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Home » पंकज चौधरी : समय, सत्ता और प्रतिपक्ष : शहंशाह आलम

पंकज चौधरी : समय, सत्ता और प्रतिपक्ष : शहंशाह आलम

पंकज चौधरी की कविताएँ अभिधा की ताकत की कविताएँ हैं, इस ताकत का इस्तेमाल वह सत्ता चाहे सामाजिक और धार्मिक ही क्यों न हो की संरचनाओं में अंतर्निहित असंतुलन को समझने में करते हैं. वह करुणा की ताकत के कवि हैं. उनकी कविताओं पर कवि शहंशाह आलम की यह टिप्पणी. पंकज चौधरी की कविताएँ समय, […]

by arun dev
July 13, 2019
in आलेख
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पंकज चौधरी की कविताएँ अभिधा की ताकत की कविताएँ हैं, इस ताकत का इस्तेमाल वह सत्ता चाहे सामाजिक और धार्मिक ही क्यों न हो की संरचनाओं में अंतर्निहित असंतुलन को समझने में करते हैं. वह करुणा की ताकत के कवि हैं. उनकी कविताओं पर कवि शहंशाह आलम की यह टिप्पणी.
पंकज चौधरी की कविताएँ
समय, सत्ता और प्रतिपक्ष                 
शहंशाह आलम
पुराने पत्‍ते झर गए
नए पत्‍तों का आना जारी है
पेड़ की डालियां
अभी खाली-खाली हैं.
कुछ पत्‍ते बड़े हो रहे हैं
कुछ पत्‍ते अभी छोटे-छोटे हैं
पत्तियां पत्‍ते बनने के क्रम में हैं
और कोंपल पत्तियां बनने के क्रम में
बाकी कोंपलों का फूटना जारी है.
पेड़ का छतनार पेड़ बनना
अभी जारी है.
दुनिया के भी बनने का यही क्रम है
दुनिया को रातोंरात
बदलने की तैयारी
एक महामारी है. 




आप किसी पोखर के तट पर खड़े होकर इस समय के बारे में थोड़ा-सा ठंडे दिमाग़, थोड़ा-सा गंभीर और थोड़ा-साज़्यादा ईमानदार होकर सोचें, तो आपकी संवेदना अगर अब तक बची हुई है, तो आपको महसूस यही होगा कि किसी लोहार का घन अगर है, तो वह घन विद्रोह करना चाहता है. इसी तरह बढ़ई का रंदा, कुम्हार का चाक, महावत का अंकुश भी विद्रोह करना चाहता है और किसान की हँसिया भी विद्रोह करना चाहती है.
आख़िरकार ये सारे औज़ार विद्रोह करना किससे चाहते हैं, अपने समय से या किसी और वस्तु से? मैं आपको बताना चाहता हूँ कि ये सारे औज़ार दरअसल अपने समय से विद्रोह नहीं करना चाहते, न इन औज़ारों के इस्तेमाल करने वाले किसी लोहार, किसी बढ़ई, किसी कुम्हार, किसी महावत या किसी किसान से विद्रोह करना चाहते हैं. ये औज़ार आज के शासक-वर्ग के अराजक होने की स्थिति से विद्रोह करना चाहते हैं. पंकज चौधरी की कविता भी एक औज़ार है और इनकी कविता भी आज की सत्ता की घातक नीतियों से विद्रोह करना चाहती है.
आज जो एक तरह की ऐनार्की हर तरफ़ फैली हुई है– कोई किसी को अकारण मार दे रहा है, कोई किसी को अकारण धक्का दे दे रहा है, कोई किसी को अकारण गरिया दे रहा है, कोई किसी के मुँह पर अकारण थूक दे रहा है, कोई किसी को अकारण चिढ़ा दे रहा है. या फिर, कोई लड़की अपने घर से निकली और मालूम हुआ कि उसके साथ किसी ने बलात्कार कर लिया. कोई घर से पाई-पाई जोड़कर रखे रुपए-पैसे बैंक में जमा करने के लिए निकला और मालूम हुआ कि उसके सारे रुपए-पैसे कोई उचक्का छीनकर भाग गया. कोई लड़का घर से स्कूल गया और अपहरण कर लिया गया. यह सब हो इसीलिए रहा है कि आज का शासक जो है, वही अराजकतावादी हो गया है. शासक अराजकतावाद का समर्थक है, तभी हमारे जिस वोट से वह अबकि चुनाव में हार सकता था, हमारे उस वोट को ही चुराकर अपने पक्ष में कर ले रहा है. यही वजह है कि आदमी के शत्रु भी अधिक सक्रिय दिखाई देते हैं. पंकज चौधरी की कविता इसी अराजकता के अनुयायी और समर्थक शासन का विरोध खुलकर करती है–

