आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनका अभिनंदनमैनेजर पाण्डेय |
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी आधुनिक हिंदी भाषा और साहित्य के युगद्रष्टा और युगस्रष्टा लेखक थे. ज्ञान और सृजन के क्षेत्रों में युगद्रष्टा वह व्यक्ति होता है जो अपने कर्मक्षेत्र के वर्तमान की वास्तविक स्थिति को देखता है और उसके भविष्य की संभावनाओं को पहचानता है. यह गंभीर दायित्व वही व्यक्ति पूरा कर सकता है जिसकी समझ और सोच का दायरा व्यापक हो और समग्रतापरक भी. युगस्रष्टा वह व्यक्ति होता है जो ज्ञान या सृजन के क्षेत्र में नई दृष्टियों और प्रवृतियों का निर्माता, प्रेरक और मार्गदर्शक हो. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अपने समय के हिंदी समाज, हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य की वर्तमान स्थितियों को देख रहे थे और उसकी समस्याओं और संभावनाओं को पहचान भी रहे थे, इसीलिए वे उसकी प्रगति के प्रेरक और मार्गदर्शक बन सके.
वे युगस्रष्टा भी थे क्योंकि उन्होंने एक ओर खड़ीबोली हिंदी का नया सुव्यवस्थित स्वरूप निर्मित किया, खड़ीबोली को गद्य और काव्य की भाषा बनाने का अथक प्रयत्न किया, हिंदी कविता को नई दिशा और नई राह दिखाने का मार्गदर्शन किया और हिंदी साहित्य के पाठकों को साहित्य की सीमित दुनिया से निकालकर व्यापक हिंदी समाज में दिलचस्पी लेने, उसके बारे में सोचने, उसकी दशा पर विचार करने के लिए समाज-विज्ञानों के ज्ञान से जुड़ने के लिए प्रेरित तथा प्रोत्साहित किया.
इस प्रक्रिया को मूर्तरूप देने के लिए उन्होंने स्वयं समाज-विज्ञान के विभिन्न विषयों पर निबंध और पुस्तकें लिखने के साथ ही अनेक मानक ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद भी किया. द्विवेदी जी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका सरस्वतीमें प्रकाशित प्रत्येक निबंध और कविता की भाषा को सुधारने और परिष्कृत करने का कठिन काम उन्होंने पूरे मनोयोग और परिश्रम से किया. ऐसे युगद्रष्टा और युगस्रष्टा के नाम से उनका युग जाना जाता है, इसीलिए द्विवेदी-अभिनंदन ग्रंथ की प्रस्तावना में नन्ददुलारे वाजपेयीने द्विवेदी जी के समय के हिंदी साहित्य को द्विवेदी युग का साहित्य कहा है.
द्विवेदी जी की साहित्य की धारणा अत्यंत व्यापक थी. वे केवल कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक और आलोचना को ही साहित्य नहीं मानते थे. उनके अनुसार किसी भाषा में मौजूद संपूर्ण ज्ञानराशि साहित्य है. साहित्य का यही अर्थ वांगमय शब्द से व्यक्त होता है. अपनी इसी धारणा को ध्यान में रखकर उन्होंने कविता, कहानी और आलोचना के साथ अर्थशास्त्र, भाषाशास्त्र, इतिहास, पुरातत्व, जीवनी, दर्शन, समाजशास्त्र, विज्ञान आदि के ग्रन्थों और निबंधों का लेखन किया. उनके साहित्य निर्माण की प्रक्रिया जितनी व्यापक है उतनी ही विविधतामयी भी. साहित्य के लेखन की ऐसी व्यापक प्रक्रिया वाले लेखक हिंदी में बहुत कम हैं.
