देस-वीराना में आप उन नगरों की दास्ताँ पढ़ रहे हैं जो एक दिन हम से छूट जाते हैं. इस तरह हम सब में कही न कहीं एक प्रवासी है, जो अपने देस–वीराना को याद करता है. स्मृतियों की सड़क पर यादों की बस इस बार भूटान के फुंसोलिग पर रुकी है. निर्मला शर्मा भूटान की संस्कृति को भी देखती हैं. एक ऐसा पड़ोस जिस पर हमारी नज़र कम ही जाती है. बेहद दिलचस्प
फुंसोलिग
निर्मला शर्मा
करीब ढाई हज़ार किलोमीटर की दूरी पर, जब मन अकेला वेधशाला की तरह होता है और दिमाग नक्षत्रों भरी चिट्ठी, तब स्मृतियाँ किसी टेलिस्कोप की तरह कभी न खत्म होने वाले पहाड़ों के इर्द–गिर्द अपना लैंस घुमाती हैं. मैं चौंकती हूँ. मैं आँखें मिचमिचाती हूँ और एक नदी कौतुक से मेरे पास बैठी होती है. मैं उसका नाम याद करने की कोशिश कर रही हूँ, लेकिन वह बलखाती हुई गेंद की तरह लुढ़कती चली जा रही है. हिमालय मेरे वज़ूद के चारों तरफ वलय बनाता जा रहा है. इस वलय में जंगली फूलों की छुट–पुट आकृतियाँ हिलती–डुलती हैं. बरफबारी की आवाज़ जैसे मेरे दादा जी के भारी बूटों की आवाज़ है. इन आवाज़ों के बीच नेपाली लोक गीत बच्ची बनकर दौड़ रहा है. गीत नहीं यह खुद मैं हूँ.. दो चोटियों में गुंथी लाल रिबन की लम्बी होती जा रही यादें ..पाईन खबर ..पाईन खबर…
मैं लेखिका तो हूँ नहीं, कभी इस बारे में सोचा भी नहीं, लेकिन कलम उठाकर जब आँखें बंद कीं तो पाया कि –
नयनरम्य प्रदेश में मेरा जन्म हो रहा है. पर कोई थाली बजाकर मेरे पैदा होने में भेद पैदा नहीं कर रहा है. जो गीत उसके लिए होते, वही मेरे लिए भी हैं. तीन दिनों तक कोई मेरे आस–पास नहीं आएगा. केवल माँ होगी. किसी भी तरह के संक्रमण से मुझे बचाती. तीन दिन बाद नए रिश्ते मुझे सौंपे जायेंगे और जयगांव के पास के एक मंदिर में मेरे होने का उत्सव घाटियों में झर –झर झरना बनकर बह चलेगा.
मेरी स्मृतियों में एक दरवाज़ा है ..
द्वार सुख और दुःख की तरह भीतर ही खुला करते हैं. उनकी चौखटें जिंदा इतिहास होती हैं और चूलें पीछा करती हुई आवाज़ – पता नहीं कितने कुलों को सहेजने के लिए ये एक आकार की तरह हमारी यादों में जड़े रहते हैं – काठ की इनकी आँखें कभी सोती नहीं – गौर से हमारी तरफ टकटकी लगाये एक रास्ता इनसे हम तक आता है ..चींटियाँ इनके दायरों में घूमती हैं जैसे हमारे पुरखों की अबूझ कहानियां इनकी पीठ पर सवार हो चली आएँगी …दाने लिए, दाने लिए…
खैर ऐसा सुन्दर द्वार मैंने कभी नहीं देखा. यह खुलता है तो एक देश इसमें करवट बदलता दीखता है. भूटान को मैं इस द्वार के ज़रिये कभी भी अपने भीतर खुलता देखती हूँ और घनी से घनी उदासी अहमदाबाद के शोर में हिमालय हो जाती है.द्वार क्या है एक तोरण है ..दो देशों के बीच की संधि ..इस पार जो मुझे सालता था वह अपने देश के पायदान पर जमा कूड़ा–करकट ..जबकि उस ओर जाने से पहले हमें बाकायदा साफ़–सफाई की कवायद करनी पड़ती थी. पानी की धार से अपने पैर धोकर ही हम इस द्वार के भीतर जा सकते थे. जैसे पैर धुला करते वैसे ही ट्रकों, साइकिलों या किसी भी वाहन के टायरों को शुद्धिकरण के अनुष्ठान से गुजरना होता था. द्वार के भीतर की यह शुचिता मेरी रीढ़ में उजाले की तरह समा गई.
