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समालोचन

Home » कला और कलाकार: किंशुक गुप्ता

कला और कलाकार: किंशुक गुप्ता

साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित एलिस मुनरो का लेखन इधर विवाद में आ गया है. उनकी बेटी ने यह आरोप लगाया है कि सौतले पिता ने जब वह नौ वर्ष की थीं तबसे उनका यौन उत्पीड़न करना आरम्भ कर दिया था. यह बात उन्होंने अपनी माँ एलिस मुनरो को भी बताई. पर वह चुप रहीं. ऐसे में साहित्य और साहित्यकार तथा कला और कलाकार का द्वैत खुल कर सामने आ गया है. लेखन और लेखक के बीच के इस अंतर्विरोध पर किंशुक गुप्ता ने हिंदी और अंग्रेजी के छह लेखकों- अशोक वाजपेयी, मृदुला गर्ग, सविता सिंह, नदीम ज़मान, रोहित मनचंदा और नुसरत एफ. जाफरी से यह बातचीत की है. यह ख़ास अंक प्रस्तुत है.

by arun dev
July 22, 2024
in बहसतलब
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कला और कलाकार: किंशुक गुप्ता
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क्या हम कला से प्यार करते हुए भी कलाकार से नफ़रत कर सकते हैं?
अशोक वाजपेयी, मृदुला गर्ग, सविता सिंह, नदीम ज़मान, रोहित मनचंदा और नुसरत एफ. जाफरी

संयोजन : किंशुक गुप्ता

डियर लाइफ की लेखिका एलिस मुनरो के जीवन की सीवन, जिन्होंने लड़कियों और महिलाओं के शानदार विवरण प्रस्तुत किए, जिनके लेखन से हम उनके दिलों के तहखानों में दबे रहस्यों में झाँक पाए, बेटी के कबूलनामे के बाद उधड़ गईं है. ‘टोरंटो स्टार’ में लिखते हुए एंड्रिया स्किनर ने अपने सौतेले पिता और मुनरो के दूसरे पति जेराल्ड फ्रेमलिन द्वारा बचपन में यौन शोषण का खुलासा किया और अपनी माँ की ठोस चुप्पी की निंदा की है. ऐसा समझ में आता है कि मुनरो अपनी बेटी की मदद की गुहार से ज़्यादा अपने पति की बेवफ़ाई से प्रभावित थीं. लेकिन यह केवल सच है जिसे हमने तथ्यों के सावधानीपूर्वक (और व्यक्तिपरक) संयोजन के माध्यम से गढ़ा है. इसका दूसरा पहलू, मुनरो की मृत्यु के साथ ही दफ़न हो गया.

क्या मुनरो, जिन्होंने माँओं को अपनी देखभाल करने पर ज़ोर दिया, दमनकारी मातृसत्ता की समर्थक थीं, जिसके कारण स्किनर को इतने लंबे समय तक इंतज़ार करना पड़ा? हालाँकि, दिलचस्प बात यह है कि पूरा विस्तृत परिवार, यहाँ तक कि मुनरो के संपादक और जीवनीकार तक को सच का पता था और उन्होंने इसे छिपाया. तब केवल मुनरो के प्रति हमारे गुस्से की क्या वजह है?

क्या यह उनकी प्रसिद्धि, उनके नोबेल के कारण है या फिर एक माँ या लेखक के समाज स्वीकृत नियमों का पालन न करने की विफलता से उपजता आक्रोश है?

“शायद एक महिला लेखक के रूप में आप खुद को नहीं मारती हैं, या अपने बच्चों को नहीं छोड़ती हैं,” क्लेयर डेडेरर अपनी किताब मॉन्सटर्स: ए फैंस डिलेमा में लिखती है.

“लेकिन आप कुछ त्यागती हैं, खुद का कोई हिस्सा छोड़ती हैं. . . . कलाकार को न केवल काम शुरू करने के लिए, बल्कि उसे पूरा करने के लिए भी पर्याप्त राक्षस होना चाहिए. और बीच में पड़ने वाली सभी छोटी-छोटी बर्बरताएँ करने के लिए भी.”

जैसे मुनरो ने पति के प्यार और बेटी के प्रति अपनी ज़िम्मेवारी के बीच पहले को चुना, पाठक भी लगभग ऐसे ही दुराहे पर खड़ा है: क्या हम कलाकार के जीवन पर स्टिंग करने के बाद उस कला को नकार सकते हैं जिसने हमें प्रभावित किया, हमें सूचित किया और दुनिया देखने का अलग नज़रिया दिया? यह अपने प्रेमी के बारे में एक गुप्त रहस्य जानने जैसा है. लेकिन जब प्रेमी की छवि बदलती है, जो कभी हमारी दुनिया था, तब क्या तुरंत हमारी दुनिया का आयतन बदल जाता है? या उससे भी बदतर क्या वह प्यार डिस्प्रिन की तरह घुलकर ख़त्म हो जाता है? क्या हम कला और कलाकार को अलग करके देख सकते हैं, या हम उन्हें एक-दूसरे से संबद्ध करके देखने के ही अभ्यस्त हैं- कलाकार का जीवन और उसके अनुभव ही उसके गद्य में निरूपित होते हुए? अगर हम उसके लेखन को व्यक्तिगत जीवन की छाप के रूप में देखते हैं, तो लेखक का कौन-सा रूप देखना चाहते हैं? उसका कुटिल रूप या उसके दोषी स्व का विस्तार जो सत्य को स्वीकार न करने के कारण अपने आंतरिक राक्षसों से लड़ रहा है?

आजकल की दुनिया में, जहाँ सोशल मीडिया की सर्वव्यापकता से मुँह नहीं फेरा जा सकता, ऐसे प्रश्न बार-बार उठने रहते हैं. हिंदी साहित्य-समाज जो फेसबुक को अपनी व्यक्तिगत डायरी समझता है, और अपने दु:ख-मुसीबत, बच्चों की बीमारी-हारी और मेट्रो के फलसफ़े लिखकर वाहवाही बटोरता है, वहाँ तो व्यक्तिगत जीवन और लेखकीय जीवन को अलग करना और भी मुश्किल हो जाता है.

मेरे लिए, एक पाठक के तौर पर जो सांत्वना के लिए बार-बार मुनरो के पास गया है, यह एक आदर्शवादी, सौम्य छवि का दरकना है जिससे मेरे मापदंडों के अनुसार कोई व्यक्ति लेखक बनता है: वह जो आवाज़ उठाने, द्वंद्व से लड़ने और अधिक न्यायसंगत दुनिया की कल्पना करने का साहस रखता है. स्वयं से ज्यादा दुनिया को वरीयता देता है. लेकिन मेरे सीमित अनुभव में, लेखक से साक्षात्कार उसके काम में कोई नया आयाम जोड़ने में विफल ही साबित होता है; इसके विपरीत, वह उसकी कला के स्वायत्त आकलन में मुश्किल ही बढ़ाता है. इस तरह एलीना फेरान्ते, जिन्हें कोई नहीं जानता, के प्रशंसक बेहतर हैं. मैं व्यक्तिगत रूप से यूनिस डिसूजा की सलाह पर कायम रहने की कोशिश करता हूँ: कविता में (एक कवि) से मिलना सबसे अच्छा है.

