समीक्षा
हाशिए के समाज का संकट
शशिभूषण मिश्र
भेम का भेरू मांगता कुल्हाड़ी ईमान, लाल छीट वाली लूगड़ी का सपना, काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस जैसे चर्चित कहानी–संग्रहों के सर्जक सत्यनारायण पटेल हमारे संक्रमित समय के ऐसे युवा कथाकार हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं में समकालीन जीवन के गत्यात्मक यथार्थ को पूरी विश्वसनीयता के साथ रेखांकित किया है. हाशिए के समाज के संकटमय जीवन का साक्षात्कार कराने वाला उनका हाल ही में आया पहला उपन्यास ‘गाँव भीतर गाँव’उल्लेखनीय हस्तक्षेप दर्ज कराता है. 320 पृष्ठों में विन्यस्त इस रचना में हमारे समय के अंतर्विरोधों में उलझे विवश ग्रामीण यथार्थ की गहन पड़ताल की गई है. अनूठी कथा-भाषा में यह रचना हमसे बोलती-बतियाती अपने सुख-दुःख साझा करती हमें अपना हिस्सा बना लेती है. और तब स्वयं हम रचना का हिस्सा बनकर उन असंख्य चेहरों पर पड़े जख्मों और आँखों में अटकी निरुपायता की निशानदेही कर पाते हैं जो व्यवस्था के महाप्रभुओं ने दिए हैं. समय के अनगिनत उतार-चढ़ावों से जूझ रहे समाज के स्वप्नों का चित्रण लेखक ने जिस अचूक और मर्मभेदनी दृष्टि से किया है उसके चलते उपन्यास शुरुआत से अंत तक बेहद पठनीय बना रहता है. पिछले दो दशकों के समूचे कालखंड को समेटते हुए उपन्यास के डिटेल्स अप-टू-डेट हैं. अपने समकाल पर समग्र दृष्टि से विचार करते हुए सत्यनारायण पटेल ने सत्ता-व्यवस्था और इन्हें चलाने वाली प्रतिगामी शक्तियों की पहचान की है. उपन्यास हमारे विपर्यस्त समय की विपर्यस्त दास्तान है.
उपन्यास मृत्यु से शुरू हो होकर समय की हकीकतों से मुठभेड़ करता आगे बढ़ता है और जीवन-संघर्षों की अनथक यात्रा का स्पर्श कर मृत्यु पर समाप्त होता है. उपन्यास की शुरुआत गाँव के युवा हम्माल कैलाश की मृत्यु के प्रशमित वातावरण में होती है. कैलास के जीवन के अंत के साथ उसकी पत्नी झब्बू के जीवन में अन्धकार छा जाता है. इक्कीस –बाईस साल की उसकी उमर थी और आगे का पूरा जीवन –“जब झब्बू राड़ी-रांड हुई ,तब उसकी गोद में तीन –चार बरस की रोशनी थी. आँखों में सपनों की किरिच और सामने पसरी अमावस की रात सरीखी जिन्दगी जो अकेले अपने पैरों पर ढोनी. कैलास की मौत से झब्बू ही नहीं झोपड़े के सामने वाले नीम के पेड़ में रहने-पलने वाले पक्षी और जीव भी स्तब्ध थे…मानो आज वो सब बे-आवाज हो गए हों –
“ नीम की डगालों पर मोर,होला,कबूतर,चिकी आदि पक्षी बैठे थे . सभी शांत !चुप !गिलहरी भी एक कोचर में से टुकुर -टुकुर देखती रही . शायद उन सबके मन में चल रहा – हमारे लिए ज्वार ,बाजरा,और मक्का के दाने बिखेरने वाला आज खामोश क्यों है ?…लेकिन वे किससे पूछें…! कौन उनकी भाषा समझे…! कौन उन्हें जवाब दे …! जैसे उनके बीच का कोई अपना–सा गिलहरी ,कबूतर, चिकी,कौआ या फिर मोर शांत हो गया .” लेखक ने अपनी बेजोड़ सृजनकला से मानवेतर जीवन की सूक्ष्म संवेदनाओं को इतनी बारीकी से उकेरा है मानो उनके बीच कोई अनकहा सा रिश्ता है जिसे भावनाओं की अभिन्नता से ही महसूस किया जा सकता है. इस घनीभूत पीड़ा में वो सब झब्बू के साथ परिवार के हिस्से की तरह खड़े हैं.
