• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » परख : केवल कुछ वाक्य (उदयन वाजपेयी) : मिथलेश शरण चौबे

परख : केवल कुछ वाक्य (उदयन वाजपेयी) : मिथलेश शरण चौबे

पेशे से चिकित्सक उदयन वाजपेयी (४ जनवरी-१९६०, सागर) के तीसरे  कविता संग्रह ‘केवल कुछ वाक्य’ का प्रकाशन धौली बुक्स (भुवनेश्वर) ने किया है, जो अधिकतर उड़िया और अंग्रेजी में किताबें प्रकाशित करता है. इसके प्रकाशक मनु दाश खुद उड़िया और अंग्रेजी के कवि हैं. उदयन वाजपेयी का नया उपन्यास भी प्रकाशित हुआ है, ‘क़यास’. उनके […]

by arun dev
May 1, 2020
in समीक्षा
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें





पेशे से चिकित्सक उदयन वाजपेयी (४ जनवरी-१९६०, सागर) के तीसरे  कविता संग्रह ‘केवल कुछ वाक्य’ का प्रकाशन धौली बुक्स (भुवनेश्वर) ने किया है, जो अधिकतर उड़िया और अंग्रेजी में किताबें प्रकाशित करता है. इसके प्रकाशक मनु दाश खुद उड़िया और अंग्रेजी के कवि हैं.

उदयन वाजपेयी का नया उपन्यास भी प्रकाशित हुआ है, ‘क़यास’. उनके पांच कहानी संग्रह प्रकाशित हैं.  वो पिछले कई वर्षों से हिंदी की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘समास’ का संपादन कर रहें हैं. लेखकों, दार्शनिकों. संस्कृतिकर्मियों से ‘संवाद’ को इधर उन्होंने जो गहराई प्रदान की है वह बहुत मूल्यवान है.

इस संग्रह की चर्चा कर रहें हैं, कवि-संपादक मिथिलेश शरण चौबे.



केवल कुछ वाक्य
स्मृति की आत्मा, कल्पना की देह : आकांक्षा का स्थापत्य
मिथलेश शरण चौबे

\’यदि मुझे किसी के मन से प्रेम है तो मुझे उसके शरीर से भी प्रेम है. यदि मुझे किसी के शब्द अच्छे लगते हैं तो मुझे उसके होंठ भी अच्छे लगते हैं. पर यदि उसके इन होंठों को कोई काट डालता, मैं उसे फिर भी प्रेम करती.\’                                                                  

 मारीना स्वेतायेवा
             

हम बहुधा शब्दों पर आश्रित होते हैं, भाषा हमारी सबसे विश्वसनीय शरणस्थली है. हम बीतते हैं, शब्द हमारे बीतने को निबाहते हैं ताकि हमारा बीतना बच सके, और इस तरह हम ही बच सकें. शब्द भी प्रतीक्षा करते होंगे. भाषा हमारे बीतने की प्रतीक्षा सबसे ज़्यादा उत्कट रूप में करती होगी. हमें पनाह देने में ही उसकी अर्थवत्ता आलोकित होती है. हम उससे भाषित हैं और वह हमारे बीतने से मूर्त. कई भाषाएँ यदि आपस में बातचीत करती होंगी तो उनके केन्द्रीय विषयों में एक हमारा बीतना होता होगा. हम इस्तेमालपरक भाव में शब्दों को बरतते हैं तो भाषा हमारे घटित की चारदीवारी में ही हमें कैद कर देती है. यदि कृतज्ञता भाव से हम भाषा के पास जाते हैं तो वह हमारे अघटित को भी पोषित करती है. यह अत्यल्प होता है. इसके विलोम जो अकसर होता है, उस मूर्त के मोह से बचाव के रास्ते ही साहित्य का सच हैं.
             
