समीक्षा दो लोग पढ़ते हैं – खुद समीक्षक और दूसरा वह लेखक; जिसकी (कृति) समीक्षा की गयी है. कभी-कभी संपादक या/और प्रूफ रीडर भी पढ़ लेते हैं.
पंकज यहाँ शोध आधारित उपन्यास के क्रम में सहानुभूति या स्वानुभूति के सवाल से भी टकराने का प्रयास कर रहे हैं, हालांकि अब शोध आधारित रचना या मानवीय संवेदना पर आधारित रचना का प्रश्न ज्यादा मुखर होना चाहिए न कि सहानुभूति बनाम स्वानुभूति का प्रश्न. पंकज मूलतः अपने विश्लेषण में यही कहना चाहते हैं. आदिवासी संदर्भों पर बात करते हुए उन्होंने लिखा है कि, ‘आदिवासियों का जीवन अधिक सहज छल–प्रपंच रहित और प्रकृति के साथ सहज सामंजस्यपूर्ण होता है. वे मुख्यधारा के कथित सभ्य समाज के शोषणचक्र में भी इसीलिए फँस जाते हैं कि इस समाज के तौर तरीके और काइयांपन से वे भोले लोग सर्वथा अनजान होते हैं लेकिन जब उन्हें अपने साथ हो रहे छल-प्रपंच का पता चलता है या उनके समाज के सामने कोई संकट आता है, तो उसका सामना सिर्फ एक पीड़ित व्यक्ति, नहीं बल्कि पूरा समाज मिल करके करता है. किसी व्यक्ति को अकेला छोड़ देना गैर-आदिवासी समाज की प्रवृत्ति है. इसी क्रम में आगे लिखा गया है, ‘सबसे अधिक समस्या आदिवासियों के जीवन में बाहरी हस्तक्षेप से बढ़ी है, जिसके कारण संघर्ष बढ़ा है.’
मेरे विचार से पंकज जी की उक्त सारी बातें उस जगह अच्छी तरह से लागू हो सकती हैं, जहां आदिवासी और गैर-आदिवासी समुदाय साथ–साथ/आस–पास रहते हैं या जहां उदारीकरण, निजीकरण, विकास और दबंगई के कारण भी आदिवासियों से गैर-आदिवासियों द्वारा उनके संसाधन छीने जा रहे हों. यानी जहां आदिवासी समुदाय कम संख्या में है और वे लोग अभी भी पढ़े लिखे नहीं है, यह तर्क वहां सही हो सकता है, जहां हम आदिवासियों को अभी भी आदिम रूप में ही देख, समझ, पा और स्वीकार रहे हैं. ‘भूलन कांदा’ के परिप्रेक्ष्य में यह बात ठीक हो सकती है, पर आदिवासी मात्र पर इसे लागू नहीं किया जा सकता.
जरा एक नजर पूर्वोत्तर की ओर डालिए, वे राज्य, जो आदिवासी बहुल हैं, वे राज्य, जहां साथ–साथ/आस–पास गैर-आदिवासी नहीं बल्कि विभिन्न आदिवासी जनजातियां ही रहती हैं. जहां शिक्षा भी पहुंच रही है और सत्ता व राजनीति पर भी इन्हीं आदिवासियों का प्राधान्य; क्या पंकज जी की बात वहां लागू हो पाएगी! सच यह है कि पूर्वोत्तर में एक आदिवासी समुदाय ही दूसरे आदिवासी समुदाय से सत्ता और साधनों के लिए संघर्षरत है. यहाँ अगड़े आदिवासियों के मन में दूसरे पिछड़े आदिवासियों के प्रति वैसा ही भाव देखा जा सकता है, जैसा कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच है.
