और बिंधी हुई हैं अपने-अपने काम !
पान-पत्ते
पान – पत्ते
प्यार की हरियाली हैं
दिल के नक्शे की तरह लिए हुए
रूप-विन्यास
परजा हो या निजाम
जिसने पान नहीं खाया
प्यार की पृथ्वी पर रच कहाँ पाया वह अपनी साँस
जलपान और पान-सुपारी
हमारे जनपद का शिष्टाचार है
बीड़ा उठाने का मुहावरा तो है ही जगत विख्यात
दाँत में फँसी सुपारी निकालने का पिता का लहजा
पिता के प्रति अपनापा में करता है इजाफा
पान खाकर पिता का बोलने का अन्दाज भी
इतना काव्यात्मक होता है कि सुनने से अधिक
अभिप्राय में लगाना होता है आँख-कान
पान की गुमठी या ठेले पर
सभाओं से अधिक होती हैं राजनीतिक बहसें
पान-संसद का ही कमाल है कि
\”पान-सुपारी-कत्था-चूना
बुद्धि बढ़ावैं दूना\” कह-कह कर हमारे दोस्त
चबाते रहते हैं बीड़ा-पर-बीड़ा
और चलता रहता है बातों का प्रश्नकाल
दिल की तरह पान को भी सहेजना पड़ता है बहुत
दाग-धब्बे से बिगड़ जाता है पान का मिजाज
लउधर मन पान खाने से
अपमानित होता है पान
इज्ज़त से पान खिलाना
आतिथ्य की सुन्दरता है
पान का बरेज सम्हालना होता है बेहद परिश्रम का काम
जिसके लिए खटते रहते हैं दिनभर पान-किसान
मुखशुद्धि या चित्त का जायका सँवारने के लिए
हमारे मुँहलगा है पान
पूजन-व्रत-त्यौहार में भी समादृत हैं पान-पत्ते
मगही, बँगला, मद्रासी, कपुरी, देसवारी, महोबिया, रिमहाँ,बनारसी, मीठा पत्ता आदि हैं हमारे पान-पसन्द
पान का बीड़ा बनाना भी एक कला है
स्वाद की संस्कृति में मिलता है जिसे गहरा सम्मान
गायकों को बहुत प्रिय है पान
इसीलिए स्वरों में सुगन्धित और कोमल होती रहती है पान की तलब
भगोरिया नृत्य या इसी तरह के अनेक सुअवसर
जिसमें युवक-युवती एक-दूसरे को पान खिलाकर
करते हैं अपनी चाहत का इजहार और स्वीकार भी
जीवन-साथी चुनने का अनूठा है यह लोक-व्यवहार
ऐसे ही उत्सव-प्रयोजन पर
पान-पत्तों के रचाव से
हमारे प्यार के किस्सों के होंठ
लाल होते रहते हैं !
मेहनत-मन
फसलों के हरे होने में किसान के साथ
चिड़ियों के भी गीत हैं
धूप के भी
गीत में मिट्टी पानी हवा का जरूरी है जिक्र
नहीं तो प्रश्नांकित होगा कवि-न्याय
पसीने का पराक्रम कि हरियाली
उसके होने का दस्तूर है
यह जो फसलों की झूम-झुमाई है
आसमान ने लहराई है इसमें मनभर अपनी रंगत
काफी करीब जाने पर पता चलता है
कि मेहनतकश स्त्रियों ने
खेतों में ही उपजाया है मनुष्यता के सुन्दर गीत
महँगे खाद-बीज,ओला-पाला
खेतिहर की साँस पर रखी हुई चट्टाने हैं
साँस पर चट्टाने झेलकर जीना
छोटे-छोटे खेतिहरों से अधिक
किसी और को आता है कहाँ
खेत-खलिहान हमारे सबसे पहले तीरथ हैं
सदियों के पसीने से सनी
खेतों की मिट्टी छूने से
बढ़ जाता है पुरखों का मान
और धरती का नमक
मेहनत के मन का
अलंकार हो जाता है
कजरी
स्त्रियों के कण्ठ से बरसती है कजरी
और बारिश भीजती है
सुन-सुन कर जिसे – हुलसते हैं खेत,
अपनी हरियाली की उमंग लिए झूमती है धान,
खूब खुश होते हैं किसान
सहेजे हुए भीतर नवान्न की आस
कजरी गीतों में धड़कता है हमारे जनपदों का सुख-दुख,
पीड़ा, प्रेम, मिलन, बिछोह
गीतमन झिमिक-झिम, झिमिक-झिम गिरती हैं बूँदें
नहाता रहता है जिसमें आँगन शर्बत-मन
मेंहदी, महावर, कजरी, हिंदुली, झूला किए रहते हैं
सावन का साज-सिंगार
कलमुँहे बाजार ने बहुत नसाया है
हमारे जनपदों का साज-सिंगार, गान-तान
फिर भी अभी बचा हुआ है कितना कुछ
अपनी उलझनों-मुश्किलों को धकिया
सजल-कण्ठ कजरी गा रही हैं औरतें
और उनकी कजरी सुन-सुन कर
पानी में भी बढ़ रहा है बहने का बल
बिरहिन की कजरी से
बारिश को लपट लग रही है !!