कोई कितना भी अकेलेपन में जी रहा हो, अकेला नहीं बीतता. हम जिनके साथ बीतते हैं वे हमारे साथ बीत रहे होते हैं. यह साथ सिर्फ़ अनुभव के हिस्से नहीं बचता, अनुभव तो केवल एक टेक है, दरअसल यह साहचर्य भाषा की वजह से बचा रहता है. हम जितना खो सकते हैं उतने खोने की प्रक्रिया में निमग्न रहते हैं.  भाषा हमें बचाने के निरन्तर उपक्रम में संलग्न रहती है. हम जो खो देते हैं, भाषा उसे सहेजती है. अर्थात हमारे खोने की अनौचित्यपूर्ण शैली के विरुद्ध भाषा सहेजने के औचित्य को चरितार्थ करती है.

आत्मालाप हर सुन्दर कविता की बुनियाद है. दरअसल एक अर्थ में सभी कविताएँ अन्ततः आत्मालाप ही हैं. कोई कविता कितनी भी सामाजिकता को प्रतिकृत करती हो, वह उस कवि का आत्मालाप ही है.                                      
               
(उदयन)
देहरहित होकर भी कोई पूरी तरह मर्त्य नहीं होता. स्मृतियों में उपस्थिति बनी रहती है, ऐसी उपस्थिति का काल भले ही सबका अलग हो. विभिन्न कला रूपों में उन्हें मूर्त किया जा सकता है. हम गाँधी, मदर टेरेसा आदि के रेखांकनों से लेकर मिथकीय चरित्रों के कलारूपों में मूर्त होने के अनुभव को सामने रखकर इस प्रक्रिया से साकार लोक को समझ सकते है. नाटक और पेंटिंग्स में यह पुनर्वास बहुत मिलता है. पण्डवानी जैसी गायन शैलियाँ भी इसी क्रम में देखी जा सकती हैं. साहित्य में रेखाचित्र, जीवनी के अलावा भी यह व्याप्ति मिलती है लेकिन उस सघनता और उत्कट रूप में नहीं जिसे अन्य कलारूप चरितार्थ करते हैं. निराला के यहाँ समृति का पुनर्वास तथा कमलेश जैसे कवि के यहाँ पितरों का आह्वान व उनके बसाव की चिन्ता को हम इसी क्रम में देख सकते हैं.  
               
लेखक के पास भाषा वह एकमात्र और अन्तिम स्थल है जहाँ वह अपने इस लोक से गमन कर चुके पुरखों को वापस लौटा सकता है. साहित्य में यह पुनर्वास यदि अत्यल्प हो सका है तो कदाचित इसके लिए उसके यथार्थ आग्रही होने की एकमात्र मंशा को ही दोष देना होगा. यह भले ही माना गया हो कि स्मृति कल्पना का अभाव है, लेकिन कुछ अभाव इतने समृद्ध हो सकते हैं यह केवल कुछ वाक्य पढ़कर महसूस कर सकते हैं. एक बात और महसूस होती है कि स्मृतियाँ इतनी जड़ नहीं होती कि कल्पना उसे अपनी आकांक्षा अनुरूप चरितार्थ न कर सके और न ही कल्पना इतनी निष्ठुर कि स्मृति को अलक्षित कर जाए. बिना स्मृतियों की समृद्धि के कल्पना की कल्पना असम्भव लगती है. कल्पनाएँ स्मृति को दुलारती हैं और अपने कुछ कवच या कहें कि पारदर्शी वस्त्र उन्हें ज़रूर पहनाती हैं कि वे वर्तमान की चकाचौंध में भी अपनी लौ को बचाए रख सकें.
               
भाषा इस लौ को दीप्त रखने का काम करती है. जैसे मूर्तियों में कोई मूर्तिकार किसी को साकार करता है, कवि शब्दों की कारीगरी से भाषा में उसे साकार करता है. इस अर्थ में भाषा एक लोक है जिसमें दूसरे लोक के वासियों के पुनर्वास का अवसर रचनाकार के पास होता है. यह एक दुहरी प्रक्रिया है : एक तरफ़ अपनी स्मृति को रचना और दूसरा भाषा के लोक में दूसरे लोक के वासियों का आह्वान करना. किसी अन्य लोक में विचरित पुरखों को उनके छूटे लोक में लाने की पुकार भाषा की अत्यन्त मार्मिक और विस्मयकारी हलचल है. एक लेखक आखिर किस तरह अपने पुरखों का तर्पण कर सकता है. वह आम मनुष्यों की भाँति, किसी एक पक्ष में पानी के अर्घ्य और पुकार की मार्मिकता से तो अपने ऋण से मुक्त नहीं हो सकता. यदि वह ऐसा कर भी रहा हो तो क्या वे पुरखे उस पर यकीन करेंगे? उसके पास पुरखों को यकीन दिलाने के लिए उन्हें भाषा के ज़रिये अवतरित करना एक अन्तिम विकल्प है. 
               
