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Home » परख : नाच घर (प्रियंवद)

परख : नाच घर (प्रियंवद)

हिंदी के वरिष्ठ कथाकार प्रियंवद ने बच्चो के लिए एक उपन्यास लिखा है – नाचघर . नवनीत नीरव बता रहे हैं क्या है इसमें  ख़ास. स्मृतियों  का  नाचघर                                          नवनीत नीरव (बचपन में एक क्षण ऐसा होता […]

by arun dev
June 6, 2018
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हिंदी के वरिष्ठ कथाकार प्रियंवद ने बच्चो के लिए एक उपन्यास लिखा है – नाचघर . नवनीत नीरव बता रहे हैं क्या है इसमें  ख़ास.

स्मृतियों  का  नाचघर                                         
नवनीत नीरव
(बचपन में एक क्षण ऐसा होता है जब एक द्वार खुलता है और भविष्य भीतर प्रवेश करता है. – ग्राहम ग्रीन)





हम जिस समाज में रहते हैं वहाँ बच्चों की पढ़ाई को लेकर चिंताएं जगजाहिर हैं. माता-पिता, अभिभावक से लेकर शिक्षक तक सभी एक ही बात करते दिखते हैं कि उनके बच्चे पढ़ाई को लेकर गंभीर नहीं हैं. गंभीर नहीं होने का अर्थ उनकी चिंताओं/उम्मीदों के अनुसार बच्चा काम नहीं कर रहा. ‘पढ़ने’ का जहाँ अपना अर्थ है. यानि ‘बच्चों को पढ़ने के लिए’ कहने का मतलब हमेशा कुछ ‘सिखलाने से’ होता है. 


सामान्यतः कहानी-कविता या साहित्य का महत्व उस ‘सिखलाने वाली शिक्षा’ के अर्थों में कभी नहीं रहा. यानि उन सभी कामों से उसे भरसक दूर रखना जो उसे जीवन जीने के लिए सही अर्थों में तैयार करते हों. इसलिए साहित्य कभी भी अर्थपूर्ण काम के रूप में गिना ही नहीं गया. साहित्य एकांगी भी तो नहीं होता. खेलने-कूदने, गप्प हाँकने, चित्र बनाने, कहानी सुनने, दोस्तों के संग समय बिताने आदि बातें भी बच्चों की पंसद हैं. लेकिन इनके साथ मुश्किल ये है कि अर्थपूर्ण कामों के श्रेणी में गिने ही नहीं जाते. हकीकत तो यह है कि है बढ़ते बच्चों के रोजमर्रा के दुनयावी संघर्ष को न तो हम सही से पहचान पाते हैं न ही किसी प्रकार की सहायता कर पाने में सक्षम हैं. इसी तरह की आदत को लेकर हम जीते हैं. इसलिए यह कहीं भी सीखने की प्रक्रिया का भाग जान नहीं पड़ता.
जीविकोपार्जन और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता की सोच हमारे मानस पटल पर इतना हावी है कि बच्चों की शिक्षा के दूसरे विकल्प गौण लगते हैं. फ़िलहाल ये सोच उस पूरे समाज की है जहाँ हम रहते हैं. तभी तो हमारे नीति-निर्धारक भी हमसे एक कदम आगे सोचने लगे हैं. जहाँ गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा नयी शिक्षा की तकनीक, कला- साहित्य आदि के माध्यमों को सूदूर गाँवों तक सुनिश्चित करने की बात होनी चाहिए थी वहाँ ‘साईकिल पंचर बनाने’ जैसे विकल्प बड़ी संवेदनहीन तरीक़े से लागू कराए जाने की सिफ़ारिश हो रही है.

