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Home » जीवन जो कुछ प्रलापमय है : शिरीष कुमार मौर्य

जीवन जो कुछ प्रलापमय है : शिरीष कुमार मौर्य

शब्द रचनाकार के लिए सार्थक तभी होते हैं जब वह उनकी सतर्क सुधि लेता है. उन्हें उलटता – पुलटता है, बेज़ान और घिस गए शब्दों की जगह नए शब्द तलाशता और तराशता है. जीवन – कर्म से शब्दों की संगति बैठाता है. कर्म के आलोक में ही शब्द रौशन होते हैं. शब्दों के अलाव के […]

by arun dev
March 1, 2015
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शब्द रचनाकार के लिए सार्थक तभी होते हैं जब वह उनकी सतर्क सुधि लेता है. उन्हें उलटता – पुलटता है, बेज़ान और घिस गए शब्दों की जगह नए शब्द तलाशता और तराशता है. जीवन – कर्म से शब्दों की संगति बैठाता है. कर्म के आलोक में ही शब्द रौशन होते हैं. शब्दों के अलाव के पास हमें सम्बन्धों और संवेदना की ऊष्मा मिलती है. पर जब हर जगह प्रलाप और विलाप हो तब एक कवि को लगता है कि यह आखिर हुआ क्या?  जीवन और जीने के सरोकार सब इस प्रलाप के भंवर में डूबते जा रहे हैं. घर और घर वापसी जैसे मूल्य किस तरह एक खाई में  गिरने जैसा लगने लगता है. और आकाश में उड़ना खुद कवि के शब्दों में – ‘उड़ते हुए चंद लोगों द्वारा न उड़ पानेवालों के कोमल पंखों को मसल देने का है. और जन्म वह तो मां के गर्भ और पिता के गर्व के बीच उलझ गया है. भूमि अधिग्रहण का प्रलाप दरअसल ‘क्यों टीन टपरिया छीन रहे/ क्यों फूस छपरिया छीन रहे’ की वास्तविकता है.

शिरीष कुमार मौर्य की ग्यारह नई कविताएँ आपके लिए. सार्थक, सृजनात्मक और समृद्ध अनुभव से लबरेज़.  

_________________

जीवन जो कुछ प्रलापमय है                         
शिरीष कुमार मौर्य

घर-वापसी का प्रलाप

लोग घर वापस जा रहे हैं
वे घर नहीं जानते वापसी नहीं जानते
कहीं चले जाना
उनके लिए भूख के सामने रख दिया गया काग़ज़ का एक टुकड़ा है
उस पर मिलने न मिलने वाला
कुछ किलो अनाज लिखा है
घर रहा कहां
गर्दो-गुबार में सदियों से नहीं दिखा घर
घर को दीमकों ने खा लिया
घर का नाम भी ग़लत है
परम्परा में कोई घर कभी था ही नहीं
उस नाम का
सैकड़ों बरस पहले आए परदेसियों ने
वह नाम दिया
जिससे ख़ारिज हैं अब उन परदेसियों के अहवाल
एक झूट से दूसरे झूट में लौट रहे हैं लोग
कुएं निकल कर खाई में गिर रहे हैं
कहते हैं कुछ लोग घर लौट रहे हैं
हां, लौटता है भेड़ों का रेवड़ भी शरण्य की लालसा में
घर ही लौटता है
भूखे सियारों से बचने की ख़ातिर वे लौटती हैं
तेज़धार भारी गंडासे तले
बेज़ुबान कुछ मनुष्यों के रेवड़
घर वापसी कर रहे हैं
वे पहले भी मर रहे थे अब भी मर रहे हैं. 

उड़ान का प्रलाप
(नरेश सक्सेना को याद करते)

कबूतरों का एक झुंड उड़ा
वे भूख से उड़े
ख़तरे को भांप उड़े
उड़े कि बचे रहें
उनकी उड़ान में शामिल थे लोग
ज़मीन पर चलना भी एक उड़ान थी
उड़ता चला जाता एक बच्चा
चाय से भरे कई कई गिलास थामे
बाइक पर एक जोड़ा
आटो वाला सवारी खोज में श्हर के मुख्यमार्गों की ओर उड़ा जाता था
कुछ साइकिलें उड़ती हुई गु़जरी थीं
लेबर चौराहे की ओर
जाने किधर तो उड़ी जाती थीं चंद लड़कियां
उनकी परस्पर ठिठोली भी एक उड़ान ही थी घर से बाहर
अतिवयस्क वार्ता करता छोकरों का समूह
टहलता हुआ भी उड़ता हुआ-सा लगा
कवि को देखनी थीं अनन्त उड़ानें
वह खड़ा रहा ठगा-सा
चल पाने तक में असमर्थ उसका हृदय
उड़ता था हर ओर
ख़ूब था उजाला कहने को
पर कहीं नहीं थी भोर
अधूरी उड़ानें अभी उड़ने के स्वप्न में हैं
और निरीह मासूम पक्षियों से विहीन आकाश
एक ख़तरनाक़ जगह है
वहां लगातार उड़ते हैं हत्यारे वायुयान
गुप्तचर विमान
बमों से लैस
उससे भी ऊपर निर्वात में महाबलियों के अंतरिक्ष-यान
उड़ने के अनगिन नवजात स्वप्नों को मसल देते हैं
इस बिलबिलाते समकाल में
मसला उड़ने का नहीं
उड़ते हुए चंद लोगों द्वारा न उड़ पानेवालों के कोमल पंखों को
मसल देने का है. 

