पड़ गई है. उसके हल्के शुरूआती दबाव ने एक जबरदस्त आवर्ती आलोड़न पैदा कर दिया है. इसलिए हम समय एक हिंडोले में बैठे हिल रहे हैं और वक्त का पेंडुलम हमें अपनी दोलन-गति से एक साथ अतीत, वर्तमान और भविष्य का नज़ारा दिखा रहा है. इससे हमारी गलत-सलत समझ के पीले पड़ चुके पन्ने खुद उड़कर पृथ्वी के बाहर गिर रहे हैं. यूँ समझिए कि कोविड-19 हमारे ढेरों अनचाहे ऐप्स को अनइंस्टाल करके हमारे स्मार्ट फोन को री-स्टार्ट कर रहा है. इसमें थोड़ा समय तो लगेगा ही.
सभ्यता के रीसेट टाइम में कोरोना की टिक्-टिक्
ज़नाब, इस कोरोना समय की घड़ी का घंटा कुछ अलग है. 24 मार्च से लॉकडाउन ही एक नया क्लॉक है. इसकी टिक्-टिक् पर हमें ग़ौर करना ही होगा. यह समय चीन के वुहान से शुरू होता है और इटली, ईरान, फ्रांस, स्पेन, सिंगापुर, इंग्लैंड, अमेरिका, भारत होते हुए पृथ्वी के 204 देशों का समय बनने लगता है. विज्ञान, प्रौद्योगिकी की उपलब्धियों से एक भ्रम ये पैदा हुआ कि समय एवं दूरी हमारी मुट्ठी की गिरफ्त में आ गए हैं. मार्को पोलो, वास्को डि गामा, कोलंबस, एमरिगो वेसपुस्सी, फर्डिनेंड मैजलेन, जेम्स कुक द्वारा खोजी 7 महाद्वीपों तथा 5 महासमुद्रों वाली एक बहुत विस्तृत दुनिया बहुत छोटी होकर मार्शल मैकलुहान का एक विश्वग्राम बन गई है. इस प्रकार शायद आपसी सहयोग एवं अंतरावलंबन की डोर से बँधी एक उत्तर ग्रामीण ग्राम्य-संवेदना-2.0 वैश्वीकरण को रेखांकित कर पाए. लेकिन, स्वार्थ और ताकत की मंशा जल्दी सामने आने लगी और वैश्विकता को किनारे छोड़कर स्थानीयता फिर राष्ट्रों की प्राथमिक जरूरत बनने लगी. ऐसे में भूमंडलीकरण ने पृथ्वी, पर्यावरण, जीवन, जीवजगत, नदी, पहाड़, जंगल सबका बुरी तरह दोहन किया और जब खतरे का निशान उभरना शुरू हुआ तो दोषारोपण और दायित्व को बहाने से नेशनल बनाया जाने लगा. पर्यावरण की तरह कोरोना भी एक वैश्वीकृत उत्पाद की तरह है.
कोरोना पर कुछ दार्शनिक नज़रिए से भी देखा गया है. पहली बात तो ये कि कोरोना ने सर्वशक्तिमान होते जा रहे मनुष्य को एक आईना भी दिखाया है जिसे थोड़ा गहराई में समझने की जरूरत है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अब तक की जानकारी एवं शोध के आधार पर मनुष्य सबसे बुद्धिमान एवं जटिल प्राणी है. जब वह अपनी सहज बुद्धि से और चेतना के सामान्य स्तर से किसी वैश्विक चुनौती को देखता है तो उसकी बुद्धि उसे परमाणु हथियार, आतंकवादी हमला और अब तो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को भी कभी-कभी एक विश्वव्यापी चुनौती के रूप में पेश करने लगती है.