आफस्पा कानून तथा पड़ोसी राज्यों और देशों से घुसपैठ आदि को छोड़ दें तो यहां आदिवासियों की आपसी समस्याएं कम नहीं है. यहां शिक्षित हो गए और नौकरियों में आ गए आदिवासी पिछड़े अनपढ़ आदिवासियों को बेतरह कमतर समझते हैं. तो क्या अगड़े होने के कारण, बेवकूफ़ माने जाने की हद तक सीधे-सादे न रह जाने के कारण ये समुदाय आदिवासी नहीं कहलाए जाएंगे! नकार दीजिए न! अब चाहें तो लगे हाथ कह डालिए कि नफरत का यह संस्कार उन्हें पूंजीवादी स्थितियों और निजीकरण आदि से पनपी नई परिस्थितियों ने दिया है, पर एक मिनट रुकिए, पहले जरा सोचिए कि जो दुनिया इतनी सीधी-सादी, भोली और सहज थी, वह ऐसी क्योंकर हो गई कि अपने ही दूसरे आदिवासी समुदाय का गला घोंटने पर उतारू हो गई? तथाकथित सभ्यता का आवरण ओढ़े जाने से पूर्व जब कभी हम स्वयं जंगलों में रहते होंगे तो क्या हम भी ऐसे ही सीधे और भोले नहीं थे? फ़िर भोलेपन का तर्क सिर्फ़ आदिवासियों के साथ ही क्यों? हम इस बात पर स्यापा क्यों नहीं करते कि हमारे और सरकार द्वारा न केवल निजी और सरकारी स्वार्थों की पूर्ति के लिए आदिवासियों का शोषण बंद किया जाना चाहिए बल्कि उन्हें नई परिस्थितियों के अनुसार उनके जीवन को समृद्ध करने की अच्छाई बुराई बताकर उन्हें जेनुइन ढंग से आगे बढ़ने में मदद करनी चाहिए न कि उन्हें दया का पात्र बना देना चाहिए!
‘भूलन कांदा’ का जिक्र करते हुए पंकज कहते हैं कि, ‘छत्तीसगढ़ के आदिवासी बेहद भोले और छल–प्रपंचों से दूर शांतिप्रिय जीवन में यकीन रखने वाले हैं, जिन्हें यह तक नहीं मालूम कि भारत कब गुलाम था, कब आजाद हुआ, पहले कौन शासक था और आज कौन शासक है.’
सवाल यह है कि आखिर इसमें गलती किसकी है कि आदिवासी मूर्खता की हद तक भोले व पिछड़े रह गए. इसमें हम तथाकथित अगड़ों की जिम्मेवारी कितनी है, इसकी भी पड़ताल की जानी चाहिए. बहरहाल, ‘भूलन कांदा’ उपन्यास की तारीफ में पंकज के तर्क से बखूबी सहमत हुआ जा सकता है कि, ‘यह एक ऐसा उपन्यास है, जो आदिवासी जीवन के बारे में कोई मायालोक नहीं रचता.’ उन्होंने उपन्यास का नैरेशन बहुत अच्छा किया है; आदिवासी प्रकृति पूजक हैं, सामूहिकता में बेहद यकीन रखते हैं, सुख–दुख में साथ रहते हैं, पर फ़िर कहें कि यह बात क्षेत्र विशेष के आदिवासी समुदाय विशेष पर लागू हो सकती है, सब पर नहीं. उपन्यास में देखें तो, जो सामूहिकता मुखिया के कहने पर सारे आदिवासी समुदाय की एक आवाज बन जाती है कि बच्चों की हत्या गंजहा द्वारा नहीं, भकला के हाथों हुई है, वह दूसरी बार जांच के समय क्यों सामने नहीं आ पाती! गंजहा को जेल में इतना मेहनती व शांत देखकर जेलर को शक हो जाता है कि यह आदमी हत्यारा नहीं लगता. सो वह जांच बिठवाता है और वही आदिवासी समाज जो पहली बार में सामूहिकता के लिए जान देने को तत्पर था, दूसरी बार में टूट जाता है. जाहिर है, इसके कारणों की पड़ताल भी की जानी चाहिए.
पंकज की आलोचना में ‘नेम ड्रॉपिंग’ काफ़ी देखी जा सकती है. यहाँ भी उन्होंने लिखा है कि, ‘नोबल पुरस्कार से सम्मानित अमरीकी उपन्यासकार अर्नेस्ट हेमिंग्वे के कालजयी उपन्यास ‘द ओल्ड मैन एंड द सी’ की तरह संजीव बख्शी का यह उपन्यास ‘भूलन कांदा’ भारी–भरकम उपन्यास नहीं है.’ यहाँ हेमिंग्वे की तुलना किस अर्थ में की गई, स्पष्ट नहीं हो पाया.