उपन्यास कैलास की मृत्यु के कारणों की पड़ताल करता हमें विकास के खोखले दावों की हकीक़त से रू-ब-रू कराता है. दरअसल गाँव और महानगर को जोड़ने वाला रास्ता मौत को आमंत्रित करता छोटी-छोटी खाइयों में तब्दील हो गया है. उसी रास्ते से लौट रहे ट्रैक्टर की ट्राली में लदी खाद की बोरियों के माध्यम से लेखन ने व्यवस्था की नीतियों पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की है -“बोरियां भी मानो बोरियां नहीं, बल्कि जीती-जागती आम –आवाम हों, जिसे व्यवस्था की काली नीतियों की रस्सियों से बाँध ,ट्राली में भर ,किसी अंधी गहरी विकास की खाई में डालने ले जाया जा रहा हो और रस्सियों में बंधी बोरियां भीतर ही भीतर कसमसातीं, छटपटातीं शायद ट्राली के बाड़े से मुक्ति की जुगत तलाश रहीं हों .” कहन का बिलकुल भिन्न अंदाज और भाषा का बेधक तेवर पूरे औपन्यासिक विधान को ताजगी से भर देता है. व्यंग्य का गहरा बोध समूची रचना की अर्थ-लय में अंतर्भुक्त है.
कैलाश के न रहने के बाद झब्बू ने अपने डोकरा-डोकरी (माँ-पिता) के प्रस्ताव को (मायके में रहने) ठुकराते हुए गाँव के झोपड़े में रहने का निर्णय किया. झब्बू के सामने गाँव में हजारों प्रलोभन थे पर उनको नकारती वह सिलाई सीखती है और आत्मनिर्भर बनती है. गाँव में उन झोपड़ियों के पास कलाली (देशी शराब) खुलने के साथ एक नए संकट की शुरुआत होती है. कलाली के कारण उन औरतों की जिन्दगी में जहर घुलने लगा. घर से निकलना तक दूभर हो गया. एक दिन जब बात इज्जत आबरू तक पहुँच गई तब श्यामू झब्बू से कहती है – “भीतर चलने से क्या होगा झब्बू ! ये कुत्तरे हर आती –जाती को सूंघते . मैं कहती हूँ कि कुछ टाणी कर नी तो दाल रोटी से छेटी पड़ जाएगी.” औरतें ऐसा निर्णय लेती हैं जिसकी किसी को भनक तक नहीं लगी –
“रात तक चंदा, फूंदा, रामरति, माँगी और पच्चीस-तीस औरतों ने हामी भर ली ….औरतें रोज के कामों से जल्दी फारिग हो गईं. कलाली खुलने से पहले नीम के नीचे जमा हो गयीं . सब की सब जाकर कलाली के किवाड़ के सामने बैठ गयीं .” साहसिक और सामूहिक संघर्ष का नतीजा झोपड़े की औरतों के जीवन में नए सबेरे की तरह था क्योंकि कलेक्टर के आदेश से जाम सिंह को कलाली वहाँ से हटानी पड़ी.
कलाली हटवाने की कीमत झब्बू को सामूहिक दुष्कर्म की यातना भुगतकर चुकानी पड़ी . इस घटना के साथ जीवन, समाज और व्यवस्था के क्रूर, अमानुषिक और क्षरणशील हिस्से परत-दर-परत उघड़ते जाते हैं. झब्बू अपने साथ हुई बर्बरता के खिलाफ थाने, कचहरी ,कोर्ट सब जगह का चक्कर काट कर थक जाती है. उसका डोकरा उसे समझाता हुआ कहता है – “बेटी, थाना-कोर्ट-कचहरी में लड़ना ग़रीबों के बस का नहीं. पूरे कुएं में ही भांग घुली है.” उपन्यास अन्याय से उपजी उन मूक विवशताओं को दर्ज कराता चलता है जिनके कारण न्याय के पक्ष में कोई आवाज तक नहीं उठाता. जब ऊपर से लेकर नीचे तक पूरा तंत्र ही नाभि-नालबद्ध हो, ऐसे में न्याय की उम्मीद करना बेमानी है. जाम सिंह जैसों के हाथ इतने लम्बे हैं कि मंत्री, विधायक, नेता और वकील सब उसकी मुट्ठी में हैं. उपन्यास का एक और प्रसंग उल्लेखनीय है जब -सामूहिक हत्या के जुर्म में जाम सिंह के बेटे अर्जुन सिंह की जमानत याचिका ख़ारिज हो जाती है तब जाम सिंह नया दांव खेलता है और सफल होता है -“उसके वकील ने बताया कि मैंने हाईकोर्ट में एक जज से गोट बैठा ली है पाँचेक लाख रुपए खर्च करने पड़ेंगे . जमानत हो जाएगी .” झब्बू के साथ हुए अन्याय को इस प्रसंग से बावस्ता करके देखें तो हम समझ पाएंगे कि लेखक ने न्याय के लिए लड़ रही झब्बू की विवशता को कितने गहरे आशय के साथ व्यक्त किया है. मनुष्यता को ख़ारिज करने वाली ऐसी असह्य स्थितियां विचलित करने वाली हैं. अंत में रस्मपूर्ति के रूप में न्यायालय का जो ‘फैसला’ आता है उससे न्याय कि समूची अवधारणा निचुड़ चुकी होती है. उपन्यास यह प्रश्न हमारे समक्ष छोड़ जाता है कि आज की न्याय व्यवस्था से आखिरकार मानवीय चेहरा क्यों गायब हो गया है ?
