‘तंग दिनों की ख़ातिर’ मनोज छाबड़ा का दूसरा कविता संग्रह है. पहला संग्रह ‘अभी शेष हैं इन्द्रधनुष’ २००८ में प्रकाशित हुआ था. इन पाँच सालों में कवि ने अपनी कविता की जमीन पुख्ता की है और उसके आकाश का विस्तार भी किया है. बोधि प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह में ६९ छोटी-बड़ी कविताएँ हैं […]
‘तंग दिनों की ख़ातिर’ मनोज छाबड़ा का दूसरा कविता संग्रह है. पहला संग्रह ‘अभी शेष हैं इन्द्रधनुष’ २००८ में प्रकाशित हुआ था. इन पाँच सालों में कवि ने अपनी कविता की जमीन पुख्ता की है और उसके आकाश का विस्तार भी किया है. बोधि प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह में ६९ छोटी-बड़ी कविताएँ हैं और कीमत है मात्र ५० रूपये. भूमिका में उदय प्रकाश ने मनोज को ‘अप्रतिम संभावनाशील कवि’ माना है जो संग्रह को पढ़ते हुए सटीक आकलन है. यह संग्रह आपको समृद्ध करता है. इसकी समीक्षा सदोष हिसारी ने लिखी है.
आकाश के विश्वास में वस्त्र बदलती हैं औरतें
सदोष हिसारी
यह बिल्कुल ज़रूरी नहीं कि जीवन और तमाम दुनियावी कार्य-व्यापार की गहरी समझ रखने वाला व्यक्ति कवि और चित्रकार होने की भी योग्यता रखता हो. ऐसे ही यह भी निहायत ग़ैरज़रुरी है कि कवि-कलाकार को अन्यान्य क्षेत्रों की भी गहरी समझ हो ही. यह दोनों तरह के लोगों की संभावनाएँ हैं.
मनोज में दोनों सम्भावनाएँ सुस्पष्ट आकार पाती हैं. क्योंकि जब बुद्धि और हृदय का सुन्दर, संतुलित सम्मिश्रण होता है तब कला और कविता अपने को कहा ले जाती है. इस स्थिति में कविता ख़ुद-ब-ख़ुद फूटती, जन्मती और उमगती है. एक अच्छा कथाकार वक्ता या उपदेशक नहीं होता, इस संग्रह की कविताओं के सन्दर्भ में ठीक यही बात कही जा सकती है. ये कविताएँ क़रीब-क़रीब हर जगह वक्तव्य और उपदेश होने से बची हैं. और अपने इस तेवर में, ये रचनाएँ धूमिल के इस विचार का भी खंडन करती प्रतीत होती हैं कि — एक सही कविता पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है. बरक्स इसके यह भी सच है कि इस खंडन-मंडन की प्रक्रिया में इनके रचयिता की ‘अतिरिक्त सजगता’ और एक ‘सावधान भाषा’ पाठक की नज़र से छुपी नहीं रहती.
पोलिश कवयित्री रेनाता चेकाल्स्कामानती हैं कि हमें शब्दों में कवि के स्वीकार पर विश्वास करना चाहिए. कैसा विश्वास ! ठीक वैसा ही गहरा जैसा करोड़ों स्त्रियाँ आकाश पर विश्वास करते हुए खुले में अपने वस्त्र बदलती हैं. ये जानते हुए भी कि ढेरों इंद्र आकाश से अपनी-अपनी खिड़की खोलकर उन्हें झाँक रहे हैं. बावज़ूद इसके, उनके विश्वास पर कोई आँच नहीं आती क्योंकि उनका विश्वास सही में ‘विश्वास’ है. ऐसे ही, शब्दों में कवि के स्वीकार पर हमें विश्वास करना होगा. जब वह कहता है – कभी तो ऐसा ज़रूर होगा / कि / भूख लहलहाते खेत बन जाएगी. इन पंक्तियों में आशा का चरम है. हम जान पाते हैं कि रचनाकार निराशा के ‘वाद’ रूपी कड़ाहे में न उबलते हुए आशा की अशोक-वाटिका में विचरण करता है.
