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Home » परख : जी हाँ लिख रहा हूँ (निशांत)

परख : जी हाँ लिख रहा हूँ (निशांत)

कविता का स्त्रीपक्ष के लिए चौहदवां देवीशंकर अवस्थी स्मृति सम्मान 2009 से सम्मानित युवा आलोचक प्रमीला केपी की लिखी  समीक्षा. आत्म और काव्य का थल–जल                     प्रमीला केपी 1. साहित्य, विशेष कर कविता का लेखन एकदम बेमतलब होने–रहने की शिकायत काफी समय से मिलती आ रही […]

by arun dev
December 9, 2013
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कविता का स्त्रीपक्ष के लिए चौहदवां देवीशंकर अवस्थी स्मृति सम्मान 2009 से सम्मानित युवा आलोचक प्रमीला केपी की लिखी  समीक्षा.

आत्म और काव्य का थल–जल                    
प्रमीला केपी

1.
साहित्य, विशेष कर कविता का लेखन एकदम बेमतलब होने–रहने की शिकायत काफी समय से मिलती आ रही है. विरले सर्जकों, काव्यपाठकों, अनुवाचकों व आलोचकों के अलावा साहित्य की अन्विति पर किसी को भरोसा नहीं है. एक दृष्टि से इन्हें भी साहित्य की उपादेयता पर पूरा भरोसा नहीं है, वे हठात् भरोसा करने की स्थिति में रहते हैं. एक जमाने में आंदोलन कर्मियों की वाक्–शैलियों तथा मजदूरिनों की जुबानी–लयों में कविता की सहवर्ती धारा मिलती थी.  धीरे धीरे उसका रूप हटता गया. तबसे कविता ऐकांतिक विधा के स्तर पर सिमट जाने लगी. अब कोई यह ऐलान कर रहा है कि ‘जी  हाँ लिख रहा हॅू’ तो उसके सांस्कृतिक एवं साहित्यिक अर्थ पर सोचविचार जरूरी है.

2.
अस्सी के दशकों में भावगीतात्मकता, आख्यानात्मकता, मध्यवर्गीय अभिरूचियों का बयान एवं आशय–श्ल्पि समन्वय काव्यजगत को आलोडित करनेवाली प्रवृत्तियां थीं, आज वे फीकी नजर आती हैं. संगीत का साथ निभाने की वृत्ति समाप्त सी हो गई. पद्य के साथ गद्य के समन्वय की परीक्षणार्थ प्रस्तुतियां तेज हुई. इसी क्रम में विविध छंदों व लयरूपों का सामंजस्य, बिंबभाषा की निवृत्ति, आजाद वृत्तांत का प्रयास, असाधारण लगनेवाले पद समुच्चयों का प्रयोग, नूतन पदसंचयद की खोज आदि प्रयोगात्मक प्रवृत्तिया सामने आईं. पुराण एवं इतिहास का पुर्नवाचन, सामयिक एवं सद्येतिहास का बयान, घटनाओं से मिलाकर भावों की प्रस्तुति आदि भी आती जाती रहीं. व्यापक पैमाने पर कविता में अन्यविधाओं का निरंतर मिलाव होने लगा. देसी, भदेसी, विदेशी प्रवृत्तियों के समीकरण और कोलाज परंपरागत परिधियों को पार करके प्रस्तुत हुए.

3.
भरोसा न होने पर भी, वैचारिक क्रांति की धारागत कडी होने–रहने के कारण, कविता उसपर विश्वास छोडती नहीं है. यह बताया जा सकता है कि यह विश्वासकविता और काल से बढकर कवि की अपनी जरूरत है. आज का अनुभव वैचारिक जागृति की राहें प्रदान नहीं करता है, विपर्यय वाचन केलिए उसका उपयोग हो सकता है. सकारात्मक घटनाएं नही के बराबर हैं. अतः काव्य का भरोसा अंदरूनी मात्र रह जाता है,  वह बुद्धिजन्य कपटता बन जाता है, जिसे छोड देने से जीवन में भावसंकुलता पैदा हो जाती है. आशान्वित न रहने से व्यक्ति और सामाजिक जीवन संकट में पड जाते हैं. इसलिए नवान्वेषणों की दिशा में कवि आगे बढता है. हर स्थिति में उसका ऐसा निर्णय, बाह्य स्थितियों की प्रतिक्रिया के साथ मनुष्य की मानसिक अतिवर्तिता का लक्षण भी है. जीवन व प्रेम उसे जितने भी कचोटते रहें, वह उनमें कालोचित परिष्कार, नवाचार चाहता है. समयानुसार, यहाँ  पर प्रेम की परिभाषा विस्तृतहोती है. आज के युवाकवि प्रेम करने के पहले ही उसके वैयक्तिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय  आयाम आंकते  हैं.