भूमिहारों का टिकट कटा
ब्राह्मणों को टिकट मिला.
यादवों को ज्‍यादा सीटें मिलीं
कुर्मियों को उससे कम.
राजपूत सब पर भारी पड़े
कायस्‍थों को शहरी क्षेत्र से टिकट मिले.
चमारों को दो सीटें ज्‍यादा मिलीं
दूसाधों को दो सीटें कम.
वाल्‍मीकियों ने खटिकों की सीटों पर दावा किया
खटिकों ने राजभरों की सीटों पर. 
गुर्जरों ने जाटों के लिए अपनी सीटें छोड़ीं
लोधों ने टिकट के लिए कीं मारामारी.
मल्‍लाहों का खाता खुला
कुम्‍हारों का रास्‍ता बंद.
कहारों ने चक्‍का जाम किया
हज्‍जामों ने पार्टी दफ्तर पर बोला हमला.
संतालों ने मुंडाओं को दिया शिकस्‍त.
अशराफों ने पसमांदों की सीटें हड़पीं.
यह जातिसभा का चुनाव है
लोकसभा का नहीं!
यह जातिपर्व का लोकतंत्र है
लोकतंत्र का महापर्व नहीं!
बहुत सारे कवि भी आजकल ऐनार्की फैलाने में लगे हैं और यह उनके लिए दुःख की बात कभी नहीं रही. ये वे कवि हैं, जो जनता का पक्ष सामने न लाकर सत्ता का पक्ष यह कहते हुए प्रकट करते हैं कि जो वर्तमान सत्ता के साथ हैं, वही राष्ट्रभक्त, बाक़ी सब देशद्रोही. बाक़ी सब पाकिस्तानी या बंगलादेशी या किसी और ग्रह के प्राणी. अब यह बात मेरी समझ से परे है कि कोई कवि सत्ता का इतना बड़ा अंधभक्त कैसे हो सकता है, जो देश की ईमानदार जनता के विरुद्ध सीना तानकर खड़ा रहता है और जनता को पकौड़े बेचते, जूते साफ़ करते, नाला साफ़ करते देखकर ख़ुश भी होता है. ऐसे कवि की ख़ुशी इस बात में अधिक है कि वह ख़ुद सरकारी नौकरी में है, अगर उसका दो भाई और है, तो वह भी सरकारी नौकरी में है. अब उस कवि के बच्चे भी हैं, तो उसकी चिंता इसमें है कि वह अपने बच्चों को भी सरकारी नौकर जल्द-से-जल्द घोषित कराए और यह तभी संभव है कि जब देश की बाक़ी बची हुई जनता पकौड़े बेचने में, जूते साफ़ करने में, नाले साफ़ करने व्यस्त रहेगी. 

