चित्रकारों के चित्रकार के नाम से विख्यात ७६ वर्षीय गणेश पाइन का कल निधन हो गया. पांच दशकों की अपनी सृजनात्मक यात्रा में गणेश पाइन की कलाकृतियों विश्वभर में प्रदर्शित और समादृत हुई हैं. बंगाल की समृद्ध कला विरासत, मिथकों और कथा – कहानिओं के अनेक रंग और भाव उनके चित्रों में बिखरे पड़े हैं. युवा रचनाकार सुशोभित सक्तावत ने गणेश पाइन के होने- न- होने को लगाव से देखा है.
मृत्यु से गणेश पाइन की यह राग-मैत्री बहुत पहले ही शुरू हो चुकी थी.
सन सैंतालीस में भारत-विभाजन के समय बंगाल में हुए सांप्रदायिक दंगों की वीभत्स छवियां गणेश पाइन के मन में हमेशा अमिट रहीं. तब वे महज नौ साल के थे और मृत्यु ने अपनी संपूर्ण दारुण क्रूरता के साथ अपने को उनके समक्ष उद्धाटित कर दिया था. नौ बरस की उम्र में मृत्यु ने पाइन के अबोध बचपन का अंत कर दिया था. इसका प्रतिकार उन्होंने मृत्यु को अपनी कृतियों में आबद्ध करके लिया. मृत्यु का इससे कड़ा प्रतिकार भला और क्या हो सकता है कि उसे एक अनवरत जीवन की कारा में आबद्ध कर दिया जाए : तूलिकाघातों की सींखचों के भीतर.

गणेश पाइन का एक जलरंग चित्र है. शायद सन सत्तावन का. ‘एक स्वप्न की मृत्यु’. एक घोड़ा, एक स्त्री, एक स्वप्न और फिर उस स्वप्न की मृत्यु. यह चित्र उनकी धुरी है. उनकी कला की ही नहीं, उनकी विश्व–दृष्टि की भी. वे जानते थे कि मृत्यु सबसे पहले स्वप्नों की हत्या करती है और इसीलिए उन्होंने अपनी कला में स्वप्न-भाषा की रक्षा का संकल्प लिया. इसी के साथ उनकी कला ने ‘यथा’ और ‘इति’ की देहरी लांघी और ‘परे’ के सीमांतों में टहलने लगी. गाढ़े रंग, आविष्ट परिवेश, धूप-छांही मौसम, अंधेरों के चक्रव्यूह और उजालों के रेगिस्तान उनकी कला-रूढि़यां हैं. उन्होंने इनका सचेत चयन किया था और अपनी एक-एक कृति के साथ वे अपनी स्वप्न-भाषा के लिए अपनी कला का अभेद्य दुर्ग रचते गए : ज्यूं बैबेल की मीनार.