ओम निश्चल
नन्दकिशोर आचार्य को उनके संग्रह “छीलते हुए अपने को’’ पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया जाना प्रसन्नता का विषय है कि एक चिंतक कवि को यह पुरस्कार दिया गया है जिसकी कविता आत्मोपचार की तरह लगती है. नंद किशोर आचार्य की अब तक कोई एक दर्जन से ज्यादा काव्यकृतियां आ चुकी हैं. पिछले चार- पांच वर्षों में ही नन्दकिशोर आचार्य के कई संग्रह आए हैं. \’चांद आकाश गाता है\’, \’गाना चाहता पतझड़\’, आकाश भटका हुआ, छीलते हुए अपने को और \’केवल एक पत्ती ने\’ इत्यादि. पर सच कहा जाए तो इन सभी संग्रहों का मिजाज एक-सा है. यों देखने में उनकी कविताएँ अपने ही चित्त में रमी हुई लगती हैं जैसे सामाजिक सरोकारों से उनका कोई लेना देना ही न हो. पर अज्ञेय के नक्शे कदम पर चलने वाले नन्दकिशोर आचार्य ने उन्हीं की तरह अपनी कविता को निज-मन-मुकुर बनाने की चेष्टा की है. अज्ञेय की कविता तो अपने इस कौल करार के बाद भी बहुधा ज्यादा ही बोलती है, पर आचार्य की कविताएँ वाकई कम बोलती हैं. इस तरह खामोशी को ही रचने-बुनने की अज्ञेय की अवधारणा के वे सच्चे अनुयायी दिखते हैं. पर नन्दकिशोर आचार्य के कवित्व में न केवल मितभाषिता है, बल्कि उसमें अर्थ-गांभीर्य भी है.
भारवि के अर्थ-गौरव की तरह नन्दकिशोर आचार्य की लघु कविताओं में अपार भाव-संसार लहराता मिलता है. जल-संकट से जूझने वाले राज्य राजस्थान के रहने वाले आचार्य के यहां जल और जल-संकट को लेकर जितने बिम्ब और अनुगूँजें मिलेंगी, उतनी शायद अन्य कवियों में नहीं, यहॉं तक कि राजस्थान के कवियों में भी नहीं. अचरज नहीं कि कविता के सरोवर में आचार्य के उतरने का पहला साक्षी \’जल है जहाँ\’ रहा है जो कि उनका पहला संग्रह ही नहीं, कविता में उनकी प्राथमिक पैठ का परिचायक भी है. उनके भीतर अक्सर अवसान, मृत्यु और उदासियों का लगभग वैसा ही सुपरिचित वातावरण मिलता है जैसा प्राय: कलावादियों के यहां. पर यह अच्छी बात है कि उनके यहां समकालीनों जैसी स्थूलता के दर्शन नही होते, बल्कि प्रकृति, स्वभाव, पंचभूतों और फैले हुए अछोर जीवन के छोटे से छोटे क्षण-कण बीनते- बटोरते हुए वे एक ऐसी अर्थच्छटा बिखेर देते हैं जैसे धरती पर हास बिखेरती चांदनी या आकाश में उजास फेंकती तारावलियां. उनकी कविताओं की गैलेक्सी में अनुभूति के हर लम्हे को महसूस किया जा सकता है. उनकी एक कविता : \’रह गया होकर कहानी\’ के बोल हैं:
कविता होना था मुझे
रह गया होकर कहानी
न कुछ हो पाने की
मेरा सपना
होना था जिसे
रह गयी होकर रात
नींद के उखड़ जाने की
उम्र पूरी चुकानी थी
एक पल मुस्कराने की.
