ओम निश्चल
कभी कभी जीवन में कुछ चमत्कार होते हैं. कुछ लोग बने होते हैं शासन-प्रशासन के लिए किन्तु उनके हृदय पर कविता और कलाएं शासन करती हैं. ऐसे कितने लोग होते हैं जो शुरु में कविता और किस्से कहानियों में दिलचस्पी रखते हैं, उनकी डायरियों में ऐसी चीजें दर्ज होती रहती हैं. फिर वे कालांतर में कहीं विस्मृति के गर्भ में खो जाती हैं. शासन का रुतबा हावी होता जाता है, कविता और कला का सोता सूखता जाता है. पर कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपनी रुचियों को मरने नहीं देते. कविता और कलात्मक अभिरुचियॉं उनके भीतर जिन्दा रहती हैं तथा संवेदना की नमी पाकर खिल उठती है. कलाएं मनुष्यता का श्रृंगार करती हैं. वाण्येका समलंकरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते. वाणी उसका अलंकरण करती है. राकेश मिश्र ऐसे ही कवियों में हैं जो कविता में बहुत देर से आए. डायरियों में दर्ज कविताओं का जीर्णोद्धार उन्होंने अब आकर किया है. एक साथ आए तीन संग्रह चलते रहे रात भर, जिन्दगी एक कण है तथा अटक गई नींद उनके कवि-मन का जीवन्त प्रमाण हैं.
ये कविताएं उनकी विगत तीस वर्षों की समयावधि का साक्ष्य हैं. अब जब वे आई हैं तो जैसे एक प्रवाह के साथ. एक रचनात्मक धक्के के साथ जिनमें राकेश मिश्र के कच्चे-पक्के जीवनानुभवों के प्रेक्षण बखूबी प्रकट हुए हैं. यों तो कहने के लिए ये कविताएं तीन संग्रहों में भले ही रूपायित हों पर इनके मिजाज में कोई विशेष पार्थक्य नहीं है. एकोहंबहुस्याम वाला भाव इनमें है. यानी जो चलते रहे रात भर में है वहीं लगभग जिन्दगी एक कण है में तथा जो इन दोनों में है उसका संपुट तीसरे संग्रह अटक गई नींद में है. इनके मध्य एक सहकार है, एक सहवर्तिता है. अनुभव की, संवेदना की, कथ्य की, शिल्प की. कवि में छंद का भी व्यापक बोध है जिसे मैं कविता का एक अनिवार्य अंग मानता हूँ. बिना छंदबोध के कोई कवि तो हो सकता है पर सिद्ध कवि नहीं- और राकेश मिश्र रससिद्ध कवि हैं इसमें संदेह नहीं और संवेदनासिद्ध कवि होने के पथ पर अग्रसर हैं.
कभी ज्ञानप्रकाश विवेक की एक गजल पढ़ी थी जिसका एक मिसरा मेरी स्मृति में आज तक अँटका हुआ है. जैसे अँटकी हुई नींद. वह था : जिन्दगी के डाकिए को सब पता है दोस्तो/ कितना मुश्किल मेरे घर का रास्ता है दोस्तो! जिन्दगी यहीं कहीं –में राकेश जी यही तो कहते हैं, \’कहां खो गया पता जिन्दगी का\’. जीवन भर आदमी जिन्दगी का पता ही खोजता है. लोगों की जिन्दगियां इस कदर लापता होती हैं कि वे आस पास होती हैं पर हाथ नहीं आतीं. चिट्ठी कविता में वे नीले आकाश को ही लिफाफे में बदल देते हैं और चिट्ठी लिखते हुए नीले आकश को मोड़ कर उस पर पता लिख देते हैं. यह कवि का अपना अंदाजेबयां है. कहीं उसे अपना अकेलापन कृष्ण विवर की तरह लगता है कभी प्रिय के पॉव फड़फड़ाते पन्नों पर चलते दिखते हैं.