निक बॉस्टराम जैसे विचारक यह मानने लगे हैं कि कहीं धरती पर किसी सुपर बुद्धि का विस्फोट न घटित हो और वह मानवीय सभ्यता को ओवरटेक न कर ले. ख़ैर, कोरोना वाइरस के मामले में ऐसा नहीं है – कोरोना एक नॉन-ह्युमन नॉन-लिविंग नॉन इंटेलिजेंट अनकांशस सिंपल वाइरस है जो बिना किसी योजना के अपनी निर्मिति को बार-बार दोहराता रहता है. लेकिन, यह मनुष्य की विशाल सभ्यता को चुनौती देने की क़ुव्वत रखता है. इस प्रकार कोरोना का संकट का एक भाष्य तो बहुत स्ष्ट है कि हमारी सभ्यता अनेक नॉन-ह्युमन भौतिक, रासायनिक, जैविक, पारिस्थितकीय प्रक्रियाओं पर निर्भर है जो खुद में बहुत सरल, बहुत सहज एवं बहुत अचेतन होती हें लेकिन उनमें से किसी में हुआ थोड़ा-सा भी उत्परिवर्तन, परिवर्तन, या किसी प्रकार बदलाव मनुष्य की सभ्यता के लिए परेशानी का सबब बन सकता है. आप देख सकते हैं कि आज किस प्रकार पूरा का पूरा समाज घरों के अंदर कैद है जिसे सेल्फ-आइसपलेशन कहते हैं. इसे दार्शनिक तरीके से नॉन-ह्युमन यथार्थ के भीतर छिपा अमानवीय यथार्थ कहा जा सकता है.
कोरोना वाइरस संकट पर 91 वर्षीय भाषाविज्ञानी एवं दार्शनिक नोम चॉमस्की का कहना है कि विश्व-भर में इससे बचाव के लिए पहले से ही इलाज ढूँढ़ने में कोताही हुई है क्योंकि इसकी आशंका 15 साल पहले सार्स महामारी के समय ही हो गई थी. उन्होंने कहा है कि बड़ी-बड़ी प्राइवेट दवा कंपनियों को नए-नए प्रकार के बॉडी क्रीम बनाने में मुनाफा नज़र आता है, वे वैक्सीन बनाने में क्यों दिलचस्पी लेंगी. चॉमस्की को आशा है कि दुनिया कोविड-19 की विभीषिका को तो पार कर जाएगी. लेकिन उनकी चिंता मानवीय इतिहास की इससे भी ज्यादा दो भयंकर बर्बादियों की आशंका को लेकर है – न्यूक्लियर वार एवं ग्लोबल वर्मिंग. उनका भी मानना है कि कोरोना वाइरस हमें यह सोचने पर विवश करेगा कि आगे किस प्रकार की दुनिया हम चाहते हैं.
विज्ञान–वादे पे तेरे मारा गया, बन्दा मैं सीधा साधा
अभी दो वर्ष पहले ही ह्युमन जीन-एडिटिंग टेक्नॉलजी के क्षेत्र में एक लैंडमार्क साइंटिफिक उपलब्धि का समाचार बहुत चर्चित हुआ था. लेकिन, इसे बायो-मेडिकल रिसर्च एवं मेडिकल इथिक्स के खिलाफ और ग़ैर-जिम्मेदाराना माना गया. कोरोना की लैब-उत्पत्ति को लेकर भी तमाम प्रकार की शंकाओं का बाजार गर्म है. बचपन में हम अपने स्कूल के हर छमाही और सालाना इम्तिहान में विज्ञान पर एक निबंध लिखते-लिखते थक गए थे कि सोदाहरण स्पष्ट करो कि विज्ञान वरदान है या अभिशाप.