खेत-सीढ़ी
हमारे पहाड़ों में
खेतों की सीढ़ियाँ हैं
अन्नमन ये सीढ़ी दर सीढ़ी खेत हैं
और पीढ़ी दर पीढ़ी भी
खेत-खेत चढ़कर छू सकते हैं हम पहाड़ की ऊँचाई
खेत पहन कर खड़े हैं पहाड़
देह-आत्मा में उनकी दौड़ती रहती है हरियाली,
फसलों की झूम-झुमाई भी खूब
पहाड़ के आकार या उच्चावचन में
मेहनतमन पहाड़ी खेतिहर खेत काढ़-काढ़ कर
पहाड़ को देते रहते हैं खेत होने का गौरव
पहाड़ की अन्नप्रसू माटी बन जाती है किसान का खेत
और धान गन्ध से, अन्नफूल से सुगन्धित करती रहती है
पहाड़ का अन्तरंग-बहिरंग
पूर्वांगन हो या उत्तरांचल बहुत मोहक लगती है
पहाड़ी खेती की चहल-पहल
खेत रचने का मानव-स्वभाव भी
किए ही रहता है हमें मोहाविष्ट
धान रोपते हुए औरतें, छोरियाँ
जो गीत गाती हैं-खिलखिलाती हैं
निहार-निहार उल्लास-उमंग से भरा रहता है पहाड़
हरिताभ खेत-सीढ़ी देख-देख कर
अप्रतिम चित्रमयता का पाते रहते हैं हम अपूर्व आनन्द
अन्न के साथ साग-पात भी
रचाए-बचाए रहते हैं ये सीढ़ी-खेत
हरीतिमा की गहरी तलब ही है कि –
पहाड़ की बाँहशय्या लिए हुए खेतों का मन
बिगड़ने नहीं देता कभी पहाड़
पहाड़ी किसान पहाड़ को खेत में सोचते हैं जब
खुशी के झरने बहाने लगता है पहाड़ का अभ्यंतर
पहाड़ को भरपूर मान देते हुए किसान
पहाड़ी खेतों में लहरा देते हैं जब अपने पसीने की फसल
अपनी ऊँचाई और आरोह-अवरोह पर
होता ही है पहाड़ को खूब गुमान
धूपकिसान सूरज भी इन खेतों को भरआँख देख-देख
मुग्धमन
हरित-सीढ़ियों की खूबसूरती की परवरिश में
लगाए रहता है अपनी किरने
और चन्द्रमा का उजला योगदान भी
गाते ही रहते हैं अन्नफूल
अन्नफूल
धान के फूल
गेहूँ के फूल
चना-मसूर के फूल
उड़द-मूँग के फूल
अरहर के फूल
अलसी-राई के फूल
सरसों के फूल
फूल सोयाबीन के
देख-देखकर खुश होती हैं हमारी आँखें
हमारे फेफड़े को भी बल मिलता है
और हमारे कलेजे में तैरती है इनकी रंगत
हम किसान हैं
अन्नफूल से ही सुगन्धित रहता है
हमारे खेतों की माटी का मन
यही फूल मरने से बचाते हैं हमारी भूख
खेतों से लगे हमारे घरों को
बेहद आत्मीयता से पहचानते हैं अन्नफूल
और हमारे आँगनों में धुआँ उठता देखने की
अन्नफूल भी तलब रखते हैं !