मैं बात कर रही थी अपने गाँव की. यह हिमालय अपनी गोद में मेरे गाँव को खिला रहा है, पर जयगांव है कि इतने सालों में भी बड़ा नहीं हुआ. गाँव के बाहर पैर धरो तो भारत की अंतर्राष्ट्रीय सीमा छोटे–छोटे अनगिन बिन्दुओं पर अपना मानचित्र सजाती भूटान में खो जायेगी. भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में स्थित यह छोटा सा गाँव भूटान के प्रवेश द्वार पर स्थित फुंसोलिग की सीमा पर बसा है. सिर्फ एक पक्की सड़क, जो सीधी फुंसोलिग जाती है. जिसके आँगन में लहराती, बलखाती, गुस्से से उफनती नदियाँ, चारों तरफ हरे–भरे चाय के बागान, जहाँ तक नज़र जाएँ, ऊँची पर्वत श्रंखलाएँ, नज़रें हटाने को जी नहीं चाहता. छोटी थी तो अपनी दोनों चोटियों को खींचते हुए, मुंह में ऊँगली फंसाए सोचती थी कि क्या होगा इन पहाड़ी चोटियों के पीछे और अब जब फुर्सत की घड़ियाँ पाती हूँ तो भी अपने आँचल में गिठानें कसे सोचती हूँ क्या होगा इन पहाड़ी चोटियों के पीछे?कहते हैं कि आँचल में गाँठ बाँधने से खोयी चीज़ मिल जाती है ..देस वीराना ..कुछ सफ़ेद झक भेड़ें पास से निकल गईं याकी चाय बागानों से अजब–गजब ख़ुशबू उड़ रही हैं ..मेरा आँचल कांप रहा है ..और इसके ऐन नीचे बेफिक्री से उड़ते बादल ..
देखिये कभी–कभी यादों में कुछ बहुत ही साधारण किस तरह पैर जमाये रहता है, आप लाख चाहें यह टस से मस नहीं होगा. सिल्वर कलर के बिजली के खम्बे. खम्बे न हुए गोया जादूगर हुए. जब बादलों में बिजली दौड़ती तो मुझे लगता कि बस अब यह इन खम्बों में उतर गई है. मैं इनके तारों को देखती. एक चमकीला ड्रैगन लपक कर इन तारों में घुस जाता और मैं इंतजार करती उस पीली रौशनी का जो यदा–कद ही घरों को रंग देती थी. ट्यूबलाइट का जलना तो सपना था हमारे लिए. कितने खुश हो जाते थे, हम उस पीली रौशनी के सहारे चलते हुए. .कभी–कभार की वह टिमटिमाती रौशनी किसी ड्रैगन के मुख की ज्वाला जैसी लगा करती. इंसान इतनी छोटी खुशियों से भी इतना खुश हो सकता है?
आज एहसास होता है
जब हमारे गाँव में 1982 में पहली बार टी.वी आया, कितने सवाल थे हम सभी के दिमाग में. सचमुच एक पहेली थी. छोटा–सा गाँव, वहाँ के भोले–भाले लोग, किसके पास जवाब होता ? सभी चाय–बागानों में दिन–रात काम करने वाले मज़दूर्. व्यापारियों के नाम पर दूसरे राज्यों से आए लोग. कहा जाता है कि ये व्यापारी एक ही कपड़े को चारों तरफ से नाप कर इन्हें बेचा करते थे. आप समझ ही सकते हैं कि इससे ज्यादा भोला और कोई क्या होगा? इन्हीं भोले–भाले लोगों के बीच व्यापारियों ने पाँव पसारे, छोटी–छोटी दूकानें खड़ी की. अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर होने के कारण यह छोटा–सा गाँव न जाने कब जवाँ हो गया, कब धड़कनें आई, याद नहीं आता. यहाँ अनेक भाषा, जाति–धर्म के लोग निवास करते हैं कारण है अंतर्राष्ट्रीय सीमा, पश्चिम बंगाल की वह सीमा जिसके एक तरफ भूटान है और दूसरी तरफ नेपाल. इसलिए भूटानी, नेपाली, बंगाली, बिहारी, आदिवासी और व्यापार के लिए आए उत्तर भारतीय विशेषकर मारवाड़ी विभिन्न सम्प्रदाय के लोग आपको यहाँ मिल जाएँगे.