न्यूटन और एडीशन जैसे कुछ वैज्ञानिकों की खोजों ने मनुष्य की जिंदगी को खुशनुमा बनाने में अपनी खुबसूरत पारी निभाई. जॉन डाल्टन, मार्कोनी, ग्राहम बैल, लैमार्क, डार्विन, मेंडलिव आदि बहुत सारे वैज्ञानिक भी लगभग उसी परंपरा में थे. राबर्ट हुक ने कोशिका खोजी, विलियम हार्वे ने रक्त-संचरण पर काम किया, एलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने पेन्सिलिन की खोज की, शिले एवं प्रिस्टले ने आक्सीजन तो कैवेंडिश ने हाइट्रोजन की खोजा. इन सबने भी जिन क्षेत्रों में काम किया वो जीवन को पोषित करने वाले साबित हुए. ये रेडियो एक्टिव एवं न्यूक्लियर फिजिक्स के बरास्ते जो रिसर्च और सफलताएं प्राप्त हुई हैं वे नि:संदेह विज्ञान एवं मनुष्य की अभूतपूर्व उपलब्धियां हैं लेकिन इनके रचनात्मक उपयोग का एक नीतिशास्त्र भी होना चाहिए. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी सीमा-रेखाएं और प्रोटोकाल रेग्यूलेशन भी तय होना चाहिए.
मेरे स्कूल के समय तक एटम बम बन चुके थे, न्यूक्लियर बम को आजमाया जा चुका था, दो महायुद्ध लड़ कर देख लिया गया था, नाटो और वारसा पैक्ट थे और एक द्विध्रुवीय दुनिया थी. शीतयुद्ध और खाड़ी युद्ध चल रहा था. दुनिया विज्ञान और तकनीक से होने वाले विध्वंस का नजारा दुनिया देख चुकी थी. बाद में जाकर मेरी समझ में आया कि आखिर क्यों हमसे उन निबंधों में तर्क देकर यह सिद्ध करने के लिए कहा जाता था कि विज्ञान हमारे लिए वरदान है या विनाश.
जब कॉलेज में गया तो सोवियत संघ का विघटन हुआ, यूनिपोलर बनाम मल्टीपोलर वर्ल्ड का विमर्श चला – उसके बाद धीरे-धीरे दुनिया फ्लैट हो गई, ग्लोबल हो गई, कॉरपोरेट हो गई, गूगल, अमेजन, फेसबुक हो गई, अनइक्वल हो गई, डिजिटल हो गई, ऑर्टिफिसियल इंटेलिजेंस हो गई, रोबोट हो गई, ड्रोन हो गई, क्लाउड किचेन हो गई और तो और उबर, ओला हो गई. विज्ञान था, अब प्रौद्योगिकी भी चली आई. बॉयोमेट्रिक, फेस-रिकॉगनिशन, जियो-लोकेशन के एप्लिकेशन व्यवहार में आ गए. संवाद और संचार के बाद मनुष्य का विहेवियर भी व्हाट्सएप्प, ट्विटर, यू-ट्यूब से नियंत्रित होने लगा.
माना कि मेडिसिन में बहुत उपलब्धियां हुई हैं लेकिन अभी भी एक फ्लू दुनिया के किसी भी देश को हिला कर रख देता है. किसी इबोला, किसी जिका, किसी वर्ड फ्लू, किसी स्वाइन फ्लू का खौफ़ साल दर साल मंडराता ही रहता है. जो कसर बाकी था, अब नोवेल कोरोना वाइरस (कोविड-19) ने पूरा कर दिया है. क्या इन महामारियों की रोकथाम के लिए वैक्सीन और दवाइयों की कमी माना जाए या जनसंख्या के अनुपात में संसाधनों की कमी की वही पुरानी लाचारी. स्वास्थ्य विशेषज्ञों की मानी जाए तो महामारियां इसलिए भी अपना पैर पसार रही हैं क्योंकि टीकाकरण के प्रति लोगों में अब भी बहुत आशंकाएं हैं और वहीं एक दूसरी वजह है वाइरसों का नया उत्परिवर्तन जो हर बार दवाओं को एक मीयाद के बाद बेअसर कर देता है. कोविड-19 इसका ताजा उदाहरण है जो मेडिकल की अब तक की सभी सफलताओं को मुँह चिढ़ा रहा है.