रात का प्रलाप

ढलते-ढलते
पसीज जाती है रात इन दिनों
अनसुना रह जाता उसका विलाप
दिखाई देते सुबह अश्रुकण पेड़ों के पत्तों से झूलते
गिरते घास की महीन पत्तियों पर
रात भर का बौखलाया कवि निकलता बाहर
सुबह के उत्सव में सोचता रात को मनुष्यता के विरुद्ध रूपक तो बना दिया गया
जबकि लड़ने की सभी तैयारियां होनी थीं वहीं
दिन के चमकीले अंधकार में पाता कि वह प्रकृति का अंधेरा था
किंचित सुकून था उसमें
पर उसके ढलने की कामना करते मनुष्य
बाहर निकलते ही ख़ुद को उजाले में तो पाते
पर ख़ामोश एक कहीं बड़े अंधकार में खो जाते
रातों के सिसकते विलाप
दिन में क्रूर अट्टहासों के बीच गुम होते हुए छोड़ जाते
हर चेहरे पर कुछ मानवीय उजास
हमने हमेशा अंधरों को पहचानने में भूल की
उससे भी ज़्यादा अपने सवेरों को पहचानने में भूल की
अब क्या भूल की
वह भी भूलते जा रहे हैं हम.

खेद का प्रलाप

मेरे ही रक्त में मौजूद थे कुछ शत्रु उसके
मेरे होने की रोशनी में छुपा था कुछ स्याह भी
उधर शायद रह-रहकर उठती मेरे हृदय की भभक का धुंआ था
एक ज़रूरी रोशनी के बीच जीते
काम करते
उस स्याह को
वक़्त रहते साफ़ करना मैं भूल गया था
अभी बेबस पोंछता हूं हर दाग़
बाहर के त्यौहारों में भीतर का उजाला अनदेखा न रह जाए
उसी में तय होने हैं आगे के सफ़र
अब इतना भर यत्न मेरा कि पहले भीतर के उजाले में चलूं
फिर कहीं बाहर दिखूं
आप चाहें तो इसे नए साल का संकल्प मान सकते हैं
और किसी भी चमक दमक वाले बाहरी त्यौहार में शामिल न हो पर
मेरा अग्रिम ख़ेदज्ञापन भी. 

नीले पड़ जाने का प्रलाप

रंग सब भले ही हैं जब तक महज रंग हैं वो
विचार हैं तो सोचना पड़ेगा
धमनियां साफ़ लाल लाती हैं 
शिराएं गंदा नीला ले जाती हैं
यह रक्त के अलावा
मानुषमन में कुछ और छानने साफ़ करने की
बात भी है
और मनुष्यता का जो हाल है अब
लगता है कुछ भी छनना
बंद हो जाएगा
रक्त नीला होगा तब नीयत भी नीली होगी
मनुष्य कुछ और गिरकर भी जी लेगा 
नीले होकर अब भी जी ही रहे हैं कुछ लोग
लाल और सफ़ेद को निगलते हुए.

भवाली की ठंड का प्रलाप

सर्दियों की इन रातों में ठिठुरते नहीं, सुकून के साथ डूबते-से हैं
ये पहाड़.
कहीं कुछ लोग ठिठुरते हैं कि पहनने को पर्याप्त ऊन नहीं उनके पास
वंचितों के घर ठिठुरते हैं
कि चीड़ की टहनियों से रात उलांघ जाने लायक कोयले नहीं बनते
– वे अपने सग्गड़ों की राख में बची खुची आंच कुरेदते हैं.
ठंड के मारे नेपाली कच्ची के नशे में ज़ोर की आवाज़ में गाते हैं गीत
कुछ लोग हीटर के पास बैठे कोस लेते हैं उन्हें
बिना उस नशे को जाने
जो दरअसल कच्ची का नहीं
चढ़ती ठंड और उतरती शराब के बीच मुलुक के याद आने आने का है
और हर प्रवासी पुरुष के मुलुक में
कुछ स्त्रियां बसती हैं
– अलग-अलग रिश्तों के नाम से.
मैं ये कुछ संवेदना के शब्द लिखता हूं, यह जानते हुए
कि इनमें आभा नहीं
आभास भर है
– इस जानने के बीच लेटे हुए एक गर्म बिछौने पर
शरीर तो नहीं
पर मेरी आत्मा अकसर ठिठुरती है इन दिनों.
इस ठिठुरन में कितनी तो शर्म है
पर वह भी इस समकालीन जीवन में एक जाती हुई चीज़ है
यह जानना भी कुछ जानना ही है कि शर्म सिर्फ़ शरीरों में निवास नहीं करती.
वह प्रवासी पक्षी है
– उसे रहने को जीवन से भरे ज़्यादा गर्म इलाक़े चाहिए.