मेरे दादाजी यहाँ नब्बे साल पहले व्यापार के लिए आकर बसे. हिमालय के तराई क्षेत्र में बसे ये छोटे– छोटे गाँव– जयगाँव, विवारी, मंगलावारी, मोहनबागान, दलसिंगपाड़ा और हासिमारा और अनेक छोटी–छोटी बस्तियाँ चाय बागानों के बीच में लगभग बीस किलोमीटर के अंदर बसे हुए हैं. दलसिंगपाड़ा का चाय बागान एवं चाय पत्ती बनाने की फैक्ट्री आज भी याद आती है. चाय बागानों में चाय की पत्ती तोड़ती महिलाएँ, पुरुष, वृद्धएवं छोटे– छोटे बच्चे तड़के ही काम पर निकल जाते हैं.कारखाने में बनती चायपत्ती, ट्रॉली में चलती हरी–हरी पत्तियाँ, जमीन पर पड़े तैयार चायपत्ती के बड़े–बड़े ढेर आँखों के सामने अकसर जलतरंग बजाया करते हैं.
इस क्षेत्र की एकमात्र शिक्षण संस्था श्री गणेश विद्यालय से मेरी पढ़ाई का श्री गणेश हुआ. हालांकि आज तो यहाँ अनेक शिक्षण संस्थाएँ खुल गई हैं. परंतु तब तो यही एकमात्र पाठशाला थी, जहाँ हिंदी माध्यम से शिक्षा प्रदान की जाती थी. विद्यालय के अहाते में कदंब, आम एवं कटहल के पेड़, जिनकी घनी छाँव में बैठकर मैंने जीवन के अनेक पाठ सीखे. विद्यालय के दोनों तरफ दो बड़े–बड़े हॉलनुमा कमरे थे जिसमें से एक हॉल में पाँच और दूसरे में तीन कमरे थे. प्रत्येक दरवाज़ा एक कक्षा का प्रतीक था. बीच में कहीं कोई दीवार नहीं थी. अर्थात यहाँ एक से आठवीं तक की कक्षाएँ चलती थी. हमें तो अपनी कक्षा से ज्यादा दूसरी कक्षा में क्या हो रहा है इसमें रूचि थी. आज छात्रों को शारीरिक दंड देना अपराध माना जाता है, पर तब कितनी मार पडती थी सबको ? याद है जब बगल में बोरा दबाए मैं स्कूल जाती थी, एक हाथ में स्टील का बक्सा (स्कूल बैग) और दूसरी तरफ बोरा. क्योंकि कक्षा एक एवं दो के विद्यार्थियों के लिए टेबल–कुर्सी की व्यवस्था नहीं थी, जमीन पर बैठना पडता था. कक्षा तीन के छात्रों को देखकर स्वर्गीय आनंद की प्राप्ति होती थी, लगता था जैसे उन्हें राजसिंहासन मिल गया हो.
पास की कक्षा में ज्यादा शोर होने के कारण अधिकतर हमें अध्यापक बाहर पेड़ के नीचे बैठाकर पढ़ाया करते थे. गाणित के सर अधिकतर पेड़ की घनी छाया में मेज़ पर सिर रखकर सो जाते थे, काफी उम्र हो गई थी उनकी. अब जब भी मैं उनके बारे में सोचती हूँ, मुझे ईश्वरचंद्र विद्यासागर की ‘मेरे मास्टरसाब’ कहानी याद आ जाती है. जब मैं चौथी कक्षा में थी, तभी उनका देहांत हो गया था. यहाँ चाय–बागानों में काम करने वाले मज़दूरों के बच्चों को भुना दलिया और स्कूल की वर्दी मुफ्त में दी जाती थी. जब भी मैं इस पंक्ति में जाकर खड़ी होती, हमेशा बाहर कर दी जाती, शायद इस क्षेत्र के इकलौते कपड़ा व्यापारी के घर से संबंध रखना मेरे पंक्ति से निकाले जाने की वजह रही होगी. कितनी ललचाई निगाहों से देखा करती थी मैं.बचपन शायद इसीको कहते हैं। आज भी इस विद्यालय की दीवारों के अलावा कुछ नहीं बदला.