कविता के पाठ के बाबत चेताते हुए अशोक वाजपेयी कहते हैं कि हमारे यहाँ कविता को सघन और अनेक स्तरीय ढंग से पढ़ने की आदत इतनी कम हो गई है और शुद्ध अभिधा का ऐसा आतंक दृश्य पर है कि अर्थछवियाँ अनपढ़ी-अनदेखी रह जाती हैं. यह खतरा इस संग्रह की कविताओं पर भी मंडराता है यदि हम किसी आरती, भाषण या बखान की तरह इन्हें पढ़ते हैं, अगर हम इन्हें इनके सघन और अनेक स्तरीय पाठ के रूप में ग्रहण न कर पाएं तो ऐसी स्थिति में इनकी जो अर्थछवियाँ हैं वे अदेखी, अपढ़ी रह जाएँगी और परिणामत: पकड़ से छूटी रहेंगी.
ये हम जानते हैं कि हर दिन नया होता है. जानते हैं, कहना शायद ग़लत होगा, कहना चाहिए हम ऐसा मानते हैं. क्योंकि ऐसा जानना सिर्फ़ तभी संभव है जब हमारी अंतर्दृष्टि सजग हो, जब मलिनता से मुक्त एक सरल चित्त हमारे पास हो. बच्चे-सी निर्दोषता हो. तभी, बस तभी हम ये देखने में सक्षम और कहने के अधिकारी हो सकते हैं कि आज का सूर्योदय एकदम नया था, नई ही सुबह और बादल तो ऐसे कि ऐसे कभी नहीं थे. हम देख पाएँगे कि नदी में बहने वाला आज का पानी पहली बार है, पुराने पक्षी नए आकाश में उड़ रहे हैं और नया गीत गाते हुए बादल की बूँद को पहली बार पी रहे हैं.
मानवीय प्रवृति है कि जब भी हमारी कोई कामना पूरी होती है तब हम उसकी पूर्णता का उत्सव न मनाकर तत्क्षण और-और कामों, और-और कामनाओं में उलझ जाते हैं — आकाश को / फिर नहीं समझे छाता / न ही बारिश को नेमतें / पिछले दिनों / बारिश को तरसते लोग / एक बार फिर हार गए.जब बारिश आती है तो हम उसमें भीगते नहीं, भागते हैं. बचाते हैं ख़ुद को …छाते तन जाते हैं हमारे. मनोज इसे यूँ ही सामान्य-सी बात की तरह नहीं लेते. उनकी चित्रकार आँख फ़ौरन इस दृश्य के दूसरे और ज़्यादा घने व सार्थक पहलू को पकड़ती है और तस्दीक़ करती है कि छाता देख बादलों का दिल दुखता है और ख़ुद को लुटाने को आतुर बादल अपमानित हो उठते हैं. और अपनी इस व्यथा की कथा जब बादल आकाश से कहते हैं तो, आकाश के शब्दकोश से सारे अक्षर सूख जाते हैं. आप देखें, आकाश के विस्तीर्ण अन्तस्थल को ‘शब्दकोश’ की संज्ञा देना और पानी को ‘अक्षर’ कहना अपने-आप में कितने-कितने अर्थ समाहित किए है. नितांत शाब्दिक अर्थों में भी यदि हम पानी को अक्षर के रूप में लें तो वह महिमावान हो उठता है. अक्षर, जिसका क्षरण न हो, अविनाशी जो हो. और पानी अक्षर है. छाते की चिंता करते ही आकाश से बादल छंटते नज़र आने लगें, ऐसी सूक्ष्मताओं को पकड़ने में उनके भीतर मौजूद वो जो चित्रकार की आँख है, बहुत काम आती है.
तमाम विकल्पों के बावज़ूद जब हम फूल न चुनकर बीज चुनते हैं तो इसमें मानवीय गरिमा, पूरी आभा के साथ उद्घाटित होती है. और, इससे भी आगे यह गरिमा तब समस्त संसार के प्रति करुणा में बदल जाती है जब चुने गए बीजों को उगाने के बाद कई गुणा फूल उमगते हैं पर कवि फिर बीजों को ही चुनता है, फूलों को नहीं क्योंकि बीज उसके पास आकर सिर्फ़ बीज नहीं रहते अपितु रुग्ण मनुष्यता के स्वास्थ्य का ताबीज बन जाते हैं.