डॉ. रामविलास शर्मा ने महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण नामक अपनी पुस्तक में ठीक ही लिखा है कि
‘‘द्विवेदी जी का गद्य-साहित्य आधुनिक हिंदी साहित्य का ज्ञान-कांड है. जो साहित्यकार स्वतः स्फूर्त भावोद्गारों से संतुष्ट नहीं हो जाते, उनके लिए यह ज्ञान-कांड सदा महत्वपूर्ण रहेगा. द्विवेदी जी सबसे पहले राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री हैं. इसका प्रमाण यह हे कि उनकी जो एक मात्र बड़ी पुस्तक है, वह राजनीति और अर्थशास्त्र की पुस्तक ‘सम्पतिशास्त्र’ है. भारत के संदर्भ में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की वैसी आलोचना उस समय तक अंग्रेजी में भी प्रकाशित नहीं हुई थी. हिंदी में अब भी उसके टक्कर की दूसरी पुस्तक नहीं है.’’ (पृ.सं. 381)
रामविलास शर्मा ने द्विवेदी जी के ज्ञान संबंधी लेखन का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है,
‘‘द्विवेदी जी ने समाजशास्त्र और इतिहास के बारे में जो कुछ लिखा है, उससे समाज विज्ञान और इतिहास लेखन के विज्ञान की नवीन रूप रेखाएँ निश्चित होती हैं. इसी दृष्टिकोण से उन्होंने भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का नवीन मूल्यांकन किया. एक ओर उन्होंने इस देश के प्राचीन दर्शन, विज्ञान, साहितय तथा संस्कृति के अन्य अंगों पर हमें गर्व करना सिखाया, एशिया के सांस्कृतिक मानचित्र में भारत के गौरवपूर्ण स्थान पर ध्यान केन्द्रित किया, दूसरी ओर उन्होंने सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक रूढि़यों का तीव्र खंडन किया, और उस विवेक-परंपरा का उल्लेख सहानुभूतिपूर्वक किया जिसका संबंध चार्वाक और वृहस्पति से जोड़ा जाता है. आध्यात्मवादी मान्यताओं, धर्मशास्त्रों की स्थापनाओं को उन्होंने नई विवेक दृष्टि से परखना सिखाया.’’ (वही, पृ.सं. 381-382)
द्विवेदी जी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका सरस्वतीज्ञान की पत्रिका थी. डॉ. रामविलास शर्मा ने सरस्वती के बारे में स्वामी सत्यदेव परिव्राजक की यह राय उद्धृत की है,
‘‘जनता को आवश्यकता थी नवीन ज्ञान की, स्वाधीनता की पहचान की और आधुनिक ज्ञान-स्नान की. सरस्वती द्वारा वे उस पुनीत कार्य को भले प्रकार कर सकते थे. वे थे कुशल संपादक और कर्तव्य-परायण. उन्हें पता था कि मासिक पत्रिका ज्ञान-प्रचार के लिए अत्यंत उपयोगी अध्यापिका बन सकती है और वे उसके द्वारा दूर ग्रामों में बैठे हुए देहातियों तक ज्ञान का दीपक जला सकते हैं. उन्होंने सरस्वती को ऊँचे दर्ज की ज्ञान-पत्रिका बनाने का दृढ़ संकल्प किया और वे थे धुन के पूरे.’’ (वही, पृ.सं. 373)
इसी संकल्प और साधना के माध्यम से द्विवेदी जी ने सरस्वती को हिंदी नवजागरण की प्रतिनिधि पत्रिक बनाया. उन्होंने हिंदी समाज और संपूर्ण भारत के अतीत, वर्तमान और भविष्य की समस्याओं और संभावनाओं के बारे में सोचने और लिखने के लिए लेखकों को प्रेरित और प्रोत्साहित किया.
द्विवेदी जी ने सरस्वती को नए ज्ञान के साथ-साथ नए सृजन की पत्रिका के रूप में भी विकसित किया. द्विवेदी युग का शायद ही कोई कवि या कहानीकार हो जिसकी रचनाएँ सरस्वती में न छपी हों. इस तथ्य के बारे में डॉ. शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि
‘‘उस समय का कोई ऐसा लेखक नहीं जो बाद में प्रसिद्ध हुआ हो और पहले उसकी रचनाएँ सरस्वती में न छपी हों. प्रसिद्ध हो, चाहे अज्ञात नाम, द्विवेदी जी अपना ध्यान इस बात पर केंद्रित करते थे कि वह लिखता क्या है. इसलिए सरस्वती में रचना छपने का मतजब यह था कि वह एक निश्चित स्तर की है. बहुत से लोग अपने या दूसरों के बारे में प्रशंसात्मक लेख आदि छपवाना चाहते थे, उनका विरोध करने में द्विवेदी जी ने दृढ़ता का परिचय दिया. साथ ही सरस्वती का उपयोग उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत ख्याति के लिए नहीं किया.’’ (वही, पृ.सं. 365)
हिंदी कविता के क्षेत्र में मैथिलीशरण गुप्त, द्विवेदी जी की प्रेरणा, प्रभाव और मार्गदर्शन की उपलब्धि हैं. रामविलास शर्मा ने यह भी लिखा है कि
‘‘द्विवेदी जी ने अतुकांत छंद रचना के लिए जो आंदोलन चलाया, उसकी पूर्ण सिद्धि निराला का मुक्त छंद है.’’ (वही, पृ.सं. 386)
हिंदी नवजागरण को जैसे भारतेंदु हरिश्चंद्र ने बंगाल नवजागरण से जोड़ा था, वैसे ही महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी नवजागरण को महाराष्ट्र के नवजागरण से जोड़ा.द्विवेदी जी ने सरस्वती में मराठी के प्रसिद्ध लेखक विष्णु शास्त्री चिपलूनकर, संस्कृतज्ञ वामन शिवराम आपटे, प्रसिद्ध मूर्तिकार म्हातरे, गायनाचार्य विष्णु दिगम्बर, रायबहादुर रंगनाथ नृसिंह मुधोलकर, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक और इतिहासवेत्ता विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े आदि के साथ ताराबाई, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, कुमारी गोदावरी बाई, सौभाग्यवती रखमाबाई जैसी स्त्रियों पर लेख लिखकर उनके विचार, व्यवहार, कला-साधना और संघर्ष से हिंदी पाठकों को परिचित कराया. इन प्रक्रिया में उन्होंने हिंदी नवजागरण को अधिक व्यापक और समावेशी बनाया.