गाँव और अफवाहों का चोली– दामन का साथ है.एक बार गाँव में शोर मचा कि एक घेंट(गला)कटुवा आया है, जो बच्चों की गर्दन काटकर ले जाता है. नदी पर कोई पुल बन रहा है, वहाँ बच्चों की गर्दन चढ़ानी पड़ेगी. कितना डर गए थे हम उस वक्त. जिस भी अनजान व्यक्ति के हाथ में थैला होता, लगता कि शायद यही घेंटकटुवा होगा. गाँवों में अफवाहें आग से भी ज्यादा तेज़ फैलती है. झोला कई सालों तक मेरे लिए अफवाह बना रहा ..घर के रंगीन झोले भी रात पड़े घेंट कटुवा हो जाया करते थे और मैं चाची से चिपक कर सोने की कोशिश करती. माँ तो राजस्थान रहा करती थीं. पापा को तुरसा नदी के हाथी डूंगे (हाथी जैसे विशाल पत्थर) न जाने किस सफ़र पर ले गए कि अपनी साइकिल समेत जो थानों के भार से कुबड़ी हो गई थी ..के साथ फिर कभी लौटे नहीं ..और माँ में इतनी हिम्मत नहीं बची कि वह इन पहाड़ों को लौटतीं. मैं अपने दादाजी के पास रह गई और मेरी माँ हुईं चाची.
बचपन और डर का गहरा रिश्ता है, अँधेरे से बहुत डर लगता था मुझे. पूर्व दिशा में होने के कारण शाम पाँच बजे ही अँधेरा होने लगता था. जैसा कि मैंने बताया यहाँ बिज़ली सिर्फ कहने मात्र के लिए थी, चारों तरफ अँधेरा छा जाता था. लोगों के घरों में ढिबरी (काँच की बोतल के ढक्कन में छेद कर बनायी गई बत्ती) टिमटिमाती थी. दूर पहाड़ियों पर बत्तियाँ टिमटिमाती हुई नज़र आती थी. मेरे दादाजी की दूकान भूटान जाने वाली अंतर्राष्ट्रीय सड़क पर थी.पक्की सड़क के नाम पर यही सड़क थी, और जो भी दूकानें थी, इसी सड़क के दोनों ओर. दिनचर्या का सारा सामान इन्ही छोटी– छोटी दूकानों में मिलता था. घर से दूकान जाने वाली गली में हमारे विद्यालय की मुख्य अध्यापिका श्री मति चंद्रिका गुरुंग का घर था. दोनों पति–पत्नी हमें पढ़ाया करते थे. इनके घर अक्सर काफी अध्यापकों का जमावड़ा लगा रहता था. इनकी बड़ी बेटी मेरी सहेली थी, स्कूल से लौटने के बाद अक्सर हम दोनों पेड़ के ऊपर बैठकर मौसमी फल खाया करते थे. गाँव में सुपारी के वृक्ष दूर ढलान की उस सीमा तक फैले दिखाई देते जहाँ तक हमारा दृष्टि पथ उनके साथ एकाकार होता. डोमा श्हेस यहाँ के जीवन का मुहावरा था, जैसे पान और सुपारी न होंगे तो आस–पास सब थम जाएगा. कांज़ा यानी कच्ची सुपारी सर्दियों को गरमाए रहती और गर्मी में मूंज़ा –पुरानी सुपारी देह को ठंडक देती.
छोटी माँ ने मेरे लिए इसे वर्जित रख छोड़ा था और इसीलिए मैं सुपारी के पेड़ों के आस–पास मंडराती. पडौस में दादाजी के एक मित्र थे; जोखू दा. उनके कमरे में रखी आबनूसी रंग की अलमारी हम बच्चों के आकर्षण का केंद्र थी. यह अलमारी दा का अनमोल पिटारा थी. इसके ऊपर दायें हाथ को चांदी का चौकोर चका रखा रहता. इसमें ताज़ा पानी (पान) रखे रहते. पास ही थिमी रहती जिसका ढक्कन मंदिर के कलश जैसा था, यह सुपारी से लकदक रहता. बाद में जब दा के दांत झड गए तब पान तो उनका छूट गया,लेकिन चाचा जी से उन्होंने ड्रेचा मंगवा लिया था.इससे सुपारी के बारीक टुकड़े हो जाते थे ..लगभग चूरा हो जाती थी और वह इसे जब–तब दिनभर में खाते रहते.डोमा–पानी (सुपारी–पान) मेरी याद में जस का तस है, और खासकर वह लकड़ी की अलमारी ..जिसके खुलने की आवाज़ दादाजी की खरखराती आवाज़ के साथ सिंक्रोनाइज़ होती थी.