कोरोना हमारे समय का एक नया भाष्य बन गया है. एक तरफ यह विज्ञान और विघ्न को एक साथ समझने का ट्रिगर प्वाइंट भी बन गया है तो दूसरी तरफ कुछ हलकों में इसे सभ्यता को शिखर पर पहुंचा देने का दम भरने वालों के लिए एक जोरदार झटका भी माना जा रहा है.
वो जो ये समझ रहे थे कि स्वर्ग के बाग से केवल एक अभिशप्त फल चखकर धरती पर आना तो कोई बुरी घटना नहीं थी. हम तो इसे ही एक प्रति-स्वर्ग में तब्दील कर देंगे. वे सभ्यता के पिछवाड़े बहते अपने ग़लीज़ की दरिया को नहीं देख रहे थे. उन्होंने तो अपना ईडन गार्डन बसाने के मद में ईश्वरीय या प्राकृतिक विधानों की भी कुछ ज्यादा परवाह करना शायद इसलिए उचित नहीं समझा क्योंकि एक नज़र से देखने पर उन्हें ऐसा भी लगता था कि आधुनिकता की पूरी गढ़ंत ही शुरू से मनुष्य की बुद्धि पर टिका दी गई. सभ्यता के नाम पर एक ऐसी यात्रा की शुरूआत कर दी गई जिसे उस ब्रहमांड के ऑर्डर या उसकी मैन्युफैक्चरिंग सेटिंग को डिकोड करने की खोज से जोड़ दिया गया जिसे ब्रह्मांड-पूर्व समय और उसकी ऊर्जा से न जाने कैसे, क्यूँ और किस वैलिडिटी पीरियड तक के लिए अस्तित्ववान बनाया गया था. …. और हमें पता ही नहीं चला कब प्रति-स्वर्ग रचने की हमारी खोज प्रति-नरक के एक प्रोजेक्ट में बदल गई.
लोग कहते हैं, हम सब मानते भी हैं कि – मनुष्य का यह अन्वेषण ही सब यात्राओं और सब सभ्यताओं का प्रथम है. लेकिन, उसके भी पहले एक सर्वप्रथम है – बुद्धि, मनुष्य की बुद्धि. उसका मन, उसकी भाषा, उसकी चाहत, उसका सपना, उसकी यादें, उसके झूठ, उसके सच, उसके गर्त, उसके शिखर, उसकी छटपटाहटों, उसकी संतुष्टियों आदि से मिलकर बनी उसकी असंख्य आत्म-निर्मितियों की अनंत डेटाबेस को खंगालना इतना आसान संभव नहीं है, शायद.
एक ‘शायद’ रखकर यह बात इसलिए कही जा रही है क्योंकि आपको याद होगा कि 20वीं सदी का आखिरी दशक इतिहास के अंत, उसकी वापसी, उसके सिक्वेल और एक भावी भविष्य के तसव्वुर को लेकर न जाने कौन-कौन-सी घोषणाओं, प्रति-घोषणाओं, विमर्शों और प्रति-विमर्शों का दशक था जिनकी प्रतिध्वनियां इस सदी के वैचारिक गवाक्षों से भी टकरा कर गूँज रही हैं.
इस बहस को कोरोना से पटे विश्व के वर्तमान से जोड़कर देखा जाए तो क्या यही वही भविष्य है जिसके मुखौटे पर उस वक्त के कई चर्चित बुद्धिजीवी लेखक पोस्ट-वार, पोस्ट-एंड ऑफ हिस्ट्री पोस्ट-फैक्ट, ट्रांस-ह्युमन, पोस्ट-ह्युमन और न जाने किन-किन विमर्शों को चस्पा कर रहे थे. आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक आयामों के पीछे बड़े पैमाने पर जिस साभ्यतिक विमर्श की अदृश्य तलवारें खिंची थीं उसमें जरूर वर्चस्व के एक दुर्ग का छत्रपति बनाने वाले छाया-युद्ध का कोई डीएनए-कोडेड वायरस लिप्यंतरित किया गया होगा. यह रंगमंच पर बाहर चल रहे किसी झूठे ड्रामे के पीछे की एक अन-सैनिटाइज्ड पटकथा हो सकती है जिसे देखकर दुनिया बिना हाथ धोए अपने घर चली गई होगी.