पिछले कुछ दशकों से हिंदी में स्त्री-विमर्श का विकास हो रहा है. स्त्री-विमर्श पर विचार के प्रसंग में हिंदी के पुराने लेखकों-आलोचकों के स्त्री संबंधी दृष्टिकोणों की भी छानबीन हो रही है लेकिन आज तक किसी ने स्त्री-विमर्श में महावीर प्रसाद द्विवेदी के स्त्री संबंधी लेखक और दृष्टिकोण की चर्चा नहीं की है. महावीर प्रसाद द्विवेदी के सामाजिक चिंतन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है उनकी स्त्री संबंधी दृष्टि. आचार्य द्विवेदी स्त्री-पुरुष समानता के प्रबल समर्थक थे. वे समाज और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्त्रियों की उपस्थिति और सक्रियता के हिमायती थे. उन्होंने मराठी नवजागरण के निर्माताओं पर लिखते हुए उस नवजागरण के प्रमाण के रूप में अनेक प्रबुद्ध मराठी स्त्रियो पर भी लेख लिखे हैं. द्विवेदी जी ने ताराबाई, रखमाबाई, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और पंडिता गोदावरी बाई की साधना और संघर्षों का विवेचन किया है.
महावीरप्रसाद द्विवेदी भारतीय स्त्रियों की शिक्षा के पक्षधर थे. सन् 1914 ईस्वी में स्त्री शिक्षा के समर्थन में उनका एक लेख छपा था, जिसका शीर्षक था ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन’. यह लेख उस समय की पत्रिकाओं में प्रकाशित स्त्री-शिक्षा विरोधी लेखकों का जवाब था. इस लेख का आरंभ इस तरह होता है,
‘‘बड़े शोक की बात है, आजकल भी ऐसे लोग विद्यमान हैं जो स्त्रियों को पढ़ाना उनके और गृह-सुख के नाश का कारण समझते हैं. और, लोग भी ऐसे वैसे नहीं, सुशिक्षित लोग – ऐसे लोग जिन्होंने बड़े-बडे स्कूलों और शायद कालेजों में भी शिक्षा पाई है, जो धम्र्मशास्त्र और संस्कृत के ग्रंथ साहित्य से परिचय रखते हैं, और जिनका पेशा कुशिक्षितों को शिक्षित करना, कुमार्गगामियों को सुमार्गगामी बनाना और अधाम्र्मिकों को धम्र्मतत्व समझाना है.’’ (महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली-7, पृ.सं. 153)
इसी लेख में द्विवेदी जी पुरातन-पंथियों को ललकारते हुए कहते हैं,
‘‘मान लीजिए कि पुराने ज़माने में भारत की एक भी स्त्री पढ़ी लिखी न थी. न सही. उस समय स्त्रियों को पढ़ाने की ज़रूरत न समझी गई होगी. पर अब तो है. अतएव पढ़ाना चाहिए. हमनें सैंकड़ों पुराने नियमों, आदेशों और प्रणालियों को तोड़ दिया है या नहीं ? तो, चलिए, स्त्रियों को अपढ़ रखने की इस पुरानी चाल को भी तोड़ दें. हमारी प्रार्थना तो यह है कि स्त्री-शिक्षा के विपक्षियों को क्षण भर के लिए भी इस कल्पना को अपने मन में स्थान न देना चाहिए कि पुराने ज़माने में यहाँ की सारी स्त्रियाँ अपढ़ थीं अथवा उन्हें पढ़ने की आज्ञा न थी. जो लोग पुराणों में पढ़ी-लिखी स्त्रियों के हवाले माँगते हैं उन्हें श्रीमद्भागवत, दशम स्कंध, के उत्तरार्ध का त्रेपनवाँ अध्याय पढ़ना चाहिए. उसमें रुक्मिणी-हरण की कथा है. रुक्मिणी ने जो एक लंबा-चैड़ा प्रेम-पत्र एकांत में लिखकर, एक ब्राह्मण के हाथ, श्रीकृष्ण को भेजा था वह तो प्राकृत में न था.’’ (वही, पृ.सं. 155)
पुरातन-पंथी कह रहे थे कि स्त्रियाँ पढ़कर अनर्थ करती हैं. द्विवेदी जी उनसे कहते हैं,
‘‘स्त्रियों का किया हुआ अनर्थ यदि पढ़ाने ही का परिणाम है तो पुरुषों का किया हुआ अनर्थ भी उनकी विद्या और शिक्षा ही का परिणाम समझना चाहिए. बम के गोले फेंकना, नरहत्या करना, डाके डालना, चोरियाँ करना, घूस लेना, व्यभिचार करना – यह सब पढ़ने-लिखने ही का परिणाम हो तो ये सारे कालेज, स्कूल और पाठशालायें बंद हो जानी चाहिए.’’ (वही, पृ.सं. 155)
