मंथन कृत्रिम मेधा, रोबॉट और हमारा संसार |
1.
मानव और रोबॉट : सुविधा और आशंका
आदित्य निगम
यह सवाल दरअसल आज बहुत ख़तरनाक आयाम अख्तियार कर चुका है मगर उसकी वजह दरअसल कुछ और है. कृत्रिम मेधा शायद अपने आप में उतनी बुरी चीज़ न होती अगर वह समाज और सामाजिक ज़रूरतों की पूर्ति करती. मगर असल में इसके पीछे सिर्फ़ और सिर्फ़ पूँजी के मुनाफ़े की हवस एक नया रूप लेकर हाज़िर होती है. मंशा यह है कि इंसानी श्रम का दायरा जहाँ तक संभव हो, ख़त्म कर दिया जाये. आज विश्व पूंजीवाद एक ऐसे मुक़ाम पर जा पहुंचा है जहाँ उसके लिए दुनिया की दो तिहाई आबादी अप्रासंगिक हो चुकी है, बोझ बन चुकी है- न वह उसके लिए ख़रीददार की भूमिका निभा सकते हैं क्योंकि उनके हाथों में क्रय शक्ति नहीं है, और न ही उनकी ज़रूरत अब श्रमिकों के रूप में है.
कृत्रिम मेधा इस दूसरे काम को अंजाम देकर श्रम से हमेशा के लिए छुटकारा पा लेना चाहता है. दूसरा सवाल जो इससे जुड़ा है वह है जिसे आज “निगरानी पूंजीवाद” या surveillance capitalism कहा जा रहा है. यह एक ऐसा दौर है जब डिजिटल टेक्नोलॉजी के ज़रिये पूरी की पूरी आबादियों को सरकारी निगरानी के दायरे में प्राइवेट कॉर्पोरेशनों के ज़रिये लाया जा रहा है.
यह एक अलग क़िस्म का पूंजीवाद है जिस पर बातचीत कम से कम हमारे देश में शुरू नहीं हुई है. इस निगरानी पूंजीवाद का एक अन्य पहलू बतौर ख़रीददार आपकी गतिविधियों पर नज़र रख कर आपको आपकी पसंद की चीज़ों को और ज़्यादा ख़रीदने के लिए लालायित करना है. मगर वही डेटा दरअसल आपकी पूरी प्रोफाइल तैयार कर सकता है- आप जितनी बार की बोर्ड पर उंगली चलते हैं, उतनी बार अपने बारे में डेटा तैयार करते हैं.
बहरहाल, यह एक अलग और लम्बी बहस हो जाएगी- इस वक़्त फ़िलहाल इतना कहना काफ़ी है कि टेक्नोलॉजी का विकास आज पुराने ज़माने की तरह समाज की ज़रूरतों से जुड़ा नहीं रह गया है बल्कि पूरी तरह पूंजी और उसके मुनाफ़े के लिए संचालित हो रहा है.
योगेन्द्र आहूजा
किसी भी नई तकनीक या आविष्कार की तरह रोबॉट हमारे लिए उपयोगी और हानिकारक दोनों हो सकते हैं. वे भारी और जोखिम भरे कामों को आसानी से कर सकते हैं इसलिए अनेक उद्योगों और निर्माण क्षेत्रों में उपयोगी हो सकते हैं. इस समय सर्जरी, चिकित्सा, अंतरिक्ष-अनुसंधान और सुरक्षा जैसे तमाम क्षेत्रों में वे उपयोगी साबित हो रहे हैं. बहुत सारे क्षेत्रों में रोबॉट मनुष्यों की जगह ले सकते हैं. इससे मनुष्यों के लिए नौकरियों के कुल अवसर कम होंगे.
रोबोटिक्स से जुड़ी कुछ नई सेवाएँ और उद्यम ज़रूर सामने आएंगे, लेकिन शायद इतने नहीं कि कुल कम हुई नौकरियों की भरपाई कर सकें. अगर इससे व्यापक पैमाने पर नौकरियों के अवसर कम हों तो यह नए तनावों, विवादों और संघर्षों को जन्म देगा. लेकिन यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि यही एकमात्र प्रौद्योगिकी नहीं है जो पुरानी नौकरियों और उद्यमों के लिए खतरा है. दूसरी ओर रोबॉट मानव-क्षमता में इज़ाफा कर उन्हें अधिक कार्यकुशल, असरदार बना सकते हैं. अंततः तो यह इस पर निर्भर करेगा कि नयी तकनीकों और उपकरणों और आविष्कारों का नियंत्रण किन हाथों में है और वे कैसे डिज़ाइन और किन उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं.
उदयन वाजपेयी
रोबॉट का आविष्कार 19वीं शती की विज्ञान की उपलब्धि थी. उस समय तक रोबॉट बने नहीं थे, लेकिन उनकी कल्पना कर ली गयी थी. रोबॉट एक तरह से भौतिक विज्ञान के जगत को यान्त्रिक ढंग से देखने के फलस्वरूप आविष्कृत हुए थे. इनके आधार पर 19वीं और शुरुआती 20वीं शती में जैव वैज्ञानिक कल्पनाएँ की गयीं. मसलन मनुष्य के अस्तित्व को रोबोट के मॉडल में रखकर समझने का प्रयास किया गया. यह यूरोप की संस्कृति में स्वाभाविक भी था क्योंकि वहाँ की दार्शनिक परम्पराओं में शरीर और आत्मा (सोल) के विभाजन को आत्यन्तिक माना गया था.
इसी कारण रोबोट मनुष्य के शरीर का मॉडल बन गया. इससे इस शरीर को समझने में जिस हद तक मदद मिली, उससे कहीं ज़्यादा नुकसान हुआ. शरीर को रोबोट समझने के कारण उसे अपने आप में निष्क्रिय मानकर समूची आधुनिक चिकित्सा पद्धति विकसित की गयी. यह कहानी लम्बी है पर इतना जान लेना चाहिए कि अब खुद यूरोप के बड़े जैव वैज्ञानिक रोबोट के सहारे मानवीय शरीर को समझने के रास्ते को ग़लत मानने लगे हैं. वे अभी इसका पूरी तरह तिरस्कार नहीं कर सके हैं पर पियख़ सोनीगो जैसे जीव वैज्ञानिक (जो संयोग से मेरे मित्र हैं) शरीर को समझने के लिए वैकल्पिक मॉडल खोजने में लगे हैं.
सोनीगो की दृष्टि में रोबोट के स्थान पर शरीर को समझने का बेहतर मॉडल वन है. यानी हमारे शरीर में 7500 करोड़ कोशिकाएँ इस तरह रहती हैं जैसे किसी विशाल वन प्रान्तर में वृक्ष रहते हैं. हर वृक्ष अपने में सम्पूर्ण है, लेकिन साथ ही वह अन्य वृक्षों के साहचर्य में ही वन प्रान्तर की सृष्टि करता है.
चंद्रभूषण
टेक्नॉलजी के एक क्षेत्र के रूप में रोबॉटिक्स के जितनी तेजी से विकसित होने की उम्मीद थी, उसकी आधी भी तेजी से यह विकसित नहीं हो पाई है. वैसे भी, यह हार्डवेयर का क्षेत्र है, जिसमें विकास सॉफ्टवेयर की तुलना में धीरे-धीरे ही हो पाते हैं. अभी कई औद्योगिक जरूरतों में, राहत और बचाव कार्यों में और कहीं-कहीं रणक्षेत्र में भी रोबोटों का इस्तेमाल हो रहा है.
2011 में आए जापान के महाभूकंप में तबाह हुए फुकुशीमा परमाणु संयंत्र को उबलते रेडियो एक्टिव पानी में घुसकर बंद करने का लगभग असंभव काम बिच्छू जैसी शक्ल वाले रोबॉट (स्कॉर्पिअन रोबॉट ) ने ही पूरा किया. वे न होते तो जापान को हिरोशिमा-नागासाकी जितनी ही बड़ी एक और नाभिकीय आपदा का सामना करना पड़ सकता था.
रोबॉट की अपनी इंटेलिजेंस तो कुछ होती नहीं. इनमें लगाए जाने वाले कंप्यूटरों को ही रोबॉट की बनावट और उसकी जरूरतों के अनुरूप ढालना पड़ता है. प्रायः ये सीधे-सादे काम करने वाले, निम्न श्रेणी के ‘सिंगल परपज’ कंप्यूटर होते हैं. इससे जरा भी इधर-उधर होने पर रोबॉट कन्फ्यूज हो जाएगा और कुछ कर नहीं पाएगा. जाहिर है, रोबॉट की इंटेलिजेंस अभी हमारे लिए अलग से कोई बड़ी समस्या नहीं है.
प्रिया शर्मा
रोबॉट की इंटेलिजेंस कहाँ तक संसार के लिए लाभदायक रहेगी इसका अनुमान तभी लगाया जा सकता है जब हम आज के दौर को समझने की चेष्टा करेंगे. आज की जेनरेशन ‘इंस्टेंट’ मोड पर चलने में विश्वास रखती है. हर चीज़ ‘इंस्टैंटली’ चाहिए. इसी कारण हम टेक्नोलॉजी पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता देख सकते हैं. टेक्नोलॉजी अब हर मर्ज की दवा के रूप में पेश की जाती है. ‘इंस्टैंटली’ 2 किलोमीटर दूर जाना है तो स्कूटर लेलो, 10किलोमीटर दूर जाना है तो कार लेलो , 100 किलोमीटर दूर जाना है तो ट्रेन , 2 1000 किलोमीटर दूरी के लिए जहाज़ लेलो और चाँद पर जाना है तो रॉकेट लेलो.
मनुष्य की हर चाह को पूरा करने के लिए टेक्नोलॉजी है. हर कोई इस दौड़ का हिस्सा बन चुका है, जो जितनी टेक्नोलॉजी को हासिल कर सकता है अपने काम को ‘इंस्टेंट’ करने के लिए, वह दौड़ में उतनी आगे है. इसी दौड़ में रोबॉट को भी शामिल किया जा रहा है. हर चीज़ ‘इंस्टैंटली’ प्राप्त करने के जनून के कारण, आसानी केवल कुछ मिनटों की है क्योंकि इसका नकारात्मक प्रभाव राजनीतिक, आर्थिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और पर्यावरण पर पड़ता है. आम इंसान के रोज़मर्रा ज़िंदगी में रोबॉट की कोई ख़ास भूमिका अभी तो नहीं रहेगी लेकिन यदि हम दुनिया की अहम समस्याओं को देखते हैं जोकि राजनीतिक, आर्थिक, आध्यात्मिक, सामाजिक या पर्यावरण से सम्बंधित हो, उनके निवारण के लिए रोबॉट की इंटेलिजेंस एक हद तक इस्तेमाल की जा सकती है.
उदाहरण के लिए कोरोना के वक्त को ही ले लीजिये, यदि उस वक्त रोबॉट की मदद से इलाज किये जा सकते तो इन्फेक्शन फैलने का डर काम रहता और रिकवरी रेट बढ़ने की उम्मीद भी होता. क्लाइमेट चेंज से आ रही चुनौती भी संसार के लिए एक कठिन समस्या है, इस क्षेत्र में भी रोबॉट की इंटेलिजेंस का इस्तेमाल हो सकता है. जहाँ साइंस की भागीदारी होगी वहाँ रोबॉट की इंटेलिजेंस का प्रयोग किया जा सकता है. किन्तु, जहाँ सवाल बुनियादी हो वहाँ पर रबोटो की इंटेलिजेंस फेल हो जाती है.