जन्म का प्रलाप

मां के गर्भ से आया हूं
कि पिता के गर्व से
इस पर उन दोनों अब तक विवाद है
गर्भ एक विस्मृत जगह है
होते-होते मां में भी
उसकी जगह एक गर्व ने ले ली है
मेरी नौकरी मेरा कुछ नाम
उसका गर्व हैं
अपने आने को अनहुआ नहीं कर सकता मैं
गर्व के बीच टूट भर जाता हूं
मेरे लोगो
सहृदयों के इस सभागार तक भी
मैं जैसे आया हूं
मुझे आने के लिए धन्यवाद नहीं
अपना हाथ का सहारा दो
अभी मुझे वापस भी जाना है 
कविता बाद में पढ़ूंगा
पहले मां और पिता के गर्व के बाद
थोड़ा कुछ बचा
अपना यह जीवन गढ़ूंगा
इस बीच मैं कुछ भी लिख दूं
उसे
कविता मत समझ लेना आप 

मुक्ति का पुनरुक्ति प्रलाप

एक स्त्री ने कहा था चिढ़ कर जाओ मैं तुम्हें मुक्त करती हूं
एक ने विवश होकर
एक ने कुछ दयालु होकर 
यों मुझसे कुछ स्त्रियों ने कहा जाओ हम तुम्हें मुक्त करते हैं
ये मुक्तियां थीं
जिनमें कहीं खीझ कहीं विवशता और कहीं दया का अक्षम्य भाव था
आज अपने सामाजिक एकान्त में
मैं कह रहा हूं एक स्त्री से बिना उसे बताए
ओ मेरी प्यारी तू मुक्त ही थी सदा से
बंधन तेरे अपने गढ़े हुए भरम थे
उन्हें भी तोड़ता हूं
जानता हूं उनका टूटना तुझे दु:ख देगा
बाहर कुछ नहीं
भीतर सब कुछ
सुन मैं न चिढ़ता हूं न विवश अनुभव करता हूं कभी ख़ुद को
मैंने जीवन के गझिन अंधेरों में भी अपना पथ आलोकित पाया है
दया मेरे लिए नहीं है
वह प्रेम है
तू मुक्त है सदा के लिए मैं बंधा हुआ
सब कुछ भीतर
बाहर कुछ नहीं
वो जो देखा था चलते कभी बहुत पहले एक नौजवान को
सधे और तेज़क़दम
उसमें बहुत कुछ न देखना भी था तेरा
बाहर कुछ नहीं
सब कुछ भीतर
अनदेखा ही अब भी
वह चलता है कुछ लड़खड़ाता
कहीं नहीं सहारों के बीच
वह किसी के सहारे चलता दीखता है
पर
सब कुछ भीतर
बाहर कुछ नहीं
जीवन सभी का पुनरुक्तियों से बना है
सुन
सुन तू मुक्त है सदा से
सुन
पुनरुक्ति
सबमें दोष नहीं होती
कभी वह प्रकाश भी होती है 

लाल आंखों का प्रलाप

आंखें बीमार लगती थीं पर उनमें सुन्दर दृश्य थे
उन आंखों में
विलोमों के सम्बन्ध का एक विलोम था
स्थायी
उनमें पानी था
वह हृदय की आग को बुझाता नहीं, बचाता था
वो लाल रहीं सदा
हमेशा क्रोध में नहीं प्रसन्नता में भी
अकसर एक विचार में
निखरता रहा उनका रंग
यों लोग उनमें मनुष्यता के उत्सव को
संक्रमण समझते रहे
सूज जाते थे कभी उनके पपाटे मुर्दा स्वप्नों के भार से
वो उन्हें भी अपना जल पिलातीं
जिलाती थीं
जीवित चलते दिखते हैं वे स्वप्न अब जीवन में
तो आंखें उनसे
कोई आभार नहीं मांगती
बोझिल दीखती हुई-सी वे दरअसल अभार हैं
हल्की हवाओं में कभी उन्हें देखो
कई आंखों के बीच वो आंखें बुझती-सी लगें तो समझ लेना
यह बिखरती चिनगियों की संभाल भर है
एक दिन अचानक वो होंगी साफ़ सफ़ेद चमकदार
पुतली काली कुछ ज़्यादा
उनके नीचे उम्र भर की स्याही भी
उस दिन नहीं होगी
वहां एक अंतिम आभा होगी
उसे प्रकाश मत समझ लेना.