यह सच है और कटु है कि जीवन में जो भी हमें सहज प्राप्त है, सहज उपस्थित है उसकी महत्ता और महत्त्व से हम प्राय: अनजान रहते हैं. उसके खो जाने के बाद ही हमें उसकी अर्थवत्ता और अपने जीवन में अर्थपूर्णता की कमी का अहसास होता है. पर, बात तो तब है जब हम सहज प्राप्य की उपस्थिति को पूरी तरह महसूस करते हुए भी आने वाले कल में घटित होने वाली उसकी अनुपस्थिति के बाद की स्थिति का भी शिद्दत से एहसास कर सकें. मनोज ऐसा ही करते हैं. जब घर में माँ की मौजूदगी के बावज़ूद उसकी होने वाली निश्चित ग़ैरमौजूदगी की भयावह कल्पना और फिर भविष्य के कल को ‘आज’ और ‘अभी’ पकड़ कर वह कहता है : …घर में माँ का होना / सबसे आसान था / माँ न होने की तरह सदैव घर में थी … माँ के चले जाने के बाद जाना मैंने / माँ हर कहीं थी / घर का कोई सदस्य नहीं था तब / जब माँ थी. ऐसा लिखने के लिए जिगरा चाहिए. निश्चित ही.
अपने जन्म से पूर्व की कविता में तमाम तरह की कल्पनाएँ करता हुआ अंत में कवि कहता है : मैं / अपनी माँ की देह से लिखी / एक कविता हूँ बस / पिता हैं / शब्दों के बीच / मेरी ख़ाली जगह को भरते हुए / हर कहीं / आकाश की शक्ल में. एक विद्वान् के मतानुसार इस काव्यांश का रचना में कोई दख़ल नहीं है. ये न होता तब भी कविता में कोई अंतर नहीं पड़ने वाला था. ठीक है. पर, यदि हम इस अंश को कविता के साथ नत्थी न करें और सिर्फ़ इन्हीं पंक्तियों पर गौर फरमाएं तो सहज बोध होता है कि ये पंक्तियाँ अपने-आप में पूरी एक कविता है. इनका सौन्दर्य इस क़दर मोहक है कि मोह होने लगता है. संवेदना उस समय मात्र एक शब्द न रहकर सही अर्थों में सम + वेदना का रूप धारण करने लगती है जब हम पढ़ते हैं : कुल्हाड़ी की चोट पड़ती है तने पर / और / मेरी देह से रक्त की धार बह निकलती है.
एक बड़ी मार्मिक कविता संग्रह में है जिसमें बच्चों को यक़ीन है कि आकाश में तारा बन चुके पिता उनके रिपोर्ट-कार्ड ज़रूर देखते होंगे. इसमें माँ पंछियों से बात करती हुई उनसे कहती है कि वे बच्चों के पिता को बताना न भूलें कि इस साल ख़ूब पढ़े हैं बच्चे. अंत में क्या होता है, देखिए, पंछी / बच्चों को दुलारते / उड़ जाते हैं ऊपर / और बच्चे / माँ को ईश्वर से छिपाने की जुगत बैठाने लगते हैं !’ एक और बड़ी मर्मस्पर्शी रचना यहाँ बरबस मुझे याद हो आई है जो बर्बाद हो चुके ( कहना होगा किये जा चुके ) अफ़गानिस्तान के बच्चों का हृदयस्पर्शी चित्र खींच कर हमारे सामने रख देती है और हम क़रीब-क़रीब संज्ञाशून्य हो कर रह जाते हैं. इसमें अफ़गान बच्चे हमारे गाँव के बच्चों से एकदम अलहदा हैं. मेरे पास के बच्चे / जहाज़ की आवाज़ सुनकर / दौड़े आते हैं / हाथ उठा-उठा कर अभिवादन करते हैं / उचक कर देखना चाहते हैं / अंदर बैठे लोगों को ! और अफ़गान बच्चे ? क्या वे भी अभिवादन करते हैं जहाज़ की आवाज़ का ! आप ख़ुद देखिए : अफ़गान बच्चे / जहाज़ की आवाज़ सुनकर / घर में बनी सुरंगों में छिपकर / साँस रोक लेते हैं / और / आँख बंदकर / कानों में उंगली डाल लेते हैं ! एक पूरे मुल्क की समस्त विडम्बनाओं को मात्र चंद पंक्तियों में इस सहजता और सरलता के साथ सामने रख दिया जाता है कि हम कहीं गहरे …बहुत गहरे डूबते चले जाते हैं.