(चिराग़ – ए- दैर से )

हम सभी पढ़े-लिखे समाज से आने का दावा करते हैं. देश-दुनिया की तमाम हलचलों पर हमारी नज़र रहती है. तकरीबन हर महीने हो रहे चुनाव हों, ट्रंप से लेकर जिपनिंग की जन्मपत्री हो या फिर ट्वेंटी-ट्वेंटी सब पर हमारी पहुँच है. अगर साहित्य में अभिरुचि हो तो क्लासिक कृतियों से लेकर बेस्टसेलर तक की बातें हफ़्ते-महीनों में कभी-कभार कर ही लेते हैं. महीने में दो-चार किताबें पढ़ते तो नहीं लेकिन पढ़ने के लिए खरीद जरूर लेटते हैं. या बात उससे थोड़ी आगे बढ़े तो सोशल मीडिया पर कुछ पंक्तियों में उसकी सचित्र चर्चा भी कर लेते हैं. इन सबसे कभी फुर्सत मिले तो अपनी यादाश्त पर जोर देते हुए सोचिएगा कि गत दो-तीन वर्षों में बाल साहित्य के नाम पर या फिर बच्चों के लिए कौन सी किताब आपने हिंदी में पढ़ी है? या फिर उसके प्रकाशन की चर्चा सुनी है. थोड़ा ज़ोर लगाकर अख़बारों, सोशल मीडिया की ख़बरों, किसी बुक स्टोर या फिर किसी समीक्षा-चर्चा आदि की स्मृतियों को स्कैन करने पर पायेंगे कि दो-एक किताबें तो आपको याद आ गईं. (ये भला हो कुछ साल भर की चर्चित पुस्तकों और बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले पुरस्कारों का कि जिनके बहाने बाल साहित्य के कुछ टाईटल न्यूज के साथ जेहन में दाख़िल हो जाते हैं) लेकिन या पूछने पर कि हमने उसे किसी बच्चे को पढ़ने लिए कभी दिया है तो शायद इसके जवाब की उम्मीद भी बेमानी ही होगी. संचार के साधनों का विकास और हिंदी में बाल साहित्य कालेखन कम होना एक कारण बताया जाता है.

“बच्चों में बाल साहित्य के प्रति रुझान कम हो ऐसा नहीं होता. हैरी पॉटर का उदाहरण हम सबके सामने है. बालसाहित्य की अच्छी किताबें बच्चों तक नहीं पहुँचती. उनके मातापिता को नहीं मालूम कि कहाँ मिलती हैं तो ये दिक्कत है. इन्टरनेट मोबाइल कम्प्यूटर थोड़ा फ़र्क डाल रहे हैं. लेकिन एक अच्छी सी पुस्तक बच्चे के सामने हो तो वह जरूर पढ़ेगा. जरूर देखेगा और अपने लिए एक नई दुनिया का रास्ता ख़ुद ढूँढेगा और तय करेगा. इसलिएबहुत अच्छा साहित्य लिखा जाना चाहिए और बच्चों तक पहुँचना चाहिए” (एक रेडियो कार्यक्रम में प्रियंवद)
बाल साहित्य की दृष्टि से इस साल को महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए. महत्वपूर्ण इसलिए क्योंकि हिंदी के वरिष्ठ रचनाकारों ने इस बार बाल साहित्य का रुख किया है. वरिष्ठ रचनाकार विनोदकुमार शुक्ल का बाल उपन्यास एक चुप्पी जगह, कथाकार एवं इतिहासकार प्रियंवद की दो किताबें नाचघर (बाल उपन्यास) और मिट्टी की गाड़ी (कहानीसंग्रह) इस वर्ष इकतारा, भोपाल से प्रकाशित हुए हैं. इकतारा तक्षशिला एजुकेशनल सोसाईटी का बाल साहित्य एवं कला केंद्र है. ज्ञातव्य है कि ‘एक चुप्पी जगह’ और ‘नाचघर’ दोनों उपन्यास किस्तों में भोपाल से ही प्रकाशित होने वाली बाल पत्रिका ‘चकमक’ में छप चुके हैं.

‘नाचघर’ प्रियम्वद का पहला बाल उपन्यास है. यह उपन्यास पंद्रह अध्यायों में बाईस वर्षों के कथानक को समेटे हुए है. इसमें अतनु राय के चौदह ख़ूबसूरत इलस्ट्रेशन भी हैं, जोनब्बे के दशक की कहानी कहते उपन्यास को अनूठे कलेवर में प्रस्तुत करते हैं.
उपन्यास में लेखक के बारे में छपी एक संक्षिप्त टिप्पणी ;

“वे इतनी छोटी-छोटी चीजों से, वाकयों से इतना भर-पूरा ख़ूबसूरत उपन्यास बन देते हैं कि बया की याद आ जाती है. यानि जैसे बया को कहानी लिखना आता हो. सुबह पाँच बजे सिविल लाइंस के क़ब्रिस्तान में चहलकदमी करते वक्त उनके मन की कहानी पहली बार वहाँ सोए लोग सुनते हैं. भाषा का तिलिस्म कोई ऐसे ही तो खड़ा नहीं हो जाता. वे उपरी ब्यौरों के कायल नहीं हैं. वे छाँव का पता लगाने धूप का पीछा करते सूरज तक जाते हैं.”
उदारीकरण के बाद हमारे देश की सामाजिक संरचना के ढाँचे में परिवर्तन आया है. उसकी प्रतिष्ठा सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति आय से अनुमानित की जाती है. इसने कला-संस्कृति को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है. हमारे गाँवों में लोग धान के बीज को बड़े सुरक्षित तरीके से अगली फ़सलों के लिए बचाकर रखते थे. यह सिलसिला सदियों से चला आ रहा था. विगत दो दशकों में यह सिलसिला लगभग टूट सा गया है. हमने कुछ अतिरिक्त कामों से ख़ुद को आज़ादी दे दी. अबकुछ भी बचा ले जाने (संजो लेने/संरक्षित करने) की कोई चेष्टा नहीं है. बाजार ने हर चीज को हमारे घर तक उपलब्ध करा दिया है… रोटी…कपड़ा…मकान…मनोरंजन. बाजार ने हमें स्वकेंद्रित कर दिया है या हम ख़ुद होना चाहते थे? यह बात समझ में नहीं आती. हमने भरसक इसको पाँव पसारने में सहयोग ही किया.

उदारीकरण के बाद शहरों के नवीनीकरण की प्रक्रिया जैसे शुरू की गई थी. शहर के भीतर शहर बसने लगे थे… आधुनिक सुविधाओं से युक्त बहुमंजिला इमारतें, हाई टेक बाजार…और भी बहुत कुछ. कहने का मतलब जमीनों के दाम बेहिसाब महंगे हुए. रहन-सहन के तरीक़े तेजी से बदले. अब हर कोई व्यवसायी था. सबने कई मकान-प्लाट इसलिए खरीदे ताकि भविष्य में उनसे मुनाफ़ा कमाया जा सके. अपने निजी सम्पतियाँ इस सोच की बलि चढ़ीं फिर सार्वजनिक जगहें… हाट, खेल-मैदान, चारागाह, रंगशालाएं, होटल, पार्क, सिंगल स्क्रीन थियेटर और भी बहुत कुछ. धीरे-धीरे सब कुछ जैसे विलुप्त हो रहा है… कस्बों, शहरों और नगरों से. इस बात को लेकर हम भी अभ्यस्त होते जा रहे हैं. अब कुछ भी बचाने या फिर नई पीढ़ी को हस्तांतरित करने की कोई भावना नहीं. सबकुछ रेडीमेड व्यवस्था पर जैसे आश्रित होता जा रहा है. सामूहिकता जैसे शब्दकोश का एक विस्मृत शब्द बनकर रह गया है. उसी खोते हुए को बचा लेने की कहानी कहता है “नाचघर”.
‘वक्त के बीतने के साथ उसका खारापन कम होता रहता है. बेहद संघर्षों में निकला वक्त भी गुज़रकर नरम पड़ जाता है. और जब हम उसे याद करते हैं तो उसमें थोड़ी-बहुत मिठास आ ही जाती है. अगर यह बात बीत चुके सुदूर के वक्त की हो तब तो संघर्ष यादों में पड़े-पड़े मिठा ही जाते हैं.’
–सुशील शुक्ल (संपादक-चकमक, प्लूटो)

