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Home » गणेश पाण्डेय की कविताएँ

गणेश पाण्डेय की कविताएँ

‘संतन को कहा सीकरी सों काम? आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।। जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम।। कुभंनदास लाल गिरिधर बिनु, और सबै बेकाम।। आज से लगभग पांच सौ साल पहले कृष्ण-कवि कुम्भनदास ने जब यह कवित्त लिखा होगा तब साहित्यकारों की राजनीतिक सत्ता से निकटता चिंताजनक ढंग से […]

by arun dev
April 11, 2020
in कविता
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‘संतन को कहा सीकरी सों काम?
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।।
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम।।
कुभंनदास लाल गिरिधर बिनु, और सबै बेकाम।।
आज से लगभग पांच सौ साल पहले कृष्ण-कवि कुम्भनदास ने जब यह कवित्त लिखा होगा तब साहित्यकारों की राजनीतिक सत्ता से निकटता चिंताजनक ढंग से बढ़ी रही होगी. यह ‘सलाम’ का दस्तूर तब भी था आज भी है. कवि तब भी इसकी तरफ इशारा करते थे आज भी लिख रहें हैं.

जैसे उस समय के सलाम करने वाले कवियों को कोई नहीं जानता ठीक वैसे ही आज के सलाम बजाने वाले कवियों को भी आने वाले समय में कोई नहीं जानेगा. चाहे कितने पुरस्कार ऐंठ लें, अपने ऊपर शोध या आलोचनात्मक/संपादित किताब छपवा लें. इससे हुआ यह है कि पुरस्कार और ऐसे उपक्रम संदिग्ध हो उठे हैं. ऐसी चीजों को उनकी स्वाभाविकता में घटित होते देना चाहिए. साहित्य का यह अटल सत्य है कि आप श्रेष्ठ को बहुत दिनों तक नज़रन्दाज़ नहीं कर सकते, औसत को बहुत दिनों तक बचा नहीं सकते.
कवि-आलोचक गणेश पाण्डेय वर्षों से साहित्य के खल कर्म पर मुखर हैं. लगातार सचेत करते रहते हैं. हालाँकि इन विषयों पर कविता लिखने में काव्य-तत्व के धूमिल हो जाने की आशंका रहती है. पर गणेश पाण्डेय कविता की शर्तों पर ही ऐसी कविताएँ लिख रहें हैं. 

कवि और आलोचकों पर उनकी कुछ कविताएँ आइए पढ़ते हैं.


गणेश पाण्डेय की कविताएँ                      
  
प्रिय कवि सीरीज
१.

प्रिय कवि की कारस्तानी

वह बहुचर्चित कवि
जो बहुभाषी कविता पाठ के मंच पर
अपने पाठ से ठीक पहले
बड़ी विनम्रता से देर तक हाथ जोड़े खड़ा था
नहीं दिखने के बावजूद कई दशकों से
दिल्ली दरबार में वैसे का वैसा खड़ा था
क्या आप समझ सकते हैं
अपने प्रिय कवि की कारस्तानी!
२.

पहले के प्रिय कवि

पहले
प्रिय कवि होना
बहुत सरल था
कोई भी अच्छा कवि हो
उसके पास बहुत अच्छी कविताएं हों
और उसका कवि जीवन बेदाग हो
जाहिर है कि और कुछ नहीं चाहिए था
प्रिय कवि होने के लिए
पहले के प्रिय कवि
मांग कर खाते थे मसीत में सोते थे
चाहे कपड़ा बुनते थे जूता गांठते थे
न राजा के पास जाते थे
न धौंस में आते थे
न किसी लालच में फंसते थे
बस पूरी तबीयत से बजाते थे
कविता की ड्यूटी
इसीलिए
सबके प्रिय कवि होते थे.
३.

प्रिय कवियों की बहुलता का समय है

आज
प्रिय कवि होने के लिए
कुछ खास नहीं करना होता है
हट्ठे-कट्ठे
चाहे क्षीणकाय कवि को
पहले स्थानीय फिर राजधानी के
मठाधीश से दो बार
कर्णछेदन कराना पड़ता है
फिर प्रधान आचार्य से
लंबा-सा डिठौना लगवाना पड़ता है
प्रिय कवि की उपाधि पाने के लिए
किसी परीक्षा में नहीं बैठना पड़ता है
बस
बड़ी अकादमी का
चाहे साहित्य के किसी दरबार का
एक मजबूत पट्टा बांधना पड़ता है
और तीन में से किसी एक लेखक संघ का
बैज लगाना पड़ता है
जागते तो जागते सोते समय भी
खास तरह का चश्मा लगाना पड़ता है
कम से कम अच्छी कविता से भी
कम से कम मजबूत कविता से भी
कविता की जगह ठस गद्य से भी
प्रिय कवि हुआ जा सकता है
बहुत अच्छी कविता की जरूरत नहीं
सिर्फ सुंदर कविता से भी
प्रिय कवि हुआ जा सकता है
गजब यह कि
आज हर कविता-प्रेमी की जेब में
उसका प्रिय कवि है
यह अलग बात है कि कविता से ज्यादा
वह कवि दूसरी वजहों से उसे प्रिय है
इस वक्त के कुछ बेवकूफ कवियों को छोड़ दें
तो यह प्रिय कवियों की बहुलता का समय है.
 
