वरिष्ठ कवि विमल कुमार का नया संग्रह \’जंगल में फिर आग लगी है\’ उद्भावना से प्रकाशित हुआ है. जिसकी भूमिका कुमार अम्बुज ने लिखी है. यह भूमिका और कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं.
उत्तराधिकार में प्राप्त प्रतिपक्ष की बैंच पर कवि
कुमार अम्बुज
प्रस्तुत समाज के दिक्-काल पर सतत निगाह रखनेवाले सुपरिचित कवि विमल कुमार का यह समूचा कविता संग्रह अपने आप में एक लंबी कविता है. खासतौर पर फासीवाद के खिलाफ यह कवि का एक्टिविज्म है. आततायी साम्राज्य के खिलाफ यह संग्रह एक जनहित याचिका भी है.
प्रसंगवश बर्तोल्त ब्रेष्ट की एक कविता याद आती है, जिसका आशय है कि जर्मनी में तानाशाही के चलते आपत्तिजनक किताबों को जलाने की मुहिम चलाई गई, उसका प्रभारी एक कवि को बनाया गया. उस कवि ने कुछ दिनों बाद देखा कि जलायी जानेवाली किताबों की सूची में उसकी अपनी कोई किताब नहीं है. तो वह बेचैन हो गया और शर्मिंदा कि उसने क्या ऐसी कोई किताब लिखी ही नहीं, जिसे तानाशाही में जलाने का फैसला लिया जा सके, क्या उसकी सारी किताबें तानाशाही को स्वीकार्य और सुरक्षित लग रही हैं. कह सकते हैं कि विमल कुमार का यह ऐसा कविता संग्रह है जो किसी भी आततायी शासन में जलाए जाने की सूची में निश्चित ही शामिल रहेगा. कहना यह है कि इस बात से इन कविताओं की हिम्मत, ताकत, प्रासंगिकता और हैसियत का अंदाजा लगाया जा सकता है. लेकिन ऐसी कविताएँ लिखना केवल साहस का काम नहीं है, यह संवेदनशीलता, वैचारिक सामर्थ्य और नागरिक बोध की अविभाज्य संधि से ही मुमकिन हो सकता है. अकेला साहस किसी काम का नहीं यदि वह विवेक और पक्षधरता से प्रसूत नहीं है.
यह संग्रह अल्पकालिक स्मृति (शॉर्ट टर्म मैमोरी) के विरुद्ध एक स्मरण पत्र है. कि आप एक राजनेता द्वारा दो बरस या तीन दिन पहले के वायदे को या चार घंटे पहले बोले गए झूठ को भूल न जाएँ. याद रखें. अन्यथा यह विस्मृति समूचे देश और समाज के लिए खतरे की घंटी है. ऐसे खतरे की घंटी, जिसे रघुवीर सहाय, आपातकाल के ठीक पहले कहते हैं:
\’\’खतरा होगा, खतरे की घंटी होगी
और बादशाह उसे बजाएगा- रमेश.\’\’
विमल कुमार हमारे इस वक्त में इन पंक्तियों को इतना घटित होते देख रहे हैं कि सीधे बादशाह को आगाह करते हैं-
\’\’वह अपनी मेज पर रखी घंटी को
बार-बार न बजाये इस तरह
कि लोग फौरन दौड़ पड़ें उसे सुनकर
मानो खतरे की कोई घंटी बज गयी है.\’\’
अपने समय की घटनाओं, नृशंसताओं और कपट को ये कविताएँ ईसीजी की तरह रेखाचित्रित करती हैं. जाहिर है कि यह ग्रैफिक एकरैखिक नहीं है, यही इसकी जीवंतता और सार्थकता है. अब शासक के मुँह पर कोई मुखौटा भी नहीं है. केवल मोटी परतोंवाला झूठ का मेकअप है. विमल कुमार इस संग्रह के जरिए उस मेकअप की, अभिधात्मक काव्य शल्यक्रिया द्वारा एक-एक परत उतारते हैं और इसकी विडंबनाओं के समक्ष पाठक को विचारोत्तेजना के लिए छोड़ देते हैं: \’\’तुम गाँधी के साथ नहीं हो, भगतसिंह के साथ नहीं हो, तुम दरअसल गाय के साथ हो.\’\’,\’\’हत्यारा करता है हत्या की निंदा.\’\’,\’\’गवाही देने के मौके पर मौन था, अपने समय का सबसे अधिक बातूनी बादशाह.\’\’,\’\’शेर अगर तुम्हें अपनी बाहों में ले, फिर चूमने लगे तो यह मत समझ लेना, कि वह तुम्हारा प्रेमी बन गया है\’\’,\’\’गाँधी जी के रास्ते पर चलते हुए, गोडसे की मूर्तियाँ लगवा रहा हूँ.\’\’, या \’\’वे हैं तो मुमकिन है\’\’ और \’\’आप न्यू इंडिया में हैं\’\’ जैसी कविताएँ इस शल्य चिकित्सा का सीधा प्रसारण हैं.