4.
\’जी हाँ लिख रहा हॅू ’  निशांत का दूसरा कविता संग्रह है. कविताओंकी भीड में, कवियों के तांते में यह थोडा हटा हुआ प्रयास है. इस अंदाजे के कारण ये कविताएं ध्यान आकर्षित करती भी हैं . इसकी यह विशेषता है कि यह खुद के प्रयास में काव्य संसार की पंक्ति को स्वायत्त करता है, लहजे और लफ्जों में काव्यपंक्ति में जोडने का आत्मविश्वास रखता है. हिंदी में लिखी जानेवाली पूरी कविताओं के प्रतिनिधित्व में किसी एक कवि या कवितासंग्रह को उदाहृत करना ठीक नहीं है, मगर इन कविताओं की सृजनात्मक दिशा के आधार पर इनके निम्नलिखित साहित्यिक इंगितों पर सोचा जा सकता है–   

काव्य के पिछले युग में छोटी सी चीजों पर गंभीर कविता लिखने की बात को प्रशंसा मिलती थी. यही कविता अब की पीढी के हाथों से विपरीत का भी साक्षात्कार कर लेती है. वह गंभीर व बडी चीजों व प्रमेयों को बोधपूर्वक छोटा कर देती है, प्रभावकारी पलों को दैनंदिन या सामान्य बना देती है. अतिसाधाराणत्व में साधारणत्व और साधारणत्व में असाधारणत्व देखने की विपरीत लय उसे स्वायत्त है. परंपरागत भाषा की तथाकथित गहनें उतारनेवाली कविता, महाख्यान होने के पूर्वधारणात्मक स्वरूप को बदल डालती है. भाषिक दृष्टि से फिसलना, रूढना, गिरना आदि भी कविता केलिए स्वीकार है. वह शिथिल जीवन के आंशिक बयानों में यात्रा करती है. प्रमेय को सटीक बनाने केलिए विपरीतों पर सोचती है.

५.
आज की कविता शाश्वत होने का ऐतिहासिक आकर्षण नहीं रखती है या उसे पता है कि उस तरह का प्रयास अब उतना दमदार नहीं है. युगीन दशा में कविता मात्र आकाशदीप जैया है, जिसका उद्देश्य ही सीमित है. फिर भी वह कवि केलिए जरूरी है. उम्मीद की जाती है कि वह किसी दूसरे सामाजिक को भी छू लेगी. इसी विचार में वह बौद्धिक स्थितियों को भी समेट लेती है, शोर व शांति दोनों में बनी रहती है. पीपल की झबरीली टहनी में बेहया मगर असीम हिलनेवाली तुच्छ पत्तियां जैसा ही वह प्राण दिखाती है. उसका हिलना सकरात्मक हो, इसकी मंशा पालती है. अतृप्तिव अशांति के बाह्यीकरण में वह थोडा सा ही सही, तृप्ति व शांति स्वागत करती है. इसकेलिए वह भावों का वाक्–केंचुल निकालती है. बाह्यीकरण की यह काव्य–प्रक्रिया दूसरे अर्थों में आत्मध्वंस की सांत्वना भी बन जाती है. कवि की आत्मा सच नहीं, सच का अप्रकट खोलना चाहता है. नवयुग के कवि का आत्म, आत्मेतरहोने का अर्थ ही दूसरा है– एक कवि है/ एक फिल्मकार है/ एक अच्छा इंसान है/  आप उसके नजदीक जाइए/ अब, जादू शूरू होता है. (पृ 19) कवि स्वरूप एवं कर्तृत्व की महिमा यहाँ चूर हो जाती है.