(ग्यारह)
जुलूस
सड़क पर आ गयी हैं पगडण्डियाँ
अपने-अपने जनपद के पहनावे
और अपनी-अपनी पगड़ियों से
साफ़ पहचान में आ रही हैं पगडण्डियाँ
घेर लिया है सड़क को
पगडण्डियों ने
सड़क को सूझ नहीं रहा है
कि निकलकर जाए वह किधर
दुखी-परेशान हैं पगडण्डियाँ
उनके हाथ को काम नहीं मिल रहा है
जाति-बिरादरी के बेहूदा बँटान से
छीज रहा है उनका अपना सद्भाव
उनके खेत-खलिहान चाँप रही हैं
भयावह बड़ी-बड़ी ईमारतें !!
अँधेरा भी गाढ़ा हो रहा है
पगडण्डियों के गाँवों में लगातार
पगडण्डियाँ छुटकारा चाहती हैं ऐसी मुश्किलों से
संक्रमण-महामारियाँ फैल जाती हैं दूसरों के किए धरे से
ऐसी विडंबनाओं-पीड़ाओं से
मुक्ति चाहती हैं पगडण्डियाँ
न्याय के लिए संघर्षशील
पगडण्डियों के बड़े जुलूस से
काँप रहा है राजमार्ग
पगडण्डियों ने छेंक लिया है सड़क को
और उनका जुलूस बढ़ रहा है आगे
लिए हुए मुँह में पुरजोर नारे और हाथ में
विरोध की तख्तियाँ
पगडण्डियों की आपसदारी से हैरान है सड़क
सड़क जितनी लम्बी चल रही है राज्याध्यक्ष की बैठक !
और सड़क पर बढ़ता ही जा रहा है पगडण्डियों का जमाव
ऐसी रैली को देखकर कविता में भर रहा है आत्मबल
कविता सजग-आँख निहार रही है
कि विशाल रैली में शामिल पगडण्डियों के चेहरे पर
दुख का झूठ नहीं है !
(बारह)
खीरा-गन्ध
खीरा-गन्ध में
माटी का मन महकता है
लगता है माटी अपनी सबसे तरल गन्ध
खीरा में ही भरती है
जो बहकर महका देती है हमारा दिल-दिमाग
माटी के अलावा इतनी अपनी और अनूठी गन्ध
और नहीं है किसी के पास
इसीलिए स्वाद से एक कदम आगे चलती है
खीरा-गन्ध
खीरा-गन्ध में
फैलता है आबोहवा का भी मुश्तरका मन
पूरम्पूर होती है जिससे खेत की आकांक्षा
खीरा के स्वाद और गन्ध में
खेतिहर की मेहनत बोलती है
खीरा का पानी धो देता है
हमारी किडनी-लीवर की सारी तपिश
इसीलिए भोजन के समय खीरा को देखकर
खुश रहता है हमारा पेट
खीरा-फूल के जिक्र के बिना
खिलेगा नहीं मेरी कविता का मन
इसीलिए जरूरी है यह उल्लेख –
कि भादौं में तीजा के दिन
माँ चढ़ाती थी महादेव शिव को खीरा का फूल
खीरा के सुन्दर पीले फूल जिन्हें खुद गवा से चुनकर
शिव मन्दिर ले जाती थी मेरी माँ
पूजा के बाद उस दिन वह
खीरा के टुकड़े का ही देती थी
हम बच्चों को पहला प्रसाद
इसके साथ ही घर में
त्योहारी पकवानों की सुगंध उत्सवी कर देती थी
हमारा बचपन
तमाम संघर्ष, मुश्किलों के बावजूद
हमारे लोक से अधिक