‘करुणा की चित्रलिपि में जीवन का गद्य’ नामक लेख महादेवी वर्मा के गद्य साहित्य पर केंद्रित है. इसमें पंकज ने ठीक रेखांकित किया है कि, ‘आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास के संशोधित संस्करण में महादेवी वर्मा के गद्य का जिक्र नहीं किया, जबकि 1940 में आए अपने इतिहास के संशोधित संस्करण में शुक्लजी ने लिखा है, ‘इस संस्करण में समसामायिक साहित्य का अब तक का आलोचनात्मक विवरण दे दिया गया है जिससे आज तक के साहित्य की गतिविधि का पूरा परिचय प्राप्त होगा, लेकिन उन्होंने महादेवी के गद्य का ज़िक्र नहीं किया. यही कारण है कि महादेवी की पहचान बड़े स्तर पर एक कवयित्री की ही बनकर रह गई जबकि उनका गद्य भी कम मार्के का नहीं है.’
पंकज ने अपने लेख में महादेवी के इस अचीन्हे गद्य पर बारीकी से विचार किया है. उनके अनुसार, ‘प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में गुलाम भारत के ग्रामीण और किसानों के जीवन यथार्थ का चित्रण जिस रूप में हुआ है, उसे अनुपमेय माना जाता है पर यदि हम महादेवी के ‘अतीत के चलचित्र’, ‘स्मृति की रेखाएं’ और ‘पथ के साथी’ के संस्मरणों में चित्रित ग्रामीण स्त्रियों की पराधीनता की पीड़ा और तत्कालीन जीवन यथार्थ को देखें तो लगता है प्रेमचंद ने ग्रामीण स्त्रियों के जीवन यथार्थ का जैसा चित्रण किया है, वह एक पुरुष की दृष्टि से देखे हुए यथार्थ की महज ऊपरी परत है उनके कथा साहित्य में स्त्रियों का जीवन यथार्थ पुरुषों के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन यथार्थ का ही एक हिस्सा-सा है, जिसमें स्त्रियों के वैयक्तिक जीवन-यथार्थ, व्यक्तिगत दुख, आकांक्षा और उसकी छटपटाहटों को कम जगह मिली है.’
‘श्रृंखला की कड़ियां’ में महादेवी लिखती हैं, ‘नारी का मानसिक विकास पुरुषों के मानसिक विकास से भिन्न परंतु अधिक द्रुत, स्वभाव अधिक कोमल और प्रेम–घृणादि भाव अधिक तीव्र तथा स्थाई होते हैं, इन्हीं विशेषताओं के अनुसार उसका व्यक्तित्व विकास पर समाज के उन भावों की पूर्ति करता रहता है जिनकी पूर्ति पुरुष द्वारा संभव नहीं.’ आलोचक पंकज पराशर ने इस संदर्भ की तुलना करते हुए विश्लेषित किया है कि ‘प्रेमचंद चूंकि कथाकार थे, इसलिए कथा-साहित्य के पात्रों के बारे में कल्पना से छूट लेकर और उनके स्वरूप और स्वभाव को गढ़ने की गुंजाइश थी, लेकिन महादेवी वर्मा ने संस्मरण, रेखाचित्र और निबंध की राह चुनी, जिसमें कल्पना और ‘गल्प’ की कोई गुंजाइश नहीं होती. एक और बात जिसका जिक्र करना यहां अप्रासंगिक नहीं होगा कि प्रेमचंद की सहानुभूति स्त्रियों के साथ है, परंतु स्वानुभूति प्रेमचंद के पास नहीं है, इसलिए वह एक स्त्री की तरह गुलाम भारत की स्त्रियों की सामाजिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक पराधीनता के यथार्थ को समझने में असमर्थ थे.’