द्विवेदी जी की स्पष्ट राय है कि
‘‘पढने-लिखने में स्वयं कोई बात ऐसी नहीं जिससे अनर्थ हो सके. अनर्थ का बीज उसमें हरगिज़ नहीं. अनर्थ पुरुषों से भी होते हैं. – अपढों और पढ़े-लिखों, दोनों से. अनर्थ, दुराचार और पापाचार के कारण और ही होते हैं और वे व्यक्ति-विशेष का चाल चलन देखकर जाने भी जा सकते हैं. अतएव स्त्रियों को अवश्य पढ़ाना चाहएि. जो लोग यह कहते हैं कि पुराने जमाने में यहाँ स्त्रियाँ न पढ़ती थीं अथवा उन्हें पढ़ने की मुमानियत थी वे या तो इतिहास से अभिज्ञता नहीं रखते या जान बूझ कर लोगों को धोखा देते हैं. समाज की दृष्टि में ऐसे लोग दंडनीय हैं. क्योंकि स्त्रियों को निरक्षर रखने का उपदेश देना समाज का अपकार और अपराध करना है – समाज की उन्नति में बाधा डालना है.’’ (वही, पृ.सं. 156)
द्विवेदी जी का 1903 ईस्वी का एक लेख है ‘गुजरातियों में स्त्री-शिक्षा’. इस लेख में द्विवेदी जी ने गुजरात में स्त्री-शिक्षा के प्रचार का ब्यौरा देते हुए अंत में लिखा है कि ‘‘पुरुषों के समान इस देश की स्त्रियाँ भी सब प्रकार की शिक्षा ग्रहण करने के योग्य हैं. उनके लिए केवल अवकाश, अवसर और सुभीते की आवश्यकता है.’’ (वही, पृ.सं. 161)
द्विवेदी जी का 1905 ईस्वी का एक लेख है ‘जापान की स्त्रियाँ’. इस लेख में उन्होंने लिखा है,
‘‘जापानी लोग स्त्रियों को उच्च शिक्षा देने के बड़े पक्षपाती हैं. स्त्री-शिक्षा का वहाँ बहुत प्रचार है. इस देश में यदि 100 में 1 लड़की मदरसे पढ़ने जाती है तो जापान में 100 में 20 लड़कियाँ मदरसे जाती हैं. स्त्रियों में वहाँ अनेक कवि, चित्रकार, अध्यापिकायें और संपादक हैं. हज़ारों पुस्तकें स्त्रियों ने बनाई हैं. जापान में पुरुष जैसे समाज का सुधार करने में संकोच नहीं करते वैसे स्त्रियाँ भी संकोच नहीं करती. जो पुरानी रीतियाँ हानिकारिणी अथवा निरर्थक हैं उनको वे छोड़ देती हैं और नई नई अनुकूल रीतियों को स्वीकार कर लेती हैं. जापान के बड़े बड़े प्रतिष्ठित पुरुष और अधिकारी अपनी अपनी स्त्रियों के साथ बाहर निकलते हैं, सभाओं में जाते हैं, और योरप तथा अमेरिका वालों से भी सस्त्रीक मिलते हैं.’’ (वही, पृ.सं. 162-163)
द्विवेदी जी जहाँ कहीं स्त्री की पराधीनता देखते थे, तो वे उसकी कड़ी आलोचना करते थे. ‘जापान की स्त्रियाँ’ लेख में उन्होंने लिखा है,
‘‘जापान यद्यपि योरप वालों की सभ्यता की नक़ल प्रतिदिन करता जाता है तथापि वहाँ की स्त्रियाँ स्वतंत्र नहीं है. वे अपने पति के कुटुम्बियों का बड़ा आदर करती हैं. पति को तो वे स्वामी क्या देवता समझती हैं. हमारे देश के समान जापान में भी स्त्रियों को हर अवस्था में दूसरों के प्रति अधीन रहने की शास्त्राज्ञा है. लड़कपन में वे अपने माता-पिता की आज्ञा में रहती हैं. विवाह हो जाने पर वे पति की आज्ञा में रहती हैं. और विधवा जो जाने पर वे पुत्र की आज्ञा में रहती हैं. वे अपनी पति की हृदय से सेवा करती हैं. पति जब घर से कहीं बाहर जाता है, तब मस्तक झुकाकर उसको वे प्रणाम करती हैं और भोजन के समय सदा उसके पास वे उपस्थित रहती हैं.’’ (वही, पृ.सं. 163)
द्विवेदी जी का एक और लेख है, ‘जापान में स्त्री-शिक्षा’. इस लेख में उन्होंने लिखा है कि
‘‘आजकल तो जापन में स्त्री-शिक्षा ने बहुत ही ज़ोर पकड़ा है. बौद्ध धम्र्म के प्रचार के पहले स्त्रियों की जो स्थिति वहाँ थी उससे भी उनकी आजकल की स्थिति ऊँची हो गई है. जापानियों का अब यह ख़्याल है कि जिसकी स्त्री शिक्षित नहीं उसे पूरा पूरा सुख कदापि नहीं मिल सकता; उसका जीवन आनंद से नहीं व्यतीत हो सकता; उसे गृहस्थाश्रम का मज़ा हरगिज़ नहीं प्राप्त हो सकता. वहाँ के राजा ने क़ानून जारी कर दिया है कि सात वर्ष की उम्र होने पर लड़कियों को मदरसे भेजना ही चाहिए. न भेजने से माँ-बाप को दण्ड दिया जाता है.’’ (वही, पृ.सं. 165)
द्विवेदी जी कला के क्षेत्र में, विशेष रूप से संगीत में भारतीय स्त्रियों की प्रगति के पोषक थे. उनका 1903 ईस्वी का एक लेख है, ‘स्त्रियाँ और संगीत’. उस लेख में द्विवेदी जी ने दुख व्यक्त किया है कि आजकल संगीत के क्षेत्र में स्त्रियों की प्रवीणता और भागीदारी पर आपत्ति की जाती है. उन्होंने लिखा है
‘‘इस समय इस देश में गाने-बजाने की कला स्त्रियों के लिए प्रायः अनुचित समझी जाती है और नाचने की तो महा ही निन्द्य मानी जाती है. इन कलाओं को लोग वार-वनिताओं का व्यवसाय समझते हैं और यदि किसी कुलीन कामिनी के बिना ताल स्वर के ढोलक पीटने के सिवा गायन और वादन में कुछ भी अधिक उत्साह दिखाया, तो लोग उसके और उसके आत्मीयों की ओर बुरी दृष्टि से देखने लगते हैं.’’ (वही, पृ.सं. 158)
स्त्री-पुरुष समानता के बारे में द्विवेदी जी का द्वंद्वरहित दृष्टिकोण उनके एक लेख ‘स्त्रियों का सामाजिक जीवन’ (1913 ईस्वी) में इस रूप में व्यक्त हुआ है, ‘
‘कितने ही सभ्य और शिक्षित देशों में स्त्रियाँ ऐसे सैकड़ों काम करने लगी हैं जिन्हें पुरुष अब तक अपनी ही मिलकियत समझते थे. कचहरियों में, कारख़ानों में, दुकानों में लाखों स्त्रियाँ तरह-तरह के पेशे करती हैं. कितनी ही स्त्रियाँ तो अपने काम से पुरुषों के भी कान काटती हैं. विद्या, विज्ञान, आविष्कार और पुस्तक-रचना में भी स्त्रियों ने नामवरी पाई है.’’
(वही, पृ.सं. 150-151)
द्विवेदी जी के समाज संबंधी चिंतन के प्रत्येक पक्ष का एक अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ होता था. उनके स्त्री संबंधी चिंतन और लेखन में भी यह संदर्भ मौजूद है. जापान की स्त्रियों के बारे में उनके दृष्टिकोण का उल्लेख हो चुका है. उसके साथ ही उन्होंने स्त्री जीवन के कुछ और अंतराष्ट्रीय संदर्भों पर लिखा है. उनका 1907 का एक लेख है, ‘एक तरुणी का नीलाम’. इस लेख में द्विवेदी जी ने अमेरिका की एक युवती की नीलामी का ब्यौरा दिया. जुलाई 1903 ईस्वी का द्विवेदी जी का एक लेख ‘कुमारी एफ. पी. काव’ के बारे में है, जो आयरलैण्ड की थी. द्विवेदी जी ने उनके संघर्षशील जीवन के बारे में लिखा है. उन्होंने लंबे समय तक स्त्रियों के मताधिकार के लिए राजनीतिक संघर्ष किया था. द्विवेदी जी ने कुमारी काव के एक और स्त्री संघर्ष के बारे में यह लिखा है,
‘‘विलायत में जो लोग अपनी स्त्रियों को निर्दयता से मारते-पीटते थे और उन्हें नाना प्रकार के दुःख देते थे उनसे विवाह-संबंध तोड़ने का अधिकार स्त्रियों को पहले न था. इससे उन स्त्रियों की बड़ी दुर्दशा होती थी. परंतु कुमार काव के उद्योग से पारलियामेंट ने अब यह नियम कर दिया है कि ऐसी स्त्रियाँ अपने पतियों से अलग हो सकती हैं. अतएव हर साल सैकड़ों सुशील स्त्रियाँ अपने मद्यप, दुव्र्यसनी और दुट पतियों के हाथ से छूट कर नीति-मार्ग का अवलम्बन करते हुए समय बिताती हैं.’’ (महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली-4, पृ.सं. 203)
आचार्य द्विवेदी ने 1904 ईस्वी के एक लेख में लेडी जेन ग्रे के दुखद अंत की करुण-कहानी लिखी है, जिससे आचार्य की सहृदयता का पता लगता है.