मेरा मानना है कि हर कवि प्राय: प्रेम का कवि होता है. उसकी कविताएं प्रेम की प्रतीतियों का रोजनामचा होती हैं. राकेश मिश्र की कविताओं में यह झीना झीना प्रेम लगभग हर दूसरी कविता में उपस्थित है. उनकी छोटी छोटी कविताएं ज्यादा वेधक हैं. वे अनुभव के सहेजे हुए क्षण हैं जो कविताओं में आ धमके हैं. कुछ छोटी कविताओं में उनकी कविताई की कसावट देखिए —
पत्ते रिश्ते में हैं
हवा से बंधन कोई नहीं
मैं तुम्हें याद आता रहूँ
मिलना जरूरी नहीं (पत्ते)
रात भारी है अभी पलकों पर
सुबह सोएगी अभी देर तलक
दिन चढ़े मुझको लगा देना जरूर
स्वप्न बाकी बचे हैं दिन भर के(रात भारी है)
काश
खो जाती तुम्हारी यादों की किताब
इस छोटे से घर में
हरदम
चलते रहते हैं
तुम्हारे पांव
फड़फड़ाते पन्नों पर (यादों की किताब)
दो शंख हैं
तुम्हारी आंखें
निकलकर जिससे
एक पवित्र आह्वान
मेरे अंतस की रक्तसारता को
धवल बना देता है. (पवित्र आह्वान)
दो अमृतकलश हैं
तुम्हारी आंखों में
छलकते होठों के द्वार पर
सब अमृत दृश्य तेरे (होंठ)
एक मैदानी नदी हैं
उसकी आंखें
हाहाकार कर उठती हैं
बादलों को देख
अन्यथा
मौन कलरव हैं
रेतीले तटों में.(मौन)
राकेश मिश्र की कविताओं में प्रेम है, प्रेम का प्रमेय नहीं है. वह कोई असाध्यवीणा नहीं है. वे जीवन के रसबोध के कवि है जहां प्रिय की उच्छल जलधि तरंग वाली प्रिय की हँसी उनकी चेतना में अनंत आवृत्तियॉं पैदा करती है. उनके उपमानों की एक लंबी श्रृंखला है पर उनमें आंखें, होठ, चिबुक प्रबल हैं. वे अपनी आंखों को भी नदी से तुलनीय मानते हैं जिसके तटों को छू छू के रह जाती हैं प्रिय की पलकों की नाव. जैसा कि मैंने कहा, ये जीवन के रस बोध की कविताएं हैं. उनके ही शब्दों में, उसके लिए जीना है जिससे जिन्दगी अच्छी लगती है और उसके लिए भी जीना है जिसके बिना जिन्दगी जिन्दगी नहीं लगती. उनके संपूर्ण काव्य में शहरी चातुरी नहीं, गँवई और कस्बाई सरलता मिलती है. जो कुछ देखते देखते बदल रहा है, उसकी उन्हें चिंता है. गांवों में हो रही तब्दीली पर उनकी कविता कहती है :
गांव में पानी साफ था
गांव में सड़क नहीं थी तब
गांव में सड़क है
गांव में पानी साफ नही है अब
गांव में जब पानी साफ होगा
गांव में जब सड़क बनेगी
तब मैं डरता हूं
कहीं गांव ही नहीं रहे. (गांव)
कवि शब्दों से कविता का एक घर बनाता है. ऐसा घर जहां अपनेपन का घेरा हो. ऐसी कोई बात अज्ञेय ने \’ऐसा कोई घर आपने देखा है\’ संग्रह की एक कविता में कही थी. वे भी कविताओ से एक घर बनाते हैं. ऐसा घर जहां अपनेपन का उजाला हो, जहां रिश्तों में एक हमदर्दी हो. जब वे एक कविता में यह कहते हैं कि \’एक बच्चे की आवाज/ जीरे की महक से सराबोर / फेरी लगाती है मेरी चेतना की गली में\’ तो लगता है इस कवि के पास चेतना की स्वच्छ पाटी तो है जिस पर प्रेम की अमिट स्याही से कुछ लिखा जा सकता है.