जब भी शाम पड़े मैं दादाजी की दूकान जाती, एक साँस में पूरे हनुमान–चालीसा का पाठ करती हुई दौड़कर जाती और अगले दिन मेरे गणित के अध्यापक सी.वी.सर पूरी कक्षा में मेरा मजाक उड़ाया करते कि इतना लंबा हनुमान– चालीसा तुम्हें याद है पर a+b= क्या होता है तुम्हें याद नहीं रहता.आप क्या जानो सर कि डर क्या होता है? डर अच्छी–अच्छी चीजें याद करवा देता है.
श्रावण के आते ही अचानक पूरे क्षेत्र में भगवा कपड़ों की बिक्री बढ़ जाती है. सभी गाँववासी प्रत्येक सोमवार को तड़के उठकर तुरसा नदी से जल लाकर ठाकुरवाड़ी में, बोल बम का उच्चारण करते हुए भगवान शिव पर चढ़ाते थे. उस समय हम सभी बच्चों के तो उत्साह और जोश का तो ठिकाना ही नहीं रहता था. लंबे बाँस के डंडे के दोनों तरफ बोतलों में पानी लटकाकर सारा दिन मंदिर के चारों तरफ चक्कर काटते थे. ‘बोल बम का नारा है, बाबा एक सहारा है’, क्या रटोगे– बोल बम, क्या लिखोगे– बोल बम,क्या पढ़ोगे–
बोल बम’ का नारा लगाते हुए हम सभी बच्चे ऐसे भक्ति के रंग में डूबे रहते कि लगता था जैसे साक्षात शिव अभी प्रकट हो जाएँगे.
अलग–अलग संप्रदायों के लोगों के होने के कारण कुछ न कुछ चलता ही रहता था. बौद्ध धर्म के अनुयायी बुद्ध पूर्णिमा मनाते थे. पूरी रात गुंबा (बौद्ध मंदिर )में घंटे बजते थे और सुबह सभी भूटानी (भूटान के मूलनिवासी, जिन्हें गांलोप कहा जाता है) अपनी पारंपरिक पोशाक पहने (यहाँ के पुरुष बक्खु और महिलाएँ कीरा पहनती है) सिर पर बौद्ध ग्रंथ लिए पूरे शहर में जुलूस निकालते. पहले मुझे लगता था कि ये अपने सिर पर पावरोटी लेकर जाते हैं और जुलूस समाप्त होने पर खा लेंगे; लेकिन बड़े होने पर पता चला कि ये बौद्ध ग्रंथ हैं. मेरे लिए यह पावरोटियां बिक्खुओं तक जाने वाली भूख थीं ..जिसमें एक धर्म किसी गस्से की तरह मेरे गले में फंस जाता और कई गुम्बा के गुम्बा मेरी साँसों में हाँफा करते.
भूटान के प्रत्येक दूकान में वहाँ के राजा की तस्वीर लगानी अनिवार्य है. पहले यहाँ भी सभी व्यापारी ज्यादातर भारतीय थे,पर आज स्थिति बदल गई है. भूटान एक ऐसा देश है, जहाँ एक भी सिनेमा घर नहीं है, लेकिन भूटान के फुंसोलिग शहर में दो सिनेमा घर थे– एक नोरगे और दूसरा मिग. दोनों ही सिनेमा घरों में हिंदी पिक्चर ही लगा करती थी. पर आज नोरगे तो बंद हो गया है और मिग में भूटानी पिक्चर ही प्रदर्शित की जाती है.कारण आज जोंखा भाषा में भी सिनेमा का निर्माण हो रहा है ..जोंखा और हिंदी के बीच की दूरियां मुझे भयभीत करती हैं और बार–बार मुझे लगता है कि दुनिया की न जाने कितनी प्रजातियाँ बैबल की उस भाषाई लड़ाई के रहते अनायास ही दूर होती चली गई हैं ..भाषाओँ की यह राजनीति बड़ी आक्रामक होती है ..एकदूसरे के देवताओं का निर्माण करती और उनके बीच फूट पैदा करती इंसान को लौंदा बना देती है.