(किंशुक गुप्ता हिंदी और अंग्रेजी में लिखते हैं. ‘ये दिल है कि चोर दरवाज़ा’ उनका कहानी-संग्रह है)

अशोक वाजपेयी

हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब किसी कलाकार या लेखक के जीवन के कई तथ्य आसानी से जाने जा सकते हैं. ‘पीपिंग टॉम्स’ की संख्या कई गुना बढ़ गई है. कलाकार और लेखक मूलतः मनुष्य हैं और वे भी अन्य लोगों की तरह ही दोषयुक्त और कमज़ोर हो सकते हैं.

हालाँकि एक कलाकार या लेखक के जीवन और उसके अनुभवों से बहुत सारी रचनात्मक कल्पनाएँ निकलती हैं, कला और साहित्य की कृतियाँ उनसे स्वतंत्रता प्राप्त करती हैं और स्वायत्तता ग्रहण करती हैं. इन स्वायत्त कृतियों को पढ़ा जाता है, उनका आनंद लिया जाता है, उनकी आलोचना की जाती है. जीए हुए जीवन के तथ्य और असफलताएँ, चूक और फ़ासले आमतौर पर कृतियों को समझने में प्रासंगिक नहीं होते हैं. किसी भी कलाकार या लेखक को उच्च नैतिक पद पर आसीन करना और फिर सामने आए तथ्यों के आधार पर उसे वहाँ से गिरा देना केवल सनसनी पैदा कर सकता है. यह कृतियों की बेहतर या अधिक सूक्ष्म समझ की दिशा में मदद नहीं करता. अंततः ऐसे प्रयास रचनात्मक कार्य की स्थिति या महत्व को नुकसान पहुँचाने में कभी सफल नहीं होते हैं.

ऐसे मामले हैं जब कई विश्व-प्रख्यात लेखकों जैसे बर्टोल्ट ब्रेख़्त, पाब्लो नेरुदा, पॉल डी. मान, और हमारे निकटवर्ती नागार्जुन आदि के जीवन के बारे में मरणोपरांत खोजे गए तथ्यों से संदेह और अविश्वास पनपा है. इन्होंने आक्रोश, क्रोध, निराशा और अविश्वास पैदा किया है. हालाँकि उनके रचनात्मक कार्य में रुचि और उनका महत्व उसी तरह बना हुआ है.

अपूर्ण व्यक्ति कला और साहित्य में पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं और करते भी हैं. अनैतिक व्यक्ति उच्चतम नैतिकता के अविभाज्य मूल को खोज सकते हैं, ऊबे हुए व्यक्ति प्रसन्नता व्यक्त कर सकते हैं, और निंदा करने वाला व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है.

(छह दशकों से अधिक कविता,  आलोचना, संस्कृतिकर्म, कलाप्रेम और संस्था निर्माण में सक्रिय) 

मृदुला गर्ग

पुरुष हो या स्त्री, महान लेखक हो या नहीं, वयस्क स्त्री के यौन उत्पीड़न से भी आँखें मूँदना, किसी कीमत पर सही नहीं ठहराया जा सकता. ख़ास कर जब पुरुष पारस्परिक अनुमति का ग़लत दावा करे, जैसे नील गेमैन ने किया. इससे भी ज़्यादा भयावह नोबेल पुरस्कृत लेखक एलिस मुनरो द्वारा यौन शोषण के खिलाफ़ एक बच्चे की मदद की गुहार को नज़रअंदाज़ करना है.

पीड़ित उसकी बेटी थी और अपराधी उसका पति, यह तथ्य उसे और बदतर बनाता है क्योंकि बेटी की रक्षा उसकी नैतिक ज़िम्मेवारी थी. अन्य बच्चों को भी उसी नर्क में झोंकने पर उसकी सोची-समझी चुप्पी उसे अतिक्रूर बनाती है. उसके लिए किसी भी लेखक को माफ़ नहीं किया जा सकता, चाहे वह कितना भी महान कलाविद क्यों न हो. मेरी भर्त्सना का एक कारण यह भी है कि भारत में ‘प्रतिष्ठित और सम्मानित लेखकों’ में बड़े पैमाने पर ‘पीडोफ़ीलिया’ विद्यमान हैं.

वयस्क होने पर जब कोई स्त्री बचपन में अपने साथ हुए यौनिक अत्याचार का खुलासा करती है, तो उदासीन साहित्यिक बिरादरी कंधे उचकाकर चीखती है, “पहले क्यों नहीं बतलाया?” सर, उसने बतलाया था पर उसके माँ बाप ने उसे चुप करा दिया; झूठा साबित किया; तिरस्कृत किया; छेड़छाड़ करने वाले का स्वागत ज़ारी रखा. कोई छोटी बच्ची उस सबसे कैसे लड़ती! हालाँकि ज़्यादातर लोग इस तथ्य से परिचित हैं, फिर भी जब मैं उस शख्स का नाम लूँगी, तो कहर टूट पड़ेगा. नाम है बाबा नागार्जुन, प्रतिष्ठित क्रांतिकारी लेखक/कवि, जिनके लिए आम समझ यह थी कि वे बच्चों से बेहद प्यार करते थे. क्या मासूम बच्चों के यौन शोषण को मासूम प्रेम की तरह चित्रित करने से बड़ा अपराध कोई हो सकता है!

(वरिष्ठ लेखिका मृदुला गर्ग की पुस्तक ‘वे नायाब औरतें’ इधर चर्चा में है.) 

सविता सिंह

जीवन और समाज में कला के अंतर्निहित संबंध पर विचार करते हुए यह स्वीकार करना उचित है कि कलाकारों और लेखकों को अपने समाज से एक दूरी की आवश्यकता होती है, ताकि वे लेखन को अधिक आलोचनात्मक गहराई दे पाएँ. उदारवादी इसे लेखक की स्वायत्तता के रूप में परिभाषित करते हैं, यह लेखन या कला के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन लेखन का उद्देश्य शिल्पकृति गढ़ना या साहित्यिक चमत्कार का ऐसा नमूना पेश करना नहीं है जो सामाजिक प्रभावों से विमुख हो. इसके बजाय लेखन का उद्देश्य हमारे सामाजिक और राजनीतिक जीवन की स्थिति को बदलना होता है, खासकर यदि वे स्थितियाँ दमनकारी हैं और शोषण पर आधारित हैं.
अपनी आलोचनात्मक दृष्टि के चलते लेखकों का जीवन अंततः एक ऐसा दर्पण बनता है जिसमें सबसे पहले उनका आत्म ही प्रतिबिंबित होता है. ऐसे में वे अपनी छवि को खुद से छिपाने में असमर्थ होते हैं. लेखन लेखक द्वारा किया जाने वाला वह निरंतर संघर्ष है जिससे एक खुशहाल और सुंदर जीवन की प्रतीति संभव हो सके. ऐसे में यह ज़रूरी है कि लेखक अपने समाज को बदलने को लेकर प्रतिबद्ध हो. अगर हमारा लेखन हमें बदलने में असमर्थ है, तब वह असफल साबित होता है.