६.
काव्य वक्ता यह अनुभव करता है कि अपने अंदर ही विपरीतों का युग्म है जिसमें से होकर वह सृजन करता है. चिंतन के क्षणों में वह आत्म–शिथिलता महसूस करता है. उसकी भाषा का रूप एवं स्वभाव यह प्रतिफलित कर देता है. भावात्मक कविता और सौन्दर्यात्मक संस्कृति के पूर्वयुगीन मानकों केलिए वह कवि को जिम्मेवार मानता है और प्रेम, कलह, जागरण, विद्रोह तथा क्रान्ति की पुरानी मान्यताओं व परिभाषाओं से परहेज रहता है. एकदृष्टि से आज की कविता, भाषा की तथाकथित साहित्यिक धारा के उपक्रमों से अलग होना चाहती है. वह मानती है कि यह उसके अतिजीवन केलिए जरूरी है. काव्यस्वत्व के शिथिल बिंबों से वह गुजरती नजर आती है– लंबी, मझोली, छोटी कविता/ छंदबंद, छंदमुक्त गद्यकविता/ चारण भक्त रीतिवादी कविता/ छायावाद प्रगतिवाद प्रयोगवाद के एक अजब काकटेल से मिश्रित होकर/ यह कविता काल/ एक अद्भुत काल में तब्दील हो रहा है. (पृ71)

७.
कभी कलहों व कोलाहलों के बीच में कविता को नीरव रहना पडता है, समस्त औपचारिकताओं के मध्य में अराजक या अनबन बनना पडता है. भाषिक उद्दंडता के सामने खुद को बिखेरना पडता है, चुप्पियों के संगठित मोर्चे के आगे फटना और फूटना पडता है. ये सब काल प्रवाह से गुजरनेवाली कविता की करतब है. उसे इन नौबतों से मुहमोडकर रहना नहीं आता. काव्य रूप देखें तो अक्षर–विन्यास, पद–समुच्चयएवं वितरित पक्तियां आदि सबमें ये पहले के जमाने की कविताओंसे सूक्ष्मांतर दिखाती हैं. चीजों व घटनाओं को देखने की अलग आँखें, कागज में उतारने की अलग शैलियां, प्रतीकों के अर्थव्यंजन में दिशाभेद आने की सूचनाएं, भावोच्छास की सतही अवस्थाएं, मतभेद, मतैक्य और मिलन की दिशाएं आदि में कविता का कालविमर्श बन जाता है. इसी अर्थ में कविता की संरचना, कालसंरचना या संस्कृति संरचना बन जाती है. कभी वह दायित्वों को पालती है, अपने को निभाती हुई कालकर्म को निभाने का प्रयास करती है. व्यक्तित्व में प्रतिफलित  अपराधबोध समकालीन कविता का सबसे सघन विषय है. सभी कवियों के सृजन में आत्मबचाव का प्रयास देखा जा सकता है. क्रान्ति, विप्लव, मुक्ति जैसे शब्दों को उसी अर्थ में आज की कविता इस्तेमाल नहीं कर सकती है. अतः उसका बयान है कि ’जिंदा रहने केलिए थोडा–सा समझौता’ अनिवार्य है. उसको पता है कि यह बयान भी आंशिक है, क्यों कि आज की जिंदगी अधिकाधिक समझौतों पर ही आगे थिरक जाती है.

कवि और कविता, माने सर्जक एवं सृजन अपने अलग अलग आत्मानुरागें को पंक्तियों में पिरो देता है. अर्थात् कवि और कविता की प्राथमिकताओं में फासला नजर आता है. संस्कृति विमर्श को आत्मभाषण् द्वारा व्यक्त करनेवाली स्थितियां भी इन कविताओं में हैं. व्यक्तिमें संभावनाएं हैं, इसलिए आत्म की सतत खोज अनिवार्य है. कविता के माध्यम से भी उस खोज को जारी रखा जा सकता है. यह उतना ही महत्वपूर्ण है जितना मनुष्य–समुदाय या समाज के संगठन का कार्य है. अर्थात् कविता एकदम ऐकान्तिक घटित होती है, इकलौती आगे बढती है. तन और मन को भारमुक्त कराने की प्रक्रिया में वह सामुदायिक या समाजिक प्रतिनिधि बन जाती है. सार्वजनिक प्रतिनिधित्व के बदले प्रतिनिधित्व द्वारा सामाजिकता का निर्माणअब उसकी नीयत में शामिल मुद्दा है. सबकेलिए कोई एक कविता नहीं लिखी जाती है. लघुता को टालने केलिए कवि लघुता पर कविता लिखकर काव्यविस्तार करता है. कायापलट के दौरान कविता का यही प्रवाह व प्रयोग है.