गाँधी ने मॉडर्न सोसाइटी में अत्यधिक दवाइयों के विषय में यह लिखा बीमारी के लक्षण तो मिटा सकती है लेकिन उसके मूल कारण को नहीं. ऐसे ही टेक्नोलॉजी समस्याओं के लक्षण को तो हटा देगी किन्तु जड़ से उखाड़ने का काम रोबोट या कोई और टेक्नोलॉजी नहीं कर सकती है. जो समस्याएं हम आज देख रहे हैं उनकी जड़ हमारे अंदर है. मनुष्य इतना लोभी और आत्मकेंद्रित होता जा रहा है कि उसे अपने ही कर्मों के प्रभाव नहीं दिख रहे हैं. इस अंधेपन के कारण बाहरी दुनिया तो मनुष्य को चमकती दिख रही है किन्तु उसका अंदरूनी संसार कालेपन से जूझ रहा है. क्या कोई रोबोट जाती, धर्म’, वेश-भूषा’ के कारण हो रहे भेद भाव को मिटा सकता’ है? भौतिकवाद के दौर में मनुष्य की आध्यात्मिक चेतना को क्या कोई रोबोट जगा सकता है? सही और गलत में फर्क केवल मनुष्य खुद ही कर सकता जब वह अपने अंदर झांकने की हिम्मत करेगा. रोबोट की इंटेलिजेंस एक बेहतर मानव जीवन की बुनियाद नहीं रख सकती है, ये काम मनुष्य को खुद ही करना होगा.
प्रवीण प्रणव
रोबॉट के योगदान या उनकी उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता. आज घर की साफ-सफ़ाई से ले कर रोजमर्रा के कई काम करने में रोबॉट सक्षम हैं. रोबॉट ने अब मानवीय संवेदनाओं तक को समझना सीख लिया है इसलिए वे समझ सकते हैं कि कब हम खुश या उदास हैं और उनके बर्ताव में वे परिस्थितियों के अनुसार बदलाव ला सकते हैं. कृत्रिम मेधा की वजह से आज यह संभव है कि रोबॉट हमारे किसी प्रिय व्यक्ति की आवाज़ में ही हमसे बातें करें जिससे हमें उनकी कमी न खले.
चिकित्सा के क्षेत्र में रोबॉट का इस्तेमाल कई वर्षों से हो रहा है. एक डॉक्टर के लिए जटिल शल्य प्रक्रिया को भी रोबॉट की मदद से आसानी से किया जा रहा है. ऐसे कई उपकरण बने हैं जिनमें रोबॉट की वजह से विकलांगता पर बहुत हद तक काबू पाया जा सका है.
सेना में रोबॉट के उपयोग पर कई अनुसंधान हो रहे हैं. संवेदनशील परिस्थिति में ख़तरे का आकलन रोबॉट, इंसानों से बेहतर कर सकते हैं और ऐसी परिस्थितियों में रोबॉट के इस्तेमाल से कई मनुष्यों के जीवन को बचाया जा सकता है. ऐसी कई परिस्थितियाँ जहाँ मनुष्यों के रहने या जाने के लिए अनुकूल वातावरण नहीं है, रोबॉट बखूबी काम कर सकते हैं.
होटल में रोबॉट का इस्तेमाल किया जा रहा है क्योंकि यह आर्थिक रूप से मनुष्यों को रखने से ज्यादा सस्ता है. आने वाले समय में हमारे जीवन से जुड़ा शायद ही कोई क्षेत्र हो जहाँ रोबॉट अपनी भूमिका निभाते हुए न दिखें. हाँ इतना अवश्य है कि ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’. यदि हमारी निर्भरता रोबॉट पर आवश्यकता से अधिक हो गई तो हम उनकी बुद्धिमता पर आश्रित होते चले जाएंगे और अपनी नैसर्गिक क्षमता खो देंगे. यह परिस्थिति अवश्य ही हमारे लिए हितकारी नहीं होगी.
2.
गूगल, कृत्रिम मेधा और विवेक
आदित्य निगम
मुझे लगता है सवाल गूगल से जानकारियाँ ले पाने का नहीं है. व्यक्तिगत स्तर पर एक शोधकर्ता के तौर पर और ख़ासकर सैद्धांतिक या दार्शनिक विषयों पर काम करते हुए मुझे तो यह लगता है की मेरा काम एक अर्थ में अब बहुत आसान हो गया है. इस अर्थ में नहीं कि मेरे सोचने का काम गूगल कर लेता है बल्कि इसलिए कि जिन किताबों या लेखों को मुझे ढूंढ़ने के लिए पहले कई लाइब्रेरियों के चक्कर काटने पड़ते थे, कई रोज़ बर्बाद करने पड़ते थे, वह सब आज बहुत सहज ढंग से उपलब्ध हो जाता है. इसका ग़लत फायदा लोग अपनी काहिली के चलते उस तरह भी करते हैं जिस तरह आप कह रहे हैं.
दूसरी बात गूगल हमारे लिए सोचता नहीं है- वह महज़ हमें वह सामग्री उपलब्ध कराता है जो अन्य विद्वानों ने तैयार की है और जो इंटरनेट पर उपलब्ध करा दी गयी है. यह सवाल कृत्रिम मेधा के सन्दर्भ में ज़रूर खड़ा हो जाता है- ख़ास तौर पर चैटजीपीटी जैसे प्रोग्रामों को लेकर, जिसके सहारे पूरे के पूरे लेख ही नहीं बल्कि पूरी की पूरी पीएच.डी थीसिस भी लिखी जा सकती हैं. इसको लेकर ज़ाहिर है, दुनिया भर में विश्वविद्यालयों में काफ़ी. चिंता हैं और इसे रोकने के लिए सिर्फ विश्वविद्यालयों में ही नहीं बल्कि यूरोप की सरकारों में भी चिंता है और AI के इस पहलू को नियंत्रित करने के लिए कई क़दम उठाये जा रहे हैं.
कई मायनों में इसके और भी घातक इस्तेमाल संभव हैं जिनके नतीजे भविष्य में और खुल कर सामने आएंगे. अभी तक तो हम फ़ोटोशॉप जैसी चीज़ से ही परेशान थे मगर अब एआई से तो आप कई क़िस्म के खेल कर सकते है- मसलन मार्क्स की तस्वीर को एनिमेट करके हिटलर का भाषण उनसे दिलवा सकते हैं या सुभाष बोस के मुंह से नरेंद्र मोदी का. एक अर्थ में जिस “उत्तर-सत्य” युग की बात पिछले दिनों में सुनाई देने लगी है उसमें भी अब गुणात्मक फ़र्क़ आ सकता है.
योगेन्द्र आहूजा
इस सवाल पर कि क्या कृत्रिम मेधा (AI) का अधिकाधिक उपयोग मनुष्यों की अपनी मेधा के लिए विनाशक होगा अथवा उसकी दिमागी क्षमताओं को संकुचित करेगा– अलग अलग दृष्टिकोण हो सकते हैं. कुछ दुष्प्रभाव तो अवश्य होंगे. हमारे ही देश के सुदूर अतीत में ‘ज्ञान’, लिपिबद्ध किए जाने से पहले, शताब्दियों तक केवल ‘स्मृति’ में संचित रहा. आज प्रिंटिंग प्रेस और कम्प्यूटर और इंटरनेट के समय में, जब सब कुछ स्मृति में रखना ज़रूरी नहीं, उस प्रकार की स्मरण-क्षमता अकल्पनीय जान पड़ती है. लेकिन यह सिर्फ एक पक्ष है. दूसरी ओर कृत्रिम मेधा विभिन्न क्षेत्रों में विशेषज्ञता हासिल करने में इंसान की मददगार भी हो सकती है. उसे सिर्फ एक सहायक या साथी के रूप में इस्तेमाल किया जाये तो मनुष्य और मशीन मिलकर मनुष्यता के सामने पेश अनेक चुनौतियों के समाधान हासिल कर सकते हैं. अंततः निर्णायक यही होगा कि कृत्रिम मेधा (AI) को किस प्रकार विकसित और किन उद्देश्यों के लिए लागू किया जाएगा. यह संकटों से उबरने में इंसानों की मदद कर सकती है लेकिन उन्हें और बदतर भी बना सकती है. शायद कृत्रिम मेधा के सभी सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों को हम कुछ वर्षों के बाद ही बेहतर समझ सकेंगे.
उदयन वाजपेयी
हम भारतीयों को अभी तक यह समझ में नहीं आया है कि गूगल जैसे सर्च इंजनों में एक तरह के ज्ञान को एक तरह से प्रस्तुत किया जाता है. लम्बे समय तक मनुष्य ने अपने अस्तित्व से जुड़े प्रश्नों का अपने भीतर सामना करने का प्रयास किया है. इस प्रयास में वह दूसरों से संवाद करता था. इन दूसरों में उसके दोस्त, उसके गुरुजन, पुस्तकें, संगीत, पुरातात्विक सामग्रियाँ आदि शामिल थे. अगर आप ध्यान से देखें तो इन सभी को प्रश्न का सामना कर रहे व्यक्ति के अनुभव से होकर गुज़रना पड़ता था. और चूंकि वह इन विभिन्न स्रोतों से हासिल किए हुए ज्ञान को आमतौर पर अपर्याप्त महसूस करता था इसलिए उसका यह प्रयास होता था कि वह जहाँ से भी बन सके अपने जीवन के प्रश्नों को सुलझाने के रास्ते खोजे.
इस बहुदैशिक और बहुकालिक खोज में ही वह स्वयं को अनुभव करता था. गूगल ने प्रश्नों के ‘वस्तुनिष्ठ समाधान’ उपलब्ध कराकर आधुनिक मनुष्य की बहुदैशिक-बहुकालिक मानसिक यात्राएँ कम कर दी है. अब वह अपने प्रश्नों के समाधान ढूँढने के स्थान पर औसत समाधानों की रोशनी में अपने प्रश्नों को शान्त कर लेता है.
फ़ारसी कवि अत्तार की प्रसिद्ध कृति ‘पक्षियों की सभा’ में उसी पक्षी को सत्य का अनुभव होता है जो अपनी शर्तों पर अपनी यात्रा करता चला जाता है. यह वही पक्षी है जो अन्त में पाता है कि जिस सत्य को वह खोज रहा था, वह सत्य दरअसल वह खुद है.
गूगल आने के बाद इस किस्म के अनुभव के होने की संभावना न्यूनतम हो गयी है. हम अपने प्रश्नों का समाधान खुद अपने अनुभवों की रोशनी में ढूँढने के स्थान पर उन्हें कम्प्यूटर के स्क्रिन पर बना बनाया प्राप्त कर लेते हैं. इस तरह हम अपने प्रश्नों का समाधान ढूँढने के स्थान पर समाधानों की चकाचौंध में अपने प्रश्नों को ओझल हो जाने देते हैं.
चंद्रभूषण
गूगल ने विचार की दुनिया में ठहराव पैदा कर दिया है, ऐसा बयान मैं पहली बार ही पढ़ रहा हूं. ज्यादातर लोगों के लिए यह बहुत मददगार साबित हुआ है. मैं खुद इस बात की तसदीक कर सकता हूं कि 2005-06 तक मेरे पास सिर्फ संदर्भ के लिए पेपर कटिंग और पत्रिकाओं से अलमारियां भरी रहती थीं. आज वह जगह खाली है और वहाँ या तो मेरे प्रिय लेखकों की किताबें हैं, या फिर ज्यादा मुश्किल से मिल सकने वाले पुराने ग्रंथ रखे हुए हैं. इंसानी दिमाग को भी पुराने संदर्भों का कूड़ाघर बनाए रखने के बजाय नए प्रेक्षणों, विश्लेषण क्षमता और सर्जनात्मकता के लिए सुरक्षित रखा जाना चाहिए.
जो लोग रट्टा मारने को ही ज्ञान समझते आए हैं, उनके लिए गूगल जैसी सुविधाएं जरूर परेशानी का सबब बन रही होंगी. कुछ हद तक यह हमारी शिक्षा प्रणाली की भी समस्या है. बाकी लोग सर्च इंजनों से मिलने वाली राहत और अवसरों का फायदा उठाएंगे. कृत्रिम मेधा इंसानी दिमाग के लिए विराम चिह्न कतई नहीं साबित होगी. हां, इंसान को इसके असर में अपनी समझ का दायरा जरूर बढ़ाना होगा.