इस संग्रह की कविताओं में दिवंगतों के साथ जीवितों के साहचर्य का एक नैरन्तर्य है, जिसमें किसी का अनुपस्थित होना कोई बाधा उत्पन्न नहीं करता. पिता अगर कहीं बैठे हैं तो वे हमेशा से हमेशा तक के लिए वहाँ मौजूद हैं. जीवित ही मृतकों को नहीं देखते, मृतक भी आसन्न मृतकों का शोक मनाते हैं. और यह इतना सघन है कि जीवितों को अपने जीवित होने पर ही संदेह पैदा करा सके –         

“आकाश के कौने में शायद एक आँगन है, जहाँ माँ पिता को चाय दे रहीं हैं. नानी नाना पर बिगड़ रही हैं और नाना गोल टेबिल पर ताश फैलाए अपने दोस्तों के आने का इन्तज़ार कर रहे हैं.”

यह स्वर स्मृति में दर्ज़ होकर भी निजता के पार ले जाता है जब पुरखों का अपना आकांक्षा संसार प्रकट होता है–            

“आकाश की कुहेलिका में पिता की तलाश करती माँ कभी किसी रास्ते पर मुझे मिल जाया करती.”

बीते हुए घटित में कल्पित अघटित का समावेश इस निपटता से होता है कि जो मार्मिक दृश्य उभरते हैं उनमें दोनों का फ़र्क विलीन हो जाता है. हालाँकि ऐसे किसी यत्न का होना प्रकट नहीं होता.

भाषा के लोक में पुरखों को पुनर्वासित करने के इस कविता उद्यम के प्रति कवि का अनाश्वस्त भाव, विनय के मर्म की ध्वनियों को बढ़त देता हुआ लगता है –


“काका मैं तुम्हें तब भी नहीं बचा पाया और अब इन ढेरों कविताओं में भी हर बार उसी तरह विफल हो जाता हूँ.”


इन कविताओं में अनुपस्थितों की जितनी सघन उपस्थिति है उतना ही जगहों से उनकी सम्बद्धता. कोई स्मरण स्थान विहीन नहीं है. जैसे किसी को उसकी किन्हीं एकाधिक चेष्टाओं से ही स्मृत नहीं किया जा रहा वरन उन समूचे दृश्यों के साथ उन्हें साकार देखना चरितार्थ हुआ है जिनमें वे अपनी जगहों से मुकम्मल होते हैं. जगहों के साथ अकसर समय भी आभासित है. पुराने मकान में, बरामदे के ऊपर एक कमरा, सबसे ऊपर की सीढ़ी पर, मेरी तरफ़, आकाश के कौने में, आँगन के बगल में पक्के चबूतरे पर, दरवाज़े पर, कुँए के पास,बगल के अँधेरे कमरे में, सबसे नीचे, भीतर, बाहर, पहाड़ों में, टेबिल की दूसरी तरफ़, घर के बाहर, सफ़ेद कपड़े के नीचे, काली आलमारी के सामने  आदि अकेले स्थानवाचक नहीं हैं, न ही रात, सुबह, दोपहर समयवाचक ; इन्हीं में कहीं कुटुम्ब के मृतक रहते हैं, कहीं पिता, माँ, बाबा, नाना, नानी उपस्थित हैं और इन्हीं में वे भी उपस्थित हैं जो इन सबको अब भी उनकी पूर्व जीवन्त उपस्थिति की तरह देख पा रहे हैं.