पेशावर कोकरीझार प्रलाप

कहां रहता हूं मैं
पेशावर का महज नाम सुना है
कोकरीझार का भी
मैं कहां रहता हूं
पेशावर और कोकरीझार में नहीं रहता
मुझे सुखी रहना चाहिए
बंदूकें नहीं तनी हैं मुझ पर
मेरा बेटा भविष्य के सपने देखता है बेखटके
पत्नी प्यार और कलह
दोनों ही निभाती है एक-से समर्पण भाव में
वह संस्कारी पत्नी है
ख़ुश रहना चाहिए मुझे
चाय नाश्ता खाना सजा हुआ मिलता है
मुंह के आगे
तनख़्वाह दो-चार दिन आगे पीछे ही सही चली जाती है
ख़ाते में
दुखी रहना मेरी आदत हो गई है
मैं आदतन दुखी और क्रोधित हूं ऐसा जानकारों का मानना है
मेरा दुनिया में इस तरह हो रहना एक मान्यता भर बनके रह गया है
एक मान्यताप्राप्त संस्थान मान्यताप्राप्त नौकरी करते हुए
मान्यताप्राप्त छात्रों को पढ़ाना
और मान्यताप्राप्त जीवन में मान्यताप्राप्त परिवार के बीच चले आना
दो-चार लोगों में बैठते ही मान्य हो जाना
ये कुछ लानतनुमा अलामतें हैं
मेरा होना सम्बद्धताओं के बीच है सम्बन्धों के बीच की जगहें
अब ख़ाली हैं
और मैं दो जगहों के नाम सुनता हूं बौखलाता बर्राता हुआ-सा
लगता है मुझे कोई दंश दे सकने वाला कीट होना चाहिए था
पता नहीं कैसी आम तौर पर न सुनी जा सकने वाली
ध्वनियां निकलती हैं मेरे गले से
कि अचानक कई तरह के कीट मेरे सिर पर उड़ने लगते हैं
बच्चे मार दिए गए थे कहीं उन जगहों पर जिनका नाम भर सुना है मैंने
और मैं पागल हुआ जाता हूं
इन क़त्लों के ब्यौरे देने लायक साहस नहीं मेरे पास
पागल हो जाने भर मनुष्यता ज़रूर कहीं बची है
मैं उसी के सहारे हूं
मेरा इलाज तो हो रहा है पर रोग को पूरी मान्यता मिलना बाक़ी है
मैं पेशावर और कोकरीझार में नहीं रहता
उस जगह रहता हूं
जो कल बदल सकती है ऐसी ही किसी जगह में
डरता नही हूं
इसे मेरी एक मानवीय भूल मान लिया जाए
चलिए मेरे पागलपन को भी अब
मान्य किया जाए
बच्चों को मार सकने वाली कायरता धारे
अरे ओ अनाम मरदूदो
तुम
हां तुम हो जो पेशावर और कोकरीझार में रहते हो
मैं सहता हूं तुम्हारे बोझ को अपने पटपटाते हृदय पर
को वहां न रहते हुए भी
  

भूमि अधिग्रहण का प्रलाप

क्यों टीन टपरिया छीन रहे
क्यों फूस छपरिया छीन रहे
सब चोर छिनैतों के साए हैं
आज जो हम पर छाए हैं
कैसे इनसे बच पाएंगे
अब कैसे हम जी पाएंगे
पूंजी का बुलडोजर है
नीचे कितने ही घर है
कब तक जीना डर डरकर
धरती कांपे रह रहकर
निकले हैं जन रस्तों पर
भूमि बचाएंगे लड़कर
मुझको कवियों से कहना है
बोलो कब तक ढहना है
जिसमें अपने लोग नहीं हैं
सोज़ नहीं है सोग नहीं है
जो खुद में घुटकर रह जाएगी
वह कविता अब मर जाएगी
जंगल छीने नदियां छीनीं
फ़सलें छीनीं बगिया छीनी
धरती लेकिन नहीं मिलेगी
फूल जले तो आग खिलेगी
­­­­_______________________________
शिरीष कुमार मौर्य
निकट शाइनिंग स्टार स्कूल, वसुंधरा 3, भगोतपुर तडियाल, पीरूमदारा
रामनगर, जिला-नैनीताल (उत्तराखंड) पिन- 244 715  
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