प्रिया शर्मा
यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि किस तरह कृत्रिम मेधा को समझा जाए. कृत्रिम मेधा एक अवसर के रूप में देखा जा सकता है. हम आज एक जटिल समाज में रह रहे हैं, जिसको समझना एक ही बार में मुमकिन नहीं है. जीवन के हर क्षेत्र में कई नए पहलू सामने आ रहे है. इन् सभी पहलुओं को समझने के लिए हम कृत्रिम मेधा की सहायता ले सकते हैं. जैसे गाँधी जी भी कहते हैं की मशीन को मनुष्य की जगह नहीं लेनी चाहिये. मशीन केवल मनुष्य का काम आसान करने के लिए है.
कृत्रिम मेधा भी मनुष्य का काम आसान करने के लिए प्रयोग की जा सकती है किन्तु एक सीमा तक ही. मानव जीवन में अनुभवों का बहुत महत्व है. यदि मनुष्य खुद जीवन के अलग-अलग रूपों का अनुभव नहीं करेगा तो उसके जीवन में एक नकारात्मक ठहराव आ सकता है. अनुभव का मतलब है अपनी आँखों कुछ देखा हुए को अपनी अन्तरात्मा को महसूस करना. ये एहसास अच्छा या बुरा हो सकता है लेकिन इसको महसूस करने की क्षमता मनुष्य के पास है, कृत्रिम मेधा के पास नहीं. हाँ कुछ कोड बना कर हम आर्टिफीसियल’ इंटेलिजेंस को क्या अच्छा है क्या बुरा है वह बता सकते हैं. किन्तु वह खुद ऐसा कुछ महसूस कर लें ये अभी तक मुमकिन नहीं हुआ है. इसीलिए मुझे लगता है की जो मनुष्य की इंटेलिजेंस है, जिसमें इस तरह से महसूस करने की क्षमता है, वह कृत्रिम मेधा से कई ज़्यादा है और इसीलिए ही मुझे लगता है कृत्रिम मेधा मनुष्य के दिमाग का मुकाबला नहीं कर सकती
प्रवीण प्रणव
हमसे एक पीढ़ी के पहले के लोग 40 तक का पहाड़ा याद रखते थे. हमारी पीढ़ी तक आते-आते यह संख्या 20 तक रह गई और वर्तमान समय में बच्चे 20 तक का पहाड़ा याद नहीं रख पा रहे हैं. सर्च इंजन की सहायता और इंटरनेट की उपलब्धता की वजह से आज सूचनाएं आपके पास हर समय उपलब्ध हैं. मोबाइल आने से पहले एक समय था जब हमें 25-30 फ़ोन नंबर याद रहते थे. आज मुश्किल से हमें दो-चार नंबर याद रहते हैं. जो सूचना हमें ढूंढते ही उपलब्ध हो सकती है, उसे याद रखने के लिए हमने अपने दिमाग का प्रयोग करना बंद कर दिया.
सर्च इंजन तो फिर भी हमें कई उत्तर देता है और उनमें से हम अपनी जरूरत के अनुसार, सही सूचना का चयन करते हैं. चैट जीपीटी जैसी कृत्रिम मेधा से लैस तकनीक के आने से अब आपके सवालों के सिर्फ एक और सही जबाव मिलने की संभावना बढ़ गई है. ऐसे में मनुष्य के दिमाग के लिए विराम चिन्ह जैसी स्थिति का आना अब एक काल्पनिक स्थिति नहीं रह गई है.
यदि हम यह मान कर चल रहे हैं कि मनुष्य का दिमाग कंप्यूटर की मेमोरी की तरह है जिसमें सीमित मात्रा में ही सूचनाएं रखी जा सकती हैं और इसलिए जो सूचनाएं आसानी से उपलब्ध हैं उनके लिए दिमाग की जगह का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए; तो यह धारणा तभी बलवती साबित होगी जब हम अपने दिमाग का इस्तेमाल कुछ और विशेष करने में करें. वर्तमान समय में जिस तरह बच्चों और वयस्कों को फ़ोन की लत लगती जा रही है, जिस तरह ज्यादातर लोग वैसे काम कर रहे हैं जिन्हें जल्द ही कृत्रिम मेधा या रोबॉट की मदद से किया जा सकेगा; जिस तरह बेरोजगारी लगातार अपने पाँव फैलाती जा रही है, ऐसे में अपने दिमाग का सही इस्तेमाल न करना हमें एक ऐसे दलदल की तरफ ले जाएगा जहाँ से वापसी का रास्ता मुश्किल होगा.
3.
तकनीक और पूंजी का खेल
आदित्य निगम
राजनीति में तो इसके प्रभाव बहुत भयंकर होंगे इसमें कोई शक़ नहीं है.
योगेन्द्र आहूजा
यह सत्य है कि भारत कृत्रिम मेधा (AI) और रोबोटिक्स जैसे क्षेत्रों में पश्चिमी देशों के मुकाबले बहुत पीछे है. लेकिन हाल ही में इन क्षेत्रों में भारत की उपस्थिति बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए गए हैं. हमारे समय में वैज्ञानिक शोध की प्रकृति ऐसी है कि शायद उसमें निजी और एकाकी प्रयासों का कोई अर्थ नहीं. अब तकनीकी और वैज्ञानिक अनुसंधान कोरपोरटे और सरकारों द्वारा पोषित विशाल संस्थानों में लगातार नए अध्ययनों, प्रशिक्षण और उन्नत सुविधाओं के इस्तेमाल से संभव होते हैं. अनुसंधान एक विराट उपक्रम है जिसमें सरकारों या कोरपोरट की भूमिका निर्णायक होती है. साथ ही इसके लिए इन संस्थानों में सहयोग, मजबूत नेतृत्व और नयी परिकल्पनाओं की ज़रूरत हो सकती है.
हमारे देश में कृत्रिम मेधा और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में खुले नज़रिये और नवीनतम ज्ञान को प्रोत्साहित करने के लिए बहुत कार्य किया जाना है. इसके लिए सारगर्भित नीतियों, संस्थानों और सरकारी-निजी संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता है. अगर मजबूती से ऐसी कोशिशें जारी रखी जाएँ तो आने वाले समय में भारत इन क्षेत्रों में सशक्त मौजूदगी दर्ज़ करा सकता है.
उदयन वाजपेयी
हम 19वीं शताब्दी के मध्य तक (यूरोप की औद्योगिक क्रान्ति के पहले तक) बड़े उत्पादक समाज रहे हैं. पर धीरे-धीरे अंग्रेज़ों ने हमें महज उपभोक्ता समाज बनाकर छोड़ दिया है. आज हम केवल खरीददार बचे हैं. हम लगभग हर तरह की तकनीक यूरोप, अमरीका, जापान और चीन आदि देशों से खरीदकर उनमें अपने जीवन को ढालने की कोशिश करते हैं. यह अभूतपूर्व स्थिति है जहाँ तकनीक जीवन की आवश्यकता से नहीं उपज रही, जीवन को ही तकनीक में नियोजित किया जा रहा है.
चंद्रभूषण
धीरे-धीरे हम भीड़ में तब्दील हो रहे हैं, यह बात एक समय शहरीकरण को लेकर कही गई, फिर औद्योगिकीकरण को लेकर कही गई, यहां तक कि पैंट-शर्ट पहनने तक को लेकर कही गई. ‘व्यक्तिगत पहचान खत्म हो रही है, हर कोई एक जैसा दिखता है, हम भीड़ बनते जा रहे हैं!’ लेकिन मानव सभ्यता का वह कौन सा दौर था, जब व्यक्ति का भीड़ से अलग होकर अपनी स्वतंत्र पहचान अर्जित करना बहुत आसान था?
अगर हजार लोगों की एक बस्ती में दस लोग ही लिखना-पढ़ना जानते हैं तो सभी अपने को ‘लेखक जी’, ‘कवि जी’ कहलवाते फिर सकते हैं. लेकिन अगर हजार के हजार लोगों की गति लिखने-पढ़ने में हो तो वाकई अच्छा लिखने वाले ही लेखक कहलाएंगे, वह भी काफी समय तक लिख लेने के बाद. सवाल का अगला हिस्सा भारत को ही संबोधित लग रहा है. एक समाज के रूप में हम तकनीक के सर्जक से कहीं ज्यादा उसके खरीदार हैं, लेकिन कंप्यूटर साइंस और सॉफ्टवेयर टेक्नॉलजी में भारत का हाल उतना बुरा नहीं है. डिजिटल पेमेंट और मार्केटिंग की तकनीक में हुए देसी काम का असर घर-घर में दिख रहा है.
प्रिया शर्मा
यह सही बात है की नई टेक्नोलॉजी के हम सिर्फ एक खरीददार के रूप में सामने आते हैं. इसकी जड़ तक यदि पहुंचें तो ‘नॉलेज शेयरिंग’ के कांसेप्ट को जानना आवश्यक होगा. विकसित देश जिनमें ये टेक्नोलॉजी बन रही है, अपने से पिछड़े देशों में इससे जुडी जानकारी नहीं देना चाह रहे हैं क्योंकि कहीं न कहीं इससे उनका मुनाफा काम हो सकता है. एक तरह की मोनोपोली बनाये रखने से विकसित देश आसानी से दूसरे देशों में अपना मार्किट जमा सकते हैं. हमारी भागीदारी केवल एक खरीदार के रूप में इसीलिए भी बानी हुई है क्योंकि हम एक तरह की भेड़ चाल का हिस्सा बन चुके हैं, जहाँ आँखों में पट्टी बढ़ कर विकसित देशों के इशारों पर दौड़ना ही सही या रैशनल मान लेते हैं.
हम इस दलदल में बहुत पहले से फँसते चले जा रहे हैं. यह दलदल जो की ‘मॉडर्निटी’ के नाम से जाना जा सकता है, इसमें वैयक्तिकता के नाम पर सामूहिक चेतना, सेकुलरिज्म के नाम पर धर्मों संस्कृतियों की विशिष्टता और भौतिकवाद के नाम पर आध्यात्मिकता’ को कुचला गया है. नई टेक्नोलॉजी का प्रोजेक्ट इसी मॉडर्निटी में आता है. गाँधी जी ने ‘हिन्द स्वराज’ में मॉडर्निटी के कुछ पहलुओं को आलोचना करते हुए अपनी सभ्यता के महत्व को दर्शाया है. एक मज़बूत सभ्यता से सम्बन्ध होने के बाद भी हम अपने आप से पूछ नहीं पा रहे हैं की क्या हमें ऐसी टेक्नोलॉजी जो हमारे मूल्यों को साथ लेकर नहीं चल सकती, क्या ऐसी टेक्नोलॉजी की हमें आवश्यकता है ?
प्रवीण प्रणव
किसी भी तकनीकी प्रगति से कार्य कुशलता बढ़ती ही है. हल और बैल द्वारा खेती करने में ट्रैक्टर के आते ही आमूल-चूल परिवर्तन आया. ऐसे ही कंप्यूटर के आते ही, टाइपराइटर के दिन लद गए. हमारी आँखों के सामने हमने फ्लॉपी से सीडी और डीवीडी तक की यात्रा देखी. इसके बाद पेन ड्राइव और स्टोरेज ड्राइव आए और अब हमारा अधिकतर डाटा क्लाउड में है. रोल वाले कैमरा से डिजिटल कैमरा और वहाँ से ऐसी परिस्थिति जहाँ फ़ोन ने कैमरा को लगभग मिटा दिया है, हमारे सामने है. तकनीक के इस बदलाव के साथ कदमताल करना बहुत आवश्यक है.
आज हम ऐसे तकनीक की बात कर रहे हैं, जहाँ गाड़ी चलाने के लिए ड्राइवर की आवश्यकता नहीं रहेगी. जितनी मात्रा में ड्राइवर की नौकरी जाएगी, उससे कई गुणा कम नौकरियां सृजित होंगी, जो उस तकनीक पर काम करेंगी, जिनकी वजह से यह संभव हो सकेगा. जो नौकरियां जाएंगी, वे तकनीकी नहीं होंगी, जिन नौकरियों का सृजन होगा उनके लिए उच्च दक्षता की दरकार होगी. यदि हम इस बदलाव को न पहचान सके तो हम उस भीड़ का हिस्सा बनने पर मजबूर होंगे जिनके भविष्य पर एक प्रश्न चिन्ह लगा होगा.