इन कविताओं की आन्तरिक शक्ति सहजता है. सहज रिश्तों की दैनिक बातें,साधारण-सी हरकतें, कुछ निजी आदतें,घरेलू चीज़ें और उनके अभ्यस्त लोगों का सरल व्यवहार : यह सब एक धीमे आलाप की तरह उठना शुरू होता है. इसमें ऊँचाई, श्रेष्ठता, विस्तार आदि उत्तरोत्तर वृद्धि से विमुख नैरन्तर्य में विलीन होते हैं.   

मृत्यु के संगीत में ये कविताएँ आप्लावित हैं लेकिन अतिक्रमित नहीं. कभी यह संगीत कविता से प्रवाहित छन्द, उसके विन्यास से प्रकट है तो कहीं जैसे उसे सुनने की आतुरता ही ज़ाहिर करता है. मृत्यु : पिछली मौत की पुनरावृत्ति है और प्रत्येक बचे हुए की मौत की तैयारी. अपार दुख के बावजूद यह सहजता से घटित होने के अभिशाप-सी उपस्थित है. 

किसी मृत्यु में अपने मृत होने को देख पाना, एक सांगीतिक आवृत्ति की तरह इन कविताओं से निःसृत है, जीवित रहने के पार्श्व में मृत होने का अघटित प्रतीक्षित है –  

“नानी की पारदर्शी त्वचा के पार दिखाई पड़ता है माँ का अदृश्य जीवन”
“पिता के न होने के शरीर में मेरा प्रवेश हो रहा है”
“इन्हीं में से किसी एक के पीछे न होने का मंच तैयार हो चुका है”

यहाँ अनुपस्थितों की उपस्थिति स्मरण तक सीमित न रहते हुए समूची ऐन्द्रियता के साथ दैनिन्दिन गतिविधियों में लिप्त है, कवि जैसे याद न कर उन गतिविधियों से निर्मित दृश्यों को एकान्त में किसी नोटबुक में उतार रहा है. ये कविताएँ इस अर्थ में विरल तो ज़रूर हैं कि अनभ्यस्त को पढ़ने और सुनने का किंचित अधीर लेकिन ठिठकता-सा, मार्मिक लेकिन सहजता की मुलामियत से उत्पन्न, स्मृति के अटाले से आयातित लेकिन कल्पना से अपने जीवन में आच्छादित करता, कविता में कविता होने के जोखिम और सीमान्त तक उसकी समृद्धि में चरितार्थ होता एक ऐसा अनुभव दे पाती हैं जिसमें भाषा पुनर्वास की जगह है, एक-एक पंक्ति किसी स्वर के मानिन्द अर्थ की आकांक्षा के भ्रमण पर है.

कवि-कथाकार-निबन्ध लेखक उदयन वाजपेयी इस विरल आस्वाद के स्वाभाविक कवि हैं उनके इस सद्यप्रकाशित कविता संग्रह केवल कुछ वाक्य को विरलता के सघन प्रतिरूप में भी हम पढ़ सकते हैं.
________
केवल कुछ वाक्य
उदयन वाजपेयी
धौली बुक्स, भुवनेश्वर
295 रूपये
मिथलेश शरण चौबे    
sharan_mc@rediffmail.com
Tags: उदयन वाजपेयीकेवल कुछ वाक्य
ShareTweetSend
Previous Post

यतीश कुमार की कविताएं

Next Post

‘एंट्स एमंग एलीफेंट्स (सुजाता गिडला) : शुभनीत कौशिक

Related Posts

उदयन वाजपेयी से मनोज मोहन की बातचीत
बातचीत

उदयन वाजपेयी से मनोज मोहन की बातचीत

मंथन:  कृत्रिम मेधा, रोबॉट और हमारा संसार
बहसतलब

मंथन: कृत्रिम मेधा, रोबॉट और हमारा संसार

कविता का आलोक और उपन्यास:  उदयन वाजपेयी
आलोचना

कविता का आलोक और उपन्यास: उदयन वाजपेयी

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक