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परख : इसलिए कहूँगी मैं (सुधा उपाध्याय)

संभावनाओं के द्वार पर दस्तक देतीं कविताएँ                 ब्रजेन्द्र त्रिपाठी                                सुधा उपाध्याय का दूसरा कविता-संग्रह है-‘इसलिए कहूँगी मैं’. यह शीर्षक भी बहुत कुछ व्यंजित करता है कि कहने के पीछे कुछ कारण हैं, कुछ परिस्थितियाँ हैं.  128 पृष्ठों के इस […]

by arun dev
December 8, 2013
in Uncategorized
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संभावनाओं के द्वार पर दस्तक देतीं कविताएँ                

ब्रजेन्द्र त्रिपाठी               
               
सुधा उपाध्याय का दूसरा कविता-संग्रह है-‘इसलिए कहूँगी मैं’. यह शीर्षक भी बहुत कुछ व्यंजित करता है कि कहने के पीछे कुछ कारण हैं, कुछ परिस्थितियाँ हैं.  128 पृष्ठों के इस कविता-संग्रह को पाँच खंडों में विभक्त किया गया है ‘युद्धरत औरतें’, ‘दम तोड़ता लोकतंत्र’, ‘वंचितों के सपने’, ‘चिंदी चिंदी सुख’ और ‘लाचार सूर्य’. ये शीर्षक भी संग्रह की कविताओं के विषयवस्तु को संकेतित करते हैं.
संग्रह की ‘एक थी सुनरी’, ‘और होंगी मुनिया’ जैसी कविताएँ लाचार स्त्री की पीड़ा, वेदना और उसके शोषण का आख्यान रचती है और बताती हैं कि पीड़ा की यह दास्तान हमारी आज़ादी के पैंसंठ वर्षों बाद आज भी जारी है. औरत की अस्मत आज भी तार-तार हो रही है और इसे मीडिया और जातिगत राजनीति ने मात्र बहस का मुद्दा बना कर रख दिया है.
प्रस्तुत कविता-संग्रह के केंद्र में स्त्री और उसका जीवन है. जीवन के केंद्र में भी स्त्री ही है, भले ही उसे विश्रृंखलित करने की कोशिश हो. ‘औरत/तूने कभी सोचा है/जिस परिधि ने तुझको घेर रखा है/उसकी केंद्रविंदु तो तू ही है/तू कहे अनकहे का हिसाब मत रख/किए न किए की शिकायत भी मत कर/तू धरा है धारण कर/दरक मत/ तू परिधि से नहीं/ परिधि तुझसे है.’
इन कविताओं में स्त्री जीवन को समझने और गहराई से विश्लेषित करने का जतन भी है. बेटी, बहन, पत्नी और माँ के रिश्तों में बँधी स्त्री, तमाम तरह के संस्कारों में जकड़ी स्त्री. क्या इनसे अलग भी स्त्री का कोई अपना वजूद है – ये कविताएँ प्रश्न करती हैं. संग्रह की एक कविता है ‘संवादहीनता’ जो स्त्री जीवन की विवशता और उसकी नियति को सामने रखती है, जहाँ मात्र एकालाप ही संभव है: ‘एकालाप में मगन वह औरत/न कभी इच्छित कर पाती है/ न सुनती है. बस एकांत में बुनती है संवाद. जब-जब अपनों से मिलती है. और सब कुछ कहती सुनती है/बस नहीं कह पाती वही/जो जीवन भर बुनती है.’’
कामकाजी औरतों की अपनी दुनिया है, जहाँ मशीन की सी भाग दौड़ है, घड़ी की सुइयों के साथ बँधा जीवन है. इस बाहर की दुनिया में कई-कई  मुखौटे बदलने पड़ते हैं और घर लौटकर पूरी गृहस्थी की ज़िम्मेदारी उठानी पड़ती है और ये सब करते-करते वह ‘पड़ जाती है निढाल बिस्तर पर/ ताकि कल फिर जिरह बख़्तर के साथ/निकल सके घर से .’  यह  आज  की युद्धरत औरत का चित्र है.जिसे सुधा बड़ी सूक्ष्मता के साथ प्रस्तुत करती हैं.      