वर्तमान परिस्थिति में तकनीकी बदलावों के परिदृश्य में हमारी तैयारी कम नज़र आती है. हमारी जनसंख्या की वजह से हम एक बड़े बाज़ार हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन हमारे द्वारा इस्तेमाल की जानेवाली तकनीक के विकास में हमारी सहभागिता हो, इस दिशा में और प्रयास किए जाने की आवश्यकता है. सरकार के स्तर पर भी इन संभावनाओं पर ध्यान दिया गया है और कई योजनाएं बनाई गई हैं जिनसे न सिर्फ कृत्रिम मेधा बल्कि अन्य तकनीक में भी हमारे युवा कौशल हासिल कर सकें. हमारे देश में बढ़ती स्टार्ट-अप की संख्या भी यह इशारा करती है कि हम नई चुनौतियों के लिए तैयार हो रहे हैं और आने वाला कल एक बार फिर हमारा होगा.
4.
कृत्रिम मेधा के नव उपनिवेश
आदित्य निगम
हर चीज़ की तरह हम इस क्षेत्र में भी बिलकुल फिसड्डी हैं. पिछले दस बरसों में तो यह स्थिति और भी ख़राब हुई है क्योंकि पहले की नेहरू संस्थानों में कम से कम “सीमान्त स्तर” का शोध हुआ करता था और उसपर सरकारी खर्च भी होता था. अब विश्व गुरु होने की लफ़्फ़ाज़ी भर है मगर कुछ करने की क़ुव्वत नहीं है. वेदों में या अतीत में आपने क्या किया था उससे आज की चुनौतियों का क्या मतलब है. उसे मंदिर में रख कर घंटा बजाते रहने से क्या हासिल होगा? अनपढ़ नागरिक तैयार करेंगे बस. इस दौर में दरअसल एक मायने में भारतीय लोगों के दिमागों में ताले लगाने की एक मुहिम सी चलाई जा रही है इसलिए ज़ाहिर है कि हमारा समाज हर मामले में और पीछे ही जायेगा.
उदयन वाजपेयी
कृत्रिम मेधा का अतीत हम वेद से जोड़ लें, गणितज्ञ आर्यभट्ट से जोड़ लें, लेकिन हम कृत्रिम मेधा के दौर में कितना आगे हैं? यहाँ तो हम पश्चिम के एकदम पीछे जा खड़े हुए हैं…?
एआई को वेद या आर्यभट्ट आर्य से जोड़ना अज्ञान के लक्षण के अलावा कुछ नहीं. एआई. आधुनिक यूरोप, अमरीका, चीन आदि देशों में उनकी किन्हीं विशेष आवश्यकताओं के फलस्वरूप अस्तित्व में आया है. ये समाज बहुत अधिक तकनीकी समाज बन चुके हैं. इनमें मनुष्य की अद्वितीयता का स्थान धीरे-धीरे करके बहुत कम हो गया है. अगर एक बार हर मनुष्य को एक जैसा मान लिया जाये तो फिर एआई से बेहतर कुछ नहीं.
पर परेशानी यह है कि सारे मनुष्य एक जैसे नहीं होते, उनमें से हर व्यक्ति अद्वितीय होता है. अर्थव्यवस्था के कार्पोरेट-करण के कारण सभी मनुष्यों को विराट कार्पोरेट मशीन के कल-पुर्जों के अलावा कुछ माना नहीं जाता.
अगर सभी मनुष्य कार्पोरेट संस्थानों को मुनाफ़ा देने वाली मशीनों के कल-पुर्जें भर हैं तो अगर उनके स्थान पर कृत्रिम मानस धारी रोबॉट को काम पर लगा दिया जाये तो कार्पोरेट संस्थानों के मुनाफ़ों पर भारी उछाल आ सकता है. इसमें शक़ नहीं कि इस क्षेत्र में हम अभी तक केवल उपभोक्ता बाज़ार पर हैं. पर यह भी सच है कि जितना प्रतिरोध एआई को हमारे देश में मिलेगा उतना शायद ही किसी देश में मिले, और यह प्रतिरोध सबसे अधिक यहाँ के गाँव से आयेगा.
चंद्रभूषण
वेद और आर्यभट्ट से हर चीज को जोड़ देना तो हमारे यहां सोहाग-भाग समझा जाता है, लेकिन कृत्रिम मेधा को लेकर ऐसे गीत मैंने जरा कम ही गाए जाते सुने हैं. इस क्षेत्र में मौलिक काम के लिए जितनी कंप्यूटिंग पावर जरूरी है, वह हमारे देश में नदारद है. कुछ गिने-चुने सुपरकंप्यूटर सरकारी पहल पर बनाए गए हैं, जिनमें ज्यादातर मौसम विभाग और परमाणु ऊर्जा पर काम करने वालों ने हथिया रखे हैं. लेकिन कृत्रिम मेधा को लेकर अभी जिस एक प्रॉडक्ट चैटजीपीटी की इतनी चर्चा है, उसे बनाने वाली अमेरिकी कंपनी ओपनएआई दुनिया में पांचवें नंबर की शक्ति वाले सुपरकंप्यूटर का इस्तेमाल करती है, जिसकी क्षमता एक समय में सत्रह लाख करोड़ शब्दों के समायोजन की है!
लार्ज लैंग्वेज मॉडल (एलएलएम) नाम के जिस जनरल प्रोग्राम के तहत यह काम हो रहा है, उसमें दुनिया के सिर्फ चार देश सक्रिय हैं- अमेरिका, चीन, रूस और इजराइल. भारत में यह क्षमता तो है कि यहां के वैज्ञानिक इस क्षेत्र में भी कुछ काम कर सकें, लेकिन एक सरकारी रणनीति के तहत भारतीय वैज्ञानिक अब चंद्रयान-सूर्ययान और मिसाइल निर्माण जैसे प्रदर्शनात्मक क्षेत्रों में ही काम करते हैं. शायद इसके पीछे यह भय सक्रिय है कि कोई नई चीज अपने यहां बना भी ली गई तो बाहरी सामान के आगे टिक नहीं पाएगी.
प्रिया शर्मा
हम विकसित देशों के लिए केवल एक बाजार हैं, जिससे मुनाफा कमाया जा सकता है. न तो हम ‘नॉलेज शेयरिंग’ का हिस्सा हैं और न ही ‘प्रॉफिट शेयरिंग’ में. चित भी और पट भी पश्चिम की है. यह कहना गलत नहीं होगा की आज भी हम गुलाम ही हैं. गाँधी जी का जो डर था वह आज सच होता दिख रहा है. गाँधी कभी भी ऐसा शासन नहीं चाहते थे जोकि मुखौटा पहने हो और उस मुखौटे के पीछे अंग्रेज़ों की तरह ही देश को अपने अधीन करने का उद्देश्य रखता हो. आज की अधीनता पहले की अधीनता से बहुत गहरी है क्योंकि इससे हमारी आत्मा पर कंट्रोल कर लिए है. हमें अपनी गुलामी का बिलकुल एहसास नहीं होता, सभी विदेशी उपकरण खुद के हित में देखते हैं.
‘कृत्रिम मेधा और रोबॉट हमें आगे बढ़ते हुए लगते हैं? पर हम किससे आगे जा रहे हैं? हमारा तो कोई हिस्सा है ही नहीं इन टेक्नोलॉजी में, तो हम कैसे और किस्से आगे जा रहे हैं ? असल में हम दूर होते जा रहे हैं, डोर, अपनी संस्कृति से, अपने समाज से और अपने आप से. मार्क्स का दिया हुआ ‘एलिएनेशन’ का कांसेप्ट यहाँ सच होता हुआ लग रहा है. ऐसी स्थिति में अपनी जड़ों से वापस जुड़ने का प्रयत्न करना होगा, अपने अंदरूनी कोलाहल को शांत करके सच का सामना करना होगा जो की झूठी विकास नीति के पीछे कहीं छिपा हुआ है. कितना और कैसा विकास हमारे लिए और हमारे समाज के लिए पर्याप्त है ? ऐसे कुछ सवालों का उत्तर हमें ढूंढ़ना होगा.
प्रवीण प्रणव
हमारे समृद्ध विरासत और इतिहास पर हमें गर्व तो होना ही चाहिए लेकिन साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हम अपने विरासत को और आगे बढ़ाने में नाकाम क्यों रहे. इतनी समृद्ध विरासत होते हुए भी ज्यादातर वैज्ञानिक अनुसंधान पश्चिमी देशों में हुए. कुछ दशक पहले जब कंप्यूटर क्रांति ने दस्तक दिया, तब भारतीय युवाओं ने कंप्यूटर प्रोग्रामिंग की भाषा सीखी और इससे लाखों-करोड़ों युवाओं को रोजगार के अवसर प्राप्त हुए. लेकिन हम इस क्रांति के अगले चरण को भांपने में थोड़े पिछड़ गए. कृत्रिम मेधा ने जिस तेजी से दस्तक दिया है, उससे कंप्यूटर के क्षेत्र में कई नौकरियों के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग गया है. कुछ देशों ने कृत्रिम मेधा की आहट को हमसे पहले पहचाना और यही वजह है कि आज हमारी तैयारी चीन या अमेरिका के मुकाबले कम नज़र आती है.
लेकिन आज भी पश्चिम के एकदम पीछे खड़े होने की बात से असहमत हुआ जा सकता है. पश्चिम के सभी बड़े संस्थानों में कृत्रिम मेधा के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों में ज्यादातर भारत और चीन से ही हैं. हमारी प्रतिभाओं को, हमारी धरती पर उचित संभावनाएं नहीं मिलीं जिनकी वजह से उन्हें पश्चिम का रुख करना पड़ा. तकनीक में आज जिस तेजी से बदलाव हो रहा है, हमारे शैक्षणिक संस्थान उस तेजी के साथ अपने पाठ्यक्रमों में बदलाव लाने में असमर्थ हैं. हमारी नई पीढ़ी को समझना पड़ेगा कि उन्हें अपने पाठ्यक्रम के अतिरिक्त, दुनिया में हो रहे बदलावों पर नज़र रखनी होगी और इस दिशा में अपनी तैयारी भी करनी होगी. कृत्रिम मेधा के दौर में अभी भी देर नहीं हुई है. उम्मीद की जानी चाहिए कि भारतीय युवा इस आधुनिक तकनीक को भी जल्द आत्मसात करेंगे और अगले कई दशकों तक भारत विश्व को अपनी बुद्धिमता का परिचय देता रहेगा.
5.
कृत्रिम मेधा और कल्पनाशीलता का अकाल
आदित्य निगम
मुझे नहीं लगता है कि कृत्रिम मेधा मनुष्य की कल्पनाशीलता के जगह ले सकती है- आख़िरकार है तो वह मशीन ही. उसके बारे में दावे तो बहुत बड़े-बड़े किये जाते है मगर फ़िलहाल मेरे समझ के बाहर है.
योगेन्द्र आहूजा
कृत्रिम मेधा पलक झपकते ही दिये गए निर्देशों (एआई की भाषा मे ‘prompts’) के मुताबिक टेक्स्ट, दृश्य-श्रव्य छवियाँ, संगीत और वीडियो बना सकती है, अत्याधुनिक गणित और अभियांत्रिकी की गुत्थियाँ सुलझा सकती है, जटिल दस्तावेज़ों और कूटभाषाओं (codes) को विश्लेषित कर सकती है, किसी भी विषय पर इनसानों से वार्तालाप और चर्चा कर सकती है, यहाँ तक कि किताबें लिख सकती हैं. इन सबके साथ वह दिये गए prompts से परे, एक अकल्पनीय तेज़ रफ्तार से, अपनी गलतियों से सीख और खुद को सुधार सकती है, अपने को स्वयं शिक्षित, विकसित, परिष्कृत, नवीकृत (reprogramme) कर सकती है. लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि इन सबके बावजूद कृत्रिम मेधा में, उसके अत्यंत विकसित, नव्यतम संस्करणों में भी, उसका एक रेशा भी मौजूद नहीं है जिसे हम ‘चेतना’, ‘आत्मा’, ‘अन्तःप्रज्ञा’ आदि कहते हैं. वह ‘आत्म-चेतना’, ‘अंतःकरण’, ‘करुणा’, ‘कांशंस’ या ‘सहानुभूति’ आदि के मायनों से बेशक वाकिफ हो, उन्हें ‘महसूस’ कर पाने का जैविक-मनोवैज्ञानिक तंत्र उनके भीतर मौजूद नहीं है.