उत्सवों-त्योहारों से जीवन का अलंकरण
कहाँ हुआ है कहीं और
यद्यपि आजकल त्योहार भी चढ़ते जा रहे हैं
शोर-शराबे और दिखावे की भेंट
खीरा-बीज से लेकर उसके दो पतिया होने
फिर गवा बनने और उसके फूल,फल सबमें
दिखाई देती है मुझे पृथ्वी की परवरिश
जो हाथ रोपते हैं खीरा-बीज
खीरा खाते हुए जरूर देना चाहिए उन्हें धन्यवाद
नहीं तो कड़वा होने लगता है खीरा का स्वाद
हथेली पर नमक रख
चखता है जब भाई खीरा की फाँक
उसकी खेत-खलिहान की थकान
भागती है उल्टे पाँव
खीरा के करकशील पत्ते दिखते हैं जब
झाँकता हूँ उनके नीचे कि छुपी ही होगी जरूर कहीं
खीरा की कटिया
अब जब चीजों के गन्ध,रूप, रसायन
सब में किया जा रहा हो घालमेल
तब खीरा-गन्ध का सोच सिहरता है मन
तमाम तरह के खीरा की बाढ़ में
अपने खीरा को मैं देशी खीरा कहता हूँ
यह खीरा-गन्ध भी अब खतरे में है बहुत
लेकिन यह बचेगा बचाएँगे ही इसे
हमारे खेतिहर भाई-बन्धु
खीरा को जब कोई उजड्डपन से चबाता है
पीरा से भरने लगते हैं मेरे दाँत
और भीतर ही भीतर नाराज होने लगता है बहुत
खीरा के साथ खाया गया वह नमक भी!
(तेरह)
उत्तर दोपहर
मैं बारिश को बारिश की कविता सुना रहा था
जैसे यही साध कि मनुष्य को सुनाता रहूँ
मनुष्यता की कविता
पत्तियों पर बज रहीं थीं बूँदें
घास भीग-भीग कर डूब रही थी
माँ चोटी काढ़ रही थी बेटी की
पड़ोस के घर से चना भुनने की गन्ध उठ रही थी
जिसकी आँचभरी महक पाने के लिए
शान्त बरसने लगी थी बारिश
बारिश की सहूलियत के लिए
बादल बहुत पास आ गए थे
ओसार में चींटियों का आना-जना रुका नहीं था
सोए नहीं थे अभी चिरई-चुनूगुन
ओरी से पानी घर की खुशी झरझरा रहा था
एक कोने में सुस्ता रहे थे सब्बल, फावड़ा, खुरपी
मले हुए अपनी आत्मा और देह में खेत की मिट्टी
दृश्यों से आबाद
यह दिनमान की उत्तर दोपहर थी
जीवन भरा था
फिर भी बना रहा था वह और जीवन की जगह
गृहस्थी के काम-धाम से थोड़ी फुरसत निकाल
महावर घोल लिया था अब
स्त्रियों ने
(चौदह)
फ़र्क
यह सुबह सबकी सुबह नहीं है
कोई आया है रात की चौकीदारी कर
सो रहा है सुबह को किए हुए
थकी हुई रात
रात सबके नींद की रात नहीं है
जाड़ा-पाला में जागा है कोई
बिना बुझाए हुए अपना अलाव
दोपहर सबके भोजन का समय कहाँ है
दिनभर खाली पेट कमाता है कोई
मुश्किल से तब रात में रूखा-सूखा अन्न पाता है
समय में भी कई समय हैं
साहूकार की उदासी
और कर्जा काढ़ कर खेत बोए आदमी की उदासी में
फ़र्क हुआ करता है !