पुलिस की कार्यप्रणाली और रुतबे से जिसका कभी सीधा सामना नहीं हुआ है वह भी इस वर्दी के दुस्साहसी कारनामों से भलीभांति परिचित होता है. अपने साथ हुए अन्याय-अत्याचार- के खिलाफ आपदग्रस्त आम आदमी के सामने न्याय का पहला दरवाजा पुलिस स्टेशन ही होता है किन्तु क्या मजाल कि किसी ताकतवर व्यक्ति के दबाव, जोर-जुगाड़ के बिना यहाँ एफ.आई.आर. दर्ज हो जाए. कानूनी,संवैधानिक या खुद के लिए लिए आफत बन जाने वाले प्रकरणों को छोड़ कर यह खाखी वर्दी भी गरीब-गुरबों से जाम सिंह की ही तरह ही पेश आती है. जाम सिंह जैसी दबंगई का जज्बा यहाँ भी है पर नौकरी का सवाल है ! इसलिए सूंघकर,बहुत चालाकी के साथ अपना हाथ बचाते हुए सेवा-पानी का रास्ता निकालकर कार्रवाई को अंजाम तक पहुंचाया जाता है. कुल मिलाकर यहाँ की दुनिया सीधे-सरल-कमजोर नागरिक के लिए जाम सिंह जैसों की दुनिया से बहुत अलग नहीं है. मगर यही पुलिस माल-पानी की समुचित व्यवस्था करने वालों की सेवा में कभी देरी नहीं करती . कलाली हटाने के लिए धरने पर बैठी औरतों के खिलाफ जाम सिंह के एक फोन से ही यह पुलिस तत्काल वहाँ पहुँच जाती है –
“रमेश जाटव थाने पर ही था . जाम सिंह के मामले में लेत-लाली कैसे करता ? कभी सरकारी तनख्वाह में देर हो जाती, पर जाम सिंह ने जब से दारू का धंधा शुरू किया, कभी बंदी देर से न भेजी . रमेश जाटव ने थाना हाजिरी में बैठे पुलिस वालों को जीप में बैठाला और धरना स्थल पर आ धमका .” दुष्कर्म की रिपोर्ट लिखाने थाने पहुँचने वाली जायली जैसी कितनी ही औरते हैं जो वर्दी की हवस का शिकार बनती हैं. मातादीन पंचम जैसे खानदानी पुलिसवालों की तो बात ही कुछ और है. एक तो थानेदारी का रौब तिस पर मंत्री जी तक पहुँच. मातादीन पंचम का बहुत साफ़ मानना था कि –
“खदान माफिया हो,दारू माफिया हो या जो कोई माफिया हो ,ये दुधारू गाय होते हैं. जब चाहो दुहो . कभी मना नहीं करते.” पाँच भाइयों में मातादीन सहित सभी पुलिस में थे और सभी एक से बढ़ कर एक कारनामों को अंजाम देने वाले. ऊपर से लेकर नीचे तक घुन लग चुके इस तंत्र के घालमेल की एक्स-रे रिपोर्ट प्रस्तुत की है –“खैर देश में अच्छे काम करने वालों की सदा क़द्र होती है . मातादीन द्वितीय की बहादुरी से देश का मुखिया अत्यंत प्रसन्न हुआ . पंद्रह अगस्त को उसे राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया गया.” ‘पंचम भाई’ हमारी पुलिस व्यवस्था के प्रतिनिधि चरित्र हैं.