बेशक राकेश मिश्र ने तमाम कविताएं लिखी हैं जिनके उनवान बेशक भिन्न हों पर उनकी चेतना में एक सा उजाला है, उसमें एक सी धूप है, एक सी छांव है, एक सी ऋतुएं हैं, एक सा मिजाज है. पर जो दो कविताएं मैंने चुनी हैं वे लाजबाव हैं. इन कविताओं से उनकी कविता का प्रयोजन समझ में आता है. कविता आखिर निज का दर्पण न होकर समाज दर्पण है. एक जरा सी कविता उनके अंत:करण का आईना है—
आज जो टूटा
बरगद नहीं था
एक नन्हा अंकुर था
मसल दिया गया
पदचापों में खो गई
नन्हीं चीख (अंकुर)
एक दूसरी कविता है: मेरी तलाश .
मेरी तलाश
वो जड़
जिसे जमीन न मिली
मेरी मंजिल
वो जमीन
जो जड़-विहीन है.
कभी कैलाश वाजपेयी ने लिखा था: किसी भी अंकुर का मुरझाना सार्वजनिक शोक हो/ जो इंसान इंसान के बीच खाईं हों/ ऐसे सब ग्रंथ अश्लील कहे जाएं.कवि की चेतना में उस नन्हें अंकुर की चीख समाई हुई है तो यह उस कवि के सरोकार हैं जो लघुमानव के उस प्राचीन फलसफे की याद दिलाता है जो नई कविता में कभी चलाई गयी थी. उनके यहां एक कविता मां पर भी है. वह कहता है, \’मेरे सपनों ने भेजी हैं जितनी भी चिट्ठियां / उन सबका पता हो तुम .\’ यानी कवि के निजी अहसासात भी एक उदात्त चेतना से भरे हैं जिस चेतना के गलियारे में मॉं की आवाजाही है. कुल मिला कर ये कविताएं राकेश मिश्र के अनुभवबहुल जीवन का सारांश हैं. इन कविताओं से लगता है कवि के जीवन में कविताएं ही रंग भरती हैं.
अशोक वाजपेयी कहा करते हैं, \’कविता भाषा का अध्यात्म है.\’ कभी कभी राकेश की कविताएं पढते हुए भी ऐसा महसूस होता है. राकेश जी हिंदी कविता की सुपरिचित दुनिया के सर्वथा नए नागरिक हैं. पर उनकी कविताएं पढ़ते हुए लगा कि इस कवि का काव्याभ्यास पुराना है. यहां कविता की एक उर्वर ज़मीन है और जिस सादगी से वह अपनी बात कहता है उससे वह एक अभ्यस्त कवि के रूप में सामने आता है. जीवन के सारांश से निर्मित इन कविताओं से गुजरते हुए पाया कि कवि में जीवन को उसके वैविध्य में देखने समझने व उसे अपने काव्यानुभवों में प्रतिबिम्बित करने की अंतर्दृष्टि है. भले ही उसका नाम कविता में अजाना हो, पर उसके भीतर एक कवि का दिल धड़कता है, इसमें संशय नहीं. इन्हें पढ़ते हुए लगा, उनकी कविताओं में जीवन के गवाक्ष से छन छन कर आती हुई अनुभवों की रोशनी प्रतिबिम्बित हो रही है.
राकेश मिश्र की कविताओं में समय का कोई ऐतिहासिक अनुशीलन नही है बल्कि इन्हें समय व प्रकृति के साथ मनुष्य के मन को समझने की एक कोशिश कही जा सकती हैं. वे जिन्दगी के तमाम रंगों को बखूबी अपने काव्यात्मक अनुभवों का हिस्सा बनाते हैं तथा जीवन से अपने संबंधों को वे बारीकियों के साथ प्रतिबिम्बित करने की चेष्टा करते हैं. उनका काव्यात्मक संसार जीवन की तरह ही उदार है. वैविध्यपूर्ण है तथा जितना भी वे पकड़ सकते हैं, पकड़ने की, रचने की चेष्टा करते हैं. हां उनकी कविताएं अभी एकरैखिक हैं—समय के साथ उनकी शैली में परिपक्वता व सघनता आएगी, इसमें संदेह नहीं.