(पन्द्रह )
पानी की घड़ी में
पानी की घड़ी में
बारिश बज रही थी
चिड़ियों को देसावर जाना था
खाने-कमाने और वो गए भी
खेतिहर भी खेत तक गया
पूछने खेत की खैरियत
कविता ने भीज-भीज कर
लोकमंगल के लिए
सत्याग्रह किया
गद्य ने भिजाई का उत्सव रचा
भीतर भर कर आलोड़न अथाह
वयस्क हो चुका था सावन
और बारिश बज रही थी
पानी की घड़ी में
खुरदरी करती हुई
धान के पत्तों की जीभ !
(सोलह)
परिश्रम
पसीने से भीगा खेतिहर
छँहाने या सुस्ताने खड़ा होता है जब पेड़ के नीचे
और शीतल हो जाती है पेड़ की छाँव
हवा भी बड़ी इज्जत से छूती है
पसीना भीगी देह
पसीना भीगी देह अपनी आत्मा में याद करती है अपना प्रेम
और रोटी-पानी लिए खड़ी है मुस्कराती हुई खेतिहर की स्त्री
पसीना और प्रेम खेतिहर की कमाई है
देख कर जिसे बेहद खुश होते हैं खेत-खलिहान
पसीना और प्रेम से अधिक पृथ्वी पर
और कुछ नहीं है पवित्र
जो अपनी तरलता और नमी से
आत्मा में लगने नहीं देते
सूखा रोग
पसीना-प्रेम भीगा खेतिहर
निहारता है जब खेत की तरफ
उर्वर हो जाता है माटी का मन
और झूम-झूम कर फसलें
गाने लगती हैं परिश्रम की प्रशस्ति
परिश्रमी सूरज भी
दिन बनाने में
खेतिहर से ही प्रेरणा लेता रहता है !!
(सत्रह)
गुड़-पानी
तुम लौटे हो अभी-अभी
खेत-खलिहान से
पसीने-पसीने है तुम्हारा शरीर
गुड़-पानी देते हुए
तुम से बहुत प्यार करने का
मेरा जी चाह रहा है
खेती-किसानी में बिंधे
लगते हो तुम मुझे कितने प्रेमिल
तुम्हारी देह और आत्मा की नमी
खींचती है मुझे बहुत
जैसे लोटे में हलक रहा है प्रसन्न-जल
वैसे ही हुलक-हुलस से
भरी हुई हूँ मैं
तुम यह जो निहार रहे हो मुझे
भरा जा रहा है मेरे भीतर बहुत
लिपट-लिपट चूमना चाहती हूँ
पसीने-मिट्टी से भरा तुम्हारा चेहरा
थकान धुल जाएगी तुम्हारी
मेरे दिए सुख से
देर नहीं है दोपहर में अब
तैयार है
रोटी-पानी भी !
(अट्ठारह)
लम्बी दोपहर
फूल पर
रात के पसीने की बूँदें हैं
किरने जिनमें प्रात-स्नान कर रही हैं
भीगे रंगों से कविता की हथेली गीली हुई जा रही है
मेहनत की माटी पर खिलखिला रहे हैं रंग
माली आ चुका है फिर
धूप और पानी से सींच रहा है बाग
अब रोटी-पानी लिए खड़ी है मालिन
हँसती है तो फूल उसके स्वजन-परिजन लगते हैं
बोलती है तो रंगों के चेहरे से धुल जाती है उदासी
कल जिन जड़ों को उसने गोड़ा था
माली उन्हें पानी दे रहा है
जड़ों की माटी से उठती खुशबू पीते हुए सूरज
दोपहर के आगे ही नहीं बढ़ रहा है!
बसन्त की लम्बी दोपहर पेड़ की छाँव में
माली और मालिन सुखसागर तैर रहे हैं!