एआई की अपनी कोई मूल्य-चेतना या विश्व-दृष्टि या नैतिकता नहीं होती, न ही कोई आंतरिक जीवन. विलक्षण मेधा के बावजूद ये अंततः ‘अजैव’, ‘अचेतन’, ‘बेजान’ मशीनें हैं, हंसने-बोलने-उदास होने, तकलीफों, तड़प या आकुलता या पश्चाताप के परे. स्वचालित, लेकिन स्वचेतन नहीं. इसलिए यह समझना मेरे लिए मुश्किल है कि उनसे मनुष्यों की दुनिया किस प्रकार वीरान हो सकती है. यह अवश्य है कि कृत्रिम मेधा (AI) का विकास और उपयोग मनुष्यता के लिए कई संभावनाएं और चुनौतियां पेश करता है. उसके अनेक समाजाजर्थिक, कानूनी और नैतिक पहलू हैं. उसके सही और सकारात्मक उपयोग के लिए उन्हें ध्यान में रखना ज़रूरी है.
उदयन वाजपेयी
एआई की विशेषता यह है कि उसमें बिल्कुल नये तरह की ग़लती करने की सामर्थ्य नहीं होती. हम सब जानते हैं कि दुनिया में ज्ञान के विकास में मनुष्य की चूकों का विशेष योगदान रहा है. ये चूकें या ग़लतियाँ ही हर मनुष्य में विशिष्ट होती हैं. लेकिन इन्हीं चूकों या ग़लतियों के सहारे ज्ञान परम्पराएँ नयी दिशाएँ प्राप्त करती हैं, नयी और अप्रत्याशित.
एआई एक ऐसी दुनिया बनायेगा जिसमें हम अपनी तरह की ग़लतियाँ नहीं कर सकेंगे और शायद इसीलिए हम अपनी तरह का सृजन भी नहीं कर पायेंगे. ऐसी स्थिति में दुनिया अगर वीरान महसूस हो तो इसमें क्या अनोखी बात है.
चंद्रभूषण
कृत्रिम मेधा मनुष्य की कल्पनाशीलता को चुनौती दे सकती है लेकिन उससे आगे नहीं जा सकती. मनुष्य की कल्पनाशीलता में यथार्थ का इंजन लगा है, जिससे कृत्रिम मेधा पूरी तरह वंचित है. यथार्थ एक सर्वव्यापी और हमेशा बदलती रहने वाली चीज है. अतीत में एक से एक फैंटेसी लिखी जा चुकी हैं लेकिन वे पसंद तभी की जाती हैं जब किसी स्तर पर इंसान के सुख-दुख से जुड़ पाती हैं. इंसान से पूरी तरह अलग हो जाने के बाद वे कितनी भी फंटास्टिक हों, लोग उन्हें सेंत में भी नहीं पूछते.
कृत्रिम मेधा कुछ भी रचे, कुछ भी बना दे, उसे अच्छा या बुरा बताने के लिए इंसानी कसौटियों पर ही कसा जाएगा. लेकिन मनुष्य की मेधा ने जो सवाल तय कर दिए हैं, उनका जवाब खोजने में अगर पहले हजार साल लगने वाले थे तो अभी शायद यह काम दो-चार दिन या घंटा-दो घंटा में ही हो जाए. ऐसा एक बहुत बड़ा काम अभी कृत्रिम मेधा ने मानव शरीर में मौजूद प्रोटीनों की संरचना समझने में किया है. इससे कई असाध्य बीमारियों का अपेक्षाकृत सस्ता और भरोसेमंद इलाज खोजा जा सकेगा.
प्रिया शर्मा
हाँ ये कहना सही होगा की हमारी दुनिया वीरान हो जाएगी अगर कृत्रिम मेधा मनुष्य की कल्पना से आगे हो जाते हैं तो. किन्तु ये तभी होगा जब मनुष्य खुद ही अपना नियंत्रण कृत्रिम मेधा के हाथ में दे दे. ये नहीं भूलना चाहिए की कृत्रिम मेधा मानव द्वारा ही बनाई गयी है , ये ‘आर्टिफीसियल’ है और ‘ओरिजिनल’ है मनुष्य की इंटेलिजेंस जो कृत्रिम मेधा जैसी टेक्नोलॉजी बनाए की क्षमता रखता है. मुझे लगता है की निकट भविष्य में यदि सभी एक साथ रह कर आने वाले खतरे को देख कर ठोस कदम लेते हैं, तभी कृत्रिम मेधा को खुद पर संचालन करने से बचा सकता है.
प्रवीण प्रणव
मनुष्य भविष्य द्रष्टा नहीं है, इसलिए कृत्रिम मेधा का भविष्य क्या होगा इस बारे में हम केवल अनुमान ही लगा सकते हैं. हाँ, उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर यह अनुमान, सच्चाई के करीब हो सकता है या भविष्य कुछ ऐसा भी हो सकता है जिसकी हम अभी कल्पना तक नहीं कर रहे. इतना अवश्य है कि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि हम प्रौद्योगिकी के साथ किस तरह सामंजस्य बिठा पाते हैं. कृत्रिम मेधा के मनुष्य की कल्पनाशीलता से आगे होने की वजह से कई सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम सामने आ सकते हैं. ऐसी कई समस्याएं हैं जिनका समाधान हम अपनी सीमित बुद्धिमता की वजह से नहीं ढूंढ पाए हैं. कृत्रिम मेधा बिग डाटा, ब्लॉकचेन आदि तकनीक आपस में मिल कर इन समस्याओं को सुलझा सकते हैं. कृत्रिम मेधा हमारी जीवन शैली और हमारी पारिवारिक-सामाजिक स्थिति पर भी प्रभाव डालेगा. मोबाइल फ़ोन की वजह से ही आज एक छत के नीचे रहते हुए भी परिवार के सदस्यों के बीच आपसी संवाद में कमी आई है. यह खाई कृत्रिम मेधा के विकास के साथ और बढ़ेगी, इसकी संभावना है. नैतिक मूल्यों पर कृत्रिम मेधा के प्रभाव को ले कर भी कई वैज्ञानिकों ने चिंता जताई है. कुल मिलाकर अब यह एक ऐसी दवा की तरह हो गई है जिसका उचित मात्रा में सेवन तो हितकारी है लेकिन, अनुचित सेवन ज़हर. यदि हम इस अंतर को समझ कर कृत्रिम मेधा के प्रयोग की दिशा में बढ़ें तो बहुत हद तक हम अपनी दुनिया में जिस विरानगी के खौफ़ में हैं, उससे निजात पा सकेंगे.
6.
रोबॉट और कुशलता की नैतिकता
आदित्य निगम
बिलकुल किया जा सकता है- बस पूंजीवाद पर नकेल डालने की ज़रूरत है. बल्कि यूँ कहिये कि पूँजी और मुनाफे की उसकी हवस पर क़ाबू पा लें तो जैसे की मैंने पहले सवाल के जवाब में कहा, इसके बेहतर इस्तेमाल संभव हैं.
योगेन्द्र आहूजा
रोबोटिक्स और कृत्रिम मेधा तेजी से विकसित हो रहे क्षेत्र हैं. संभावना यही है कि आने वाले समय में वे हमारे जीवन को उसी प्रकार आच्छादित कर लेंगे जैसे वर्तमान समय में कम्प्यूटर और इंटरनेट.
उन्हें रोक सकना संभव नहीं लगता लेकिन उन्हें सुरक्षित और उपयोगी बनाए रखने के लिए कई कदम उठाए जा सकते हैं. स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर उनके सुरक्षित और नैतिक उपयोग के बाबत कानून और कड़ी आचार-संहिता बनाए जाने की ज़रूरत होगी.
उदयन वाजपेयी
मैं यह नहीं मानता कि इतिहास की गति अपरिहार्य होती है. इसलिए मैं यह नहीं मानता कि अब रोबॉट का हमारे जीवन में आना निश्चित हो गया है. यह ज़रूर है कि हमें कम-से-कम भारत में इसका जितना विरोध करना चाहिए था, हमने नहीं किया. यह अजीब बात है कि एआई का सबसे अधिक विरोध उस जगह हुआ जिसने मानवीय सम्बन्धों को यान्त्रिक और एकांगी बनाने में कुछ हद तक भूमिका निभायी है.
मेरा इशारा अमरीकी फ़िल्म उद्योग हॉलीवुड की तरफ है. हॉलीवुड के कई कैमरामेन, सम्पादक, अभिनेता-अभिनेत्री, ध्वनि यन्त्री आदि ने पिछले वर्ष कई महीनों तक न्यूयॉर्क में हड़ताल की है. वे कह रहे थे कि अगर फ़िल्म निर्माण का हर क्षेत्र रोबॉट को सौंप दिया जायेगा तो ये सारे लोग स्वयं को अनुभव करने के लिए क्या करेंगे, ये आत्माभिव्यक्ति के लिए कहाँ जायेंगे.
चंद्रभूषण
जैसा ऊपर कहा जा चुका है, रोबोटिक्स का क्षेत्र बाकी तकनीकों की तुलना में अभी बहुत पीछे है. साइंस फिक्शन लेखक इसाक असीमोव की मेहरबानी से 20 हजार साल आगे के रोबॉट पर केंद्रित कई सारे उपन्यास आ गए और उनपर बनी फिल्में भी खूब चल गईं. लेकिन जिन कामों की उम्मीद इनसे की गई थी, उनमें ज्यादातर फिलहाल मोबाइल फोनों के हिस्से चले आए हैं. फ्लेक्सिबल हार्डवेयर बहुत मुश्किल क्षेत्र है और आम इंसानी दायरे में इसका दखल नगण्य है.
एक परिवार के लिए काफी उपयोगी रोबॉट अगर एक मध्यम स्तर की कार की कीमत में मिलने लगे, तभी इसपर सार्वजनिक विमर्श का कुछ मायने हो सकता है. रही बात इसके ‘बेहतर और अधिक पारदर्शी नतीजों’ की, तो जिन गिने-चुने क्षेत्रों में अभी रोबॉट से काम लिया जा रहा है, उनसे पूछकर ही पता चलेगा कि इनके नतीजे कैसे हैं और इस बारे में वे क्या छिपा रहे हैं.
प्रिया शर्मा
रोबॉट के पनपने को अभी भी रोका जा सकता है क्योंकि अभी तक रोबॉट समाज के हर एक तबके तक नहीं पहुंचा है. अभी भी पूरी मानव जाती रोबॉट के अधीन होने से बच सकती है यदि इस टेक्नोलॉजी पर सवाल उठाये जाएं. एक ऐसे सिस्टम को बनने से रोका जाये जहाँ रोबॉट का होना अनिवार्य होता प्रतीत हो.
ऐसा तभी हो सकता है जब मानव जाति के हित में जागरूकता से काम करने वाले इस टेक्नोलॉजी का विरोध करें. इससे मेरा यह बिलकुल तात्पर्य नहीं है की रोबॉट बिलकुल ही ख़त्म कर देने चाहिए, जहाँ रोबॉट की सहायता से एक बहुत बड़ा सुधार आ सकता हो और जहाँ मानव नीति से समझौता नहीं करना पड़े.
प्रवीण प्रणव
रोबॉट के विकास या विस्तार पर लगाम लगा पाना आसान नहीं होगा; हमें यह करने में अपनी क्षमता लगानी भी नहीं चाहिए. कृत्रिम मेधा और रोबॉट आज के समय की सच्चाई बन चुके हैं. कुछ दशक पहले जिन लोगों ने कंप्यूटर का आविष्कार कुछ ऐसी ही आशंकाओं की वजह से किया, उनके लिए भी आज कंप्यूटर किसी न किसी रूप में उनके जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है. हम इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते कि अब हमें कंप्यूटर- रोबॉट के साथ सह-अस्तित्व की भावना के साथ रहना होगा.