एक अन्य अर्थ में ये कविताएँ किसी खतरनाक जगहों पर लगे, आम जनता के लिए सूचना-पट्टों पर लिखी चेतावनियाँ भी हैं. सीधी, बेधक और साफ. ये अपने समाज और देश के प्रति लगाव और चिंता रखती हैं इसलिए नागरिक की चुप्पी के संकट को भी रेखांकित करती है और उसकी सकर्मक भूमिका की आशा करती हैं. कवि अपने दायित्व के प्रति सजग है और कविता की नली को सही दिशा में रखता है, जैसे किसी अचूक निशाने के लिए तत्पर है. इसलिए वह गधे की आत्मकथाओं को \’एक गधे की उत्तर कथाओं\’ में विन्यस्त कर पाता है.\’गिरता हुआ आदमी\’,\’कहाँ से लाते हो तुम यह समन्दर\’,\’प्रधानमंत्री की खामोशी\’,\’यह आदमी हिटलर नहीं है\’
\’शेर के साथ नाश्ते पर\’,\’सम्राट से कह दो\’,\’मुमकिन है\’,\’सोने की मरी हुई चिडि़या\’ आदि कई कविताएँ इसी निशानदेही का साक्ष्य बनती हैं. \’मेरे बारे में जो कहा गया\’ कविता अपने समय के फ्रेम में कसकर खुद को इस तरह देखने का तरीका है कि नात्सीवाद का चालाक चरित्र कुछ अधिक स्पष्ट हो जाता है.
एक बौद्धिक, दुखी और आहत कवि मन की ये कविताएँ अपने भीतर गहरी असहमति और नाराजी की कविताएँ भी हैं. इस नाराजी और प्रतिवाद को लगभग प्रत्येक कविता से गुजरते हुए अनुभव किया जा सकता है. इस मायने में यह एक अनूठा संग्रह है जिसमें सारी कविताओं का डीएनए एक ही है और वे यहाँ समवेत स्वर में पुकार लगाने के लिए एकत्र हो गईं हैं. यह प्रतिरोध और बेहतरी की आकांक्षा जैसे इसकी केंद्रीयता है. इसके लिए वे अभिधा का ही नहीं, बीच-बीच में व्यंजना और फैन्टेसी के उन क्षेत्रों में भी जाती हैं, जिन्हें विमल कुमार ने पहले संग्रह \’सपने में एक औरत से बातचीत\’ से ही, अपनी पहचान के रूप में आरक्षित कर लिए थे.
\’मुझे बोलने दो कि मेरे सीने में धुआँ भर गया है\’,\’थैले में जो टिफिन लेकर चला था दफ्तर, उसे खोला तो उसमें पत्थर ही पत्थर थे\’,\’आया था अपने शहर में रहने पर इन दिनों एक चिडि़याघर में रहने लगा हूँ\’,\’आसमान पर हैं आप, नदी में आपकी परछाईं है\’,\’इस देश में अब जो कुछ हो रहा है, प्रधानमंत्री को बदनाम करने के लिए ही हो रहा है\’, जैसी काव्यपंक्तियाँ इसे याद दिलाती हैं. \’यह चाँद मुझे दे दो\’कविता अपने अधिकांश में इसे चरितार्थ करती है.