वर्तमान में लिखे जा रहे बाल साहित्य में गुजरे वक्त की मीठी यादों ही तो संजोयी गई हैं. बचपन के संघर्षों, भय, चिंताएं, अनुत्तरित सवालों और चुनौतियों की जगह सीमित है. जबकि वास्तव में यही हमारी और आने वाली पीढ़ी के लिए थाती हैं. ‘प्रियम्वद का नाचघर ’मीठी यादों को संजोने के साथ-साथ टीस की भी कहानी कहता है.
कानपुर शहर के पृष्ठभूमि में ‘नाचघर’ कहानी है दो किशोरों की- मोहसिन और दूर्वा. जो अपने परिवेश से बाहर कुछ तलाश रहे होते हैं .नाच घर उनका ठिकाना बनता है. जहाँ वे बाहर की दुनिया से संपृक्त हो अपने ख्यालों के पंख लगाकर उड़ने की कोशिश करते हैं. दोनों का किशोर वय निश्छल प्रेम है. उससे उपजा विस्मयऔर रोमांच भी. जो कहानी के साथ विविधरंगी होता जाता है. सधी-सरल भाषा में छोटे-छोटे वाक्य बतियाते से लगते हैं. मानों कोई सामने बैठा नाचघर की आँखों देखी कहानी सुना रहा हो. पात्र आपस में संवाद करते-करते सहसा पाठक से भी बातें करने लगते हैं. बातें भी वैसी कि बहुत सी व्यवहारिक-मानसिक-सामाजिक गिरहें खुल जाएँ. मसलन