देश-दुनिया की संस्थाओं से सहायता के नाम पर तिकड़म भिड़ाकर अधिक से अधिक फण्ड का जुगाड़ करने वाले गैर सरकारी संगठन हमारे देश में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं . ऐसे संगठनों के कारण ईमानदारी से काम करने वाले संगठनों के सामने विश्वसनीयता का संकट पैदा हो गया है. लेखक ने इन संगठनों के नकारात्मक पक्ष को अतिरेकी ढंग से उभारा है जबकि हकीकत यह है कि इन स्वयं सेवी संगठनों ने जमीनी स्तर पर शिक्षा, भोजन, पर्यावरण, आदि क्षेत्रों में अपना सराहनीय योगदान दिया है. रफ़ीक भाई के रूप में हम आज के एन.जी.ओ. की सोच, सरोकार और कार्य प्रणाली को व्यावसायिकता के सन्दर्भ में भलीभांति समझ सकते हैं. व्यावसायिकता ने जीवन के हरेक हिस्से की मूल्य चेतना का क्षरण किया है. समकालीनता की जटिल और बहुस्तरीय स्थितियों को अनावृत्त करने का लेखकीय उपक्रम यहाँ सफल होता हुआ दिखाई देता है.
उपन्यास गाँव के स्कूल के माध्यम से सरकारी शिक्षा व्यवस्था की गंभीर खामियों को सचेत ढंग से उद्घाटित करता है. शिक्षक का चरित्र, पद की नैतिकता, विद्यार्थी-शिक्षक सम्बन्ध जैसे कई महत्वपूर्ण पहलुओं की नोटिस लेते हुए चिंताजनक स्थितियों की ओर हमारा ध्यान खींचा गया है. स्कूल के दुबे मास्टर का चरित्र किसी शिक्षक के लिए तो शर्मनाक है ही वरन किसी भी नागरिक से भी इस तरह के व्यवहार की अपेक्षा नहीं की जाती. राधली को पीटने और मैदान में धूप में खड़े करने के बाद उसके बेहोश होने की घटना का उदाहरण यहाँ प्रासंगिक है – राधली अपने आंसू पोंछती कहने लगी –
“दुबे सर ज्यादा जोर से कीमची मारते मारते बोले कि स्कूल से नाम काट दूंगा …. राधली ने सुबकते हुए अपनी सलवार ऊपर घुटनों तक खींची. देखने वालों की आँखें फटी की फटी रह गयीं. कलेजा मुंह को आने लगा . कई जोड़ी आँखें चूने लगीं .” फिर तो दुबे की करतूतों का एक-के-बाद एक खुलासा होने लगा – “मेरे छोरे से दुबे मास्टर अपनी गाय का चारा सानी करवाता. रामरति की बगल में बैठी एक औरत ने कहा . मेरे छोरे से खेत पर काम करवाता . एक आदमी ने कहा. दो साल पहले मेरी छोरी के साथ जाने क्या छिनाली हरकत करी, छोरी ने स्कूल जाना ही छोड़ दिया. एक दूसरी औरत बोली .” आज जिस तरह सरकारी स्कूलों से लोगों का विश्वास घटता जा रहा है उसके पीछे दुबे जैसे शिक्षकों का काफी हद तक हाथ है . शिक्षा प्रणाली की इससे दुखद परिणति कौर क्या हो सकती है जहाँ राधली जैसी गरीब लड़कियों को पढ़ाई छोडनी पड़ती हो ! मिड-डे-मील योजना भी यहाँ हाँफती नजर आ रही है –
“जब मिड –डे-मील शुरू हुया था ,तब सभी बच्चे मिड-डे-मील खा लिया करते . लेकिन जब एक बार बेंगन की सब्जी के साथ चूहा भी रंधा गया और माणक पटेल के लड़के की थाली में चूहा परोसा गया. तब गाँव में हल्ला मच गया ….दुबे मास्टर ने सब संभाल लिया . किसी के खिलाफ कुछ नहीं हुआ लेकिन फिर ठाकुर ,पटेल और ब्राह्मण घरों के बच्चों में से मिड-डे-मील कुछ खाते ,कुछ नहीं खाते.” तिवारी मैडम के रूप में नई पीढ़ी के जागरूक,जिम्मेदार और संवेदनशील शिक्षक की छवि देख कर हम इस बात से आश्वस्त तो हो ही सकते हैं कि शिक्षा-व्यवस्था में अगर दुबे जैसे शिक्षक हैं तो उनका प्रतिपक्ष रचने वाली तिवारी मैडम जैसी शिक्षिका भी हैं.