(दो)
सन् 1933 ईस्वी में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को काशी नागरी प्रचारणी सभा की ओर से यह अभिनंदन ग्रंथ भेंट किया गया था. यह एक विशाल ग्रन्थ है. इस ग्रंथ के बारे में कुछ भी कहने से पहले इससे जुड़ी दो विडंबनाओं की बात करना जरूरी है. पहली विडंबना यह है कि अभिनंदन ग्रंथ में जो प्रस्तावना प्रकाशित है, उसके अंत में श्याम सुन्दर दास और कृष्ण दास के नाम हैं, जिससे लगता है कि प्रस्तावना इन्हीं दोनों व्यक्तियों की लिखी हुई है. लेकिन सच्चाई यह नहीं है. इस प्रस्तावना के लेखक श्याम सुन्दर दास और कृष्ण दास नहीं हैं. इसके वास्तविक लेखक नन्ददुलारे वाजपेयी हैं. नंददुलारे वाजपेयी की पुस्तक हिन्दी साहित्य: बीसवीं शताब्दी में यह प्रस्तावना श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी शीर्षक से शामिल है. अपनी पुस्तक में वाजपेयी जी ने निबंध के आरंभ में यह टिप्पणी दी है,
‘‘लेखक का यह निबंध सन् 33 के आरंभ में लिखा गया था, जब द्विवेदी जी जीवित थे. यह लेख सर्वप्रथम ‘द्विवेदी-अभिनंदन ग्रन्थ’ की प्रस्तावना के रूप में प्रकाशित हुआ था, किंतु कारणवश वहाँ लेखक का नाम न दिया जाकर उसके स्थान पर ग्रंथ के संपादकों का नाम दे दिया गया था. यहाँ यह पहली बार लेखक के नाम से प्रकाशित किया जा रहा है.’’ (पृ.सं. 37)
अभिनंदन ग्रंथ में शामिल प्रस्तावना और वाजपेयी जी के निबंध में अंतर केवल इतना है कि प्रस्तावना के अंत में चार-पाँच वाक्य ऐसे जोड़े गए हैं जो मूल लेख में नहीं हैं.
दूसरी विडंबना का संबंध प्रस्तावना के इस कथन से है,
‘‘साहित्य और कला की स्थायी प्रदर्शनी में उनकी कौन-सी कृतियाँ रखी जायँगी ? क्या उनके अनुवाद ? ‘कुमारसंभव-सार’, ‘रघुवंश’, ‘हिंदी-महाभारत’; अथवा ‘बेकन-विचार-रत्नावली’, ‘स्पेंसर की ज्ञेय और अज्ञेय मीमांसाएँ’, ‘स्वाधीनता’ और ‘संपत्तिशास्त्र ? किंतु ये सब तो अनुवाद ही हैं, इनमें द्विवेदी जी की भाषा-शैली स्वयं ही परिष्कृत हो रही थी – क्रमशः विकसित हो रही थी – और आज-कल की दृष्टि से उसमें और भी परिवर्तन किए जा सकते हैं. इन सबमें भाषा-संस्कार के इतिहास की प्रचुर सामग्री मिलेगी; किंतु इनमें द्विवेदी जी का वह व्यक्तित्व बहुत कुछ ढूँढ़ने पर ही मिलेगा जो इस समय हम लोगों के सामने विशद रूप में आया है.’’ (पृ.सं. 1)
आश्चर्य की बात यह है कि द्विवेदी जी के विख्यात अनुवादों के साथ उनकी मौलिक पुस्तक संपत्तिशास्त्र को भी रखा गया है और उसको भी अनुवाद ही कहा गया है. अगर वह अनुवाद है तो किस भाषा की किस पुस्तक का ? द्विवेदी जी ने अपनी पुस्तक की भूमिका में संपत्तिशास्त्र शास्त्र के लेखन की जरूरत, तैयारी और प्रक्रिया के बारे में विस्तार से लिखा है. फिर भी प्रस्तावना लेखक उसे अनुवाद कह रहे थे. इससे यह साबित होता है कि प्रस्तावना लेखक ने न संपत्तिशास्त्र शास्त्र की भूमिका पढ़ी है न मूल पुस्तक. इसी बात को ध्यान में रखकर डॉ. रामविलास शर्मा ने महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण में व्यंग्य और आक्रोश के साथ लिखा है,
‘‘ इसे (संपत्तिशास्त्र को) लिखने में द्विवेदी जी ने घोर परिश्रम किया था. उनकी सबसे मौलिक और महत्वपूर्ण कृति यही है. इसके बारे में उन्होंने आत्मकथा वाले निबंध में लिखा था. ‘‘समय की कमी के कारण मैं विशेष अध्ययन न कर सका. इसी से संपत्ति शास्त्र नामक पुसतक को छोड़कर और किसी अच्छे विषय पर मैं कोई नई पुस्तक न लिख सका.’’ इस संपत्ति शास्त्र को अपने अभिनंदन वाले ग्रन्थ में अनुवाद बताया देखकर द्विवेदी जी के मन की क्या दशा हुई होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है.’’ (पृ.सं. 378)