अँधेरा अब बढ़ गया था. रोशनदान से अज़ान की आवाज़ फड़फड़ाती हुई अन्दर आई. मोहसिन उदास हो गया. मोहसिन उदास हो गया. उसकी अम्मी उसे ज़रूर ढूँढ रही होंगी. लड़की ने मोहसिन की उदासी देखी.
\”एक काम करते हैं. तुम मुसलमान हो यह नाम से ही पता चलेगा. कोई मेरे घर से पूछे तो दूसरा नाम बता देना.\”
\”क्या?\”
\”मोहन.\”
\”ऐसे नहीं… तुम भी अपना नाम बदलो- तब.\”
\”मैं क्यों?\”
\”कल तुम मेरे घर चलना. वहाँ भी सब काफिरों से मिलने से मना करते हैं.\”
\”ठीक है…\” लड़की हंसी. \”क्या नाम रखोगे?\”
मोहसिन ने लड़की को देखा. वह बहुत पास थी. मोहसिन ने नीला आकाश, चिमनियों के इर्द-गिर्द लाल बादलों के गुच्छे, शहतूत, दमपुख्त की केसर, आरती की लौ सब को एक साथ देखा.
\”हुस्ना.\” वहा हंसा.
अन्य प्रमुख पात्रों में एक तरफ़ सगीर और उसकी लिल्ली घोड़ी हैं. सगीर एक तरफ़ वैद्यजी की रामलीला सीता की सहेली बनता है तो दूसरी और बारात में लिल्ली घोड़ी के साथ नाचते हुए ‘तू प्रेम नगर का राजा…जैसे गीत गाता है. वर्तमान में नाच के अप्रासंगिक होते जाने को लेकर मायूस है. एक कलाकार जो डूबती हसरतों के साथ दरगाह के समीप की दुकान पर चादर बेचता है.
दूसरी ओर पादरी हेबर, मेडलीनकी वसीयत और शहर काबड़ा बिल्डर काला बच्चा हैं.जिनके हाथों में नाचघर के भविष्य का फ़ैसला था. यानि शहर की सांस्कृतिक विरासत के बिकने के पीछे जिम्मेदार लोग. इसके साथ-साथ अन्य छोटे-छोटे लेकिन महत्वपूर्ण पात्र इस उपन्यास में रोचकता के साथ बुने गए हैं. जो पाठकों को कहानी की लय में शामिल कर लेते हैं.इस उपन्यास का केन्द्रीय पात्र है – “नाचघर”.
“दो सौ साल से ज्यादा पुरानी इमारत पर अब सब ओर से ताले लगे थे. इसके मालिक कहीं इंग्लैण्ड में रहते थे. तब यह शहर की सबसे खूबसूरत इमारत थी. शाम को जब इसकी रोशनियाँ जलतीं, सड़कों पर इत्रवाला पानी छिड़का जाता, बग्घी, पालकियों पर अंग्रेज औरतें आदमी आते, अंदर की बाजों की धुन पर थिरकते जोड़ों की आवाजें बाहर आतीं, तब लोग दूर झुण्ड बनाकर इसे देखा करते. यहाँ हमेशा तरह-तरह का नाच होता. इतना ज्यादा ‘नाच’ होता था कि लोगों ने इसका नाम नाचघर रख दिया था.”(“नाचघर” का अंश)
उपन्यास में लिल्ली घोड़ी की उदासी, पियानो और बालों की लट,एक रुकी हुई सुबह, द लास्ट ग्लिम्पस, सोन ख़्वाब, केशों में केसर वन आदि जैसे अलग-अलग उप-शीर्षक हैं. इन्हीं शीर्षकों के साथ यह उपन्यास चकमक पत्रिका में धारावाहिक के रूप में छपा भी था.
इस उपन्यास में कई रेखाचित्र लेखक ने खींचे हैं. इन रेखाचित्रों से उपन्यास में सामान्य से सामान्य पात्र भी उभर आता है. जो या तो घटना विशेष को मुकम्मल करता है या फिर उनको विस्तार दे देता है. जैसे ‘लिल्लीघोड़ी की उदासी’ का सगीर,‘कन्फेशन बॉक्स’ में लड़की मेडलिन, ‘एक रुकी हुई सुबह’ में पचसुतिया पेड़ के नीचे बैठा हुआ आदमी, ‘लालमिर्च’ का काला बच्चा और नुजुमी आदि.यहाँ नुजुमी के बारे में उद्धृत एक अंश देखते हैं;