मेरे विचार से अपने लेखन या की उसके साथ आने वाली व्यापक सामाजिक जिम्मेदारियों से अपने को विलग कर लिखना भ्रामक और कुत्सित है; यह अपने अस्तित्व के दायित्वों के प्रति हो रही नासमझी से ही निःसृत होती है.

महिला लेखिकाओं का संघर्ष ज्यादा दुरूह होता है क्योंकि वे लगातार पूंजीवादी पितृसत्ता के भीतर रहती हैं जिससे वे सतत शोषित होती हैं और साथ ही विरोधरत भी रहती हैं. मातृत्व का विरोधाभास इसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा उत्पन्न होता है जो उन्हें संपूर्ण प्राणी बनने नहीं देता. वह दोनों तरह से लहूलुहान होती रहती है- एक माँ के रूप में और एक महिला के रूप में. क्योंकि वह दोनों भूमिकाओं में उत्पीड़ित है. हालाँकि, एक पुरुष के लिए स्त्री-द्वेषी होना और लेखक होना, चाहे थोड़ा-बहुत विरोधाभास उत्पन्न करे, लेकिन पितृसत्ता द्वारा गढ़े गए ऐसे पुरुषों की समाज में बहुतायत है. आज की दुनिया में कला और कलाकार की स्वायत्तता पर गंभीर रूप से चिंतन करने में सक्षम होने के लिए पुरुषत्व और स्त्रीत्व को समझने की बेहद ज़रूरत है. जिस तरह के दमनकारी समाज में हम रहते हैं, एक लेखक के लिए स्वायत्तता अवश्यंभावी है.

आज यह बिलकुल साफ़ हो चुका है कि लेखन व्यक्ति और समाज दोनों को समान रूप से मुक्त करता है.

(सविता सिंह का कविता संग्रह ‘वासना एक नदी का नाम’ इधर चर्चा में है.) 

नदीम ज़मान 

मुझे नहीं पता कि कला को कलाकार से अलग करने या संबद्ध करके देखने के तथ्य को संबोधित करने का कोई एक तरीका है, या हो सकता है, या होना चाहिए. सब कुछ अंततः व्यक्तिगत है. कलाकारों और उनके व्यवहार पर अपनी प्रतिक्रिया को केवल निजी तौर पर जोड़कर ही समझा जा सकता है.

हम सोच सकते हैं कि वे हमारे करीबी थे, जिन्होंने हमें धोखा दिया, जिन्होंने हमें उन चीज़ों से चौंका दिया जिनके बारे में हम कभी सोच भी नहीं सकते थे. अंतर यह है कि व्यक्तिगत संबंधों में, मैं कुछ ऐसे निर्णय ले सकता हूँ जिनका तत्काल प्रभाव संभव है. लेकिन जब यह कोई विश्व-प्रसिद्ध कलाकार होता है, तो मेरी व्यक्तिगत भावनाएँ उनके जीवन की दिशा नहीं बदल सकतीं- चाहे वे मर चुके हों या जीवित हों- और न ही मेरा आक्रोश उनके द्वारा सत्य को किसी दूसरे प्रकाश में देखने या पश्चाताप करने का कारण बनेगा.
मेरी भावनाएँ मेरी अपनी ही रहेंगी. अंतर केवल तब आएगा जब कोई सामूहिक आवाज़ ऐसे लोगों और मुद्दों को केंद्र में रखेगी, और तब भी, मैं कल्पना करता हूँ, हम प्रशंसकों और पाठकों का ऐसे समूह होंगे जो उत्तरों और मान्यताओं के लिए एक-दूसरे की ओर ताकेंगे और इस मूलभूत प्रश्न पर सिर खपाएँगे: क्या हम कलाकार को अपने जीवन से हटा दें या उन्हें उनके काम से अलग कर दें? मुझे संदेह है कि कभी भी सर्वसम्मति संभव होगी.

एक ऑनलाइन न्यायाधिकरण और व्यंजित निष्पादन इसका कोई समाधान नहीं. इससे केवल ऐसे अप्रभावी और प्रतिकूल ‘एको चैंबर्स’ (प्रतिध्वनि कक्षों) की निर्मित्ति होती है जो बिगड़ते-बिगड़ते अंतत: दक्षिणपंथी मान्यताओं में प्रतिफलित होती हैं. मुझे इस बात की खुशी है कि दुर्व्यवहार और उत्पीड़न से पीड़ित लोग आगे आ रहे हैं, उन्हें मंच दिया जा रहा है, वे वर्जनाओं को तोड़ रहे हैं और उन्हें चुप रहने के लिए शर्मिंदा नहीं किया जा रहा है.

(द इनहेरिटर्स के लेखक)

रोहित मनचंदा

शिकारी और शिकार: जैविक जीवन की पहली हलचल जितना पुराना समीकरण. जो लोग अधिक शक्तिशाली हैं, उन्होंने हमेशा से ही कमज़ोर लोगों को किसी न किसी तरह से अपना शिकार बनाया है. खुद को ‘सभ्य’ बनाने के मानवीय प्रयास ने इस तरह के अन्याय को दूर करने की कोशिश की है, लेकिन जहाँ-तहाँ हम अपने पुराने स्वरूप में लौट आते हैं. हाल ही में ऐसे दो उदाहरण प्रकाश में आए हैं, और उनके बारे में बेचैन करने वाली बात यह है कि अपराधी, या उनके सहयोगी- नील गेमैन, एलिस मुनरो- ऐसे लोग हैं जिन्हें अक्सर क्रूर संवेदनाओं की बजाय बेहतर और कोमल संवेदनाओं से जोड़कर देखा जाता है.

ये घटनाएँ किसी और तथ्य से ज़्यादा इस ओर इंगित करती हैं कि मानव जाति के मौलिक आवेग उसके मानस में गहरी तरह से धँसे हुए हैं, और कलात्मक संवेदनशीलता की विकसित परत भी इन आवेगों के सामने नेस्तनाबूद हो सकती है. मुनरो के मामले में, यह त्रासदी दोगुनी हो गई कि वह जिसे अपने बच्चे की रक्षा करनी थी, उनकी ढाल बनना था, वह उलटा दुर्व्यवहार के लिए एक मददगार और पक्षपोषक कलपुर्ज़ा बन गईं और छेड़छाड़ करने वाले के साथ अपने मोह से अधिक किसी और के हित के बारे नहीं सोच पाई.

अभी हम केवल इस बात पर दुखी हो सकते हैं कि मानव मस्तिष्क अपनी विविध उपलब्धियों के बावजूद भी निष्पक्षता और न्याय की स्वस्थ समझ से कितना दूर है. एक पीड़ित बच्चे से सहानुभूति तो बहुत दूर की बात है. उपाय क्या और कहाँ है? क्या यह केवल उस दूर बिंदु पर ही संभव हो सकता है, जहाँ हमारी प्रजाति का सामूहिक मस्तिष्क अपने वर्तमान स्व के अधिक मानवीय संस्करण के रूप में विकसित होगा? कुछ कहना मुश्किल है; हम केवल यह उम्मीद कर सकते हैं कि यह उससे बहुत पहले संभव हो पाएगा!

(‘द एनक्लेव’ पुस्तक के लेखक)

नुसरत एफ. जाफरी

जब हम अपने मन में लेखकों को ऐसे अचूक आइकन बनाते हैं, तो हम खुद को उनकी संभावित विफलताओं के प्रति अधिक संवेदनशील बना लेते हैं. कलाकार तब भी त्रुटिपूर्ण होते हैं, जब हम उनके कामों में अंतिम सत्य की तलाश कर रहे होते हैं. लेकिन यह एक ऐसा झूठ है जो हम खुद से हमेशा कहते रहते हैं. यह सच है कि हम अपने सामान्य जीवन में ऐसे परिपूर्ण जीवन और सटीक उत्तरों को उन कलाकारों के शब्दों और कृतियों में तलाशते हैं जिन्हें हम याद करते हैं, लेकिन पूर्णता की यह खोज अंततः अप्राप्य है.

अपने पसंदीदा लेखकों के बारे में खबर सुनकर जागना, चाहे वह मुनरो, गेमैन, या वुडी एलन या तरुण तेजपाल हों, हमारी पहली प्रतिक्रिया लगभग हमेशा गहरी निराशा की होती है. हम विश्वासघात महसूस करते हैं, जैसे कि इन व्यक्तियों ने हमें निराश किया है. यह निराशा जल्दी ही अलगाव में बदल सकती है. हम अपने मोहभंग के स्रोत से खुद को दूर करने की कोशिश कर सकते हैं, यह सीखते हुए (हालाँकि हम अक्सर उतनी ही जल्दी भूल जाते हैं) कि हम दूसरों में पूर्णता और सच्चाई की तलाश करके लगातार अपनी अपूर्ण दुनिया से बचने की कोशिश कर रहे होते हैं.

मेरा मानना है कि कला को कलाकार से अलग करना संभव है. मैं अभी भी इन कलाकारों की खामियों को पूरी तरह से स्वीकार करते हुए भी इनके कामों की सराहना कर सकती हूँ. हालाँकि, क्या मैं लगातार इस विभक्ति का अभ्यास कर सकती हूँ, यह कुछ ऐसा है जिसका उत्तर मुझे खुद ही खोजना होगा. यह कला से आनंदित होने और उसके निर्माता की खामियों को स्वीकार करने के बीच एक महीन संतुलन है, और इस संतुलन को पाना एक व्यक्तिगत यात्रा है.

क्षमा-क्या मैं कभी किसी कलाकार को एक भयानक इंसान होने के लिए माफ कर सकती हूँ? नहीं, शायद कभी नहीं.

(दिस लैंड वी कॉल होम की लेखिका)
मूल रूप से ‘उसावा’ पत्रिका के लिए अंग्रेजी  में. जिसका हिंदी अनुवाद किंशुक गुप्ता ने किया है.

किंशुक गुप्ता
kinshuksameer@gmail.com

 

Tags: 20242024 बहसतलबअशोक वाजपेयीएलिस मुनरो विवादनदीम ज़मानमृदुला गर्गरोहित मनचंदा नुसरत एफ. जाफरीसविता सिंह
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Comments 17

  1. Vijay Sharma says:
    12 months ago

    किंशुक गुप्ता ने अच्छी वार्ता जुटाई है। चूँकि मैं दशकों से नोबेल साहित्य पर काम कर रही हूँ अत: एलिस मुनरो को खूब पढ़ा है, वे मेरी पुस्तक में भी शामिल है। जब मुनरो की बेटी के खुलासे का पता चला, उसके पहले ही मेरा लेख मुनरो पर प्रकाशित हुआ था और उस पर कई लोगों की टिप्पणियाँ मिली थीं। खुलासे के बाद मैं बहुत विचलित थी। फ़ेसबुक पर कुछ पंक्तियाँ लिखी थीं, कुछ मित्रों से बात की।
    बार-बार आचार्य रजनीश का कहा याद आता रहा, ‘कविता पढ़ो, कवि से मत मिलो।’ उन्होंने तब कहा था जब सोशल मीडिया सक्रिय न था। लेखकों के बारे में बहुत जानकारी न होती थी। आज रचनाकार का निजी जीवन सार्वजनिक होता है।
    मेरी द्विविधा अभी भी है। मैं एलिस मुनरो के लेखन को खारिज नहीं कर सकती हूँ, उनका लेखन अभी भी मुझे अच्छा लग रहा है। मगर एक व्यक्ति, एक रचनाकार , एक स्त्री, विशेष रूप से माँ के रूप में उन्होंने बहुत निराश किया है, मन को व्यथित किया है। यह बात भूल नहीं पाती हूँ। मृदुला गर्ग जी की बात से सहमत हूँ, ‘पीड़ित उसकी बेटी थी और अपराधी उसका पति, यह तथ्य उसे और बदतर बनाता है क्योंकि बेटी की रक्षा उसकी नैतिक ज़िम्मेवारी थी। अन्य बच्चों को भी उसी नर्क में झोंकने पर उसकी सोची-समझी चुप्पी उसे अतिक्रूर बनाती है। उसके लिए किसी भी लेखक को माफ़ नहीं किया जा सकता, चाहे वह कितना भी महान कलाविद क्यों न हो।’ परिवार-समाज की चुप्पी न जाने कितने लोगों, इस केस में खासकर बच्चों का जीवन बर्बाद करती है। हम बौद्धिक लोग आवाज उठाने की बात करते हैं और हम ही चुप रहते हैं, बात को कला और कलाकार से विलग रखने की ओर मोड़ कर उनका बचाव करते हैं।
    मेरे मन में भी यह विचार आया, जब इतने सारे लोग जानते थे तब सबके सब चुप क्यों रहे?, कैसे चुप रहे? क्या बिगाड़ के भय से सत्य पर परदा डालना उचित है?
    किंशुक गुप्ता सही कह रहे हैं, ‘पूरा विस्तृत परिवार, यहाँ तक कि मुनरो के संपादक और जीवनीकार तक को सच का पता था और उन्होंने इसे छिपाया। तब केवल मुनरो के प्रति हमारे गुस्से की क्या वजह है?’, ‘क्या यह उनकी प्रसिद्धि, उनके नोबेल के कारण है या फिर एक माँ या लेखक के समाज स्वीकृत नियमों का पालन न करने की विफलता से उपजता आक्रोश है?’ एक प्रश्न यहाँ और जोड़ना चाहूँगी, क्या यह स्त्री होने के कारण अधिक है?
    मेरे मन में एक अन्य बात लो लेकर उथल-पुथल है, मुनरो यदि पति पर आर्थिक रूप से निर्भर होती तो बात काफ़ी हद तक समझ में आती, मगर वे आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर नहीं थीं तब उनकी चुप्पी क्यों? बेटी के अनुसार उन्होंने पति से मिलने वाले यौन सुख को प्राथमिकता दी। मानव मनोविज्ञान काफ़ी जटिल है।
    अक्सर कहा जाता है लेखक और लेखन को अलग रखना चाहिए, इसकी छूट कई लोगों को लेते देखा है।
    लेखक यदि अपने लिखे हुए को नहीं जीता है तब क्या कहा जाए। वह भी ऐसे व्यक्ति को जो स्त्री मुक्ति की बात करता हो।
    नुसरत जाफ़री से मैं सहमत, ‘क्षमा-क्या मैं कभी किसी कलाकार को एक भयानक इंसान होने के लिए माफ कर सकती हूँ? नहीं, शायद कभी नहीं।’
    मेरा एलिस मुनरो को पढ़ना, उन पर लिखना-बोलना जारी रहेगा मगर एक व्यक्ति, एक स्त्री और एक माँ के रूप में मैं उन्हें इस जघन्य अपराध केलिए कभी क्षमा नहीं कर पाऊँगी।
    किंशुक गुप्ता, समालोचन, अरुण देव एक यहाँ सम्मिलित रचनाकारों को धन्यवाद, इस विमर्श को उठाने केलिए।

    Reply
    • Mridula Garg says:
      12 months ago

      आपने एकदम सटीक विश्लेषण किया। हम यह कदापि नहीं कह रहे कि एलिस मुनरो के जघन्य कृत्य के कारण उनके साहित्य को मत पढ़ो या कम करके आंको। पर सिर्फ इसलिए की वे एक बेहतरीन लेखक थीं, उनका अपनी बच्ची के यौन शौषण से बरसों बरस उदासीन रहना, अन्य बच्चों के यौनशोषण को भी नजरंदाज करना, किसी तरह कम जघन्य नहीं हो जाता। उसके पर्दाफाश को और जो कहें “पीपिंग टॉम” की हरकत कह कर किनारे नहीं किया जा सकता। परिपक्व स्त्री के साथ हुए अनाचार को एक बार झुठला भी दिया जाए पर बच्चों पर लगातार बरसों तक यौनिक जुल्म को लेखन की जरूरत कह कर दरकिनार करना अपराध है। सरासर अपराध। हम लेखक हैं इसलिए हमें यह अपराध करने की छूट नहीं है। संवेदना लेखन का अपरिहार्य अंग है।

      Reply
    • Mridula Garg says:
      12 months ago

      We are not asking you to think less of Alice Munro’s literary work. We are only questioning the lack of sensitivity in her which is inexcusable in a writer. We are certainly not “Peeping Toms’, just unafraid to face the truth about an iconic writer.

      Reply
  2. पूनम मनु says:
    12 months ago

    हर उस इंसान को क्षमा नहीं किया जा सकता।जो अबोध बच्चों का कैसा भी शोषण विशेषकर यौन शोषण करता है। और न ही उस इंसान को जो सब जानता है, और उसके विरुद्ध आवाज़ नहीं उठाता। न बच्चे को बचाता। और यदि वह मां है, तो तब तो उसकी नैतिक जिम्मेदारी बनती ही है कि वह अपने बच्चों को ऐसी स्थितियों से बचाए , उसे बाहर निकाले। एलिस ने अपनी ही बेटी को जानते बूझते इस नर्क में झोंखे रखा।झोंके रखना कहना यहां ज्यादा सही है। क्योंकि बेटी छोटी थी और अपना बचाव नहीं कर सकती थी।ऐसी स्थिति में एलिस क्रूर कहना बिलकुल सही है। समाज में परिवर्तन के लिए लेखक लिखता है। मेरे लिए वह लेखन ढोंग है, जो भावनाओं से ओत प्रोत हो, और वह व्यक्ति लिखे जो क्रूर हो। अच्छे प्रश्न के लिए किंशुक गुप्ता आभार। अरुण जी का इस लेख लिए धन्यवाद

    Reply
  3. रुस्तम सिंह says:
    12 months ago

    1. क्या साहित्यक लेखक, चाहे वह महिला है या पुरुष है, महात्मा बुद्ध या ईसा मसीह इत्यादि की तरह एक संत होता है जो कुछ भी बुरा नहीं करेगा? उतर है: नहीं।

    2. मानसिक तौर पर हरेक लेखक, महिला या पुरुष, एक जटिल प्राणी होता है। यह जटिलता हम उसके लेखन में भी देख सकते हैं और उसके व्यक्तिगत जीवन में भी। इसलिए उसका व्यवहार इस जटिलता से प्रभावित होता है।

    3. मसला सिर्फ़ यौन शोषण का नहीं है। समाजों में कई प्रकार का शोषण होता है — मज़दूरों का शोषण, दलितों का शोषण, आदिवासियों का शोषण, जानवरों का शोषण — जिन्हें माँस उद्योग द्वारा अति क्रूर ढंग से पाला और मारा जाता है, एक से अधिक धर्मों या समुदायों के लोगों द्वारा उनका बलिदान भी दिया जाता है। लगभग हरेक लेखक, महिला या पुरुष, इनमें से किसी न किसी शोषण में या तो भागीदार होता है या उसके बारे में जानते हुए भी चुप रहता है। साहित्यक लेखन का इतिहास ऐसे लेखकों से भरा पड़ा है जो इनमें से किसी न किसी तरह के शोषण में भागीदार थे। और जैसा कि मैंने ऊपर कहा, अब भी होते हैं।

    4. इसलिए साहित्यक लेखकों द्वारा इस प्रकार के व्यवहार पर नाराज़गी और गुस्सा ज़ाहिर करना आसान है और अपने दैनिक जीवन में किसी प्रकार के शोषण में भागीदार न होना कठिन।

    Reply
    • Kinshuk Gupta says:
      12 months ago

      रुस्तम जी, आपके सभी तर्क एकदम निराश करने वाले हैं। माफ़ कीजिएगा लेकिन जिस तरह के gross generalisation के तर्क आप दे रहे हैं, यह तो दकियानूसी दक्षिणपंथ हमेशा ही देता रहा है। और क्रूरता के स्तर अलग होते हैं, हम सभी उसमें भागीदार भी होते हैं, लेकिन कुछ हिंसाओं के प्रति हम कुछ नहीं कर सकते। केवल उनके प्रति केवल जागरूक हुआ जा सकता है। वह भी एक तरह का प्रतिरोध है।

      आपसे ऐसी उथली समझ की उम्मीद नहीं थी।

      Reply
  4. Mridula Garg says:
    12 months ago

    अपनी खुद की बेटी का यौन शौषण जिसे रोकना आपके वश में हैं और मजदूरों का शोषण, जिसे रोक पाना आपके लिए मुमकिन नहीं, एक बात कैसे हो सकती है

    Reply
    • Ashutosh Kumar says:
      12 months ago

      मृदुला जी से सहमत हूं।

      Reply
  5. Ashutosh Kumar says:
    12 months ago

    समझना मुश्किल है कि इस पूरे मामले में विवाद या बहस की गुंजाइश कहां है।

    एक पाठक और आलोचक के बतौर किसी लेखक के निजी जीवन में ताक झांक करने हम नहीं जाते, लेकिन जब किसी व्यक्ति का अपराध उजागर हो जाता है तब उसे सिर्फ इसलिए नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि वह एक सफल लेखक है।

    किसी भी मनुष्य विरोधी अपराध को क्षमा नहीं किया जा सकता, बाल यौन शौषण जैसे सबसे घृणित अपराध को तो बिलकुल नहीं। अगर अपराधी कोई प्रतिष्ठित लेखक तब तो उस अपराध और अधिक सार्वजनिक चर्चा होनी चाहिए, कम नहीं। ताकि समाज में ऐसे अपराध के प्रति सहिष्णुता कम हो।

    उसकी किताबें जला नहीं देनी चाहिए। अगर वे कोर्स में शामिल हैं तो बैन नहीं कर देना चाहिए। उन पर साहित्यिक और अकादमिक चर्चा जारी रहनी चाहिए, लेकिन उस लेखकों को सार्वजनिक रूप से सम्मानित करना जरूर बन्द कर देना चाहिए। जहां उसकी रचनाओं की चर्चा हो, वहां उसके अपराध का भी जिक्र किया जाना चाहिए ताकि लेखकीय प्रतिष्ठा अपराध को धूमिल करने का बहाना न बन सके।

    Reply
  6. Sumita Ojha says:
    12 months ago

    बहुत महत्वपूर्ण चर्चा हुई है यह। ऐसी चर्चाएं कम ही होती हैं। इस आयोजन के सूत्रधार किंशुक गुप्ता जी और इसे प्रकाशित करने के लिए अरुण जी निश्चित ही बधाई के पात्र हैं।
    मुद्दा गम्भीर है।
    लेखक भी मनुष्य की मय कमजोरियों और क्रूरताओं से युक्त एक मनुष्य ही होता है, ऐसे तमाम तर्क अपराध को अपराध कहने से बचा नहीं सकता। लेखन/साहित्य के सन्दर्भ में हम यह विश्वास रखते हैं कि यदि हितकारी न हुआ तो साहित्य कैसा? यदि लेखन संवेदनशीलता को धार देते हुए बेहतर मनुष्य हो पाने में ख़ुद के लिए भी सहायक न हो सके तो साहित्य कैसा? नोबेल पुरस्कार प्राप्त लेखिका निश्चित ही एक मनुष्य, एक माँ हो पाने में अक्षम्य रूप से चूक गईं। उनके लेखन और व्यक्तित्व में कहीं कोई घनघोर व्यतिक्रम है। यही हासिल है उनका कि अब जब भी उनकी बात होगी, यह चूक उनके लेखन के समानांतर दर्ज होता रहेगा, उसपर भारी पड़ता रहेगा।
    इस चर्चा में भागीदार लेखक और लेखिकाओं की प्रतिक्रिया के स्वर में स्पष्ट अन्तर भी गौर करने लायक है। स्त्रियों के प्रति होने वाले शोषण और अपराधों की स्वीकार्यता को लेकर लेखक कुछ उदार जान पड़े, लेखिकाएं स्वाभाविक और उचित ही रुष्ट। मृदुला गर्ग मैम से सहमत हूं।

    Reply
  7. ऐश्वर्य मोहन गहराना says:
    12 months ago

    हम यहाँ एलिस मुनरो की बार कर रहे हैं, उनकी निजी गुण दोष उनकी रचनाओं के गुण दोष नहीं होते यह सही है, शायद लेखक लिखते समय अपना आप नहीं होता। सबके अपने सरोकार और विवशताएँ होती होंगी तो सीमाएं भी।
    हो सकता है कई बार लेखक लेखन में निज का पश्चाताप करता हो और कुछ रचता हो। जीवन में खुद को असहाय पाता हो।
    हम जीवन में बहुत सी खंडित प्रतिमाओं को देखते हैं और कई बार खुद विश्वास नहीं होता कि जो हमने हुआ, देखा, समझा या जो आज याद है क्या वह वाकई हुआ है। फिर किसी माँ या पिता को विश्वास बनता हो कि जो कहा जा रहा है, वह वाकई सही है, संभव है।

    Reply
  8. कुमार अम्बुज says:
    12 months ago

    इसमें पेंच यह है कि मृत्यु के बाद इस तरह के विवाद विडंबनात्मक और इकतरफ़ा हो जाते हैं क्योंकि दूसरा पक्ष अनुपस्थित है। सच के अनेक पहलू हो सकते हैं। एंड्रिया के पास पर्याप्त समय था कि वे अपनी माँ के जीवनकाल में ही इसे सार्वजनिक करतीं। अभी-अभी तक मुनरो जीवित थीं। तब एक सम्यक, सर्वांगीण बात मुमकिन हो सकती थी। बाक़ी सम्मति अपनी जगह उचित ही हैं।