४.

जो मंच पर है वही प्रिय कवि है

क्या आप प्रिय कवि हैं
आइए, आइए मंच पर बैठिए
क्या आप भी प्रिय कवि हैं
आइए, आइए मंच पर
आप भी
आइए-आइए मंच पर बैठिए
सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण कीजिए
माइक के सामने खड़े होकर
देखिए, देखिए सभागार
जहां-जहां आप देख पा रहे हैं
जिसे-जिसे आप देख पा रहे हैं
सब आपकी जागीर है
सब आपकी प्रजा हैं
जो मंच पर है
वही कवि है प्रिय कवि है
अच्छी कविता के बावजूद
बाकी सिर्फ श्रोता हैं
देखिए
आपको सुनने के लिए लोग
दोनों कान साफ कराकर आए हैं
आपको देखने के लिए
आंखों को गुलाबजल से धुलकर आए हैं
जिन उंगलियों से आप लिखते हैं
उसे छूने के लिए
हाथों में साबुन लगाकर आए हैं
जिस मुख से आप करते हैं काव्यपाठ
उसे चूमने के लिए दंतमंजन करके आए हैं
आप कोई भी कैसी भी कविता पढ़ें
वाह-वाह करने के लिए
पैदल चलकर आए हैं
दो हजार सत्रह में
प्रिय कवियों के सिर्फ प्रिय श्रोता होते हैं
आलोचक भी आलोचक नहीं होते हैं
प्रिय कवि की कविताओं के सिर्फ प्रशंसक होते हैं
प्रशंसक ही आलोचक होते हैं.         

५.

जो किसी का प्रिय कवि नहीं बन पाते हैं

जो किसी का
प्रिय कवि नहीं बन पाते हैं
चुप रहकर जीवनभर
लांछित और अपमानित होते हैं
शहर के लेखकों की घृणा
और आचार्यों की उपेक्षा को
मृत्युपर्यन्त घूंट-घूंट पीते हैं
कोई नहीं पूछता है
उनका दुख
कोई नहीं जानना चाहता
कि बावला क्यों देना चाहता है
कविता के लिए जान
अप्रिय कवि को
प्रिय कवियों के सुख से
रत्तीभर ईर्ष्या नहीं
वे तो अपनी मर्जी से
दुख की चाय सुड़क-सुड़क कर
पीते हैं
जैसे किसी गुमनाम गली का कुत्ता
नाली का पानी सुड़क-सुड़क कर पीता है
देखते सब हैं
पर साफ पानी कौन उसे देता है
जो किसी का
प्रिय कवि नहीं बन पाते हैं
अपनी उदासी और एकांत को
अपनी पत्नी के कंधे पर सिर रखकर
खारे पानी के साथ पीते हैं.
६.

प्रिय कवि की मुर्गियां

प्रिय कवियों को
मुर्गियां पालने का बहुत शौक होता है
रोज एक अंडा और रोज कुकड़ूकूं
प्रिय कवि दाना-पानी की जगह
प्रेम कविताएं फेंकते हैं
प्रिय कवियों की कविताएं इत्र छोड़ती हैं
मुर्गियां दूर से बेसुध होकर दौड़ पड़ती हैं
मुर्गियां आगे-पीछे होती हैं
तो प्रिय कवि का दिमाग पहले खराब होता है
नीयत बाद में
आज की तारीख में
प्रिय कवियों के पास जितनी शक्ति है
कहते हैं कि भगवान के पास भी उतनी शक्ति नहीं है
भगवान मुर्गियां से
कविताएं नहीं लिखवा सकते हैं
प्रिय कवि मुर्गियों से कविताएं लिखवा सकते हैं
मुर्गियां प्रेम कविताओं की मुंडेर पर बैठकर
कुकड़ूकूं कर सकती हैं
भला मुर्गियां
ऐसे परोपकारी प्रिय कवियों को
अपना आलंबन क्यों न बनातीं
प्रिय कवि जब और जितनी बार चाहें
उनकी गर्दन तक हाथ ले जा सकते हैं
खूब-खूब सहला सकते हैं
प्रिय कवि खुश हैं
कि मुर्गियां खुश हैं
वे जब चाहें अंडा
और जब चाहें कविताएं दे सकती हैं.
७.