एक जीवन की पूरी यात्रा–पूरी नियति सन्निहित है इन पदावलियों में. आचार्य जहां एक तरफ तत्वचिंतक की हैसियत रखते हैं, गांधीवादी मानववादी चिंतन की आस्तित्विक पहचान उनके यहां दीखती है, वहीं उनके भीतर निवास करने वाले एक सुकोमल चित्त वाले कवि से भी भेंट होती है जो\’सनातन\’ और \’चिति\’ का उपासक है. अज्ञेय ने लिखा था न कि : \’\’कवि गाता है: अनुभव नहीं/ न ही आशा-आकांक्षा: गाता है वह/ अनघ/ सनातन जयी.\’\’ यह चिरन्तनता आचार्य की कविताओं में मौजूद है जो समय के सुदीर्घ अंतराल के बावजूद कुम्हलाने वाली नहीं है. वह मानवीय भावनाओं की एक सतत उपस्थिति है. आचार्य इसी सातत्य के अनुगायक हैं.
अछोर समय के बहते संगीत के श्रोता हैं. अपने कवि-स्वभाव का परिचय देते हुए वे एक कविता: \’भाषा से प्रार्थना\’ में कहते हैं:
वह– एक शब्द है
एक शब्द है–तुम
भाषा से मेरी
बस यही प्रार्थना है
तुमको \’वह\’ न कहना पड़े
इसलिए खोजने दो
अपने में
अपने \’मैं\’ को मुझे—
शब्द है वह भी.
अपने \’मैं\’ को अपने में खोजते हुए इस कवि को भले ही कोई निज की चित्तवृत्ति का प्रकाशक माने, अंतत: कविता का प्रदेय क्या यही नहीं है कि हम उसमें अपना अक्स देख सकें. वह समाज का दर्पण होने के पहले कवि का अपना दर्पण भी तो है. हालांकि आचार्य ने एक जगह कविता को दर्पण नहीं, चाकू बताया है—आत्मा में गहरे तक धँसा, न जिसको रख पाना मुमकिन, न निकाल पाना. तथापि, आचार्य ने अपनी कविता को समाज का दर्पण होने के पहले निज का मन-मुकुर बनाया है. उनकी कुछ कविताएँ उद्धृत करते हुए मैं कहना चाहता हूँ कि प्रेम कविता किस तरह हमारे चित्त को बींधती है, इसे कोई कवि ही महसूस कर सकता है. जिसका अनुभव जितना व्यापक, संवेदी और गहरा होगा, उसकी अभिव्यक्ति भी उतनी ही अनूठी और वेधक होगी. ये कविताएँ इस बात की गवाही देती हैं :
शब्द से ही रचा गया है सब-कुछ
यह मैं नहीं मानता था
जब तक मैंने
नहीं सुनी थी तुम्हारी आवाज़
हर पल ही
रचती रहती है
संसार जो मेरा.
(तुम्हारी आवाज़)
तुम्हारी नींद में जागा हुआ
हूँ मैं
मेरे ध्यान में सोयी हुई
हो तुम
ध्यान में जगा भी लूँ तुम्हें
जाग कर फिर सो जाओगी—
नींद में जगता रहूँगा मैं.
(नींद में जगता)
आना
जैसे आती है सांस
जाना
जैसे वह जाती है
पर रुक भी जाना
कभी
कभी जैसे वह
रुक जाती है.
(रुक भी जाना कभी)
उनकी कविता पर विहंगम दृष्टि डालते हुए अचानक एक बेहतरीन प्रेम कविता पर दीठ बिलम जाती है और वह कविता है भी ऐसी नव्य भव्य :
जंगल बोलता है चिड़िया की खामोशी
बोलता है
तुम्हारी चुप में सूनापन
मेरा जैसे
जंगल खिल आता है
फूल होने में
खिल आता हूँ मैं
तुम्हारे होने में जैसे
तुम्हें सुना करता हूँ
मैं
मुझमें खिल आती हो
तुम.
(खिल आती हो तुम)
इन कविताओं से आचार्य का जो मिजाज सामने आता है, वह सामान्यत: एक रोमैंटिक कवि का-सा लगता है. वह है भी इस अर्थ में कि कविता में रोमैंटिक होना कवि के लिए अपकर्ष का कारण नहीं है. पूरी योरोपीय रोमैंटिक कविता गवाह है कि मानव-मन के रहस्य को उकेरने-व्यक्त करने में उसने कामयाबी हासिल की है. इन प्रेम कविताओं में एक निरलंकृति है किन्तु अपनी पूरी झंकृति के साथ. एक परिष्कृति है अपनी सुसंगति के साथ. और आचार्य जैसा कवि तो हर कविता को प्रेम कविता मानने वाला कवि है. उनकी हर कविता प्रेम कविता है. अशोक वाजपेयी ने लिखा है: \’शब्द से भी जागती है देह/ जैसे एक पत्ती के आघात से होता है सबेरा.\’ आचार्य की कविताओं में हम शब्दों का जादू महसूस कर सकते हैं. जैसे केवल एक पत्ती में हम प्रकृति के समूचे सौंदर्य को महसूस कर सकते हैं, एक चावल में परिपक्वता के आभास की तरह.