महादेवी के संस्मरण, रेखाचित्र एवं निबंध वाकई स्त्री-दृष्टि से बेहद गंभीर और स्वानुभूत दृष्टि लिए हैं. श्रंखला की कड़ियां, अतीत के चलचित्र और स्मृति की रेखाएं जैसी रचनाओं के ढेरों उदाहरण इस बात को सिद्ध करते हैं. यहाँ पंकज की टिप्पणी है कि महादेवी वर्मा ने जिन पात्रों और उनके समाजों के बारे में लिखा है, उसमें सिर्फ स्त्रियां ही व्यवस्था और सत्ता की सताई हुई नहीं है, पुरुष भी पीड़ित हैं, इसलिए महादेवी को सिर्फ स्त्रियों के पक्ष में लिखने वाली स्त्रीवादी लेखिका कहना ठीक नहीं होगा. पुरुष सत्ता, समाज सत्ता और अर्थसत्ता के शिकार भारतीय समाज में सिर्फ स्त्रियां ही नहीं, पुरुष भी हैं. अपनी भावुकता और निश्छलता से पुरुषों की विवशता भी लेखिका के हृदय को अपार करुणा से आप्लावित कर देती है. ‘बदलू’, ‘घीसा’, ‘रामा’, ‘अलोपी’, ‘चीनी फेरीवाला’, ‘जंगबहादुर’ और ‘ठकुरी बाबा’ ऐसे पात्र हैं, जिनकी दशा उसी तरह लेखिका को मर्माहत करती है, जैसी कि ‘गुंगिया’, ‘भक्तिन’, ‘बिबिया’, ‘सबिया’, ‘अभागी स्त्री’, ‘बालिका माँ‘ या ‘बिट्टो’ की. महादेवी के संस्मरण, रेखाचित्र एवं निबंध वाकई स्त्री-दृष्टि से बेहद गंभीर और स्वानुभूत दृष्टि लिए हैं. श्रंखला की कड़ियां, अतीत के चलचित्र और स्मृति की रेखाएं जैसी रचनाओं के ढेरों उदाहरण इस बात को सिद्ध करते हैं. यहाँ पंकज की टिप्पणी है कि महादेवी वर्मा ने जिन पात्रों और उनके समाजों के बारे में लिखा है, उसमें सिर्फ स्त्रियां ही व्यवस्था और सत्ता की सताई हुई नहीं है, पुरुष भी पीड़ित हैं, इसलिए महादेवी को सिर्फ स्त्रियों के पक्ष में लिखने वाली स्त्रीवादी लेखिका कहना ठीक नहीं होगा. पुरुष सत्ता, समाज सत्ता और अर्थसत्ता के शिकार भारतीय समाज में सिर्फ स्त्रियां ही नहीं, पुरुष भी हैं. अपनी भावुकता और निश्छलता से पुरुषों की विवशता भी लेखिका के हृदय को अपार करुणा से आप्लावित कर देती है. ‘बदलू’, ‘घीसा’, ‘रामा’, ‘अलोपी’, ‘चीनी फेरीवाला’, ‘जंगबहादुर’ और ‘ठकुरी बाबा’ ऐसे पात्र हैं, जिनकी दशा उसी तरह लेखिका को मर्माहत करती है, जैसी कि ‘गुंगिया’, ‘भक्तिन’, ‘बिबिया’, ‘सबिया’, ‘अभागी स्त्री’, ‘बालिका माँ‘ या ‘बिट्टो’ की. रोचक है कि पंकज अपने तर्क से स्वानुभूति और सहानुभूति के स्तर पर जो बात प्रेमचंद पर लागू कर रहेहैं, वह महादेवी पर लागू क्यों नहीं हो रही! इसी लेख में दी गई पिछली टिप्पणी के अनुसार यदि प्रेमचंद के लेखन में पुरुष की दृष्टि से लिखा होने के कारण उसमें स्त्रियों के वयक्तिक जीवन यथार्थ व्यक्तिगत दुख आकांक्षा और उसके छटपटाहटों को कम जगह मिली है, स्वानुभूति न होने के कारण प्रेमचंद एक स्त्री के तरह गुलाम भारत के स्त्रियों के सामाजिक ऐतिहासिक और राजनैतिक पराधीनता को समझने में असमर्थ रहे होंगे, तो फ़िर महादेवी उसी तर्क से एक स्त्री होने के कारण अपने लेखन में पुरुषों के प्रति वस्तुनिष्ठ कैसे हो जाएँगी!