प्रिय कवि का नागिन डांस

कई धोती वाले प्रिय कवि
कविताएं तो ठीक-ठाक लिखते ही हैं
नाचते भी बहुत से बहुत अच्छा हैं
कोई-कोई तो धोती खोलकर नाचते हैं
मेरी बात पर यकीन न हो
तो दिल्ली दरबार के कुत्ते-बिल्ली से पूछ लें
उम्रदराज प्रिय कवियों के
अतीत के चल-चित्र देख लें
अपने शहर से अपना लाव-लश्कर लेकर
दिल्ली के दरबार में जब नाचने पहुंचे
तो नाचा खूब घुंघरू तोड़ दिया
और जब सरदार के बोलने की बारी आयी
तो पहले तो उसने माइक थोड़ा ऊंचा किया
फिर खखार कर गला साफ किया
और बुलंद आवाज में कहा-
जब गीदड़ की मौत आती है तो शहर में आता है…
लेकिन क्या आपने
कविता के किसी गीदड़ को
लाज से मरते देखा है
देखा होगा तो सिर्फ
प्रिय कवि बनते देखा होगा
आपने कभी
धोती वाले प्रिय कवियों को
तलवार के साथ नहीं देखा हो
मामूली से मामूली
छड़ी के साथ तो देखा नहीं होगा
जब भी देखा होगा
गदेली पर सुर्ती मलते देखा होगा
मंद-मंद मुस्काते देखा होगा
चाहे विनम्रता की ऊंची मूर्ति बनते देखा होगा
चाहे साजिश करते हुए किसी को
छिपकर आंख मारते देखा होगा
चाहे दिल्ली दरबार में
नागिन डांस करते देखा होगा
यों तो धोती वाले प्रिय कवि
कभी-कभी साड़ी भी पहनते थे
लाल-लाल
बड़ी-सी गोल टिकुली भी लगाते थे
लेकिन शायद आपने नहीं देखा होगा.
८.

प्रिय कवि का तिलिस्म

पाजामा बहुत कम ढ़ीला पहनते थे
कुर्ता भी कुछ-कुछ टाइट रहता था
और कविता एकदम चूड़ीदार लिखते थे
प्रगतिशीलों में बहुत से बहुत प्रगतिशील थे
कलावादियों में बहुत से बहुत कलावादी
प्रिय कवि दिल्ली से अक्सर आते थे
यों तो शेर पर खूब लंबा लिखते थे
लेकिन खरगोश की तरह बहुत छोटा जीते थे
और रम तो कम पीते ही नहीं थे
कवि तो कवि गधों और बैलों के संग पी सकते थे
इस शहर में ज्यादातर
सिर्फ हेली-मेली से मिलते थे
यों कुत्ते-पिल्ले से भी मिलने में
उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी
बस एक मर्द कवि से नहीं मिलते थे
पता नहीं कैसे कवि थे
कि कवि होकर कवि से मिलने से डरते थे
कवि थे भी कि कविता के भांड़ थे
एक आलोचक को फोन करते थे
और वह दौड़े चले जाते थे
मैं आजतक नहीं समझ पाया
कि छुटभैये कवि ही नहीं आलोचक भी
कैसे किसी प्रिय कवि का सेवादार बन जाते थे
है कोई बंदा जो बता सके कुछ
खोल सके प्रिय कवि का तिलिस्म.
९.

प्रिय कवि को आईना दिखाना हिमाकत है

प्रिय कवि सुंगध छोड़ते हैं
अप्रिय कवि पसीने की बदबू
प्रिय कवि कुछ भी लिखे उसे सुभाषित कहते हैं
और अप्रिय कवि की अच्छी कविता को गालियां
प्रिय कवि अपने समय में अमर होते ही होते हैं
किसी प्रमाण की जरूरत नहीं होती
अप्रिय कवि फंदे पर लटक कर
साबित करते हैं कि मौत से नहीं डरते
प्रिय कवि को आईना दिखाना हिमाकत है
अप्रिय कवि पर जूते भी बरसाये जा सकते हैं
प्रिय कवियों का गैंग होता है
अप्रिय कवि अकेला होता है
प्रिय कवि की तीव्र आलोचना कर भर दे
तो अप्रिय कवि पर कुत्ते छोड़ दिये जाते हैं
प्रिय कवियों के लठैत अपने मालिक के लिए लड़ते हैं
अप्रिय कवि वीर होते हैं अपने लिए खुद लड़ते हैं
प्रिय कवि सुई की नोंक बराबर जमीन नहीं देना चाहते हैं
अप्रिय कवि लड़ते हैं लड़ते-लड़ते मर जाना चाहते हैं.
१०.