पंकज चौधरी को ऐसे कवियों की सच्चाई मालूम है. इनको मालूम है कि देश का यह शिक्षित तबक़ा अब जनता के पक्ष की सत्ता अपने देश में आने ही नहीं देना चाहता. इस तबक़ा में वैसे सरकारी सेवककवि भी शामिल हैं, जो पचास हज़ार से अधिक की राशि अपनी भविष्य निधि के खाते में हर महीने जमा करवाते हैं. उनका पेट भरा है, तो उनका अब जनता से क्या लेना-देना. तभी लोहार घन, बढ़ई का रंदा, कुम्हार का चाक, महावत का अंकुश और किसान की हँसिया विद्रोह करना चाहती है, लेकिन उनके विद्रोह को उनके घर भूख की सेना भेजकर दाब दिया जाता रहा है. पंकज चौधरी के पास चूँकि उनकी धारदार क़लम है, उसी धारदार क़लम के भरोसे ये देश की जनता के पक्ष में पूरे आत्मविश्वास से खड़े दिखाई देते हैं–

कहा जाता है
कि समय और पैसे को महत्‍व देना
जिसने जान लिया
उसने दुनिया को जान लिया
उसने दुनिया को जीत लिया.
अब सवाल यह पैदा होता है
कि समय को वह आदमी
कैसे महत्‍व दे पाएगा
जिसे दिल्‍ली में ही
आश्रम से गोविंदपुरी जाने के लिए
जितनी देर
बस का इंतजार करना पड़ता है
उतनी देर में
कोई और आदमी
दिल्‍ली से पटना पहुंच जाता है 
और वह
बस का इंतजार ही करता रह जाता है?
बस का इंतजार करने वाला आदमी
दुनिया को कैसे जीतेगा?   
कवि अगर जनता के पक्ष का है, तो वह हर लड़ाई जीत सकता है. कवि अगर सत्ता के पक्ष का है, तो जनता की हक़मारी कर सकता है. नरेश सक्सेना जैसे हिंदी के महत्वपूर्ण कवि हमको समझाते भी रहे हैं, ‘कि हमारा समय घृणा का है. मेरी कामना एक ऐसी प्रेम कविता की है, जो हिंसा और क्रूरता को समझ और संवेदना में बदल दे. ऐसी कविता, जो हमें बच्चों जैसा सरल, निश्छल, और कोमल बना दे.’ मेरी भी यही कामना है और पंकज चौधरी की भी यही कामना है कि धन-दौलत, खाने-पीने के सामाँ से हर अघाया हुआ कवि उस आदमी के बारे में अपनी घृणा का त्याग करे, जो तीन वक़्त न ठीक से खा पाता है और न किसी रात को ठीक से सो पाता है. अगर आप ऐसा नहीं कर पाते हैं, तो आपको कवि भी नहीं होना चाहिए. आपको टाटा, बिरला या अम्बानी होना चाहिए. वे कहाँ कवि होना चाहते हैं. उनको मालूम है कि अगर वे कविता लिखेंगे, तो उनकी कविता आदमी के बुरे वक़्त में कभी काम नहीं आने वाली.