(उन्नीस)
रोपाई
धान की रोपाई करती औरतें गाती हैं
गाते-गाते धान रोपती हैं
और धान रोपते-रोपते औरतें
खेत में रोप देती हैं अपने गीत
रोपाई करते हुए औरतें गाती हैं जब
जड़ों को मिलती है अपने मन की मिट्टी
खेत होता है पुरखुश और चहकता है खेत में
कीचड़सना पानी
पाँत-पाँत लगा रही हैं औरतें धान
लैना लगाने और गीत गाने के उनके हुनर से
आलोकित हो रहा है नए भात का गीत
और अन्नमन प्रतिष्ठित हो रही है धान-गन्ध
उल्लास में है खेत
औरतें रोप रही हैं धान
औरतों के पसीने से भीज रहा है पानी
औरतों के गीत में माटी की महक है
मान है जीवन की हरीतिमा का
धान रोप रही हैं औरतें
और धान के कान में बुदबुदा रही हैं
बच्चों की भात-इच्छा
लेकिन परे किए हुए हैं औरतें
पेट में गड़ रही अपनी भूख
और भूली हुई हैं अभी
अपनी कमर में डेरा जमाए हुए
दरद को भी !
(बीस)
देसी
देसी गाय का दूध
देसी खीरा, करेला, टमाटर
देसी चना, ज्वार, मकई
देसी कपास की रुई
या मोटे अनाज की तलाश में
भटकते लोगों को देखता हूँ तो दुखी होता है मन
खान-पान में, रहन-सहन में
एक झटके से देसी को छोड़ दिया है हमने
और अब देसी-देसी की चाह या पुकार लिए
दौड़ते फिरते हैं इधर-उधर
आज की ही तो बात है –
अच्छे पूरे चम्मेल खेत में धान की रोपाई चल रही है
रोपाई के लिए तैयार खूबसूरत खेत को देखकर
शामिल-साथ हमारे मन की खुशी
हो रही है चौगुनी से सौगुनी
अपने भाई के साथ मैं भी ढो रहा हूँ धान की बेहन
भाई ने थोड़ी देर पहले ही गहरे अफसोस से कहा-
देसी को बेदखल कर अपना लिया हमने
हाई ब्रिड सीड्स, अंगरेजी खाद !!
बिना जाने-समझे हमने अपने बीज बिगाड़ लिए
नसा दिए मिट्टी का मन
और अब लगाए हुए हैं देसी-देसी की रट
ऋतुओं की पकड़ से बाहर हो गयीं हमारी साग-भाजी
बीच सावन मिल रही है फूलगोभी !
बाजार के दिए लालच से
अनाज की-तरकारियों की जिन्स खराब कर ली हमने
बाजार ने ऐसे बहका दिया हमारा दिल-दिमाग
कि सहेजे नहीं हमने अपनी फसलों,
साग-भाजियों के बीज
देसी खाद बनाने के अपने हुनर को भी भुला बैठे हम
तमाम तरह के रोग-व्याधि में फँसे लोगों को देख-देख
काफी डरा हुआ है हमारा समाज
जिससे अब आर्गेनिक खेती पर
दिया जा रहा है काफी जोर
कोफ्त होती है यह निहार-निहार कि हम :
पहले बिना जाने-समझे
अपना अर्जित मूल्यवान नष्ट करते हैं
फिर उसे ही बचाओ-बचाओ की लगाते हैं गुहार
या करने लगते हैं आन्दोलन
बेरोजगार बैल – भटकती गाएँ
देखते हुए टूटता है हमारा मन
हाय ! कितना खो दिया है हमने अपना आत्म !
बोली लगा-लगा कर बाजार ने
पहले हमारे तेज़ दिमाग़ खरीदे
फिर हमारा ही हम से छीनने का उस ने
धन्धा बढ़ा लिया !!
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प्रेमशंकर शुक्ल
(जन्म- 16 मार्च 1967, रीवा, मध्यप्रदेश)
कुछ आकाश, झील एक नाव है, पृथ्वी पानी का देश है, भीमबैठका एकान्त की कविता है, जन्म से ही जीवित है पृथ्वी, शहद लिपि, अयस्क वर्णमाला (सात कविता संग्रह) प्रकाशित.
सम्मान: नवीन सागर स्मृति सम्मान, रज़ा पुरस्कार, दुष्यंत कुमार सम्मान, स्पंदन कृति सम्मान, अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान, रंगकृति सम्मान आदि प्राप्त.
भारत भवन की पत्रिका \’ पूर्वग्रह \’ का सम्पादन.
भारत भवन, शामला हिल्स,
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