रोबॉट या कृत्रिम मेधा के क्षेत्र में काम करने वाले बड़े संस्थान ऐसे नियामक बना रहे हैं जिनसे इन तकनीक का प्रयोग सकारात्मक परिणामों के लिए हो. कई देशों में सरकार के स्तर पर भी इस तरह के दिशा-निर्देश बनाए गए हैं. माइक्रोसॉफ्ट ने कृत्रिम मेधासे जुड़े किसी भी तकनीकी विकास के लिए छह सिद्धांतों पर आधारित एक मानक विकसित किया है जिनमें ‘निष्पक्षता’, ‘विश्वसनीयता और सुरक्षा’, ‘गोपनीयता और सुरक्षा’, ‘समावेशिता’, ‘पारदर्शिता’ और ‘जवाबदेही’ शामिल है. अन्य संस्थानों ने भी इसी तरह के मानक तय किए हैं. आपसी संवाद, परस्पर सहयोग, जागरूकता, जवाबदेह प्रणाली, आदि कुछ तरीके हैं जिनके पालन से हम इन आधुनिक तकनीकों से सकारात्मक और पारदर्शी नतीजों की अपेक्षा कर सकते हैं.
7.
मूल्य, भविष्य और रोबॉट
आदित्य निगम
मैं नहीं समझता के रोबो कुछ नियंत्रित करते हैं या करेंगे- उसे निर्धारित कर रही है और करती रहेगी पूँजी. उस पर जब तक नियंत्रण नहीं लगता, ख़तरे लगातार बने रहेंगे.
योगेन्द्र आहूजा
रोबोट और कृत्रिम मेधा का अधिकाधिक उपयोग हमारी ज़िंदगियों, जीवन-मूल्यों और आपसी व्यवहार को आंशिक रूप से अवश्य प्रभावित करेगा, लेकिन वही सम्पूर्ण रूप से हमारा भविष्य तय करेगा, यह ख्याल अतिरंजित है. भविष्य का निर्धारण तो तमाम सामाजिक पहलुओं… लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थाओं और नागरिक अधिकारों की हालत, सामाजिक, आर्थिक और वर्गीय विभेदों, शिक्षा के स्वरूप, दमन और अन्यायों के विरुद्ध लड़ाइयों, समग्र मूल्यबोध और नैतिकता… अनेक कारकों के आपसी कन्फ़्रंटेशन से, संघर्षों और प्रतिरोध से होता है.
अगर ये तकनीकें गैर-जिम्मेदार या अनियंत्रित या अनैतिक तरीके से उपयोग की जाएँ तो तमाम समस्याएं पैदा कर सकती हैं जैसे विशाल आबादियों के जीवन-निर्वाह के साधन छिनना, असमानता में वृद्धि, तकनीक-विशेषज्ञों का प्रभुत्व और व्यक्तिगत और सामुदायिक रिश्तों में तनाव और वैमनस्य.
बहुत सारे कामों पर कृत्रिम मेधा और ऑटोमेशन के दुष्प्रभाव हो सकते हैं, लेकिन दूसरी ओर उनमें मानव-क्षमता में इज़ाफा करने और उन्हें अधिक प्रभावी और कार्यकुशल बनाने की संभावनाएं भी मौजूद हैं. स्वास्थ्य, परिवहन, और ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में एआई नए उद्योग बनाने की क्षमता रखती है. वह मनुष्यता के सामने पेश अनेक चुनौतियों का समाधान करने में मददगार हो सकती है.
कृत्रिम मेधा को विध्वंसक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाये तो वह समाज में हिंसा और जुल्म बढ़ा सकती है. किसी प्रत्यक्ष हिंसा में संलग्न न होते हुए भी वे मनुष्यों के सामने भ्रमों और भ्रांतियों और मिथ्या अवधारणाओं का एक विराट पर्दा तान देने, इस तरह उनकी राय और विश्वदृष्टि को बदल डालने की क्षमता हासिल कर सकती हैं. ऐसा हुआ तो इन मशीनों की यह अप्रत्यक्ष, अदृश्य हिंसा किस कदर विनाशक और दहशतनाक होगी, कहना अनावश्यक है.
सरकारें, उद्योगपति, प्रोजेक्ट-निर्माता और प्रायोजक सुनिश्चित करें कि इसके फ़ायदों में सभी का साझा होगा तो नकारात्मक प्रभाव कम होंगे.
उदयन वाजपेयी
मैं नहीं समझता कि ऐसा होगा. यह बात सही है कि ऐसा हो सके इसके लिए तमाम बड़ी राजनीतिक और आर्थिक शक्तियाँ जुटी हुई है. क्योंकि ऐसा होने से मनुष्य की जटीलता का अवसान हो जायेगा, उसकी अद्वितीयता निरर्थक हो जायेगी. निरर्थक इस तरह की उसकी समाज की गति में कोई भूमिका नहीं बचेगी. यह अद्वितीयता ही है जो मनुष्यों को आसानी से नियन्त्रित करने में अवरोध उत्पन्न करती है. एक बार इस अद्वितीयता का सामाजिक गतिकी में लोप हुआ नहीं कि सरकारों और कार्पोरेट संस्थानों को समूची मानव जाति को गुलाम बनाने में एक क्षण भी नहीं लगेगा.
सरकारें इस स्थिति में आसानी से नागरिकों को छल सकेंगी और अपने लिए अधिक से अधिक शक्ति जुटा सकेगी. इसी तरह कार्पोरेट संस्थान भी इस स्थिति में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को अपना मुनाफ़ा बढ़ाने में गुलामों की तरह प्रयुक्त कर सकेंगे. लेकिन हम यह न भूलें कि मानवीय अद्वितीयता मानवीय अस्तित्व का एक अकाट्य आयाम है. इसका केवल एक हद तक ही लोप किया जा सकता है. इसे केवल एक हद तक ही दरकिनार किया जा सकता है. एक हद के बाद यह पूरी ताक़त से खुद को व्यक्त करने से रोक नहीं पायेगा. दूसरे शब्दों में हमारी अद्वितीयता की कितनी भी अवहेलना क्यों न की जाये, वह प्रकट होकर रहेगी. ऐसी स्थिति में एआई या ऐसा कोई भी मनुष्य को सुविधा देने के नाम पर उसे नियन्त्रित करने का उपक्रम कुछ हद तक निष्फल होगा. आप चाहें तो इसे मेरी ख़ामखयाली भी कह सकते हैं.
चंद्रभूषण
मूल्यों और जीवन के अर्थ में विघटन मानव सभ्यता की समस्या है और इसके या दुनिया के भविष्य के बारे में रोबॉट की भूमिका अभी इतनी भी नहीं हो पाई है कि उसे नगण्य कहा जा सके. कंप्यूटर साइंस के ‘मशीन लर्निंग’ नामक क्षेत्र में हुए पिछले कुछ वर्षों के विकास से इधर कृत्रिम मेधा को लेकर जरूर कुछ चिंताएं व्यक्त की जाने लगी हैं. खासकर ‘लार्ज लैंग्वेज मॉडल’ पर हुए काम से, जो कई मायनों में इंसानी दिमाग की तरह जटिलताओं से गुजरता हुआ दिखता है. यह शब्द से शब्द जोड़कर वाक्य बनाते जाने की प्रणाली है. बातचीत तथा लिखाई में अरबों तरीकों से इस्तेमाल हो रहे शब्दों के इतने बड़े ग्लोबल डेटाबेस पर काम करने की सुविधा इसे प्राप्त है कि इसका हर कदम चकित करता हुआ जान पड़ता है.
हालत यह है कि इसके लिए अब कृत्रिम मेधा (एआई) के बजाय आर्टिफिशियल जनरल इंटेलिजेंस (एजीआई) शब्द इस्तेमाल होने लगा है, जिसे हाल तक सदियों आगे की चीज माना जा रहा था. कोई ऐसी कृत्रिम बुद्धिमत्ता, जो इंसानी दिमाग की तरह एक साथ बहुत सारे ‘इंटरैक्टिंग इनपुट्स’ पर काम करती हो! अभी इस प्रकार की बुद्धिमत्ता के शब्दों, तस्वीरों और आवाजों पर एक साथ काम करने से कुछ क्षेत्रों में तत्काल जबर्दस्त खतरा देखा जा रहा है. सबसे पहले तो सिनेमा, संगीत, पेंटिंग, वॉयसओवर और रचनात्मक लेखन जैसे कॉपीराइट वाले क्षेत्रों में, जहाँ नक्काली के हजार नमूने अभी ही सामने आ गए हैं.
यहां से आगे इंडिविजुअल प्राइवेसी पर भारी जोखिम है, जिसके कुछ उदाहरण भारतीय अभिनेत्रियों की आपत्तिजनक वीडियो क्लिप्स में सामने आए हैं, जो बाद में नकली पाई गईं. सबसे बड़ा खतरा डिप्लोमेसी के क्षेत्र में मंडरा रहा है, जहाँ कोई शातिर दिमाग किसी फर्जी ऑडियो-वीडियो क्लिप से कब युद्ध की साजिश रच देगा, कहा नहीं जा सकता. ये खतरे यकीनन बहुत बड़े हैं, लेकिन इंसानी विवेक अगर आज इतनी ही असुरक्षित दशा में है तो मानवीय बुद्धिमत्ता की यह बाड़ेबंदी हमारे लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता से कहीं ज्यादा बड़ी समस्या है. इसका इलाज हमें झूठ पर अपनी निर्भरता घटाने और सत्ता के विकेंद्रीकरण जैसे उपायों के जरिये खोजना होगा. किसी तकनीक पर सरकारी नियंत्रण से यह बीमारी नहीं दूर होने वाली.
प्रिया शर्मा
मुझे लगता है की यह एक नकारात्मक सोच है की रोबॉट ही अब दुनिया का भविष्य निर्धारित करेंगे. मैं अभी भी यह विश्वास रखती हूँ कि यदि हम एकजुट होकर रोबॉट और ऐसी ही टेक्नोलॉजी के विषय में सोचेंगे तो इस तरह का खतरा काम हो सकता है.
हाँ यह सच है कि मूल्यों और जीवन में अर्थ का विघटन हुआ है, किन्तु अभी भी गाँधी, विनोबा, आंबेडकर की दिखाई राह पर चलने वाले बाकी हैं जो की दुनिया में एक सकारात्मक बदलाव लाने में समर्थ हैं.
प्रवीण प्रणव
समाज में मूल्यों और जीवन के अर्थ में विघटन, और भविष्य में रोबॉट पर हमारी निर्भरता को मैं दो अलग-अलग विषयों के तौर पर देखता हूँ, जो एक दूसरे पर सीधे तौर पर निर्भर नहीं हैं. हाँ इतना अवश्य है कि हमारे मूल्यों में विघटन की वजह से सामाजिक तौर पर हमारे आपसी संबंध कमजोर पड़ते जा रहे हैं, हम आभासी दुनिया में ज्यादा सरल और सहज महसूस करने लगे हैं, जहाँ कुछ देर के लिए आप वह बन सकते हैं जो आप नहीं हैं, या आप बनना चाहते हैं. कई देशों जैसे जापान में आज रोबॉट, मनुष्यों के दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुके हैं.
भारत में भी अब घरेलू और व्यावसायिक दोनों ही क्षेत्रों में रोबॉट ने दस्तक देना शुरू कर दिया है. लेकिन क्या रोबॉट दुनिया के भविष्य को निर्धारित करेंगे, यह कई कारकों पर निर्भर करता है. सकारात्मक रूप से देखें तो रोबॉट कई जटिल समस्याओं का समाधान करने में, उत्पादन क्षमता बढ़ाने में, जीवन की गुणवत्ता को सुधारने आदि में सहायक हो सकते हैं. समाज में वृद्ध लोग आज जिस तरह अकेले रहने को विवश हैं, जहाँ उनके बच्चे रोजगार की तलाश में दूसरे शहर या विदेश में रह रहे हैं, रोबॉट न सिर्फ स्वास्थ्य संबंधी देखभाल बल्कि भावनात्मक स्तर पर भी एक परिवार के सदस्य की तरह भूमिका निभा सकते हैं. लेकिन साथ ही अनियंत्रित प्रौद्योगिकी प्रगति आज बड़ी चिंता का विषय है. बंदूक का पहले-पहल आविष्कार निःसंदेह आतंक के लिए नहीं, बल्कि सुरक्षा के लिए ही किया गया होगा. लेकिन आज इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू हमारे सामने हैं. रोबॉट भविष्य में किस तरह की भूमिका निभाएंगे, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि हम प्रौद्योगिकी के विकास के लिए किस तरह की सीमा रेखा तय करते हैं और किन नैतिक मूल्यों के आधार पर कृत्रिम मेधा के विकास की दिशा में बढ़ते हैं.