जब मन किया कोई कह गया कि इतिहास यहीं खत्म हो गया और यह वेस्टर्न, लिबरल, सेकुलर, डेमोक्रैटिक समय है जो वैचारिकी का आखिरी गंतव्य है. वहां एक बोर्ड टांग दिया गया कि – इसके आगे जाने वाली कोई सड़क नहीं है. यानी यह बंद गली की आखिरी वैचारिकी है. किसी ने कह दिया कि नहीं यह पश्चिमी आधिपत्य का एक झूठा अधिप्रमाणन करने वाला बयान है. अभी इसमें चीन, रूस, इस्लामिक राज्यों और उभरते राष्ट्रों को शामिल नहीं किया गया है. इसलिए यह सिद्धांत नहीं एक साभ्यतिक वितंडा है जिसकी गिद्ध-दृष्टि शक्ति-संतुलन का पलड़ा अपनी तरफ झुकाने पर टिकी है. ज़ाहिर है यह दूरअंदेशी के साथ खेली जाने वाली कूटनीति का एक हिस्सा है जो लोकतंत्र की चाशनी में लपेटकर पूंजीवाद का साम-दाम-दंड-भेद मजबूत करना चाहता है. लेकिन, लोकतंत्र के भीतर पंच-परमेश्वर और सर्वानुमति जैसे दो तत्वों की मौजूदगी आज भी उसके विरुद्ध सभी बहसों का एक मुकम्मल जवाब है. इसका तोड़ अभी तक किसी प्रस्तावित प्रणाली के पास नहीं है. विचारक कहते हैं कि जो लोकतंत्र की फाल्टलाइनें हैं वो उसकी वैचारिकी की नहीं हैं बल्कि वे उसके कार्यान्वयन मॉडल में हैं. इससे दो सह-निष्पत्तियां निकलती हैं – पहली, जो पश्चिमी है वही सर्वप्रिय लोकतांत्रिक मॉडल है – यह आँख मूँदकर मानना सही नहीं होगा. दूसरी, यह भी सही नहीं है कि जो इस पश्चिमी मॉडल की कमी गिनाएगा उससे उसकी राजनीतिक मॉडल को वैधता प्राप्त हो जाएगी.
एक प्यार का नग़मा है, एक अम्ल का दरिया है और
कोरोना समय का एक भाष्य हमको विश्व के बिगड़ते मौसम, ग्लोबल वर्मिंग और जैव-विविधता के लगातार हो रहे नाश से उपजी विश्वव्यापी चिंता से कहीं न कहीं जोड़ता है. यह महाशक्तियों की भू-राजनीतिक एवं आर्थिक आधिपत्य की आपसी जंग में और भी भयंकर रूप धारण कर सकती है जिसका असर कोरोना से हो रही बर्बादी से भी बदतर होने की चेतावनी पर्यावरण विशेषज्ञ देते आ रहे हैं. दौलत और दंभ की लड़ाई में धरती का जीवन कहीं अम्ल और क्षार से दाग़दार न हो जाए. क्लाइमेट चेंज के मुद्दे पर सभी देशों और सभी हितधारकों के बहुस्तरीय और सर्वसहयोगात्मक रवैये में जितना दम दिखना चाहिए वो दिखता नहीं है.