“सीढ़ियाँ चढ़कर काला बच्चा ने कोठरी के पुराने दरवाज़े पर दस्तक दी. यह लग तरह की दस्तक थी. उसे यह नुजुमी ने सिखाई थी. यह पूरे चाँद की रात में रोते हुए भेड़िए की आवाज़ जैसी थी. नुजूमी इससे पहचान जाता था कि कौन मिलने आया है. उसने हर मिलने वाले को अलग तरह से दस्तक देना सिखाया था. कोई कुएँ में बाल्टीडालने जैसी आवाज़ में थे, तो कोई खतरा देख कर चिल्लाने वाली गिलहरी की तरह थी. ज़ेबरे की धारियों की तरह उसने दस्तक की भी एक भाषा तैयार कर ली थी. दस्तक से नुजुमी पहचाना गया कि काला बच्चा है.”
(‘लालमिर्च’ काअंश)
नुजुमीके व्यक्तित्व की विशेषताओं को बड़ी साफ़गोई लेखक बयां करता है. पाठक उपन्यास खत्म होने के बावजूद भी इन छोटे-छोटे पात्रों को भूल नहीं पाता. इस तरह के कई पात्र हैं जिनका बेहद बारीकी से प्रभावशाली चित्रण करने में लेखक सफ़ल रहे हैं. जिनको लेकर बच्चों-किशोरों में कुतुहल बनी रहेगी.
लेखक ने उपन्यास में बच्चों की छोटी-छोटी बातों को लेकर अवलोकन,ख्यालों के तानेबाने को बखूबी दो निबंधों के माध्यम से व्यक्त किया है. घोड़े और सुबह शीर्षक से ये निबंध मोहसिन और दूर्वा के द्वारा एक प्रतियोगिता में लिखे गए हैं.
“घोड़े मनुष्य के सबसे पुराने दोस्त हैं. इंसानों ने जबसे धरती को जीतना शुरू किया है तब से घोड़े भी उनका साथ दे रहे हैं. ये घोड़े इंसानों को अपनी पीठ पर बैठाकर आल्प्स से गंगा और वोल्गा से अरब के रेगिस्तान के पार दौड़ते थे….” इसे मोहसिन ने लिखा था.
जबकि दूर्वा सुबह के बारे में लिखती है कि – “सुबह दो होती हैं. एक वह जिसमें रौशनी होती है. सूरज, चिड़िया, आसमान के रंग,स कूल जाने वाले बच्चे, सड़क पर झाडू लगाने वाले, मंदिरों की पूजा, नल का पानी होता है. इस सुबह के बारे में हम सभी जानते हैं. पर इस सुबह से पहले भी एक सुबह होती है. यह बहुत थोड़ी देर के लिए होती है. इसमें रौशनी नहीं होती. यह अँधेरा खत्म होने और रौशनी शुरू होने से पहलेवाले बीच के समय में होती है. या उषा या नसीम से थोड़ा पहले का समय होता है. असली सुबह यही है….”
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005(NCF2005) इतिहास शिक्षण के बारे में यह कहता है – “इतिहास को इस तरह से पढ़ाया जाना चाहिए कि उसके माध्यम से विद्यार्थियों में अपने विश्व की बेहतर समझ विकसित हो और वे अपनी उस पहचान को भी समझ सकें. जो समृद्ध तथा विविध अतीत का हिस्सा रही है. ऐसे प्रयास होने चाहिए कि इतिहास के विद्यार्थियों को विश्व में होते रहे बदलाओं व निरंतरताकी प्रक्रियाओं की खोज में सक्षम बना पाए और वेयह तुलना भी कर सकें कि सत्ता और नियंत्रण के तरीक़े क्या थे और आज क्या है?”
नाचघर में जीवंत शहर है. लोग हैं, उनके जीवन-यापन हैं. शहर का वर्तमान है. इतिहास भी है. अक्सर राजकीय विद्यालयों में इतिहास के शिक्षकों से पठन-पाठन पर बात करने का मौका मिलता है. एक सवाल बार- बार दुहराता हूँ- कक्षा में इतिहास का शिक्षण कैसे हो? हर बार जवाब जरूर आता है– “कहानी के रूप में”.लेकिन ऐतिहासिक संदर्भो को कहानी का भाग बनते और उसे सुनाते कम ही देखने-सुनने का मौका मिलता है. लेखक इतिहास के अध्येता रहे हैं. ‘भारत विभाजन की अन्तःकथा’ इनके प्रसिद्ध  किताबों में से है. इस उपन्यास में ऐतिहासिक सन्दर्भ कहानी के साथ इस तरह आते हैं कि इतिहास बोध का कोई अतिरिक्त आग्रह पाठक को नहीं लगता.एक बानगी देखते हैं-