उपन्यासकार ने समाज के गंदले-उजले प्रवाह में तह तक धंस कर उन मूल कारणों को पहचाना है जिनके चलते मानवीय अस्मिता क्षत-विक्षत हुई है. कुरीतियाँ तब पैदा होतीं हैं जब मनुष्यता को अपदस्थ कर दिया जाता है. रामरति के माध्यम से लेखक ने समाज की दुखती नब्ज टटोली है. कितना हैरान करने वाला विधान सदियों से हम मानते आए हैं, कि जो हमारे समाज की गंदगी साफ़ कर हमारे परिवेश को रहने लायक बनाता आया है, उसे हम मानवीय गरिमा के साथ जीने तक नहीं देते- “रोज सुबह टोपला,खपच्ची और झाड़ू उठाती. टपले में नीचे राख डालती. पंद्रह कच्चे टट्टीघरों का मैला सोरकर भरती ….जब शुरू-शुरू में साग रोटी लेती. हाथ आगे बढ़ा देती. आगे बढ़ा हाथ देख कोई पटेलन डांट देती . कोई ठकुराइन झिड़क देती . तब उसे समझ नहीं थी कि हाथ बढ़ाकर हक़ लेते. दया और भीख तो लूगड़ी का खोला फैला कर माँगी जाती ….जग्या व रामरति ने अपने मन में गाँठ बाँध ली . हम आत्मा के माथे पर जो ढो रहे वो हमारी औलाद को न ढोना पड़े .” जग्या और रामरति की संकल्प शक्ति उनके मुक्ति के स्वप्न को संभावनाशील परिणति की ओर ले जाती है.
‘गाँव भीतर गाँव’ में उठाए गए सवाल पाठक के अंतर्मन को झकझोरते ही नहीं हैं वरन उसकी भयावहता से दो-चार कराकर उन स्थितियों और इनके लिए जिम्मेदार लोंगों के खिलाफ खड़े होने की जरूरतों से रू-ब-रू कराते हैं. ग्राम स्वराज की परिकल्पना से उपजी पंचायती राज व्यवस्था की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है. झब्बू और सरपंच संतोष पटेल के वार्तालाप में यह तस्वीर बहुत साफ़ देखी जा सकती है. गाँव के विकास और गरीबों के हित का सवाल जब झब्बू उठाती है तो तिलमिलाते हुए सरपंच के जवाब में पंचायतों में व्याप्त भ्रष्टाचार की परतें खुलने लगती हैं -“मेरी जगह गनपत या और कोई होता, ऐसा ही करता ….मैं हरि नाम की खेती के भरोसे सरपंची नहीं कर सकता ….आज के मंहगाई के जमाने में सरपंच का चुनाव लड़ना कितना खर्चीला हो गया है ! चुनाव में खर्चा किया ,उसे कवर भी करना है कि नहीं ! भाई रुपया लगाओ और अठन्नी कमाओ तो यह घाटे का सौदा हो गया . फिर अगला चुनाव भी तो लड़ना है.”
पूरा तंत्र ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार के दलदल में डूबा है –“तू अगर ये सोच रही ,पट्टे से नदी ,खदान ,टेकड़ी के पत्थर मुरम आदि से होने वाली आय मेरे अकेले के घर में जाती है तो ऐसा नहीं ….भले मैं सरपंच हूँ , नदी की रेत,खदान ,टेकड़ी के पत्थर और मुरम का ठेका तो जाम सिंह व शुक्ला का है ….कुछ कहने जाओ तो लाठी-तमंचे निकाल लेते हैं. प्रदेश में सरकार उनकी पार्टी की , कोई रोके तो कैसे ?” केंद्र-राज्य के सत्ता -शिखरों से जिला,जनपद और ग्राम पंचायतों तक बहता भ्रष्टाचार और उसमें ऊबता-डूबता विकास का गुब्बारा. अंतर्राष्ट्रीय संगठनो ,केन्द्र और राज्य की योजनाओं के धन कलश मानो विकास के गंगा जल में उतरा रहे हैं और सब गोते लगा रहे हैं मुक्ति की कामना लिए -“जो लोग मर गए हैं उनके नाम पर भी वृद्धावस्था या बिधवा पेंशन आ रही है ….अचानक से गाँव में हांथी सूंड खूब नजर आने लगी ….मर चुके लोगों के नाम पर भी मस्टर रोल बन रहा है.”