सुषमा नैथानी
विज्ञान कथाओं के कालजयी लेखक आइजैक एसिमोव (Isaac Asimov) ने ‘फाउंडेशन सीरीज’ और ‘रोबॉट एंड एम्पायर’ (१९६० से १९८० के बीच लिखे नॉवल्स) में मनुष्य और रोबॉट के सम्बन्धों, धरती और इस ब्रहमाण्ड में मशीन और मनुष्य के कई समांतर संघर्ष, और रोबोट के समाज पर असर आदि अनगिनत पहलू प्रस्तुत किए हैं.
रोबॉट से पब्लिक का साहित्य के ज़रिये यह पहला परिचय रहा जिसने कालांतर में विज्ञान लेखन को, स्टार वार्स सहित अनगिनत फिल्मों, और कला की सभी अभिव्यक्तियों को प्रभावित किया. कह सकते हैं कि रोबोट सामाजिक चेतना में १९६० के दशक से हैं, और अल्लाद्दीन का चिराग भले ही मिलना नामुमकिन हो, हमारे पास किसी न किसी रूप में रोबॉट या स्वचालित मशीन कई टुकड़ों में पहुँच गई है. टीवी का रिमोट और वॉयस कमांड, वाशिंग मशीन की सेटिंग, कैलकुलेटर, कैश रजिस्टर से लेकर एलेक्सा और ईमेल टाइप करते हुए ऑटो सजेशन, सबका हम इस्तेमाल कर रहे हैं.
पिछले चार पांच सालों से मेरे विश्वविद्यालय परिसर (ऑरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी) में ‘स्टार शिप’ नाम के सौ से ज्यादा स्वचालित रॉबोट घूमते रहते हैं, जहाँ भी किसी को फ़ूड चाहिए, ऑनलाइन आर्डर करके अपने नज़दीकी लोकेशन वह स्तर शिप से मंगवा लेता है. ये रोबोट सड़क पार करते हैं, ट्रैफिक नियमों का बखूबी पालन करते हैं, पैदल रस्ते पर मुसाफिरों के साथ तालमेल बिठाते हैं, और अक्सर लोग जब भी उनका रास्ता रोकने की कोशिश करते है तो वे रूक जाते हैं, या अपना रास्ता बदल लेते हैं. धीरे-धीरे लोगों ने रोबॉट के साथ सभ्य होना सीख लिया है और उनके साथ रास्ता बांटने में कोई ख़ास समस्या नहीं बचा. इसी तरह दूसरे रोबॉट पार्किंग लाईट में चेक करते हैं और गलती पर ईमेल से वसूली का टिकट भेज रहे हैं.
रॉबोट पर काम करने वाले छात्र कभी-कभी नए मॉडल साथ उनकी टेस्टिंग के लिए तामझाम लिए दौड़ते हैं. अब डांसिंग रोबॉट और अन्य कुछ कामों को सकने वाले दोपाये और चौपाये रोबॉट बन गए हैं. बहुत सारे बायोबॉट्स हैं जो किसी कीड़े की तरह इधर उधर मंडरा रहे हैं और रिमोट कण्ट्रोल से संचालित है जो ऐसी जगहों पर जा सकते हैं और सूचना इक्कठा कर सकते हैं जहाँ मनुष्य का जाना खतरे से खाली नहीं है, जैसे किसी बड़े हादसे, विस्फोट, रेडिएशन आदि की जगहों पर. बहुत से ऐसे छोटे रोबॉट हैं जो घर साफ़ करने का काम कर रहे हैं. बूढ़े लोग जो झुककर काम नहीं कर सकते वह क्रिसमस गिफ्ट में ऐसे रोबॉट की कामना करते हैं. सो ऐसे देशों में जहाँ जनसंख्या कम है, रूटीन के कामों के लिए सस्ते रोबॉट का उपलब्ध होना सुविधाजनक है.
इसके अलावा, बड़े स्तर के सर्वे, जैसे धरती और समुद्र के तापमान का डेटा, वनस्पतियों में आये बदलाव का डेटा, ट्रैफिक का डेटा, आदि या फिर मेरे अपने फील्ड में जीनोम सीक्वेंस का डेटा इतना अधिक है कि उसकी एनालिसिस, कोरिलशन, उसकी समीक्षा करना और उसे समझना मानव दिमाग से संभव नहीं हैं. बिना ऑटोमेटेड एनालिसिस के इनमें से कोई काम नहीं किया जा सकता है. ऐसे समझें कि २० तक का पहाड़ा हम आसानी से याद कर लेते हैं, लेकिन ३३४६ का पहाड़ा याद नहीं कर सकते. इसीलिए १९९० से कम्प्यूटर प्रोग्राम /एल्गोरिथ्म लिखे जा रहे हैं और लगातार उनमें जटिलता आ रही है जो विभिन्न क्षेत्रों के बिग डेटा को समझने में मदद करते हैं.
हम कहते हैं कि अमुक डेटा मशीन रीडेबल है (जैसे जीनोम सीक्वेंस डेटा, ATGCCCCAAA को मिलियन्स को बाइट में हम पढ़ सकते हैं लेकिन उसका कोई मतलब नहीं निकाल सकते). इसीलिए जब यह समझ बन गयी कि जीन का स्ट्रक्चर क्या होता है, वह कैसे शुरू और कहाँ ख़त्म होता है, तो ऐसा प्रोग्राम लिखा गया जो जीनोम सीक्वेंस के भीतर जीन के सिग्नेचर तलाश सके और जीनाम को ३०-५० हज़ार संभावित जीन में विभाजित कर दें. अब इन जीन मॉडल को मनुष्य का दिमाग एक-एक करके हैंडल कर सकता है: वह टेस्ट कर सकता है कि जीन मॉडल सही है या गलत, और उसके सबूत जुटा सकता है, इस जीन मॉडल को संशोधित कर सकता हैं. जब यह प्रक्रिया हज़ार बार मनुष्य ने दोहरा ली और इसका प्रोटोकॉल बन गया तो फिर इसके लिए स्क्रिप्ट लिख दी गई जो जीन मॉडल्स को रिफाइन कर सकती हैं. कह सकते हैं कि मनुष्य जिन कामों को ठीक से कर सकता है और जिनको बार-बार दोहराना अत्यधिक समय और मेहनत माँगता है उसके लिए स्क्रिप्ट्स या एप्स (ऑटोमेटेड प्रोटोकॉल्स) का इस्तेमाल शुरू हो गया हैं.
आप सबके फ़ोन में जितने ‘एप्स’ हैं यह सब छोटी-छोटी स्क्रिप्ट्स हैं, आप इनका इस्तेमाल करते हैं. इससे आगे, किसी ‘एप्स’ जैसे फेसबुक आदि का विभिन्न यूजर कैसे इस्तेमाल करते हैं उसका डेटा भी जमा होता है. यूज़र डेटा की एनालिसिस से यूजर के विचार, कंज़्यूमर बेहेवियर आदि का पता चलता है और यूजर ग्रुप्स बनाकर वह डाटा बहुत से व्यापारों को बेचा जा सकता है, यहाँ पर जो पैटर्न एनालिसिस होती हैं वह मशीन लर्निंग से संभव है जिसे आम भाषा में अब “आर्टिफिशल इंटेलिजेंस‘ कहा जाता है. इन पैटर्न्स के आधार पर यूज़र को ऑनलाइन विज्ञापन दिखते हैं या उसकी कोई पोस्ट ब्लॉक हो सकती हैं और उसका सर्कुलेशन बढ़ सकता है. अनंत तरीके से इसका इस्तेमाल अनंत काल तक हो सकता है. यूजर मर जाएगा लेकिन उसका डेटा रहेगा.
गूगल या कोई भी सर्च इंजन सतही तौर पर इंटरनेट पर जो भी डेटा उपलब्ध है उसको ढूंढ कर दे देता है. गूगल से मिली सभी सूचनाओं को तथ्य आधारित न माने, और सभी परिणामों को बराबर न माने. यहाँ भी कंकड़-पत्थर और हीरे सब मिले हुए हैं.
इंटरनेट पर उपलब्ध सभी प्रकार के डेटा सतही समीक्षा भी संभव नहीं है. इसलिए जो सूचना का मुख्य सोर्स है वो क्या है यह जानना ज़रूरी है, सोर्स वेबसाइट कौन चलाता है, यह जानना ज़रूरी है. गूगल को पुराने जमाने की फोन डायरेक्टरी समझे, जहाँ किसी के भी फ़ोन नंबर होंगे, लेकिन किसी व्यक्ति के फोन नंबर से उसका चरित्र परिभाषित नहीं किया जा सकता, वह तो उससे व्यवहार करने के बाद ही समझ आता है.
गूगल कभी भी यह गारंटी नहीं देता कि वह जो सूचना बता रहा है वह किस गुणवत्ता की है, सही है या गलत. विचारवान व्यक्ति का काम यह तय करना है कि वह गूगल से मिली सूचनाओं की सटीक समीक्षा और आकलन कर सके, और किसी सार्वजनिक सूचना पोर्टल्स जैसे विकीपीडिया आदि पर जो गलत सूचनाएं हैं उनको तथ्य के आधार पर संशोधित करने में मदद करें. बौद्धिकों को बेहतर ऑनलाइन पोर्टल बनाने होंगे उनकी गुणवत्ता बढ़ानी होगी. गूगल सर्च के परिणामों में इससे सुधार आएगा.
विज्ञान की सभी खोजों की तरह मशीन लर्निंग या कृत्रिम मेधा हमारी दुनिया में भरपूर घुसपैठ बना चुकी है. इसका अच्छा और बुरा इस्तेमाल हो सकता है. रोबॉट की थीम पर कई तरह के डिस्टोपिया और यूटोपिया दोनों का उदाहरण विज्ञान साहित्य में १९६० के दशक से भरपूर है. इससे भयभीत होने की ज़रूरत नहीं है. फिलहाल तो बिग डाटा का सामाजिक इस्तेमाल बाज़ार ने ग्राहक फ़साने के लिए किया है, और राजनीती ने गिरोहबंदियों, अफवाहों, ट्रोलिंग, राजनैतिक विरोधियों को चिन्हित और प्रतिबंधित करने के लिए. उसके कई इस्तेमाल विभिन्न क्षेत्रों के रिसर्चर कर रहे हैं. और असंख्य अच्छी-बुरी संभावनाएं अभी बची हुई हैं.
स्वतंत्र बौद्धिकों को अपनी अध्ययनशीलता का दायरा बढ़ाना होगा, ज्यादा प्रैग्मैटिक और प्रयोगधर्मी होना पड़ेगा. विज्ञान और तकनीकी से साहित्य को परहेज़ नहीं करना चाहिए. भिन्न कोणों और दृष्टिकोण से बात होते रहनी चाहिए ताकि सचेत तरीके से कोई विज्ञान पॉलिसी अपने समाज के हित में बन सके. हम कैसे सक्षम हो, इस बदलाव के साथ कदमताल मिलाकर आगे बढ़े, और इसका इस्तेमाल जनहित में कैसे हो सके इसके रास्ते ढूंढें.