हालात इतने गंभीर होते जा जा रहे हैं कि – स्थिति को समकालीन जोखिम के नजरिये से प्लेनेटरी इमरजंसी कहकर व्यक्त किया जा रहा है. कोरोना-उत्तर समय की यह हमारी अगली दुश्चिंता है. दिसंबर 2019 में हुए COP 25 सम्मेलन के परिणाम भी निराशाजनक ही निकले हैं क्योंकि कायदे से कोई बात बनी नहीं. स्थिति की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए ही अभी 6 मार्च 2020 की अपनी ब्रीफिंग में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने नवंबर 2020 में ग्लासगो में होने वाले COP 26 के लिए दिशा और एजंडा तय कर दिया है. ऐसा इसलिए भी जरूरी था क्योंकि यह तो जगजाहिर हो चुका है कि वर्ष 2020 मौसम और पर्यावरण को बचाने के लिए दीर्घकालिक और प्रभावी कार्ययोजना बनाने और उसको कार्यान्वयन शुरू कर देने की दृष्टि से एक बेहद अहम वर्ष है.
पर्यावरण का विलाप और दरख्तों की सूखी टहनियों के भीतर सड़ती उनकी रक्त-मज्जा क्या यह हमारी संस्कृति के दुर्गंध और सभ्यता के मुहावरेदार भ्रम के खंडन का विमर्श नहीं है. धरती पर जितने जीव हैं, हम 7.6 बिलियन मनुष्य उसका केवल 0.1% हैं और हम अभी तक 83% वन्य स्तनधारी जीवों तथा आधा पादप जगत का विनाश कर चुके हैं. जिस तरह से हम सभी जीवों का जीवन खतरे में डालकर प्रकृति की जैव-विविधता का नाजुक संतुलन बिगाड़ रहे हैं उसके अंजाम अच्छे नहीं होने वाले. शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि मानव इतिहास में जैव-विविधता की यह अब तक की सबसे तेज गति से होने वाली क्षति है. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की रिपोर्ट के एक उदाहरण से बात समझने की कोशिश करते हैं. एक अध्ययन में यह बताया गया है कि हाल के कुछ दशकों में हमारे बीच से 40% कीट-पतंग सदा-सदा के लिए दुनिया छोड़ चले हैं. लेकिन, यह हँसी-मजाक की बात नहीं है. कीट-पतंगों का जाना दुखद है क्योंकि उनके पीछे ये दुनिया से पुष्पहीन हो सकती है. आप समझ गए होंगे कि कीट ही एक फूल से दूसरे फूल तक पराग ढो कर पहुँचाता है और आपको पता भी नहीं चलता कि कब आपके चमन को वह बहार किए देता है.
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा प्रकाशित ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट में एक वर्ष पहले ही इस स्थिति को एक व्याकुल करने वाले प्रश्न के रूप में उठाया गया था – क्या संसार यूं ही अनजाने में चलते हुए किसी विपदा में फँसने तो नहीं जा रहा है ? Is the world sleep walking into a crisis? इस रिपोर्ट में इसी तरह का एक और प्रश्न भी उठाया गया था – क्या यह प्रौद्योगिकी और मनुष्यता के बीच की लकीर मिटने का समय है ? Is this the time of blurring the dividing line between technology and humanity? टैक्नोलॉजी से जुड़े विमर्श पर तफ़सील से बात फिर कभी.
सेल्फ-आइसोलेशन – बे-ख़ुदी में सनम
अब तक किसी धूप और किसी बारिश में अपने शहर की सड़कों को इतना सूना नहीं देखा था. 24X7 घर हमारा एक नया घर है. रोज जिसमें सोते-उठते थे, जहां बच्चों और पत्नी के साथ बातों का एक कभी न रुकना सिलसिला चला करता था, कोई चीज अधूरी नहीं लगती थी, उसकी दरो-दीवार पे कुछ तो ऐसी इबारतें लिखी हैं जिन्हें मैं अब पढ़ पा रहा हूँ – इसमें कोई शक नहीं कि लॉकडाउन में भी हमारे कुनबे की ठेठ मस्ती का वो दौर और परवान चढ़ा है. घर के भूगोल और घर के सौंदर्य ने अपने बिलकुल एक नए अंदाज में मुझे अपने करीब आने दिया है. कई कागजात से मुद्दत बाद मुलाकात हुई, कुछ किताबों के बगल से एक अरसे बाद गुजरा हूँ. कई ग़ज़लें जो हमेशा अपनी रूह से पुकारती रही हैं मैं आधी-आधी रात तक उनके आगोश में डूबा हूँ. सभ्य, सुंदर, सुशील के बाद इस लॉकडाउन ने मुझे गृहकार्य में भी दक्ष बनाया है.