समकालीनता की मांग हम हर कवि से नहीं कर सकते. नंद किशोर आचार्य समकालीनता में सांस लेते हुए भी समय के पार जाने वाले कवियों में हैं. बहुत बोलने वाली कविता उन्हें स्वीकार्य नहीं है. आखिरकार वे अज्ञेय के शिष्यों में हैं जिसे सन्नाटे का छंद बुनना भला लगता रहा है तथा जिन्होंने कहा भी है :\’शोर के इस संसार में मौन ही भाषा है.\’ अकारण नहीं कि बार बार वे खामोशी की ओर लौटते हैं और उसमें डुबकी लगाते हुए एक विरल अर्थ खोज लाते हैं. क्योंकि बकौल कवि,
\’\’निरर्थक ध्वनि ही तो है वह
जिसे अपना अर्थ दूँगा मैं……
मेरी कहन होगी वह.\’\’
आचार्य इसी \’कहन\’—इसी \’गहन मौन\’ के कवि हैं. अपनी तरह से कविता की तलाश में यायावरी करते हुए वे आखिरकार यही सवाल करते हैं—
और क्या होता है
होना
कविता होने के सिवा—-
एक लय चुप कर देती है
अपनी खामोशी में
लेती हुई मुझे.
(शब्द होता है)
आचार्य की कविता जैसे मनुष्य की धीमी से धीमी आवाज़, पदचाप और ख्वाहिशों को दर्ज करना जानती है. \’इतनी शक्लों में अदृश्य\’ की कविता \’सच हूँ या सपना हूँ-
कैसे कहूँ यह तो तुम्हें कहना है
जिसका सच हो पाता मैं
या रह पाता सपना.\’
उनके इस मिजाज की गवाही देती है. खुशबू है प्रतीक्षा जब, रूह की छाजन में और काल सपना देखता है—खंडों में उप निबद्ध आचार्य की कविताएं सूनेपन और नीरवता में अपने रंग बिखेरती हैं. छोटी–छोटी कविताओं के संसार से बनी ये सारी कविताएं जैसे एक धारावाहिता का हिस्सा हों, जैसे डायरी के पन्ने पर रोज ब रोज कुछ न कुछ टांकी गयी इबारतें हों. जीवन जो तमाम जंजालों से घिरा है, उसमें फुर्सत के कुछ पलों को सृजन के क़तरों में बिखेर देना ही जैसे आचार्य के कवित्व का लक्ष्य हो. इन कविताओं के बिम्ब बहुल संसार में कहीं झरे पत्तों की सुलगन है, मन के अतल अँधियारे हैं, सघन कोहरे को चीरती चिड़ियों की आवाज है, आकाश में बदलती पुकार है, धरती के साज़ पर बारिश की अनुगूँजें हैं, ओठों की कोरों में कॉंपती स्मिति-सी किरणाभा है, आवाज़ की बारिश में भींगना है, अपनी कविताओं में भी उसी की अनुगूँजों को सुनना है. मुलाहिजा जो ये पंक्तियां:
कब मालूम था मुझको
उस आवाज़ की अनुगूँज भर हूँ मैं
अपनी कविता में जब तक
मैंने सुना नही उसको
ख़ुद को सुनना है कविता
या अपनी आवाज़ में सुनते रहना उस को.