स्त्री-जीवन की पीड़ा, यातना, उसके संघर्षों के साथ उसकी जिजीविषा और तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों में भी संघर्ष करने की उसकी कूवत की पहचान भी संग्रह की ‘बोनजई’ और ‘कूबत’ जैसी कविताओं में की जा सकती है. आज की स्त्री अन्याय सहने को तैयार नहीं है, वह युगो-युगों से डाले गए बंधनों से मुक्त हो, खुली हवा में साँस लेना चाहती है, वह अपना जीवन अपनी तरह से जीना
चाहती है. ‘ख़ानाबदोश औरतें’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ देखें – सावधान/इक्कीसवीं सदी की ख़ानाबदोश औरतें तलाश रही हैं घर/ सुना है वे अब किसी की नहीं सुनती/चीख चीख कर दर्ज करा रही हैं सारे प्रतिरोध’’
आज की स्त्री पूर्व में हुए सभी अन्यायों का जवाब चाहती है. वह जानती है कि उसे बड़े-बड़े शब्दों द्वारा छला गया है. उसे ‘देवी’ कहकर श्रृंखलाबद्ध कर दिया गया है. इसीलिए ‘रामराज्य’ शीर्षक कविता में कवयित्री कहती है: लाख कह लो राधा को/कृष्ण की प्रेरक शक्ति/सीता को राम की मर्यादा. अहिल्या को गौतम ऋषि की तपस्या/उर्मिला को लक्ष्मण की पूजा/सब लफ्फ़ाजी/प्ररेणा, मर्यादा, तपस्या और पूजा/को ही देनी पड़ती है अग्निपरीक्षा/मिलताहै वनवास/सहना पड़ता है असह्य वियोग/शिलाबद्ध होना पड़ता है/हर राम राज्य में/’
कवयित्री की एक चिन्ता जीवन की सहजता को बचा कर रखने की भी है. आज के दौर में सब कुछ छीज रहा है – गाँव क़स्बे में तबदील हो रहे हैं, बच्चों का बचपन छिनता जा रहा है. आत्मीयता का भाव कहीं तिरोहित हो गया है. आज की यांत्रिकता से घबराकर मन फिर से बचपन के दिनों में लौट जाना चाहता है, मन को मुक्त करने वाले बंधनों में जकड़ जाना चाहता है. ये कोई जीवन से पलायन नहीं है, वरन् जीवन को उसकी पूरी सहजता में जीने की गहरी इच्छा है – बिना किसी चिंता के, बिना किसी फ़िक्र के. बचपन को याद करना एक निर्मलता को याद करना है, स्वच्छंदता को याद करना है, उन्मुक्तता को याद करना है: ‘आओ सुलह कर लें/गहरी साँसें भर लें/आओ मिलकर किताबों से धूल झाड़ें/चलो, फिर से आईने को मुँह चिढ़ाएँ/ रेल की पटरी पर दौड़ें बेतहाशा/ … गौरेये के बच्चे को पानी पिलाएँ/गाँव की बगिया घूम आएँ/गाँव की बूढ़ी अम्मा को सताएँ . ’’
आज के दौर में जीवन यांत्रिक  होता जा रहा है, सामाजिकता का क्षय हो रहा है, रिश्तों का ताना-बाना क्षीण होने लगा है. प्रकृति और अपने परिवेश से हम कट गए हैं. वस्तुतः हम जीवन का आनंद ले पाना ही भूल गए हैं. भौतिकता हमें थोड़ा बहुत सुख तो दे सकती है, लेकिन जीवन का वास्तविक आनंद तो भौतिकता से उबर कर ही पाया जा सकता है. हम खुली हवा में साँस लेना भूल गए हैं,
अपने मित्रों-परिजनों से कट गए हैं. ज़िंदगी में बहुत छोटी-छोटी चीजें भी हमें प्रसन्नता दे सकती हैं, इसे हमने बिसरा दिया है. ‘कितने दिन’ कविता में इसी
तरफ़ इशारा है: … सच सच बतलाना/कितने दिन हो गए तुम्हें/ खुले आसमान के नीचे बैठे/उड़ती हुई चिड़ियों का झुंड देखे/इत्मीनान की साँस लिए/ पसंद की कोई किताब पढ़े/ कोई गीत गुनगुनाए/घड़ी की सुइयों को अनदेखा किए.