“सन 1600 की आख़िरी रात के कुछ आखरी घंटे बचे थे. उसी समय, जब नया साल धरती पर उतरने के लिए सज-सँवर रहा था और शेक्सपियर ‘हैमलेट’ लिख रहा था और आगरा के लाल किले में अकबर गहरी नींद में सो रहा था, रानी एलिज़ाबेथ ने सामने रखे कागज़ पर एक शाही मुहर मार दी थी. इसी के साथ इस मुल्क की किस्मत बदलने वाली ‘ईस्ट इंडिया’ कम्पनी का जन्म हो गया. लंदन के कुछ छोटे-मोटे व्यापारियों वाली इस कम्पनी ने, सिर्फ़ दो सौ सालों के अन्दर हिंदुस्तान ही नहीं, दुनिया के आबादी के पाँचवे हिस्से को अपने अधीन कर लिया.”
(कन्फेशन बॉक्स का अंश)
14 और 15 अगस्त 1947 की रात को जुड़वां बच्चों की तरह, दुनिया के नक़्शे पर दो नए देशों ने जन्म लिया. इनके नाम भारत और पाकिस्तान थे. दुनिया के देशों में बँटवारे होते रहे हैं,पर यह सबसे बड़ा और बुरा बंटवारा था. लाखों की मौत हुई और लाखों लोग बेखर हुए. हजारों अपने परिवारों से बिछड़ गए.”
(‘लालमिर्च’ काअंश)
इसी तरह पार्क का कुआँ जिसमें 1857 के ग़दर दौरानदो सौ बीस अंग्रेज औरतों, बच्चोंको मार करके उनकी लाशें फेंक दी गई थीं. जिसपर बनी हुई परी की आँखों से रात में दो सौ बीस आँसू निकलते थे.
या फिर  कानपुर में जूते बनाने के कारखाने की कहानी जो 20 अक्टूबर 1962 के चीन हमले से जुड़ती है.
इतिहास के सन्दर्भों का लेखक ने बहुत ही सुन्दर प्रयोग किया है. जिससेबाल पाठकों की रूचि इस उपन्यास के कथानक में बढ़ जाएगी.
उपन्यास बहुत ही रोचक तरीके से लिखा गया है. इसमें पठनीयता भी बहुत है. इसमें नाचघर एक सपने की तरह आया है,जिसे प्रियम्वद ने नयी पीढ़ी की आँखों में भरना चाहते हैं – वर्तमान निर्मम समय में लुप्त होती, नष्ट की जा रही शिथिल पड़ती विरासतों, संस्कृतियों और कलाओं को बचालेना. जैसे मोहसीन और दूर्वा ने नाचघर को बचा लिया और उसकी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं. 
अंत में दो तीन बातें जो अगर इस उपन्यास में दुरुस्त कर ली गयी होती तो शायद यह उपन्यास और भी प्रभावी हो जाता. मसलन रानी एलिजाबेथ का एक ही सन्दर्भ दो बार हू-ब-हू प्रयुक्त हुआ है. जिसको पढ़ते हुए पाठक एक दुहराव महसूस करता है. सगीर और उसकी लिल्ली घोड़ी उपन्यास के शुरू में महत्वपूर्ण पात्र के रूप में उभरते हैं. उपन्यास पढ़ते हुए लगता है कि इन चरित्रों का विस्तार जरूरी था. साथ ही ‘हम होंगे कामयाब’ और ‘ऊपर चले रेल का पहिया, नीचे बहती गंगा मैया’ को पढ़ते हुए कहानी ठहर सी गई लगती है.

हाल-फ़िलहाल में ऐसे बाल उपन्यास हिंदी में नहीं आए हैं. प्रियम्वद का “नाचघर” बाल साहित्य में उनके एक योगदान के रूप में याद किया जाएगा. इसके लिए लेखक और उनके प्रकाशक ‘इकतारा, भोपाल’ का साधुवाद.

navnitnirav@gmail.com
_____________________________________ 
बाल उपन्यास : नाचघर  (प्रियम्वद)
संस्करण – २०१८
प्रकाशक- जुगनू प्रकाशन, इकतारा भोपाल. 
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