आचार्य की कविता की गैलेक्सी लघु तारिकाओं-सी क्षणिकाओं से भरी है. एक एक प्रेक्षण एक एक कविता में ढल कर संवेदना का अंश बन गया है. यहां आचार्य के अनुभवों की मुलायम वीथियॉं हैं. सच कहा जाए तो इन कविताओं में आचार्य का अपना मिजाज ही बोलता है. वे सफर में रहते हैं तो उनका सैलानी भाव बोलता है, वे प्रकृति के मध्य विरम रहे हों तो जंगल, बादल, बारिश, चिड़िया, सन्नाटा और अपने दार्शनिक एकांत में हों तो दर्शन बोलता है उनकी कविताओं में. लय से प्रलय की झंकार सुनाई देती है. जीने की बेतुकी में अतुकांत कविता सुन पड़ती है. आचार्य के इस संग्रह को पढ़ते हुए उर्दू शायरी से उनका प्रेम जाहिर होता है. अक्सर अपनी कविताओं की जड़ों तक पहुंचने के लिए वे ग़ालिब, इकबाल, फ़ानी बदायुँनी तथा ज़ौक को उद्धृत करते हैं. काल सपना देखता है की कविताएँ काल, मृत्यु, व्यर्थता के रूपकों में अनुभवों को सिरजा है. वे काल को बहेलिया व आत्मभक्षी के रूप में चिह्नित करते हैं. एक वृक्ष के अंतत: काठ में परिणत हो जाने की कथा को वे बडी मार्मिकता से एक कविता में दर्ज करते हैं:
हरा भी था कभी
कट कर हो गया जो काठ——–
किसी की कुर्सी, किसी की मेज, किसी की खाट
लाठी भी किसी की कभी—होता रहा है वह
कटते-छिलते बच रहा है जो—बुरादा थोड़ा, कुछ छिलके—
वह भी इंतजार में है
किसी की बोरसी के लिए.
(बच रहा है जो)—-
इस बहाने शायद वे मनुष्य जीवन की सार्थकता जताना चाहते हैं. इस तरह सपनों, इच्छाओं, प्रतीक्षाओं तथा प्रकृति के सघन अवलोकनों और प्रेक्षणों से बनी आचार्य की कविताएँ एक दीवाने का ख्वाब बन कर महुए के फूल की तरह टप टप बरसती हैं. एक कवि का अकेलापन इस ख्वाब को कितनी कितनी शक्लों में चित्रित करता हुआ दिखता है. चेतना में वेदना की हल्की खरोंचें रचती हुए ये कविताएँ कवि के चित्त का जैसे पूरा नक्श उकेर देती हैं.
कविता की अप्रतिम वाचालता और मुखरता के युग में भी कुछ कवि ऐसे हैं जिनका शब्द संयम काबिलेगौर है. जल है जहाँ, आती है जैसे मृत्यु, से लेकर अब तक नंद किशोर आचार्य का कविता संसार एक चिंतक कवि के अंत:बाह्य उद्वेलनों का उदाहरण है. वे जीवन जगत के नित्य परिवर्तित क्रिया व्यापार को हर पल एक कवि एक मनुष्य की आंखों से निहारते हैं और संवेदना के बहुवस्तुस्पर्शी आयामों में उसे उद्घाटित करते हैं. उनके यहां कविता जिन चाक्षुष दृश्यों में सामने आती है , उसके नेपथ्य में भूमंडल की महीन से महीन आहट होती है. उनकी कविता में बिम्ब जलतरंगों की तरह बजते हैं. कविता अर्थ से ज्यादा प्रतीति में ध्वनित होती है. प्रतीति से ज्यादा गूंज में और अनुगूँज में. उनके शब्द मौन में बुदबुदाते से प्रतीत होते हैं मौन के संयम की गवाही देते हुए तथा अपनी मुखरता में सम्यक् अनुशासित. मौन को वे किस रूप में देखते हैं?