प्रस्तावना के आरंभ में यद्यपि द्विवेदी जी के स्थाई साहित्य या उनके साहित्य के स्थायित्व के बारे में असमंजस ही अधिक हे, फिर सरस्वती के माध्यम से उनके युगद्रष्टा और युगस्रष्टा रूपों और कार्यों का महत्वपूर्ण मूल्यांकन है. प्रस्तावना में लिखा गया है कि
‘‘वे ऐसे-वैसे संपादक नहीं थे, सिद्धांतवादी और सिद्धांतपालक संपादक थे. जान पड़ता हे कि वे निश्चित नियम बना कर उनके अनुसार अपनी रुचि के लेख मँगाते और वही छापते थे. संस्कृत-साहित्य का पुनरुत्थान; खड़ी बोल कविता का उन्नयन, नवीन पश्चिमीय शैली की सहायता से भावाभिव्यंजन; संसार की वर्तमान प्रगति का परिचय; साथ ही प्राचीन भारत के गौरव की रक्षा – जो कुछ उनके लक्ष्य थे, उनकी प्राप्ति अपनी निश्चित धारणा के अनुसार ‘सरस्वती’ के द्वारा करना उनका सिद्धांत था; अतः ‘द्विवेदी-काल की ‘सरस्वती’ में केवल द्विवेदी जी की भाषा की प्रतिमा ही गठित नहीं है, उनके विचारों का भी उसमें प्रतिबिंब पड़ा है. उन्होंने किसी संस्था की स्थापना नहीं की, परंतु सरस्वती की सहायता से उन्होंने भाषा के शिल्पी, विचारों के प्रचारक और साहित्य के शिक्षक – तीन तीन संस्थाओं के संचालक – का काम उठाया और पूरी सफलता के साथ उसका निर्वाह किया.’’ (पृ.सं. 2)
प्रस्तावना में यह भी कहा गया है कि द्विवेदी जी ने खड़ीबोली के गद्य और पद्य में जो लेखनी चलाई वह इतिहास में ‘द्विवेदी-कलम’ के नाम से प्रचलित होगी. प्रस्तावना की निम्नलिखित मान्यताएँ मननीय हैं और माननीय भी:
(क) गद्य और पद्य की भाषा एक करके जनता तक नवीन युग का संदेश पहुँचना उनका उद्देश्य था.
(ख) उन्होंने उदात और लोक-हितैषी विचारों के पक्ष में शक्तिशाली प्रेरणा उत्पन्न की थी.
(ग) स्वभाव भी रुखाई, कपास की भांति निरस होती हुई भी गुणमय फल देती है. द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य के क्षेत्र में कपास की खेती की – निरस विशद गुणमय फल जासू.
(घ) द्विवेदी जी अपने युग के उस साहित्यिक आदर्शवाद के जनक हैं जो समय पाकर प्रेमचंद जी आदि के उपन्यास-साहित्य में फूला-फला.
(ङ) द्विवेदी युग को साहित्य के कर्म-योग का युग कहना चाहिए.
(च) द्विवेदी जी की साहित्य-शैली का भविष्य अब तक यथोचित प्रकाश में नहीं आया है. हिंदी प्रदेश की जनता ने उसे अपने समाचारपत्रों की भाषा में अच्छी मात्रा में अपना लिया है और हिंदी के प्लेटफार्म पर भी उसकी तूती बोलने लगी है.
(छ) व्यावहारिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक विवेचन और देशव्यापी विचार-विनिमय जब खड़ी बोली का आधार लेकर चलने लगेंगे, तब द्विवेदी जी की भाषा को भली भाँति फूलने-फलने का मौका मिलेगा.
इस अभिनंदन ग्रन्थ में भूमिका और प्रस्तावना के बाद मुख्य भाग में निबंध, कविताएँ, श्रद्धांजलियाँ, विदेशी विद्वानों और लेखकों के संदेश के साथ एक चित्रावली भी है. निबंधों के विषयों और श्रद्धांजलियों की विविधता चकित करने वाली है. इसमें अंग्रेजी में रेव. एडविन ग्रीब्स, पी. शेषाद्रि, प्रो. ए. बेरिन्निकोव और संत निहाल सिंह के लेख हैं. श्रद्धांजलि के अंतर्गत एक ओर महात्मा गाँधी के साथ भाई परमानन्द हैं तो दूसरी ओर अनेक विदेशी विद्वानों और लेखकों के संदेश हैं. उस युग के अधिकांश कवियों की कविताएँ इस अभिनंदन ग्रंथ में हैं.
इस ग्रंथ में जो चित्रावली है उसका एक विशेष महत्व यह है कि अभिनंदन ग्रंथ के आज के पाठक आधुनिक हिंदी साहित्य के ऐसे लेखकों-कवियों का रूप-दर्शन कर सकेंगे, जिनका वे केवल नाम जानते हैं.