मैं किसी का प्रिय कवि नहीं हूं

कविता की दुनिया में
यहां कोई नहीं है मेरा
मैं किसी का कुछ नहीं हूं
मैं किसी का प्रिय कवि नहीं हूं
जिस दौर में
यह शहर कविता का किन्नरलोक हो
मैं कैसे किसी का प्रिय कवि हो सकता हूं
हरगिज-हरगिज नहीं
बस
कविता का एक मामूली कार्यकर्ता हूं
एक बहुत मामूली सेवक हूं
कविता के लिए खून जलाता हूं
पसीना बहाता हूं
बदले में कुछ नहीं चाहता हूं
कविता से प्रेम है
कविता में होना
मेरे लिए जिंदा होना है
दरबारों में
नाचना-गाना चाहे मसखरी नहीं
साहित्य की सत्ता से टकराना है
मुझे कुछ नहीं होना है
अपने समय का प्रिय कवि नहीं होना है
मंच माइक माला कुछ नहीं चाहिए
अपना काम करना है
झाड़ू ठीक से लगाना है
और चले जाना है चुपचाप
नाम नहीं चाहिए
इनाम नहीं चाहिए
विदेश यात्रा नहीं चाहिए
न खोने को कुछ है न पाने को कुछ
न भ्रष्ट
साहित्य अकादमी में जाना है
चाहे नेहरू ने अकादमी को
हिन्दी के बेटों के लिए ही बनवाया हो
हिन्दी के हरामजादों के लिए नहीं
साफ-साफ कहता हूं
किसी की गोद में पैदा हुआ
आज का कोई प्रिय कवि नहीं हूं
सीधे हिन्दी की सख्त जमीन पर फट पड़ा हूं
इसीलिए अपने पैरों पर खड़ा हूं
और साहित्य में हरामजदगी के खिलाफ हूं
किसी दिन पकड़ूंगा
सबसे बड़े हरामजादे की टांग और चीर दूंगा
धोती की तरह चर्र से.
The Triumph of Death, painted in 1562 by Pieter Bruegel the Elder 

(Museo del Prado, Madrid)

आलोचक का कर्तव्य

(एक)

आलोचक को
पहले अपनी आंख धुलना चाहिए
आलोचक को
फिर अपना चश्मा साफ करना चाहिए
तब रचना को सतह के ऊपर कम
और नीचे से ज्यादा देखना चाहिए
फिर लेखक को उलट-पलट कर
आगे से और पीछे से देखना चाहिए
जुगाड़ी लेखक की किताब हो तो
ठीक से चीर-फाड़ कर देखना चाहिए
कुत्ते की तरह पूंछ हिला-हिला कर
आलोचना कभी नहीं करना चाहिए
आज भी कुछ लोग हैं जिनकी तरह
निडर आलोचना लिखना चाहिए.

(दो)

चापलूस कवियों को
कान के पास नहीं आने देना चाहिए
और सिर पर चंपी करके हरगिज
खुश करने का मौका नहीं देना चाहिए
साष्टांग दण्डवत वाले कवियों को
चरणरज से काफी दूर रखना चाहिए
देखते रहना चाहिए लेकर जाने न पाएं
कहीं पैर ही उठाकर लेकर न चले जाएं
आलोचक को अपने समय के प्रसिद्ध
कवियों के रथ के आगे-पीछे
नहीं चलना चाहिए
चंवर नहीं डुलाना चाहिए
जयकार नहीं करना चाहिए
रथ को गुजर जाने देना चाहिए
धूल बैठ जाने देना चाहिए
फिर उनकी कृतियों को
ईमान की रोशनी में
पढ़ना चाहिए
आलोचक को
कवि की नौकरी नहीं
अपना काम करना चाहिए
अपने लिखे पर अपने अंगूठे का
निशान लगाना चाहिए
आलोचक को
नचनिया कवियों की भीड़ में
खुद नचनिया आलोचक नहीं होना चाहिए
आलोचना को अपने साहित्य समय का
मनोरंजन नहीं संग्राम समझना चाहिए.

(तीन)

आलोचक को
मठों का कुत्ता नहीं बनना चाहिए
साहित्य के भ्रष्ट किले और गढ़
तोड़ना चाहिए
आलोचक को
साहित्य को पुरस्कार के वायरस से
बचाना चाहिए दूर करना चाहिए
लिखने से पहले बीस सेकेंड
साबुन से हाथ जरूर धुलना चाहिए
आलोचक को
फरमाइश पर कुछ भी
लिखने से बचना चाहिए
लिखे बिना जिंदा न रह पाओ
तो अपनी बेचैनी कहो
आलोचकों के लिए
सबसे जरूरी बात यह है
कि हिंदी के बागी लेखकों के साथ
कुछ दिन रहो लेखक किसे कहते हैं
देखो फिर आलोचना लिखो. 
________________________________________
yatra.ganeshpandey@gmail.com
Tags: कविताएँ
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