मेरे गाँव में त्योहारों के अलावा जिंदगी में खुशियाँ बहुत कम ही दस्तक देती थीं. हम सभी को इन त्योहारों का इंतजार रहता. दुर्गा पूजा की मूर्तियाँ मैं घंटों निहारती,लेकिन इनका विसर्जन,शंख की आवाजें ..हो–हो का शोर .. किसी आदिम शोर को बचाए रखने का तमाशा लगता.
दशहरे में यहाँ मेला लगता था, तीन दिन तक बहुत ही चहल–पहल रहती थी, मेले में सजी सुंदर–सुंदर दुकानें लोगों का मन मोह लेती थी. इन दो–तीन दिनों में लोग पूरी जिंदगी जी लेते. दशहरे में नेपाली लोगों में ध्यौंसी खेलने का प्रचलन था और अब भी है. रात को लड़के प्रत्येक घर में जाकर ‘झिलमिली झिका ध्यौंसी रे, आयो पुग्यो ध्यौंसी रे. ‘दिनु परछ ध्यौंसी रे’ गाते हुए प्रत्येक घर में जाते हैं.लोग इन्हें पैसे देते.मैं भी इन्हीं के बीच अपनी छोटी हथेलियाँ फैला देती ..बाद को मैंने कब अपने आपको लड़की मानना शुरू कर दिया कि यह खेल मुझसे पीछे रह गया और रात से मैं डरना सीख गई.
दुर्गावाड़ी के पीछे वाले मैदान में मज़दूरों को बड़े से सफेद परदे पर फिल्म दिखाई जाती थी.रोटी, कपड़ा और मकान, जूली और कुली फिल्म के कुछ दृश्य हल्के–हल्के अब भी याद आते हैं.घर की छ्त पर बैठकर मैंने ये पिक्चर देखी थी क्योंकि शाम के बाद घर से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी. हाँ, सर्कस यहाँ साल में एक बार ज़रूर लगता था।बहुत घूमते थे हम सर्कस में. बार– बार जिज्ञासावश इनके तंबुओं के पीछे जाकर देखा करते थे कि ये लोग कैसे रहते हैं?
दुर्गावाड़ी के भवन में लगने वाली रामलीला, कितनी उत्साहवर्धक होती थी. शाम होते ही अपना बोरा लिए अग्रिम पंक्ति में मैं अपनी जगह बना लेती थी. रामलीला देखने की छूट थी मुझे, क्योंकि मेरी दादीजी भी मेरे साथ आती थी. इसलिए रामलीला के समय मेरा उत्साह दुगुना होता था.शायद ये सभी कलाकार बिहार से आते थे। सभी पुरुषपात्र स्त्री पात्रों का किरदार निभाते थे. ग़ाँव में एकमात्र कपड़े की दुकान होने के कारण वे दिन में हमारी दुकान पर ज़रूर आते थे।उनसे बातें करना बहुत अच्छा लगता था. रामलीला का वह दिन मैं कभी नहीं भूला पाती, जब दशरथ की भूमिका निभाने वाले पात्र की मृत्यु उस दिन हुई ,जब पहली रात को उन्होंने दशरथ मृत्यु का नाटय मंचन किया. बहुत छोटी थी मैं लेकिन सब कुछ आज भी याद है. रामलीला को बीच में ही बंदकर सभी अपना सामान ट्रक में भरकर चले गए.