नवीन कुमार नैथानी
बुद्धि, चेतना और मशीन के अन्तर्संबन्धों से उलझी ये गुत्थियाँ कुछ दार्शनिक और नैतिक प्रश्नों की ओर संकेत करती हैं जिन्हें समुचित मंचों से संबोधित किये जाने के की जरूरत है. साहित्य के एक सामान्य पाठक के तौर पर – और जिम्मेदार नागरिक के नाते भी- ये सवाल मुझे दो कारणों से आकर्षित करते हैं. इनका सम्बन्ध मनुष्य की कल्पनाशीलता से है और साथ ही मानवीय मेधा की रचनात्मक चुनौतियों से भी. सभ्यता के ज्ञात इतिहास से ही हम इन प्रश्नों से जूझते आ रहे हैं.
सभ्य समाजों से लेकर आदिम समाजों तक मिथकों के बनने की प्रक्रिया में शायद प्रकृति को समझने की बेचैनी के साथ ही मनुष्य के कल्पनाशील मस्तिष्क की टकराहट का योगदान रहा होगा. लेकिन सदियों से अर्जित और परिष्कृत विशेष ज्ञान के रूप में विज्ञान मनुष्य जीवन की एक सामूहिक चेतना के रूप में विकसित हुआ है. रोबोट और एआई दो पृथक विषय हैं जिनके बीच थोड़ी बहुत समानता के बावजूद विकास और उपयोग की अलग-अलग धाराएँ मौजूद हैं.
रोबोट की अवधारणा एक मशीन के रूप में मानवीय श्रम की स्थानापन्न युक्ति के तौर पर विकसित हुई. यह एआई के आने से पहले ही विकसित किये जाते रहे हैं. एआई कम्प्यूटर प्रोग्राम की एक तरह से अत्याधुनिक, उन्नत तथा गतिशील अवस्था है जो हार्डवेयर युक्तियों के उचित सम्मिलन से हैरतंगेज परिणाम देने लगे हैं. रोबोट और एआई को शरीर और बुद्धि के कार्तीय द्वैत की दार्शनिक अवधारणाओं के रूप में भी देखा जा सकता है.
रोबोट मशीन के रूप में विकसित होते हुए खास तरह की ‘प्रोग्रामेबल बुद्धि’ से संयुक्त होने के बाद स्वैर-कल्पनाओं से आगे निकलकर वैज्ञानिक विधियों के हस्तक्षेप से गुजर चुके हैं और अब एक एक ठोस वास्तविकता के रूप में हमारे बीच मौजूद हैं. एक बात तो शुरु में ही स्पष्ट हो जानी चाहिये कि बुद्धि का सम्बन्ध चेतना से है और मशीनें बुद्धि का स्थान नहीं ले सकतीं. वे हमारी सहायक होती हैं. “मशीनें सोच सकती हैं” इस सवाल से कोई सात दशक पूर्व प्रख्यात गणितज्ञ एलन ट्यूरिंग टकराये थे. उन्होंने मशीन और मनुष्य के बीच एक काल्पनिक प्रतिस्पर्धा की पृष्ठभूमि तैयार करते हुए विस्तार से इस सवाल पर भी विचार किया कि मशीन के साथ संवाद किस तरह किया जा सकेगा. इसके दार्शनिक निहितार्थों को लेकर तबसे बहुत बहस हो चुकी है जिसके बारे में इच्छुक पाठक गूगल कर सकते हैं.
डिजिटल क्रान्ति के बाद से तो बहुत अधिक डेटा अन्तरिक्ष में गर्त हो चुका है और एआई आज एक हकीकत के रूप में हमारे सामने है. अब एआई का उपयोग इतने सारे क्षेत्रों में हो रहा है कि सामान्य जन-जीवन की शायद ही कोई गतिविधि इसके हस्तक्षेप से बची हो. चिकित्सा, शिक्षा, नियोजन के साथ ही उपभोक्ता सामग्री के बहुविध इलाकों में इस तकनीक ने अपनी जरूरत स्थापित कर ली है. लगभग अविश्वसनीय रफ्तार से सूचनाओं को संग्रहित, विश्लेषित कर सकने के साथ ही नयी प्रविधियों के विस्तार ने हमें जिस दुनिया में ला छोड़ा है वह हमें अचंभित करने के साथ ही संशय में भी डालती है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि हमें तकनीक से भयभीत होना चाहिये. तकनीक के दुरुपयोग की आशंका तो विकास के हर सोपान में रही है. मनुष्य अपना नरक स्वयं ही रचता है.
जहाँ तक गूगल जैसे सर्च इंजन पर हमारी निर्भरता का सवाल है तो मुझे नहीं लगता कि इसने विचार की दुनिया में कोई ठहराव पैदा किया है. बल्कि इसके उलट, गूगल (यहाँ हम इसे हम इण्टरनेट के पर्याय के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं) के कारण नये विचारों के लिये अवसर और अवकाश दोनों उपलब्ध हुए हैं. यही नहीं, इसने ज्ञान के लोकतन्त्रीकरण की नयी जमीन भी तैयार की है. ज्ञान पर शिक्षा के बड़े केन्द्रों का वर्चस्व टूटा है. जिस ज्ञान को प्राप्त करने के लिये कभी शिक्षा के बड़े केन्दों तक पहुँचना जरूरी था, अब वह सब आम-जन की पहुंच में तो है ही.
डिजिटलाइजेशन की प्रक्रिया के साथ आज सूचना और संचार-क्रांति ने हमारी सोच-समझ पर दो स्तर पर प्रभाव डाला है : एक तो सूचनाओं और जानकारियों के लिये विशेषज्ञों पर निर्भरता कम हुई है और साथ ही यह सतर्कता भी बड़ी है कि हम सूचनाओं को संशय की दृष्टि से देखें. दूसरा असर यह पड़ा है कि हमारी भाषा की शब्दावली में बहुत सारे नये शब्द, जार्गन और मुहावरे प्रविष्ट हुए हैं जो भाषाओं की सरहदों के आर-पार निर्बाध विचरण कर रहे हैं.यह स्वाभाविक है कि नयी भाषा नये प्रत्ययों के साथ नये विचारों के लिये भी उत्प्रेरण का काम करती है. एआई के विभिन्न स्वरूपों ने हमारी दक्षता को बढ़ाने में मदद की है. यह बात किसी भी तकनीक के साथ लागू होती है कि आप इसे किस रूप में इस्तेमाल करते हैं. एआई वस्तुतः अपने अस्तित्व के लिये जिन प्रोग्राम्स पर निर्भर है वे मानव-मस्तिष्क की ही देन हैं. इसलिये यह सोचना कि ये मानव मस्तिष्क के लिये विराम की तरह हैं , बुनियादी रूप से गलत है. हाँ, यह जरूर है कि इन पर बढ़ती निर्भरता के साथ यह खतरा जरूर है कि हम स्वयं ही मस्तिष्क का इस्तेमाल करना कम कर दें. मस्तिष्क को क्रियाशील बनाये रखने के लिये किस तरह के उपाय भविष्य में किये जायेंगे इस बारे में सोचने की जरूरत तो है ही.
इस क्षेत्र में जिस तेजी से विकास हुआ और नयी तकनीकें सामने आ रही हैं , उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिये जिस तरह के संसाधनों की आवश्यकता है, उन्हें जुटाने में हम शायद अभी सक्षम नहीं हैं. यह भी सच है कि इस तरह के शोध-परक कार्यों के लिये सांगठनिक स्तर पर जिस समदृष्टि की आवश्यकता है वह शायद हमारे नीति-निर्धारकों की प्राथमिकता में नहीं है. इन स्थितियों में हम खरीददार ही हो सकते हैं विक्रेता नहीं. वैसे भी हमें अब एक उपभोक्ता के रूप में अपने आप को एक बाज़ार के रूप में प्रस्तुत करने की आदत हो चली है.
जहाँ तक एआई के विकास में भारतीयों के योगदान का सवाल है तो सोफ़्टवेयर के क्षेत्र में भारतीय प्रतिभा ने अपना लोहा मनवाया है. लेकिन एआई के सफल दोहन के लिये डेटा की उपलब्धता एक महत्वपूर्ण पक्ष है जिससे हम आँखें नहीं चुरा सकते. इस डेटा पर अभी तक तो गूगल या अमेज़ॉन जैसी गिनी चुनी कंपनियों का कब्ज़ा है. यह पूँजी के साथ-साथ शुरुआत में ही मैदान पर कब्ज़ा करने जैसा खेल है. इसलिये हम इस खेल में बस एक उपभोक्ता बनकर ही रह गये हैं जिसके पास बेचने के लिये डेटा के सिवा और कुछ नहीं बचा है बल्कि वह भी हम मुफ़्त की सुविधाओं के बदले उन्हें यूं ही लुटा रहे हैं.
यह कहना ठीक नहीं है कि एआई मनुष्य की कल्पनाशीलता से आगे रहती है. चैटजीपीटी जैसे अनुप्रयोगों से इस तरह की धारणा को बल मिलता है लेकिन यह सच नहीं है. वह उन्हीं दायरों में काम करती है जो उसके लिये हमने तय किये हैं. यहाँ सवाल वही है- डेटा की उपलब्धता और मशीनों की रफ्तार. कल्पनाशीलता में मशीनें मनुष्य का मुकाबला नहीं कर सकती हैं. लेकिन यह कोई बहुत अधिक खुश होने की बात नहीं है क्योंकि जीवन कल्पनाओं से कहीं अधिक रोमांचक है और एआई आज के जीवन की एक अनिवार्य उपस्थिति है. आप कल्पना कीजिये कि अगर हमारी कल्पनाओं को एआई के पंख मिल जायें तो क्या होगा. अब यही तो हो रहा है. शायद अब अविश्वसनीय रूप से उन्नत और समृद्ध सिनेमा, नया संगीत और नये अन्वेषण के द्वार हमारे सामने खुलने लगे हैं! इस तरह के बहुत से प्रारंभिक परिणाम तो उत्साह-वर्धक ही हैं. यह बात ध्यान में रखने की है कि यह काम एआई नहीं कर रहा है! इस काम में मुख्य रूप से मनुष्य का मस्तिष्क ही लगा हुआ है. एआई तो उसके सहायक की भूमिका में है. लेकिन जब एक मजबूत सहायक मिलता है तो यह डर हमेशा से हमारे अवचेतन में बना रहता है कि यह सहायक बहुत जल्द हमें अपदस्थ न कर दे!
सामाजिक जीवन और मूल्यों के बीच विघटन के लिये न तो मशीनें जिम्मेदार हैं और न ही एआई जैसी कोई तकनीक! इसके लिये हम ही जिम्मेदार हैं और हमें ही इनके बीच से निकलने का रास्ता तलाश करना होगा.
मनोज मोहन |
बहुत अच्छी बातचीत बन गई है। ज्ञान के एक सीमावर्ती क्षेत्र में पाठकों जितना ही भागीदारों को भी समृद्ध करने वाली। अच्छा होगा कि बाद में इस विषय पर समालोचन की ओर से एक पुस्तिका निकाली जाय और इसके लिए सवालों को थोड़ा और विस्तार देकर सभी से अपना कंटेंट बढ़ाने का आग्रह किया जाए। लोग भिन्न मतों से परिचित होंगे तो ऐसा करने में ज्यादा मेहनत भी नहीं लगेगी।
Excellent most modern futuristic write up Thanks a lot 🙏
जैसा कि अक़्सर होता है, पूरी बातचीत मनुष्य-केन्द्रित रही। AI के पर्यावरण और जैव विविधता पर क्या प्रभाव पड़ रहे हैं और भविष्य में भी पड़ेंगे, इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया। सारी चिन्ता और सारा सरोकार सिर्फ़ मनुष्यों के बारे में था।
दूसरा, सारी बातचीत में AI को समग्र विज्ञान और प्रोद्योगकी से अलग रख कर देखा गया, जबकि यह उन्हीं की उपज है। हम जानते हैं कि पर्यावरण और जैव विविधता को नुक्सान पहुँचाने तथा भूमंडलीय ताप और जलवायु आपदा को पैदा करने में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की बहुत बड़ी भूमिका रही है जो अब भी जारी है। AI पर होने वाली किसी भी बातचीत को इस बैकग्राउंड में रख कर करने की ज़रूरत है। इसके बिना वह अधूरी ही रहेगी।