८.
सत्य की खोज करनेवाले काव्यशब्द एक एक होकर उतरते हैं और भावमुक्ति के अहसासों को संक्रमित कर देते हैं कैनवास की तस्वीरों की यही विशेषता है कि वे वर्ण के माध्यम से बहुत कुछ सूचित कर देती हैं. साहित्य एवं कला में भाषा के विविध शेय्ड्स की बात को यहाँ पर स्थापित हो जाती है. नाम चाहनेवाली कविता या चित्रकला, मात्र विधात्मक नहीं होती. विधात्मक स्तर पर प्रकट होने पर भी अतिजीवनऔर विस्तार केलिए वह विधात्मक सीमापार जाने का मोह पालती है. कवि भी मात्र कविता लिखने का दावा पेश नहीं करता है. वह अनुभव करता है कि कविता, मात्र कविता नहीं है. सभ्यता विमर्शकार होने–बन जाने का अहसास उसमें प्रबल है, पर उसे पता है कि नीयत होने के बावजूद यह मात्र उसके हाथों की बात नहीं है. किसी पल में कोई उसकी प्रशंसा कर सकता है, अगले पल में हिंसा भी. इसलिए वह एकदम मर्यादित और नियन्त्रित होकर, वह शब्द के समान मौन की साधना भी करता है. शब्द और मौन यहाँ पर द्वन्द्व नहीं, समयानुसार प्रयुक्त होनेयोग्य दो रवैए हैं.

९.
अपने भीतर की इस अन्यता तथा अनन्यता के द्वन्द्व पर कवि सोचविचार करता है. कभी धैर्य में, कभी भय में प्रकट होनेवाली शब्दरचना में दृश्य–अदृश्य जीवन की आकुलताएं, सहजीवन की व्याकुलताएं प्रस्तुत करता भी है. उसमें संवेदनात्मक रागमिलन की तुलना में स्वात्मसांत्वना का गुण मुखर होता है. कविता के इस उत्तर समय की गतिविगतियां  कुछ इस तरह की हैं–   

जो व्यक्ति कविता में बोलता है, वही काव्य में व्याप्त हो जाता है, जीवन व जगत के समस्त स्तरों से होकर बहने पर भी कविता में कवि का सान्निध्य पाठकों को मिल जाता है. ’हूँ’ क्रियारूप का, पंक्तियों में बारंबारप्रयोग वाचकों व अनुवाचकों को वैयक्तिक ही नहीं लगता है, वह आत्मीयता को भी प्रसारित करता है. अतः व्यक्तिवाद के आरोप लगाकर कविता को तुच्छ माननेवाले आलोचकों के आगे यह सम्यक गुण दिखाती है. काल–समय के अनुसार अर्थ एवं आयाम जोड देनेवाली कविता अनुवाचकों पर तिर्यक वाचन का दबाव डालती है.

१०.
शंका नहीं कि कवि, कविता में प्रत्यक्ष सान्निध्य बन जाता है. उसका रूप उसमें नहीं होता है, लेकिन उसकी उपस्थिति कभी छूटती नहीं है. कई दफा कवि के सान्निध्य में कविता आक्रान्त प्रस्तुत होती है. उसके भावान्तरों व मनोविकारों से कविता विकसित होती है. पर वह सिर्फ वैयक्तिक नहीं रहता, वाचक और अनुवाचक का कडीबद्ध भावमिलन यहाँ पर विस्तृत होता है. यह वर्तमान की कला की विशेषता है. कवि के साथ कलाकार पर भी यह प्रवृत्ति लागू है . ’कैनवास पर कविता’ रचनेवाले एम एफ हुसेन केलिए लिखी गई पंक्तियाॅ हैं– ’पृथ्वी खत्म नहीं हो रही है/खत्म नहीं हो रहा है/उसका धीरज’. (पृ 102) यह वक्तव्य किसी भी कला या कलाकार का अभीष्ट है.