हमारे गाँव की चौपाटी जिसे हम चोपोती कहते थे– गाँव के बाज़ार के नाम पर यही एक स्थान था, जहाँ काफी चहल– पहल रहती थी. इसके अलावा बुधवार और शनिवार को यहाँ हाट लगता था, जो आज भी लगता है. आस–पास के गाँवों से आकर हाट लगाते थे, जहाँ हर तरह के व्यापारी आकर खाली मैदान में आकर दुकानें जमा लिया करते थे. हाट लगने का मुख्य कारण चाय बागानों में काम करने वाले मज़दूरों को इनका मेहनताना मिलना रहता था. इसी हाट में दादाजी की भी एक दूकान थी जहाँ मैं घंटों उनके साथ कपड़े की गाँठ खोलना, सजाना, अँधेरा होते ही वापस गाँठ बाँधना किया करती. इस खेल ने मुझे कैसे और कब सजग बना दिया याद नहीं, लेकिन दादाजी को यह भरोसा जरुर हो चला था कि निम्मो के बिना न थान खुलेंगे, न बंधेंगे.हालांकि हाट सप्ताह में दो–तीन बार ही लगता था,पर मेरे व्यस्क होने तक यह मुझे थान के थान देता चला गया …पता नहीं कितने मीटर जिन्दगी मैंने लपेटना–खोलना सीखा इनसे!हाट केवल पैसों की खनक नहीं थे,बल्कि ऐसी ख़ुशी का पर्याय थे जो बिजली की तरह कौंधती है और फिर आकाश में लौट जाती है.
व्यापारी एवं स्थानीय लोग सभी के चेहरों पर खुशी स्पष्ट देखी जा सकती थी. जो रुपए उन्होंने कमाए हैं, उन्हें समाप्त करके ही घर लौटेंगे क्योंकि आज कमाना और आज खाना ही उन्होंने सीखा है, बचत जैसा शब्द शायद उनके शब्दकोश में नहीं था. याद आती है हाट की वह पतली–सी गली, जहाँ बच्चों का जाना निषेध था. इस गली में अधिकतर महिलाएँ एल्युमिनियम की देगचियों (मटकेनुमा बर्तन)में जाड़ (देशी शराब,जो सरसों से बनती है) बेचा करती थी.
घर को लौटते हुए पुरुष और महिलाएँ अपनी दिन भर की थकान मिटाते हुए रास्ते में पड़े मिलते.नज़रें चुराकर उनकी हरकतों को देखना, बड़ा ही हास्यास्पद लगता था. शायद खुशियाँ ढूँढ़ने का यही उनका तरीका होगा? उनकी जीवनशैली जानकर आपको आश्चर्य होगा क्या लोग इस तरह भी जी सकते हैं. प्रात:काल ही एक बड़े बर्तन में चावल और दूसरी तरफ चाय पत्ती उबाल लेते थे। उसी लाल चाय में चावल और थोड़ा–सा नमक मिलाकर लोग तीनों वक्त गुजारा करते थे. मेरे साथ पढ़नेवाली कुछ लड़कियों के नाम चाय बागान में दर्ज थे.
गाँववासियों का रहन–सहन अत्यंत सीधा–साधा था, चाहे सीमा के इस पार हो या उस पार. हमारे यहाँ आठवीं तक ही स्कूल था,इसलिए छोटी माँ ने पढने के लिए मुझे राजस्थान भेज दिया. दिन तो इस नए प्रदेश में कट जाता था, लेकिन रात गहराती तो यादें लम्बी हो साए की तरह पीछा करतीं. वहां हमारे घर में टीन की छतें थीं और पानी तो लगभग रोज़ ही बरसता था..इसलिए नींद का बारिश की टिप–टिप से गहरा नाता था. बारिश गिरती तो छन्न से टीन बजती,टीन बजती तो लोक–कथाओं से अनगिन लोरियां हुलारातीं और कब नींद का पलकों पर गिरना होता,पता ही न चलता.पहाड़ मेरी मानसिकता थे और यह नया प्रदेश थोपी हुई संभावनाओं व भविष्य का न समझ आने वाला सपना …पहाड़ अब नौसटेल्जिया हैं और मरू प्रदेश मेरे विकास का आबाद व्यक्तित्व.
प्रतिवर्ष जब भी गर्मी की छुट्टियों में जयगांव जाती हूँ, तो लगता है हम वाकई कंक्रीट के जंगलों में रहते हैं, जहाँ भागते–दौड़ते हमारी संवेदनशीलता एवं मानवीयता समाप्त हो गई है. क्या हम वाकई अहिल्या बन गए? देस वीराना को अपना गाँव सौंपते हुए ..कि मेरे गाँव तू जा और उन आँखों के परदे पर टंक जा ..जिन्होंने अपनी देह में कोई गाँव जिया ही नहीं.
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निर्मला शर्मा
दिल्ली पब्लिक स्कूल
बोपल, अहमदाबाद
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