    Reply
  9. Anjali Deshpande says:
    12 months ago

    प्यार में सब जायज़ है! क्या इस हद तक कि बालिका-लोलुप आखेटक पुरुष को उसके यौन आक्रमण के बावजूद सीने से लगाए रखें? इस हद तक प्यार हो कि उसके आखेट से सहानुभूति भी न हो, भले वह अपनी ही कोख से जन्मी हो? इतना नैतिक साहस भी नहीं कि सार्वजनिक रूप से ऐसे प्रेमी का मुखौटा उतार कर भी उसीसे उद्दाम लगाव की विवशता जतला सके. नारीवादी न सही न्याय की लेखकीय पक्षधरता ही सवालों के घेरे में आ गयी है. क्या लेखक सिर्फ चतुर शब्द-लड़ी पिरोने वाले हुआ करते हैं? कम से कम पाब्लो नेरुदा ने आत्मस्वीकार्य के ज़रिये अपनी करनी का कुछ तो पश्चाताप किया.
    काश किंशुक गुप्ता ने इसे “पति के प्यार और बेटी के प्रति अपनी जिम्मेवारी के बीच” का मामला ना बनाया होता. यह दो किस्मों के प्यार के द्वंद्व का मामला है. माएं भले बेटों से ज़्यादा प्यार करती हों, सुना है कि बेटियों से भी प्यार करती हैं.
    मृदुला गर्ग सही कह रही हैं कि “पीड़ित उसकी बेटी थी और अपराधी उसका पति, यह तथ्य उसे और बदतर बनाता है,” हालाँकि वे भी बेटी की रक्षा को उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी मानती हैं. यह सवाल नैतिक ज़िम्मेदारी से बड़ा है, यह प्यार की समझ और व्यक्ति में अन्तर्निहित मौलिक स्वार्थ की पड़ताल का अवसर है. संभव है कि इसी स्वार्थ के चलते स्किनर के पिता, मुनरो के पहले पति, भी चुप रहे हों. आखिर उनकी किताबों की दुकान मुनरो की किताबें बेच कर मुनाफा कमाती ही थी. अब वह दुकान बिक चुकी है शायद पर बुकस्टोर ने स्किनर के पक्ष में खड़े होने के आशय का बयान दिया है. प्रकाशक भी चुप के सहारे अपने बैंक में धन भरते रहे.
    यह ज़िम्मेदारी और प्यार के बीच का नहीं, दो किस्मों के प्यार के टकराव का मामला है.
    अगर पर्सनल पोलोटिकल है तो इस सार्वभौमिक से हो चुके नारे की सीमाओं की भी पड़ताल करनी होगी. क्या मुनरो का पर्सनल, उसका अपने प्रेमी-पति का साथ चुनना उसकी पोलिटिक्स का संकेत है? जब यह पर्सनल स्किनर के न्याय के अधिकार से टकराता है तो एथिक्स के बुनियादी सवाल उठ खड़े होते हैं. ऐसे टकराव में क्या उत्तर आधुनिक या पोस्ट मॉडर्न सिद्धांत की कसौटी पर दोनों के ही चयन को ‘अपना अपना सच’ कह कर फैसले से परे रखा जाएगा? क्यों रहेगा? इतनी छूट तो अस्तित्ववाद ने नहीं दी. क्या मुनरो का अस्तित्व ही फ्रेमलिन की बाहों में ही परिभाषित होता था?
    और उनका क्या जिन्होंने यह जानते हुए चुप्पी साधे रखी? उसके जीवनीकार का कहना कि मुझे मालूम था पर मैंने नहीं लिखा ‘क्योंकि यह तो अलग पुस्तक का विषय’ था! एक स्त्री का अनैतिक चयन क्या उसके जीवन का ऐसा अभिन्न अंग नहीं है जो उसके लेखन को नहीं तो उसके व्यक्तित्व की पूर्णता को प्रस्तुत करे? इसे अलग पुस्तक चाहिए? क्यों?
    स्किनर ने माँ की एक चिट्ठी को उद्घृत करते हुए बताया है कि उन्होंने (मुनरो ने) कहा कि “अगर मैं उनसे यह अपेक्षा रखूँ कि ‘मैं अपनी ज़रूरतों से इन्कार करूं, अपने बच्चों के लिए त्याग करूं, और पुरुषों की कमज़ोरियों की भरपाई करूं’ तो यह हमारी स्त्री द्वेषी संस्कृति का कसूर है.”
    यौन आक्रमणकारी पुरुष का अंत तक साथ देना स्त्री द्वेष नहीं है? लेकिन अब यह सवाल पूछे किससे जाएँ? न फ्रेमलिन जीवित हैं न मुनरो. उनके पक्ष मौत ने दफ़न कर दिए. और भी तथ्य, हो सकता है, कि बाद में सामने आये.
    एलिस मुनरो का कद मेरी नज़र में तो घटा है. अच्छे लेखक सता का विपक्ष होते हैं. समानता और न्याय के पक्षधर होते हैं. सत्ता सिर्फ राज सत्ता नहीं होती. जो लेखिका पितृसत्ता के घिनोने पक्ष तक को अपने प्यार के नाम पर अनदेखा करने का सामर्थ्य रखती हो उसके सामर्थ्य पर ही उबकाई आती है.

    Reply
  10. Rustam Singh says:
    12 months ago

    असली बात यह है कि यदि हम इतिहास के प्रसिद्ध लेखक-लेखिकाओं के निजी जीवन की गहराई में जांच-पड़ताल करेंगे — और कम से कम पश्चिम में ऐसा होता आया है और अब भी हो रहा है — और यदि हम एक ख़ास तर्क के अनुसार चलें तो हम उनमें से कइयों की रचनाओं को पढ़ना बन्द कर देंगे। पर क्या ऐसा करने में कोई तुक है? नहीं।
    नाम गिनने लगें तो ऐसे लोगों में गेटे, टॉलस्टॉय, दॉस्तोएव्स्की, क्नुत हामसुन, हेमिंग्वे, ब्रेख़्त तथा कई और नाम आ जायेंगे। (इनमें ब्रेख़्त का केस ख़ास है, क्योंकि हाल के शोध के अनुसार उसके कई प्रसिद्ध नाटकों के पहले और कुछ अन्तिम ड्राफ्ट उसकी प्रेमिकाओं ने लिखे थे। परन्तु यह उसका एक मात्र अपराध नहीं था।)
    हम टॉलस्टॉय तथा दॉस्तोएव्स्की को पढ़ना कैसे बन्द कर सकते हैं? उनकी रचनाओं ने हमारे युवा दिमागों को गढ़ा था, हमारे चरित्र पर गहरी छाप छोड़ी थी और हमारे कवि-लेखक बनने में मूल भूमिका अदा की थी। कम से कम मेरे बारे में तो यह सही है। युवा दिनों में मुझे कुछ और ऐसे लेखकों की रचनाओं ने भी प्रभावित किया था जिनके निजी व्यवहार पर प्रश्न उठाये जा सकते हैं और उठाये भी गये, उदाहरण के लिए हेमिंग्वे।
    ये तथा कुछ और ऐसे कवि-लेखक अब भी मेरे प्रिय कवियों-लेखकों में हैं। मैं उनकी रचनाओं को पढ़ना कैसे छोड़ सकता हूँ? वास्तव में उनके निजी जीवन और उनके व्यवहार को जानने के बाद उन्हें पढ़ना मेरे लिए और भी रोमांचकारी हो गया। आप सोचने लगते हैं: “अच्छा, यह लेखक अपने निजी जीवन में ऐसा था!! उसके कई विचार तथा काम आपत्तिजनक थे। तब भी उसने इतना उच्चकोटि का लेखन किया!! ऐसा कैसे सम्भव हुआ? इन दो चीजों का आपस में क्या सम्बन्ध है?” इत्यादि। इत्यादि।

    Reply
  11. प्रियंका दुबे says:
    12 months ago

    मेरा दिल पीड़िता के साथ है …और यह समझना बहुत कठिन है कि ऐलिस ने अपनी बेटी का साथ कैसे नहीं दिया ! आख़िर यह कैसे संभव है ! लेकिन इस बातचीत में जो एक पक्ष पूरी तरह ग़ायब है वह है पीड़िता के पिता – जेम्स मुनरो. वह क्या करते रहे थे ? जब बायोग्राफ़र और परिवार में सभी को मालूम था तो निश्चय ही पिता को भी मालूम चला हो होगा . उनसे कोई सवाल क्यों नहीं करता ? क्या पिता की ज़िम्मेदारी नहीं थी कि अपनी बेटी का साथ दे ? और ऐसी हालत में जब उसकी माँ साथ नहीं दे रही, तब तो और ज़्यादा पुरज़ोर तरीक़े से साथ दे ? क्यों सेपरेशन की स्तिथि में सारा जजमेंट सिर्फ़ स्त्री के लिए ही रिज़र्व रहता है ? अपनी बेटी के प्रति ऐलिस मुनरो के इस व्यवहार की जितनी आलोचना की जाए उतनी कम है. लेकिन साथ में पिता से पूछा जाए. वह क्या कर रहे थे ? बच्चे की ज़िम्मेदारी माँ पिता दोनों की होती है. और जब कोई एक पेरेंट ऐलिस की तरह अपनी ज़िम्मेदारी से विमुख हो रहा हो तब तो दूसरे की ज़िम्मेदारी और ज़्यादा बनती है. माँ के साथ साथ बच्ची के पिता को भी माफ़ नहीं किया जा सकता.