पंकज जी स्वानुभूति बनाम सहानुभूति के तर्क से प्रेमचंद को तो कमतर साबित कर दे रहे हैं पर ऐन उसी आधार पर महादेवी वर्मा को स्थापित कर रहे हैं. यद्यपि पंकज जी ने महादेवी के स्त्री-पात्रों की आर्थिक आजादी, शिक्षा, बाल-विवाह, बेमेल-विवाह, दहेज आदि से संबंधित मुद्दों का बड़ा अच्छा विश्लेषण किया है. उन्होंने न केवल मनुष्य बल्कि मनुष्येतर प्राणियों को भी अपने गद्य का प्रमुख हिस्सा बनाया, इसका भरपूर रेखांकन इस आलेख में किया गया है.
‘हिंदी गद्य की शमशेरियत’ एक छोटा लेख है, जिसमें शमशेर के गद्य की विशेषताओं की सैद्धांतिक चर्चा की गई है, लगभग इस अर्थ में कि अगर गद्य कवियों की कसौटी है तो शमशेर की कसौटी गद्य में भी कविता, रंग और चित्र ही है. ‘मुझ में ढलकर बोल रहे जो वे समझेंगे’ भारत यायावर की ‘नामवर होने का अर्थ’ किताब की समीक्षा बतौर लिखा गया है. इसमें प्रोफ़ेसर नामवर सिंह जैसे जीवंत किंवदंती बन चुके शिखर आलोचक के वाद-विवाद और संवादों पर एक अच्छा वैज्ञानिक-विश्लेषण मौजूद है.
‘निज लय का अनुपम गद्य’ में राजेश जोशी की पुस्तक ‘किस्सा कोताह’ की समीक्षा की गई है. इसी तरह ‘विष्णु नागर आलोचना से मुखामुखम’ में विष्णु नागर की पुस्तक ‘कविता के साथ-साथ’ की समीक्षा है. इस अर्थ में ‘1857 का गदर और मिर्ज़ा ग़ालिब’ एक महत्वपूर्ण लेख है. ग़ालिब जैसा महान शायर अपनी शायरी और ‘दस्तंबू’ नामक अपनी डायरी में 1857 के गदर के बारे में क्या लिख रहा था, इसके बेहतरीन विवेचन के साथ उस दौर में मिर्जा ने अपने निजी जीवन में क्या-क्या झेला, इसकी दास्तान भी बयाँ की गई है.
इस पुस्तक का दूसरा खंड ‘इतिहास बनाम विमर्श’ शीर्षक से है, जिसका पहला लेख है- ‘खड़ी बोली कविता का इतिहास : तथ्य और सत्य’. शुरुआत में पंकज ने इस बात पर गहराई से विचार किया है कि किसी भी इतिहास को पढ़ने के साथ-साथ उसमें मौजूद तथ्यों और निष्कर्षों को सीधे सीधे स्वीकार लेने के बजाय, इतिहासकार ने उन्हीं तथ्यों और निष्कर्षों को क्यों रखा होगा, यह जानना चाहिए और इसके लिए स्वयं उस इतिहासकार की मंशा का भी अध्ययन किया जाना चाहिए. हिंदी, हिंदू, हिंदी जाति की अवधारणा और नवजागरण के परिदृश्य की ऐतिहासिक स्थिति जानने के लिए इस लेख का शुरूआती हिस्सा बेहद महत्त्वपूर्ण है, साथ ही खड़ी बोली की कविता की शुरुआत एवं खड़ी बोली को अपनाने संबंधी भारतेंदु आदि लेखकों के संशय की पड़ताल भी इस लेख में की गई है.
पंकज ने लिखा है कि, ‘जिस खड़ी बोली में कविता करने की बात को मुश्किल कहकर कविगण पहले से टालते रहे, उसकी एक पूरी परंपरा यहां पहले से मौजूद थी. खड़ी बोली कविता की परंपरा जिन भारतेंदु से शुरू हुई बताई जाती है, वह भारतेंदु इसमें ‘कठिनता’ महसूस करते हैं, जबकि आमिर खुसरो, कबीर, नजीर अकबराबादी, राम प्रसाद ‘निरंजनी’ आदि इसमें सुगमतापूर्वक रचनाएं करते रहे.’ लेकिन इस लेख में चंदा झा का जिक्र जिस तरह भारतेंदु के बरक्स एक पैरेलल व्यक्तित्व की तरह खड़ा दिखाया गया है, वह बहुत तार्किक नहीं लगता. इसमें चंदा झा का ‘बिहारी नवजागरण’, ‘हिंदी जाति की अवधारणा’ आदि के संदर्भ में महत्व निदर्शन और विश्लेषण करने के बजाय खड़ी बोली कविता के संदर्भ में वे किस रूप में काम कर रहे थे, यह अधिक फोकस ढंग से कहा जाता, तो बेहतर होता.