झब्बू जब गाँव की सरपंच बनती है, गाँव के लिए कुछ न कुछ करती रहती है. किन्तु बहुत कम समय में ही वह अपने लक्ष्य से विचलित हो जाती है उपन्यास झब्बू का पक्ष रखते हुए यहाँ पाठक को कन्विन्स करने की कोशिश करता है कि झब्बू जैसे सीधे सादे और बलहीन लोगों को सत्ता में काबिज धूर्त और ताकतवर लोग किस तरह अपने मकड़जाल में फंसाते हैं. भला कैसे कोई सरपंच समझौता करने से मना कर दे जब पूरी योजना ही गायक मंत्री जैसे लोग तय कर रहे हों – “गायक मंत्री की मौजूदगी में यह तय हुआ कि रेती और गिट्टी की खदानों का ठेका नए सिरे से नीलाम होगा . ठेका संतोष पटेल लेगा. मुनाफे में झब्बू भी पच्चीस प्रतिशत की भागीदार होगी .”
गायक मंत्री ने झब्बू को समझाते हुए कहा – “ अब छोटी-छोटी बातों से ऊपर उठो . गाँव और पंचायत से ऊपर उठो. राजनीति में आई हो तो राजनीति करो. राजनीति में जिस घाट पर सुस्ताना पड़े सुस्ताओ. पानी पीना पड़े पियो. यहाँ कोई घाट अछूत नहीं,कोई स्थाई दुश्मन नहीं ….अगर किसी से दुश्मनी भी है तो उसे बाहर मत दिखाओ. भीतर मन में पालकर रखो. जब मौका मिले शिकार करो. जड़ से ख़त्म करो. सबूत मत छोड़ो . प्रदर्शन मत करो. सार्वजनिक रूप से दुःख जाहिर करो और आगे बढ़ो.”
मंत्री ने अपने जीवन में अर्जित जिस ज्ञान और अनुभव से झब्बू का पथ प्रदर्शित किया, लोकतंत्र के लिए इससे भयावह ज्ञान और क्या होगा ! गायक मंत्री ने अपनी लम्बी राजनीतिक साधना से प्राप्त ‘ज्ञान चक्षुओं’ से संभाव्य स्थितियाँ थाह ली थीं . अपनी रणनीति के मुताबिक उसने भविष्य में घट सकने वाली समस्या का खात्मा अपने पुराने अंदाज में किया – एक और हत्या. झब्बू को हमेशा के लिए शांत करा दिया गया. इस प्रसंग का अंत जिस तरह से होता है वह विषयवस्तु का सही ट्रीटमेंट नहीं है. लेखक यहाँ ‘ठस यथार्थ’ का अतिक्रमण नहीं कर पाता जिससे आगे होने या हो सकने वाले सम्भवनशील यथार्थ का संकेत यहाँ मिल पाता. झब्बू की मृत्यु से उपन्यास क्या सन्देश देना चाहता है ? बात केवल झब्बू की मृत्यु की ही नहीं है वरन सरपंच बनने के बाद उसके अन्दर गाँव के लिए बहुत कुछ करने की जो लालसा थी, जो स्वप्न थे उनका विस्तार किया जा सकता था बजाए जाम सिंह और माखन शुक्ला की लम्बी चर्चाओं के. जग्या द्वारा अर्जुन सिंह की हत्या के साथ जिस तरह उपन्यास अपनी इति ग्रहण करता है वह प्रतिरोध का संकेत अवश्य है पर हत्या किसी सकारात्मक और अग्रगामी विजन का विकल्प कभी नहीं बन सकती.
यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि इक्कीसवीं सदी के इन डेढ़ दशको में नई पीढ़ी के युवा कथाकारों के जो उपन्यास आए हैं उनमें इतनी परिपक्व और संश्लिष्ट राजनीतिक चेतना बहुत कम दिखाई देती है. उपन्यास के शिल्प पर बहुत विस्तार से चर्चा की गुंजाइश है क्योंकि कथा का टटकापन उसकी वस्तु से ज्यादा उसके शिल्प में अन्तर्निहित होता है. ‘गाँव भीतर गाँव’ साझीदार जीवन–संस्कृति के महीन धागों के छिन्न-भिन्न होने के परिणामस्वरूप गाँव के भीतर जन्म ले चुके गाँवों के बनने-विकसित होने के कारणों की पहचान गहरे कंसर्न के साथ करने वाली जरूरी रचना है जिससे गुजरते हुए हमारे अनुभव में बहुत कुछ जुड़ता चला जाता है.
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शशिभूषण मिश्र
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,बाँदा,उ.प्र.
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