प्रेम ! अगर एक शब्द में मनोज की कविताओं के केन्द्रीय बिंदु की बात कहनी हो तो यही वह शब्द है. करुणा, सहजता, सरलता, क्षोभ, भावना, विडंबना आदि-इत्यादि सभी शब्द, सभी स्थितियाँ इसी का पर्याय नज़र आती हैं. सिर्फ़ प्रेम की अगर हम बात करें तो वह संग्रह में जगह-जगह अपनी चमक, अपनी इन्द्रधनुषी चौंध दिखलाता और लोप होता दिखता है. मनोज पुत्र के लिए कविताएँ लिखता है, उसके मित्रों के लिए भी और अपनी बेटी के लिए लिखते समय वह उसके लिए भी लिख देना चाहता है कविता जिससे वह एक दिन प्रेम करेगी. अपनी ओर इसे ही शायद जीवट कहते हैं. वह स्पष्ट घोषणा करता है : प्रेम करने वालों के लिए लिखूंगा मैं कविताएँ …उनके लिए नहीं लिखूंगा मैं / जिनके पास / प्रेम की पराजय के ढेरों क़िस्से हैं . उसका नितांत निजी, वैयक्तिक प्रेम कैसे हमारे सर जादू की तरह चढ़ कर बोलता है, देखें : इन दिनों कुछ ऐसा है / किताब खोलते ही / निकल आती हो तुम / तस्वीर-सी / बहुत पहले / रखकर भूल गए फूल-सी / भोजन में घुली रहती हो / नमक-सी / पहाड़ों पर वृक्ष-सी / इन दिनों कुछ ऐसा है कि / जैसे ही दस्तक पर खोलता हूँ दरवाज़ा / तुम खड़ी नज़र आती हो.
मनोज ही ‘नहीं जानता’ ऐसा नहीं. हम भी नहीं जानते कि पिता कितना प्रेम करते थे माँ से या करते भी थे कि नहीं. जाने उनके मन में बसी तस्वीर माँ से कितना मेल खाती थी. संभव है किसी अभिनेत्री की कल्पना में प्रेम करते रहे हों माँ से और इसी का दूसरा पक्ष ये भी कि जाने माँ के स्वप्न में आए पुरुष का चेहरा पिता से बिल्कुल न मिलता हो और मज़बूरीवश प्रेम किया हो माँ ने पिता से. इस रचना के अंत में कवि अपनी इयत्ता को लेकर, अपने अस्तित्त्व के ऊपर बड़ा सघन मारक प्रहार करता है : जाने… किन कल्पनाओं की देन है / मेरा अस्तित्त्व / क्या जाने …! . यह हम सबके अस्तित्त्व की वो बात है जिसे हम जानकर नहीं देखना चाहते. जिसे नज़र की ओट किए रहते हैं. भुलाए रखते हैं जिसे…जिससे कि बचाए रख सकें ख़ुद को. मनोज की ये कविता हंटर की तरह उन सवालों का वार करती है हमारी छाती पर – एकदम सीधा और सटीक. अब हम बच नहीं सकते. हमें मज़बूर हो जाना पड़ता है गौर से अपने अस्तित्त्व, अपनी इयत्ता के बारे में सोचने के लिए.
सदियों से रवायत चलती आई है कि कभी किसी पिता ने नंगी आँखों, चश्मे के बगैर अपने पुत्र को देखा ही नहीं. पिताओं के पास पिता का चश्मा रहता ही है. ऐसी स्थिति में तय है कि पुत्र का चेहरा वैसा नहीं दिखता पिता को जैसा चाहा गया था कि दिखे. पिता के चश्मे में पुत्र एकदम ‘अनफिट’ है . पिता-पुत्र की दोस्ती की बात को ढकोसला साबित करती पंक्तियाँ : एक शाप मिला है / सारे विश्व के पिताओं को / कि वे सदैव पिता ही रहेंगे / दोस्त बनने के सभी ढकोसलों के बावज़ूद. पुत्र जब पिता बनता है तो कैसे एकदम, यक़ायक़ पिता का नज़रिया इख्तियार कर लेता है : वे पुत्र / जो पुत्र रहे पिता की नज़र में / पिता बनते ही / दृष्टि ले लेते हैं पिता की / उन सभी अवसरों पर / तानाशाह बने रहते हैं / जिन अवसरों पर / अपने पिताओं से अप्रसन्न थे ! अब, पाठक अश! अश! के सिवा और क्या कर सकता है.