वस्तुतः चंदा झा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर अलग से एक लेख होना चाहिए था, यहां सिर्फ खड़ी बोली की कविता के संदर्भ में उनके योगदान को रेखंकित किया जाता, तो शायद ज्यादा उचित होता.
इस पुस्तक में ‘पब्लिक इंटलेक्चुअल और अमर्त्य सेन’ शीर्षक लेख की जितनी प्रसंशा की जाए, कम होगी. यह लेख केवल अमर्त्य सेन और उनकी किताब के जिक्र के साथ अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में मौजूद अन्य कई पब्लिक इंटेलेक्चुअलों के लेखन और उनके विद्रोही व्यक्तित्व का रेखांकन ही नहीं करता, बल्कि इसमें पहली बार हिंदी में ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ की अंतरराष्ट्रीय अवधारणा को सामने रखा गया है.
‘कई विमर्शों के जनक लेवी स्त्रॉस’ नामक लेख लेवी स्ट्रॉस पर हिंदी में परिचयात्मक, लेकिन गंभीर किस्म का बन पड़ा है. इसे पढ़ने के बाद लेवी स्त्रॉस की समाजशास्त्र, दर्शन, नृतत्वशास्त्र एवं संरचनावाद संबंधित पुस्तकों के हिंदी अनुवाद एवं उनके पठन-पाठन की गहरी जरूरत महसूस होती है, ताकि हिंदी के पारंपरिक वैचारिक लेखन पर नवीन अंतरराष्ट्रीय प्रभाव एवं हस्तक्षेप संभव हो सके और हिंदी का लेखन वैश्विक स्तर पर खड़ा हो सके.
‘बालसाहित्य : खुद के बहाने एक बहस’ शीर्षक लेख में हिंदी में बाल साहित्य की वर्तमान अवस्था और उसकी जरूरत पर एक बेहतरीन विमर्श सामने आया है. पंकज जी ने इसे खुद अपने बचपन से जोड़कर बेहद व्यावहारिक आयाम दे दिया है. इसमें उठाए गए सवाल इतने मौजूँ हैं कि लगता है यह लेख जरूरी तौर पर हिंदी पाठ्यक्रमों का हिस्सा होना चाहिए ताकि हम वास्तविक धरातल पर न केवल अपने बुजुर्गों, अपने लोक और अपने बचपन की ओर लौट सकें, बल्कि आने वाली पीढ़ी को बाल साहित्य की अच्छी विरासत भी सौंप सकें.
‘हिंदी पट्टी के युवाओं का स्वप्न और संघर्ष’ इस पुस्तक का अंतिम लेख है. इसमें समकालीन परिदृश्य में हिंदी और अंग्रेजी लेखन की बाजार के नजरिए से पड़ताल हुई है, साथ ही यह सवाल भी बेबाकी से उठाया गया है कि क्या हिंदी में सक्रिय युवा लेखकों की रचनाओं में हिंदी पट्टी के युवाओं के स्वप्न और संघर्षों के प्रामाणिक अभिव्यक्ति हुई है! समकालीन युवा हिंदी कहानीकारों द्वारा लिखी जा रही कहानियां पर गंभीर सवाल उठाते हुए पंकज जी स्पष्ट कहते हैं कि आज की हिन्दी कहानी ने ग्रामीण संवेदना, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक आंदोलन आदि से जुड़े वास्तविक मुद्दों से हटकर सिर्फ ‘शाइनिंग इंडिया’ के किस्से गढ़ने में तो महारत हासिल की है, पर युवाओं के वास्तविक स्वप्न व संघर्षों की प्रामाणिक अभिव्यक्ति यहां नहीं मिलती, जो कि वस्तुतः रचनाशीलता के साथ एक तरह का छल ही है.
पंकज पराशर की इस पुस्तक का हिन्दी जगत में स्वागत किया जाना चाहिए.
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जय कौशल
हिंदी विभाग/ त्रिपुरा विश्वविद्यालय
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