\’यह जो मूक है आकाश
मेरा ही गूंगापन है
अपने में ही घुटता हुआ
पुकार लूं अभी जो तुमको
गूंज हो जाएगा मेरी.\’
अपनी प्रकृति में नंद किशोर आचार्य की कविताएं छोटी होती हैं. इस अर्थ में हम उन्हें लघु कविताओं का प्रवर्तक कह सकते हैं. आती है जैसे मृत्यु से लेकर अब तक के चौदह कविता संग्रहों तक उनका यही रूप दिखता है. फार्म की दृष्टि से उनकी कविताएं पूर्ववत् ही हैं. शायद इससे ज्यादा बड़े आयतन की कविताओं के लिए उन्होंने किसी दूसरे फार्म की आजमाइश भी नहीं की. पर ये कविताएं जहां अनुभव के उपार्जन से निकली सदूक्तियों जैसी हैं, जीवन के खट्टे मीठे अनुभवों के सारांश जैसी हैं वहीं ये अपने ही प्रति रूप सरीखे प्रियजन से संवाद भी करती है. ऐसी ही एक कविता :
न सही तुम्हारे दृश्य में
मैं कहीं
दृश्य से थक कर
जब जब मुदेंगी आंखें,
पाओगी मुझको वहीं
(अंधेरे में सही, पृष्ठ 14)
नंद किशोर आचार्य समकालीनता में सांस लेते हुए भी समय के पार जाने वाले कवियों में हैं. बहुत बोलने वाली कविता उन्हें स्वीकार्य नहीं है. आखिरकार वे अज्ञेय के शिष्यों में हैं जिसे सन्नाटे का छंद बुनना भला लगता रहा है तथा जिन्होंने कहा भी है :\’शोर के इस संसार में मौन ही भाषा है.\’ अकारण नहीं कि बार बार आचार्य खामोशी की ओर लौटते हैं और उसमें डुबकी लगाते हुए एक विरल अर्थ खोज लाते हैं. अपनी तरह से कविता की तलाश में यायावरी करते हुए वे आखिरकार यही सवाल करते हैं—
\’और क्या होता है होना
कविता होने के सिवा—-
एक लय चुप कर देती है अपनी खामोशी में लेती हुई मुझे.\’
उनकी कविताओं में गूंज, अनुगूंज, संयमित मुखरता और मौन आद्यन्त व्याप्त है. कविता में जो कुछ है वह जीवन ने दिया है. जीवनानुभवों ने दिया है. जिंदगी की चुभन से कविता निकलती है. जीवन को तभी तो वे आड़े हाथो लेते हैं. कि तुम भी भला क्या करती–तुम्हारे पास केवल जहरीले डंक हैं–पर उसे आश्वस्त भी करते हैं—उसके प्रति कृतज्ञ भी होते हुए इस स्वीकार के साथ कि : मेरे पास है. शब्दों का अमृतकुंड.—–यह जो शब्दों का अनहद है, मौन की गूंज है, गूंगेपन से निस्सृत सुर है, यह जो आवाजों का समुच्चय है उसमें अपनी आवाज़ के साथ कवि भी सक्रिय है जिसमें उस एक का स्वर भी समाहित है जिसे वह पुकारता ही रहता है. यह जो पुकार है, जिसे कभी मुक्तिबोध ने यों महसूस किया है—मुझे पुकारती हुई पुकार कहीं खो गयी—आचार्य के भीतर भी रच बस-सी गयी है. वह भी शब्दों को समर्पित है. अपने में इन्हीं शब्दों को बसाकर वह आकाश की तरह भटकता रहता है. शायद आवाजों के इसी कोरस को सुनने वाले आकाश की तरह कवि अपने को भटका हुआ महसूस करता है.