अशोक वाजपेयी की कविताओं की भांति मनोज की रचनाओं में भी किसी एक केन्द्रीय भाव की उठान मिलती है. फिर वह भाव पंक्ति दर पंक्ति और सान्द्र, और सघन होता हुआ किसी प्रत्यय में बदल जाता है. ऐसा होने के दौरान शब्द-विन्यास में झोल या उखड़ा-उखड़ा भाव नहीं मिलता. यहाँ मनोज का चित्रकार उसका साथ देता है जो अपनी सधी तूलिका से सब कुछ का एकदम सुविन्यस्त चित्र आँक देता है. ‘ऐसा तभी संभव हो पाता है जब रचनाकार का मन अपने केन्द्रीय विषय के साथ एकमेव हो गया हो’. संग्रह की अनेक चित्रनुमा कविताओं में से एक है – हिसार ! जो उसका शहर भी है. वह चित्र आँकता है – मेरे शहर में / सबसे पहले बिहार जागता है / सच है – पूरे देश में सबसे पहले / बिहार जागता है / सबसे पहले / बर्तनों में चावल उबलता है / शहर जागता है जब तक / लेबर चौक में / बिहार दृढ़ता से डटा होता है. फिर शहर के लेबर चौक से वह सीधे मुंबई जा पहुँचता है इस आश्वस्ति के साथ कि सैकड़ों मील दूर मुंबई तक यह समाचार ज़रूर पहुँचता होगा. इसके साथ ही वहाँ के तानाशाह नेताओं पर बड़े प्यार से एक ज़ोरदार झापड़ पड़ता है, जब वह कहता है – जहाँ / मैथिली-भोजपुरी ज़ुबान पर / बैठाया जा चुका है कर्फ्यू.
यात्राएँ ख़ूब भाती हैं कवि को. पहाड़-समुद्र…नखलिस्तान-रेगिस्तान…उत्तर-पूरब, दक्खिन-पच्छिम मतलब ये कि जब भी और जहाँ भी मौक़ा मिलता है निकल लेते हैं यात्रा पर ये यात्राएँ बाहरी शायद उतनी नहीं होतीं जितनी उसके भीतर की होती हैं. तभी तो, इन यात्राओं ने उसके अनुभव संसार को ख़ूब समृद्ध किया है. शिमला के निकट संजौली में रहते हुए उसने जो कविताएँ लिखीं वह अपने अर्थपूर्ण भाषिक विस्तार में न केवल अनुभवों का खज़ाना साबित होती हैं अपितु पहाड़ के मजदूरों की निहायत कष्टप्रद ज़िंदगी को देखते-समझते-गुनते हुए ख़ुद जिस बात को शिद्दत से महसूस किया उसे हमें भी जनाना चाहता है — मज़दूरी देने वाले हाथ / पूरी दुनिया में / एक समान हिंसक होते हैं. कितनी बड़ी बात इस छोटी-सी बात में छिपी है. क्या मार्क्स का दर्शन इन अढ़ाई पंक्तियों में आकर समाहित नहीं हो गया है.
सदोष हिसारी
इन कविताओं में मनोज के आलोचनात्मक काव्य-विवेक की निरंतर मौजूदगी को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानते हुए उदयप्रकाश आगे कहते हैं कि इसी के चलते उनकी कविताएँ हमारे समय और यथार्थ के विवरणों को महज अभिव्यक्त नहीं करतीं, उनका अर्थपूर्ण ‘क्रिटिक’ भी निर्मित करती हैं. वे अतीत के सारे मिथकीय देवताओं को उनके पवित्र मन्दिरों से निर्वासित करते हैं और पिता के लिए जो गंगा अवस्था के स्थलों, मोक्षदायी घाटों, गहन घने वन्य-प्रांतरों की स्मृति है, वही गंगा मनोज के लिए उत्तर प्रदेश के नक्शे में छपी आड़ी-तिरछी भूगोल की रेखाएं भर रह जाती है. वह पिता के सामने पिता और पुत्र के सामने पुत्र जैसी भूमिका निभाता एक अप्रतिम संभावनाशील कवि है.