 
कवि और विषय की समीपवर्तिता कविता को सोद्देश्यपूर्ण दिशा दे सकती है. वह अस्पष्ट बातों को स्पष्ट और अपरिचित बातों को परिचित करानेे का कार्य करती है. पर साथ ही वह अतिपरिचित एवं सुनिश्चित कार्यविचारों पर रूचि नहीं दिखाती है. इस दफा वह परंपरा से सीखी हुई कविता नजर आती है.’शमशेर बहादुर सिंह केलिए’ लिखी गई पक्तियां देखें– कई आकृतियां/ एक साथ लहरा रही थीं/उसका कद/ मेरे कद से भी बडा था. (पृ105) यहाँ  पर आत्मसीमा के परिचय के माध्यम से आत्मश्लाघा का तिर्यक प्रस्तुत है. प्रस्तुत में अप्रस्तुत का ऐसा सामंजस्य वर्तमान की कविता आसानी से साक्षात्कृत कर देती है. कविता खुद पर हॅसती है और परिचय कराती है कि उसमें पुरानी पीढी जैसी ही क्षमता है, उूर्जा भी. साथ ही वह खुद पर व्यंग्य करने और उसे व्यक्त करने में कोई कमी नहीं दिखाती है.

११.
कई संदर्भों पर कविता में भोक्ता और दर्शक, स्रष्टा और आस्वादक का संगम होता है. ’ मैं में हम–हम में मैं’ जैसी उक्तियाँ  इसका प्रमाण देती हैं. इस कार्यपद्धति से कविता आज की युगानुरूप उक्ति होने का गर्व करती है, पर वह अपनी पूर्वकालीन वैचारिक पंक्ति से पूर्णतः मुक्त होना नहीं चाहती. बताया जा सकता है कि यहीं पर कविता, पराजय एवं उपेक्षा के बीच में भी छूने के प्रयास में थोडा सा करवट बदलती है. निषेधों व निराशाओं के मध्य में जीनेवाली पीढी पर यह अन्दरूनी छेड पैदा करना चाहती है.  वैविध्यों व विपरीतों को छोडे बिना यह पंक्ति चाहती है, प्रवाह कायम करती है.

१२.
कवि यथास्थिति से मुंह  मोडता नहीं है. वह उसमें जीकर यह सूचित करता है कि बुरे समय की कविता उतनी निरीह या शद्ध नहीं रह सकती है. आत्मभाषण् के क्षणों में अपनी सफाई केलिए वह कुछ न कुछ ढूंढता है. उसकी परेशानियों व सच्चाईयों के बीच ही कविता फूट निकलती है. कभी कुछ तेज, कभी कुछ शांत. मनुष्य या सामाजिक के रूप में कवि को बचा कर रहने के काम में भी उसका उपयोग है. कुछ समय पहले तक कविता को लोग इंसानियत को बचाए रखनेवाली दवा बताते थे. युवा कवि खोलता है कि कविता का उपयोग चैंतरफा है. कभी वह चारों दिशाओं से किसी एक आत्मा की तरफ विपरीत गति भी अपनाद लेती है.