बल्कि यहाँ इसमें कुछ जोड़ते हुए उन्होंने कई कविताओं में उलटबाँसियों को भी साधा है. \’गाँधी के रास्ते पर\’ चलनेवाली कविता को इस संदर्भ में एक प्रतिनिधि कविता के रूप में देखा जाएगा. व्यंग्य हमेशा ही करुणा से अर्थवान होता है, ये कविताएँ इसकी पुष्टि करती हैं. \’बहुमत\’ के नाम पर कोई भी सरकार मनमाना रवैया अख्तियार नहीं कर सकती. विमल इसे एक सजग, जवाबदार नागरिक के मंच से देखते हैं. कटघरे में रखकर सवाल करते हैं और बहुमत के गुमान को ध्वस्त कर देते हैं. इस क्रम में \’आग और जनादेश\’ कविता एक तार्किक और कलात्मक परिणति है. इस तरह की कविताओं से विमल कुमार के सरोकार और समझ एकदम स्पष्ट है. और इसके मूल में लोकतंत्र, न्याय, समानता और संवैधानिक अधिकारों की फिक्र है.
अभिधा की कविता सबसे ताकतवर भी हो सकती है. विमल कुमार भाषा की इस शक्ति का, अपनी कविता में पिछले कई वर्षों से अभ्यास करते नजर आए हैं. पत्रकार और कवि के रूप में उनकी अर्जित निरीक्षण क्षमता ने उन्हें एक पृथक तेजस्विता प्रदान कर दी है. इन सबका उत्कर्ष यहाँ, इस संग्रह की कविताओं में लक्ष्य किया जा सकता है. वे उसी स्थायी और उत्तराधिकार में प्राप्त प्रतिपक्ष की बैंच पर बैठे मिलते हैं जो कवियों की थाती है.
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विमल कुमार की कविताएँ
जब मैंने कहा आजकल बहुत बेरोजगारी है
मेरे बारे में कहा गया
एक चुनी हुई सरकार को मैं अस्थिर करने में लगा हूँ
जब मैंने कहा
आजकल बड़ी तादाद में किसान आत्म हत्याएं कर रहे हैं
मेरे बारे में कहा गया
मैं इस देश में चारों तरफ अशांति फैला रहा हूँ
जब मैंने कहा
मन्दिर मस्जिद का झगडा ठीक नही
मेरे बारे में कहा गया
मैं इस महान लोकतंत्र की परंपरा को कमजोर कर रहा हूँ
जब मैंने कहा
इस देश मे गरीब बच्चों में बहुत कुपोषण है
उन्होंने कहा
मैं एक गौरवशाली राष्ट्र को दुनिया में बदनाम कर रहा हूँ.
जब मैंने कहा
स्त्रियों के साथ आजकल बहुत दुष्कर्म बढ़ता जा रहा है
उन्होंने कहा
मैं सीता और पार्वती का अपमान कर रहा हूँ.
यह सच है
अपनी भाषा में लड़ते-लड़ते
मैं लहू लुहान हो गया हूँ
लेकिन अपनी भाषा को छोड़कर कहाँ जाऊं
अपनी बीमार और बूढी मां को तुम छोड़कर
जा सकोगे तो जाओ
मैं अपनी भाषा को छोड़कर नहीं जाऊंगा
अपनी मां को छोड़कर क्या कोई जाता है इस तरह
कि मैं अपनी भाषा को छोड़कर चला जाऊं
जिस भाषा में जन्म लिया है मैंने
उसमें अब कातिल बहुत आ गये है
जिस भाषा में बोलना चलना सीखा
उस में भेडियें भी बहुत आ गये हैं
जिस भाषा में रोया और गाया बहुत
उस भाषा में अब बहुत त्रिशूल आ गये हैं
लेकिन अपनी भाषा को छोड़ कर कहाँ जाऊँ
अपना रास्ता बदल कर कहाँ जाऊं
भाषा मेरे लिए कोई चादर नहीं
जिसे छोड़कर कोई फट ओढ़ लूँ
भाषा मेरे लिए कोई दुकान नहीं है
कि किसी और जगह से अभिव्यक्ति खरीद लूँ
मेरी भाषा मेरे लिए एक घर है
मैं अपने घर को छोड़कर जाऊं तो कहाँ जाऊं
अपनी ही भाषा में जीता आया हूँ अब तक
अब अपनी ही भाषा में मरूँगा
इतना तो तय है कि कोई मुझे रोक नहीं सकता अपनी भाषा में
सच कहने से बिलकुल नहीं डरूंगा.