इसीलिए कवयित्री उन बातों को अधिक महत्व देती है, जिसे दुनिया छोटी कहती है, क्योंकि उसे मालूम है कि जीवन की ये तथाकथित छोटी बातें ही उसे सार्थकता प्रदान करती है. इन छोटी-छोटी बातों से मिलकर ही जीवन बड़ा बनता है. बड़ी बातों के पीछे भागने से कुछ भी हासिल नहीं होता. इसीलिए वह कहती हैं: समेट रही हूँ/लंबे अरसे से/उन बड़ी-बड़ी बातों को/जिन्हें मेरे आत्मीयजनों ने/ठुकरा दिया छोटा कहकर/डाल रही हूँ गुल्लक में/इसी उम्मीद से/क्या पता एक दिन/यही छोटी-छोटी बातें/ बड़ा साथ दे जाएँ.’’
आज के इस भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के दौर में मनुष्य की लालसाएँ अनंत हो गई है. वह सारी भौतिक समृद्धि को अपनी बाहों में समेट लेना चाहता है. उसके चारों ओर बाज़ार पसरा पड़ा है, वह उसकी चैखट लाँधकर घर में प्रवेश कर गया है. लगता है, उससे मुक्ति संभव नहीं. यह अत्यंत कठिन समय है, जिसने मनुष्य को अति आत्मकेंद्रित बना दिया है. अपने अतिरिक्त और कुछ उसे दिखता ही नही. सब कुछ उसके लिए ‘स्व‘ केंद्रित है, सारे संबंध उसके लिए स्वार्थ केंद्रित हैं. अगर स्वार्थपूर्ति हो रही है तो ठीक, अन्यथा उसके लिए ये सब कुछ बेमानी है. कितना निकट का संबंध न हो, उसके लिए उसका कोई महत्त्व नहीं है. वह अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की मरीचिका में भटकता रहता है: महत्वाकांक्षाएँ/कर देती हैं आत्मकेंद्रित/मार देती हैं भीतर की सद्भावना/सुख दुख भी सहज होकर नहीं बाँट पाते/मृगमरीचिका सी स्वर्ग की सीढ़ियाँ चढ़ते/छूट जाते हैं बचपन के संगी साथी/जवानी का घर परिवार/बुढ़ापे में बालबच्चे .’ इस प्रक्रिया में किन चीज़ों से वंचित रह जाते हैं, यह पता ही नहीं चलता/ऐसे ही लोगों के लिए कवयित्री कहती है कि उन्हें – कभी नहीं पता चल पाता/मिलजुल कर अचार मुरब्बों के खाने का स्वाद/कोई नहीं करता उन्हें नम आँखों से विदा.’’
यह समय ऐसा है, जब सच और झूठ में फ़र्क कर पाना बहुत मुश्किल हो गया है. सच को बहुत आसानी से झूठ क़रार दिया जा सकता है और झूठ को सच. सच तो यह है कि इस दौर में झूठ और चमकदार और भव्य दिखने लगा है. सच यह भी है कि इस दौर में सच बोलना बहुत कठिन होता जा रहा है. सच बोलकर आप अकेले पड़ जाते हैं, कोई आपके साथ नहीं दिखता. ‘कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता’  कविता की ये पंक्तियाँ इसी सच की तरफ़ इंगित करती हैं: तो सच ये है कि/सबसे कठिन है/सच बोलना और/उससे भी ज़्यादा कठिन है/सच पर यक़ीन करना/सच की हत्या/उससे भी आसान है.