विभिन्न भाषाओं, समाजों, साहित्यों और परंपराओं के बारे में महावीर प्रसाद द्विवेदी के दृष्टिकोण में जैसी व्यापकता और उदारता थी, वैसी ही व्यापकता और उदारता इस ग्रंथ के निबंधों में है. इसके निबंध-लेखक उत्तर भारत के लगभग सभी क्षेत्रों के हैं और कुछ यूरोप के प्रसिद्ध विद्वान भी हैं. इन निबंधों में संस्कृत, हिंदी, गुजराती और अंग्रेजी भाषा तथा साहित्य का प्रतिनिधित्व है. इसके निबंध-लेखक दार्शनिक, संस्कृतज्ञ, इतिहासकार, हिंदी के आलोचक, पुरातत्ववेत्ता, पत्रकार, भाषा-वैज्ञानिक, काव्यशास्त्री, चित्रकला के पारखी, वास्तुकलाविद्, समाज-वैज्ञानिक, वैज्ञानिक और अरबी-फारसी-उर्दू के विद्वान हैं.
इस ग्रंथ के कुछ निबंध आज भी पठनीय हैं और वे अन्यत्र शायद ही मिले. ऐसे दो निबंध विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. उनमें एक निबंध मुंशी महेश प्रसाद मौलवी-आलिम-फाजिल का है. निबंध का शीर्षक है ‘प्राचीन अरबी कविता’. इस निबंध में जिस अरबी कविता का विवेचन है वह अरब में इस्लाम के पैदा होने के पहले की कविता है. इस निबंध से यह भी जाहिर होता है कि प्राचीन अरबी में पुरुषों के समानांतर स्त्रियाँ भी कविता करती थीं. निबंधकार ने लिखा है,
‘‘स्त्री-मंडल के कविता-क्षेत्र में सबसे अधिक प्रसिद्धि ‘तुमाजिर’ नामक स्त्री की है, जो प्रायः ‘खन्सा’ के नाम से विख्यात है. यह प्राचीन काल की कवयित्रियों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है. इसकी कविताओं का एक संग्रह छप चुका है. अनेक लोगों ने इसकी कवित्व-शक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा की है.’’ (पृ.सं. 214)
निबंधकार ने बाद में यह भी लिखा है,
‘‘यब बात निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि प्राचीन-कालीन अरब में शिक्षा-प्रसार नहीं था. फिर भी वहाँ के लोगों में दैवी कवित्व-शक्ति थी. इसी कारण पुरुषों के सिवा अनेक स्त्रियाँ भी कवि हुई है. उन स्त्री-कवियों की कविताएँ केवल करुण-रसात्मक ही नहीं, बल्कि अन्य काव्य-रसों से भी युक्त हैं. इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि अरबी भाषा के कवि-सम्राट, ‘इमरूल कैस’ और अन्य कवियों के बीच में एक कविता-संबंधी वाद-विवाद हुआ था, जिसे एक स्त्री ने ही बड़ी योग्यता के साथ निपटाया था.’’ (पृ.सं. 215)
दूसरा निबंध मौलाना सैयद हुसैन शिबली नदवी का है, जिसका शीषर्क है ‘उर्दू क्योंकर पैदा हुई’. इस निबंध के आरंभ में शिबली साहब ने लिखा है कि हिंदुस्तान में हमेशा भाषाओं की बहुलता रही है. उन्होंने यह भी लिखा है कि अमीर खुसरो हर ज़गह अपनी जबान को हिन्दवी कहते हैं. इस निबंध के अंत में शिबली साहब ने हिंदी-उर्दू की बुनियादी एकता पर ध्यान दिया है. उन्होंने लिखा है, ‘‘देहलवी हिंदी तो अपनी जगह पर रह गई; लेकिन इस हिंदी में उस वक्त के नए ज़रूरियात के बहुत-से अरबी, फारसी और तुर्की के वह अलफाज आकर मिले जिनके मानी और मुसम्मा उन मुल्कों से आए थे. दूसरा फर्क यह पैदा हुआ कि वह हिंदी अपने खत में और यह उर्दू फारसी खत में लिखी जाने लगी. रफ्तः-रफ्तः एक और फर्क भी पैदा हुआ कि पुरानी हिंदी के बहुत-से लफ्जों में, जो जबान पर भारी और सकील थे, जमानः और जबान की फितरी तरक्की के असूल के मुताबिक, हल्कापन और खूबसूरती और खुशआवाजी पैदा करने की कोशिश की गई. इसी तरह अरबी और फारसी और तुर्की के लफ्जों में भी अपनी तबीयत के मुताबिक इसने तब्दीलियाँ पैदा की.’’
इस ग्रंथ का केवल ऐतिहासिक महत्व नहीं है. इसके निबंध ‘ज्ञानराशि के संचित कोश’ होने कारण आज भी पठनीय और मननीय हैं.
____________
मैनेजर पाण्डेय
बी-डी/8 ए
डी.डी.ए. फ्लैट्स, मुनिरका/नई दिल्ली-110067/मो॰ 9868511770
|