जो कमजोर हो गया है
उसे कमजोरी से उबारने के लिए
क्‍या थोड़ी ताकत
उनसे उसे नहीं मिल सकती
जिनके पास ताकत का आधिक्‍य है?
ताकत के आधिक्‍य का
सही उपयोग क्‍या है?
कमजोर को थोड़ी ताकत देकर
उसे कमजोर नहीं रहने देना?
या कमजोर को कमजोर ही रहने देना?
या अपनी ताकत के आधिक्‍य का
इस्‍तेमाल करके
उसे और कमजोर कर देना?
और फिर अपनी ताकत के आधिक्‍य को
बढ़ाते हुए
उसे असीम-अतुलित कर लेना?  
ताकत के आधिक्‍य में
आखिरकार करुणा की ताकत क्‍योंकर नहीं होती?          
पंकज चौधरी की कविता आदमी के बुरे वक़्त में हमेशा काम आने वाली कविता है. इनकी कविता आदमी के मन में कोई संदेह पैदा नहीं करती. इनकी कविता का स्वर चिड़िया के स्वर की तरह है, जो आपके कान को अच्छा लगता है. पंकज चौधरी की कविता आदमी और आदमियत के शत्रुओं पर भारी पड़ने वाली कविता है. इनकी कविता उस वृक्ष की तरह है, जिसको हज़ार भुजाएँ होती हैं और हर भुजा वृक्ष की ही तरह मज़बूत होती है. आप इस भुजा के सहारे कोई भी नदी पार कर सकते हैं. या कोई भी समय पार कर सकते हैं. पंकज चौधरी की कविता किसी भी सच्चे आदमी का दिल नहीं तोड़ती. दिल उसी का तोड़ती है, जो पत्थरदिल होते हैं. और यह हिंदी कविता के लिए ख़ुशी की बात है–
मैं जहां खड़ा था
उसके पार्श्‍व में
एक पोखर कल-कल कर रहा था
पोखर के कल-कल करते पानी पर
बगुलें उठक-बैठक कर रहे थे.
पोखर के तट पर
हरे-भरे पेड़ खड़े थे
पेड़ों पर घोंसले बने थे
घोंसलों से चूजें बाहर झांक रहे थे.
पोखर के उस पार
दूर-दूर तक
गेहूं की पकी-पकी बालियां
ही दिख रही थीं
नीला आसमान
जमीं से मिल रहा था.
और कैमरे से
मेरी तस्‍वीर
सुंदर उतर रही थी
प्रकृति के बिना
क्‍या हम अपने सुंदर जीवन की
कल्‍पना कर सकते हैं? 
सच कहिए तो पंकज चौधरी अपनी कविता में रात का गहन अँधकार चीरकर सुबह वाला वह उजाला लाते हैं, जो उजाला हमारी आँखों को ठंडक पहुँचाता है. इनकी कविता का लक्ष्य यही है कि जो लोहार हैं, जो बढ़ई हैं, जो कुम्हार हैं, जो महावत हैं या जो किसान वग़ैरह-वग़ैरह हैं, उनके जीवन की आकाशगंगाएँ हमेशा मुस्कुराती रहें. आज की सत्ता ऐसों की ही तो मुस्कुराहट छिनती रही है. जो लोहार हैं, जो बढ़ई हैं, जो कुम्हार हैं, जो महावत हैं, जो किसान हैं, उनकी खिड़की पर न बारिश को आने दिया जाता है और न चिड़ियाँ को. पंकज चौधरी सत्ता की इसी वर्जना, इसी निषेध, इसी मनाही, इसी प्रतिबंध को तोड़ते हैं. यह कवि आदमी की, आकाश की, दरिया की, पेड़ की, चिड़ियाँ की और ओसकण की उदासी को भगाता है. यानी यह कवि हर शै की आज़ादी चाहता है. और जो मनुष्य सच्चा वाला कवि होगा, वह सबकी आज़ादी ही तो चाहेगा पंकज चौधरी की तरह- किसी की भी क्रूरता, किसी की भी हठधर्मिता, किसी की भी तानाशाही, किसी की भी सीनाज़ोरी को ललकारता हुआ. वह भी बल और हठ से नहीं, मुहब्बत से–
जैसे उदास पत्‍ते
हवा का साथ मिलने से
झूमने लगते हैं.
जैसे पत्रहीन नग्‍न गाछ
नई-नई पत्तियों के आगमन से
हरे-भरे पेड़ के रूप में
आच्‍छादित हो जाते हैं.
जैसे फागुन की
किसी तप्‍त और शांत दुपहरी को
कोयल की कूक
सुरीली और काव्‍यमयी बना देती है.
जैसे रेगीस्‍तान
शाम के आगमन से
शीतल और सांद्र हो जाता है.
जैसे मेघ के आगमन से
बेहाल हो चुके खेतों में
हाल आ जाता है.
ठीक
वैसे ही
मुझे भी
तुम्‍हारा संग-साथ चाहिए
ताकि मैं भी
अपने निपट अकेलेपन से निपट सकूं. 
__________________




shahanshahalam01@gmail.com 
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