यों तो हर कवि की कविता ही अपनी पारिभाषिकी रचती है. वही कवि का आत्मिक वक्तव्य होती है. दुनिया के महान से महान कवियों ने कविता को अपने तरीके से देखा समझा है. आचार्य कविता को किस तरह देखतेहैं, इसे उन्होंने \’\’वही है कविता \’\’ में व्यक्त किया है. दो के बीच की खामोशियां जिस बिन्दु पर एक साथ मिलती हैं—एक दूजी से अपनी व्यथाएं साझा करने के लिए—वही है कविता—खामोशियों की व्यथा— आचार्य कहते हैं. इस समझ का एक दूसरा पहलू भी है. कविता में शब्द हर कोई अपनी तरह बरतता है, पर शब्द की बेकली अपने को पाने के लिए होती है—आचार्य कहते हैं—\’वही है कविता. बाकी सब पता नहीं, क्या है.\’
उनकी कविताओं से उनके मिजाज को पहचाना जा सकता है. इनमें वे कहते हैं, \’\’तुम्हारे सूने में रमता ख्याल हूँ.\’\’ अथवा \’\’तुम्हारे खयालों के नीड़ में बैठा उड़ता रहता हूँ मैं.\’\’ ये कविताएं ऐसे रमते हुए ख्याल की कविताएं हैं. ख्यालों के नीड़ में बैठे कवि की कविताएं है. वे बारिश में दग्ध होते पेड़ के विपरीत जख्मों के हरे होने का सबब खोजते हैं तो यह अनुभव भी करते हैं कि हर मौसम को यानी खिलने से झरने तक को अपने भीतर महसूस करना ही एक पेड़ होना है. कोई हरे-भर होने से कोई पेड़, पेड़ नहीं होता. यह है अनुभव का भव. यानी दूसरे अर्थों में जीवन के हर दुर्वह एवं सुखद पलों और बचपन से लेकर बुढ़ापे तक के अनुभवों से गुजर कर ही व्यक्ति व्यक्ति होता है.
नंद किशोर आचार्य जिस जमीन से ताल्लुक रखते हैं, वह राजस्थान की रेतीली धरती है. सो उनके यहां जल, नदी, बारिश, पेड़ पावस और हरे इत्यादि का जैसा जिक्र होता है उसकी तासीर अलग अलग होती है. यहां बसंत भी अलग तरह से आता है. पावस के पतझड़ करने का बिम्ब भी आता है, पर जहां कहीं संयोग से मरुथल से एक दृश्य भर की हरियाली भी खिल उठती है, वह कवि के चाक्षुष फ्रेम में आ बसता है. हल्की सी बारिश से हरापन ही नहीं, किसी की याद का दर्द भी खिल कर हरा हो उठता है. खिलने, मरने, जीने, बारिश, पतझर, ,उड़ान भरने और बिछड़ने मिलने तक के कितने ही प्रतीक आशय गरिमामय ढंग से उनकी कविता में आते हैं. उनकी कविता आंखों की उदासी में भी झॉंकती है और वे हैं कि महसूस करते हैं —
मैं भी हूँ.
अनसुनी डाक-सा.
किसी पाखी की.
पर यह अच्छी बात है कि उनके यहॉं समकालीनों जैसी स्थूलता के दर्शन नही होते, बल्कि प्रकृति, स्वभाव, पंचभूतों और फैले हुए अछोर जीवन के छोटे से छोटे क्षण-कण बीनते- बटोरते हुए वे एक ऐसी अर्थच्छटा बिखेर देते हैं जैसे धरती पर हास बिखेरती चॉंदनी या आकाश में उजास फेंकती तारावलियॉं. उनकी कविताओं की गैलेक्सी में अनुभूति के हर लम्हे को महसूस किया जा सकता है. इन कविताओं के बिम्बबहुल संसार में कहीं झरे पत्तों की सुलगन है, मन के अतल अँधियारे हैं, सघन कोहरे को चीरती चिड़ियों की आवाज है, आकाश में बदलती पुकार है, धरती के साज़ पर बारिश की अनुगूँजें हैं, ओठों की कोरों में कॉंपती स्मिति-सी किरणाभा है, आवाज़ की बारिश में भींगना है, अपनी कविताओं में भी उसी की अनुगूँजों को सुनना है.
कुल मिलाकर आचार्य की कविता सूनेपन में एक अनुगूंज की तरह है और अनुगूंज में एक सूनेपन की तरह. पर यदि उनकी कविता में शब्द अपना होना ढूँढते है, अपनी बसावट ढूँढते हैं तो शायद शब्दों की नियति भी यही है कि वे कविता के सही पते पर पहुंच सकें.
मैने कहा भी है कि अन्यत्र कि आचार्य की कविता की गैलेक्सी लघु तारिकाओं-सी क्षणिकाओं से भरी है. बारीक से बारीक प्रेक्षण उनकी कविता के अयस्क में ढल कर संवेदना का अंश बन गया है.
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