लॉकडाउन के पहले पूरा शहर सड़कों पर होता था, लोगों का हुजूम पसरा रहता था, जूतों और कपड़ों के ब्रांड पर कहीं अप टू 30% डिस्काउंट का सेल चल रहा था तो कहीं ट्रैवेल एजंसियों का स्टडी अब्राड का बिजनेस फल-फूल रहा था. हर तरफ मलेशिया, सिंगापुर, कतर, न्यूजीलैंड और कनाडा आदि जाने के आकर्षक टूर पैकेज और 2 दिन में स्टूडेंट वीजा और पासपोर्ट बनवाने वाले बड़े-बड़े इश्तहार टँगे हुए थे. इसके जवाब में नगरों के चौराहों पर सर्वत्र साइंस और मैथ के टॉपरों की फोटो से युक्त विशालकाय होर्डिंग भी लगे थे. दूर से देखो तो कोचिंग सेंटरों की होर्डिंग एक गोवर्द्धन पर्वत और कैरियर के पीछे भागता पूरा शहर उसके नीचे खड़ा नज़र आता था. ऐसे रास्तों और चौराहों पर ट्रैफिक खचाखच अटका पड़ा था. फिर भी जिंदगी बेतहाशा भागी जा रही थी. कोरोना इसी स्पीड पर ब्रेक का नाम है. स्पीड रुकने पर लगा कि सड़क से, दफ्तर से, बिजनेस से, प्राफिट से, परफारमेंस से, टारगेट से मैं पहली दफा घर लौटा हूँ. एक ऐसा लौटना जिसमें 21 दिन नहीं जाना हो – एक ढर्रे पर से छिटकी स्वानुभूति का एकांत है.
पुलिस से ज्यादा कोरोना के डर से बाहर जरूरी से जरूरी सामान खरीदने जाना भी मुश्किल हो गया है. सोशल डिस्टेंसिंग का महत्व तो तब दिखाई दे रहा है जब लोग किसी दुकान के बाहर जमीन पर बने गोले के अंदर खड़े होकर इतना आश्वस्त महसूस कर रहे हैं जैसे लग रहा है कि इसके अंदर कोरोना डंक नहीं मार सकता. सामान की होम डिलवरी के लिए आए व्यक्ति से डर लग रहा है, उसको भी हमसे लगता होगा. वर्क फ्राम होम और टेलीवर्किंग वर्कप्लेस के वर्चुअल शिफ्ट का एक पूर्वभ्यास जैसा लगता है. कौन जाने हो सकता है कि वह आने वाले किसी न्यू नार्मल का एक हिस्सा हो.
सेल्फ आइसोलेशन, क्वारंटाइन और लॉकडाउन सब किसी एक महाध्वनि का अनुनाद लगता है. दिन-रात के सन्नाटे में यह ॐ शांति का उच्चार लगता है. यह घरों में बंद लोगों के लिए मार्केस के Love in Times of Cholera, कामू के The Plague, सोल्झेनित्सिन का Cancer Ward, जॉर्ज आर्वेल का 1984 एवं एनिमल फार्म तथा यूवाल नोवा हरारी की किताबें – Sapiens, Homo Deus & 21 Lessons for the 21st Century पढ़ने का समय है. यह एकांत का आमंत्रण है जिसमें इस दुनिया और उसके आगे-पीछे की दुनिया को देखने और समझने का एक अवसर है. यहां से हम आगे का अपना रोडमैप और उसकी यात्रा पर निकलने से पहले एक चेकलिस्ट बना सकते हैं.
गो कोरोना ! जल्दी जाओ कोरोना !!
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