 
१३.
यहाँ  पर विकसित होनेवाली काव्यधारा में परिवर्तन की और भी सूक्ष्म सूचनाएं हैं. आज की कविता में परंपरागत व्यक्तित्व की उपस्थिति दर्ज नहीं होती, मगर इंसानी आत्मा कभी उससे गायब भी नहीं होती. कहीं वह अनुपस्थिति द्वारा भी आत्मा की आंच दिखा सकती है. ’मैं’ बोले बिना भी कविता, कवित्व की सामुदायिकता दिखाती है. भाषिक तौर पर  त्रुटिहीन रहने की अकादमिक काबिलीयत उपयुक्त करती है, तब भी उसके अन्तस् की प्रेरणाएं वितरित होने–रहने की मांग खोलती हैं. यहाँ  पर भाषा उपकरणात्मक सिद्ध होती है, कहीं कहीं भाषा, बिंब या रूपक बन कर उतरते हैं जो समकालीन संस्कृति से साझा जोडती हैं. शब्दविनिमय में कवि की रूचि लोकतंत्रीय है, जो भाषिक सांप्रदायिकता के संदर्भों से टक्कराने का प्रयास है. यह बताना है कि आज, राजनीति सिर्फ अराजक एवं स्वार्थ का जरिया रह गई. राजनीति का अर्थ ही खो गया. फिर भी कला और साहित्य के जरिए सूक्ष्मराजनीति की संभावनाबनी रहती है. इस मायने में कविता अपना देय प्रस्तुत करती है. इसकेलिए पूर्वकालीन धाराओं का अनुकरण वह मुनासिब नहीं समझती है, इसलिए निरंतर होनेवाले द्वन्द्वों, परिवर्तनों व उल्लंघनों की अनुस्यूतियां उसे आत्मसात करना पडता है. इसमें वह विधात्मक भविष्य मानती भी है. कवि स्वयं खोखला व्यक्ति महसूस करता है जो अंदर ही अंदर डरा हुआ भी है– प्रेमिका से शादी नहीं कर पाते/ डरते हैं. . ./शादी के बाद तीन लोगों का खर्च/ जीवन से इतना डरा हुआ आदमी कवि ही हो सकता है.(पृ79)

१४.
 कवि के रूप में निशांत सुरक्षित काव्यजगह की तरफ बढ रहा है, उसका यह आत्मविश्वास काव्यावतणों में स्पष्ट दिखता है, बोलों में प्रस्फुटित होता है, जो विरले ही युवाकवियों को स्वायत्त है. इस अर्थ में निशांत काल–संस्कृति व समय–सरोकारों से अभिनंदित और अश्लेषित कवि भी है– युवा कवि चिल्लर थे, फिलर की तरह छपतीं उनकी कविताएं/अ–सरकारी संस्थान की पत्रिकाएं सरकार से लेकर पैसा/सरकार के विरोध में कविता–कहानी–लेख छापते/जनता इसी भुलावे में गदगद है कि कुछ लोग उनके पक्ष में बोल रहे हैं. (पृ 81द्) ये पंक्तियां कविता के समाजशास्त्र के साथ आज काव्यजगत में वर्तमान राजनीति और अर्थनीति को सामने रख देती हैं.

ज्यों ये कविताएं अप्रिय सत्य का पर्दाफाश करती है त्यों वे कवि के विपक्ष में भी खडी हो जाती हैं  कविता का पक्ष, इस तरह समस्त पक्षपातियों का प्रतिपक्ष है. यही उसकेलिए जायज पक्ष बताया जाता है. कविता को उपकरण बनानेवाले सामयिक क्रियाकलापों को वह धिक्कार से देखती है. अनुभवों से कविता फूटने की जगह इस युग में कविता से अनुभव सिद्ध कर देने का कमाल दिखाया जाता है. लिंग तथा जाति–धर्म को अस्मितावादी राजनीति के उपकरण बनाए जाते हैं,  प्रोत्साहन के लायक घोषित किए जाते हैं. खुद, कविता इन विरोधी स्थितियों को टाल नहीं पाती है. वह खुद मैला महसूस करती है. मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस माने काव्य–वक्ता, अपने मैलापन को धो लेने का बारंबार प्रयास करता था. यहाँ  पर कविता स्वयं, अपने अवतरण और अन्विति में मैला अनुभव करती है. वह कभी उसको मानती नहीं देती है, पर उसी में डूबती हुई महसूस करती है. सफाई देने की नीयत खोजती है, पर हमाशा अनुभव करती है. भारहीन होनेवाली साहित्यिक–संस्कृति में जीनेवाली ये कविताएं धडकते रहने का प्रण करती हैं, प्राण बिखेरने का श्रम करती हैं. इस तरह अपनी जगह सुरक्षित करनेवाला कवि, कविता के साथ समय को भी नंगा कर देता है.

————


प्रमीला केपी,
7-971, कालडी 683 574, केरल.

prameelakp2011/gmail.com

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