    Reply
  12. सुशील मानव says:
    12 months ago

    मैंने वो लेटर देखा है। उनकी बेटी Andrea Robin Skinner का ये स्टेटमेंट है। लेकिन किंशुक जी कहना क्या चाहते हैं मेरा सवाल उनकी टिप्पणी पर था।

    1992, में दब Skinner 25, साल की थी वो अपनी मां को पत्र लिखती हैं और सौतैले पिता के दुर्व्यवहार को रेखांकित करते हुए कहती हैं – “I have been afraid all my life you would blame me for what happened,”

    एलिस मुनरो दोनों को कसूरवार मानती हैं। ” Munro treated Fremlin’s abuse as an infidelity and a betrayal from both him and her daughter.

    वहीं जब स्किनर आरोप लगाती हैं कि- Fremlin’s abuse had damaged her। जवाब में मुनरो कहती हैं – , “But you were such a happy child.”

    स्किनर के सौतेले पिता Gerald Fremlin पूरे परिवार को लिखे एक पत्र में, स्किनर को “बेहद वाक्पटु” और “घर तोड़ने वाली” बताया।

    फ़्रेमलिन ने लिखा, “it is my contention that Andrea invaded my bedroom for sexual adventure,” उसने आगे लिखा “For Andrea to say she was ‘scared’ is simply a lie or latter day invention.”
    फ़्रेमलिन ने आगे लिखा-” “I think Andrea has recognized herself to be a Lolita but refused to admit it,” he wrote.

    और इतना ही नहीं इस घटना के सामने आने के बाद एलिस मुनरो न सिर्फ़ फ्रेमलिन से नाराज़ हुयी थी बल्कि उससे की महीने अलग रही थी। बाद में फिर वो एक हो गये ये दीगर बात है.

    Reply
  13. विभांशु says:
    11 months ago

    किंशुक गुप्ता का हिन्दी परिसर में आगमन एक नई आश्वस्ति है, यह एक ज़रूरी बहस है, जिसको लेकर प्रायः एक ‘सामूहिक नकार’ (‘collective denial’) का व्यवहार हमने अपनाया है।
    मैं एन्ड्रिया की बात उसी संवेदना के साथ सुन रहा हूँ जिस संवेदना के साथ यह बात सुनी जानी चाहिए, जिस संवेदना के साथ दुनिया के हर चाइल्डहुड सेक्सुअल सर्वाइवर की बात सुनी जानी चाहिए।
    लिखना एक कॉन्शियस डेलिब्रेट परफ़ॉर्मेंस है, लेखक इसी भौतिक जगत से भाषा, विचार, कल्पनाशीलता, और इन सबको एक जगह, किसी विशिष्ट शिल्प में बरतने का तरीक़ा सीखता है। इसलिए किसी भी लेखक का लिखा एशेंसियल तौर पर उस लेखक के बार में कुछ नहीं बताता, वह सिर्फ़ यह बताता है कि लेखक दुनिया को या अपने विषय को किस प्रकार देखना चाह रहा है, साथ ही लेखक दुनिया के सामने कैसा दिखना चाह रहा है। इस प्रकार लेखक और उसका लिखा, दो अलग-अलग स्वतंत्र अस्तित्व प्राप्त कर लेते हैं।
    मेरे लिए इस पूरी घटना में एलिस मुनरो का लेखक होना कोई मायने नहीं रखता, इस संदर्भ में वह शुरू से लेकर आख़िर तक बस एक पैरेंट (माँ के बजाय पैरेंट शब्द जानबूझकर चुन रहा हूँ) है, और पैरेंट के तौर पर वह अपराधी (आरोप सत्य पाए जाने पर किसी को अपराधी कहा जाता है, इससे मैं परिचित हूँ) है।
    एलिस मुनरो की मौत हो चुकी है, अब उन पर कोई आपराधिक मामला नहीं चलाया जा सकता, नैतिक टिप्पणियों की अपनी सीमा है, ऐसे में इस पूरे अपराध के लिए क्या न्याय हो सकता है? न्याय का सवाल इस घटना को कुछ लोगों के बीच की घटना से एक सामाजिक प्रश्न में बदल देता है।
    बच्चों के यौन-शोषण की बात हमेशा किसी दूर की, रेयर घटना की तरह की जाती है, लेकिन हक़ीक़त में यह उतनी रेयर नहीं है जितना सामूहिक तौर पर हम उसका आँकलन करते है, इसके साथ सामूहिक तौर पर हम यह भी नकार देते हैं कि हमारे आस-पास भी यह घटना होती है, हो सकती है।
    इस सामूहिक नकार का कारण हमारे चेतन-अवचेतन में रची-बसी परिवार की ‘पवित्र’ छवि है।प्रायः परिवार को एक प्राकृतिक संस्था के तौर पर देखना सीखाया जाता है, इसलिए हमारे मन में परिवार की संस्था को बचाए रखने का भाव उमड़ता है। लेकिन परिवार एक सॉशल कन्स्ट्रक्ट है, और ‘फ़ैमिली वैल्यू’ जैसे शब्द की अपनी राजनीति। क्या हम अपने सामूहिक नकार से बाहर आकर परिवार संस्था (वर्तमान स्वरूप) और उसमें एक अवयस्क की एजेंसी को फिर से देखने की कोशिश कर सकते हैं?
    फिर से एन्ड्रिया पर लौटते है, इतने सालों बाद एन्ड्रिया यह बात क्यों बता रही है? वे यह बात अपने ट्रॉमा को हील करने के लिए कर रही हैं, उनके साथ जो हुआ वे उसे आवाज़ देना चाहती हैं, वे चाहती है हम लोग सुने। द गेटहाउस नाम की संस्था ना केवल एन्ड्रिया बल्कि और भी कई सारे सर्वाइवर के लिए अपनी बात कहने का अवसर व वातावरण उपलब्ध कराने की कोशिश करती है। हमें सुनना चाहिए।

    विभांशु (कोई भी किताब लिखने का इरादा नहीं है)

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