बार बार समय ने मुझे बताया है
वह अब बदल रहा है
बार बार समय से मैंने पूछा है
आखिर तुम क्यों बदल रहे हो ?
बार बार उसने कहा
बदलना उसकी नियति है
बार बार उसको मैंने कहा
इतनी जल्दी मैं नहीं बदल सकता
पहले मुझे यह देखने दो
आखिर तुम किसके लिए बदल रहे हो ?
मुझे भी मालूम है
मैं समय के विरुद्ध बहुत चल नहीं सकता
बहुत अधिक बदल नहीं सकता
लेकिन एक दिन यह समय कहीं मुझे बदल न दे
इसलिए थोड़ा सशंकित मैं भी हूँ
थोडा सा भयभीत मैं भी हूँ
अब समय भी मुझसे नहीं मिलता है
एक अजीब रिश्ता बन गया दिखता है
मेरे और समय के बीच
कोई एक पुल था कभी
वह अब टूट गया है
समय से बाहर निकलने की कोशिश में छटपटा रहा हूँ
जाले जितने लगे हैं चेहरे पर सबको हटा रहा हूँ.
अब लाना ही पड़ेगा
मुझे
एक दिन
अपने खिलाफ
एक अविश्वास प्रस्ताव
हंगामे और शोर शराबे के बीच
उसे पेश करना ही होगा
सबके सामने
एक असंतोष उठ रहा था मेरे भीतर
कुछ सवाल कुलबुला रहे थे
न जाने कब से
प्रतीक्षा में रहा इतने दिन
कि मेरे सवालों के जवाब खुद से मिल जाये
आखिर कैसा टूटा मेरा भरोसा खुद पर से
क्या नहीं कर पाया
जो मुझे जीवन में करना था
नहीं बोल पाया
जो मुझे बोलना था
नहीं लिख पाया
जो मुझे लिखना चाहिए था
टूटना ही था मुझे खुद पर से भरोसा
लेकिन जो हुआ
उसके लिए
क्या मैं खुद जिम्मेदार था
क्या मैं अपने समय और इतिहास से बाहर था
क्या इस अविश्वास प्रस्ताव पर
सभी कोणों से होगी चर्चा मेरे खिलाफ
या मैं एक कठघरे में खड़ाकर दिया जाऊंगा
क्या इस बात का कोई जिक्र नहीं होगा
कि मेरे इरादे तो ठीक थे
नीयत में नहीं थी कोई खोट
तभी तो ले आया मैं खुद ही
एक अविश्वास प्रस्ताव अपने खिलाफ
जब संसद में बीस दिन से
नहीं पेश हो पा रहा
एक विश्वास प्रस्ताव.
यह आदमी अभी और गिरेगा
नीचे झाँक कर देखना कुएं में
अभी गिरी है इसकी भाषा
वेशभूषा तो कब की गिर चुकी थी
पर अब इसका अभिनय भी गिरने लगा है
गिरी है अभी इसकी गरिमा.
गिरा है इसका आचरण
आत्मा तो कब की गिर चुकी है
अब वह हिंसक होगा
भेड़िये की तरह गुर्राता हुआ
वह करेगा तुम पर हमला
नोच लेगा तुम्हारी बोटी बोटी.
फिर बेशर्मी से कहेगा
देखो कितना ऊपर उठ गया हूँ
तुम्हारी सेवा में
देखते जाओ
कि किस तरह एक आदमी गिरने लगता है
जब उसे खून का स्वाद लग जाता है.
तुम भी क्या रखोगे याद इतिहास में
कि तुमने कभी देखा था
अपने समय में
एक आदमी को इस तरह तेजी से नीचे गिरते हुए.
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विमल कुमार
जन्म : 9-12-1960
सपने में एक औरत से बातचीत, यह मुखौटा किसका है, आयरा क्या तुम रौशनी बनकर आओगी, पानी का दुखड़ा, आधी रात का जश्न (कविता संग्रह) आदि
सेक्टर 13 प्लाट -1016 वसुंधरा
गाजियाबाद,उत्तरप्रदेश पिन 201012