हम मूल्यहीनता के दौर में जी रहे हैं, चाहे तो कह सकते हैं कि इस कालखंड में मूल्यहीनता ही सबसे बड़ा मूल्य है. महात्मा गाँधी ‘साधन की पवित्रता’ की बात किया करते थे, लेकिन आज साध्य ही सबकुछ है. सफलता ही एकमात्र ध्येय है,  भले ही उसके लिए मूल्यों, संस्कारों, की बलि देनी पड़े और ऐसे समय में कवयित्री ठीक ही कहती हैं: एक समय ऐसा आएगा/ मेरे बच्चे ही/ग़लत को सही समझना/समय की ज़रूरत बताएँगे (सच की हत्या).
इस संग्रह में कुछ अच्छी प्रेम कविताएँ भी हैं. प्रेम एक ऐसा भाव है जिसके बिना जीवन अधूरा रहता है. प्रेम ही जीवन को परिपूर्ण बनाता है. प्रेम में रचकर ही जीवन पुष्प खिल उठता है. संग्रह की एक कविता है – ‘सिर्फ़ तुम्हें जानती हूँ ’ जिसमें अधिकाधिक प्रेम पाने की चाहना है. इतना प्रेम मिल जाए कि उसे रोम-रोम से लुटाया जा सके. प्रेम में डूबा हुआ कोई व्यक्ति ही कह सकता है: ‘तड़प कर देना भी कोई देना है/इतना दे दो कि अघाने से भी और बहुत बहुत सारा बच जाए/चोर भी चुरा ले जाए भिखारी का पेट भर जाए/पड़ोसियों की जलन मिट जाए बीमार को भी आराम आ जाए’’. 
प्रेम समर्पण माँगता है और प्रेम में व्यक्ति उस पर सब कुछ निछावर कर देना चाहता है, जिससे वह प्रेम करता है. प्रेम में व्यक्ति अपना सब कुछ  सौंप कर उन्मुक्त हो जाना चाहता है. जो भी सुंदर है, शुभ है, वह प्रिय के लिए है. प्रेम कोई प्रतिदान नहीं चाहता. ‘अक्षत’ कविता से ये पंक्तियाँ देखें: सोचती हूँ हवाई उड़ान भरते-भरते/जब तुम थक जाओगे/मैं इसी खुरदुरी ज़मीन पर तुम्हें  फिर मिल जाऊँगी/जहाँ हम घंटों पसरे रहते थे मन गीला किए हुए. 
इस संग्रह में कुछ कविताएँ मक़बूल फ़िदा हुसैन को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं जो कई ज्वलंत मुद्दे हमारे सामने रखती हैं . हुसैन को अपने आखि़री दिनों में ज़लावतन होना पड़ा और यहाँ की मिट्टी भी उन्हें नसीब नहीं हुई. ‘कला और लोकतंत्र’ कविता में हुसैन से ये प्रश्न हमारी आँखों को नम कर जाता है: क्या दम  उखड़ते-उखड़ते कभी याद आया हुसैन/वो पुराना घरौंदा/वो लुकाछिपी/वो दोस्ती यारी/तड़पे तो ख़ूबब होगे. अपनी माटी की सोंधी गमक के लिए/जिसे रुख़सत होकर भी मयस्सर न हुई/ अपनी माटी अपनी हवा अपना आसमान’. 
सुधा उपाध्याय की ये कविताएँ अपने में व्यापक समय-संदर्भ समेटे हुए हैं और हमें कुछ समीचीन प्रश्नों से रू-ब-रू कराती है, हमारे भाव जगत को समृद्ध करती हैं और संभावनाओं के नए द्वार पर दस्तक देती हैं.
_____________________

ब्रजेन्द्र त्रिपाठी   साहित्य अकादेमी के उपसचिव हैं.  
                                 
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