इस संग्रह में अनेक गीत और प्रगीत भी हैं. इनसे कवि के छंदबोध का पता चलता है. अपने भीतर के रसायन से निर्मित ये गीत प्रगीत कवि के आत्मज्ञापन का पर्याय भी हैं. आज के समय में लिरिक लिखना बहुत कठिन है. गीतों का एक स्वर्णयुग था जो बीत गया. अब जैसा जीवन अतुकांत है, वैसी ही रचना. जीवन में यह अतुकांतता आज के समय की जटिलताओं की देन है. सुकोमल पदावलियों से बनी बुनी उनकी गीति रचनाएं इस बात की गवाह हैं कि जीवन की कविता में कहीं अतुकांत पद विन्यास है तो कहीं कोमलकांतपदावली थी. सच्चा कविमन ऐसे अप्रकृत पर्यावरण में भी गीतों का ठीहा खोज लेता है. एक ऐसा ही गीत है उनका जो अपनी निर्मिति में अत्यंत सुगठित है —
सपनों में आग लगी
बात नहीं तेरी कहीं !
आज पुरवाई बही
बात नहीं तेरी कहीं .
केसर के खेत बिके
रंग बिके अंग बिके
लहरें रुक रुक के बिकीं
बात नहीं तेरी कहीं.
मंजिल की हाट बिकी
राह बिकी चाह बिकी
रात प्रहरों में बिकी
बात नहीं तेरी कहीं.
पुरइन के पात बिके
सांझ बिकी प्रात बिके
सस्ते में गांव बिके
बात नहीं तेरी कहीं.
सस्ते में गांव बिके. बात नहीं तेरी कहीं. यह उलाहना भर ही नहीं, गांवों की हकीकत है. हम इस तरह चौतरफा बाजार से घिरे हैं कि सारी आत्मीयताएं सारे नेह छोह बिकाऊ हो चले हैं. पुरइन के पात बिके, सॉंझ बिकी प्रात बिके –कहते हुए कवि उस चरम पर पहुंचता है जहां उसे कहना पड़ता है: सस्ते में गांव बिके. यह एक खास तरह का अनमनापन है जो आज के बाजार की देन है. कवि ऐसे तमाम असगुनों की बात करता है जिन्हें वह देख रहा है. क्या दिन आ गए हैं कि कोमल भाव मन के छिल से गए हैं, परियों के पंख नुच गए हैं—यह कोई गीतकार ही कह सकता है. वही है जो आज भी बसंत की प्रतीक्षा करता है, बादलों की राह अगोरता है, फसलों और सीवान के गीत गाता है, वही है जो आज भी पवन के शीतल झकोरों की अगवानी में छंद लिखता है तथा अपार आपाधापी के बावजूद उसे भरोसा है कि इसी धरती से जीवन खिल उठेगा एक बार फिर.
जब लगा हर छोर सजने
बांसुरी के गीत सुन सुन
भूमि से उठा जीवन. (चलते रहे रात भर)
उनके गीतों में लोक की छौंक और गंध भी है. जैसे कोई फागुनी बयान मन को छू जाए और गोरी के प्रति उसके नायक की अधीर प्रीति बौरा जाए. कुछ गीत यहां ऐसे भी हैं जिनके रचाव में भोजपुरी लहजा बोलता है. ये गीत कवि के लोकेल को अचीन्हा नहीं रहने देते. बलिया की माटी जैसे इन गीतों में एक हिलोर भर देती है. उसके गीतों में एक मतवालापन आ धमकता है. वह गा उठता है :
पतली नदी का चकमक सा रूप है
चंचल किनारों पर सुबह की धूप है
लहरों में उलझ गयी जीत
सपनों में कौन आ गया
ऐसे अनेक मनभावन गीतों और कविताओं की राकेश मिश्र की दुनिया से उस गांव देस की याद भी उदघाटित हो उठती है जहां धरती का सतरंगी आंचल है, रुनझुन सी छागल है, धान के खेत हैं, पागल पुरवा है, कोयल के बोल हैं, तन्वंगी नदिया है —वह सब कुछ है जो कवि को – ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे धीरे —के बोलों के साथ अपने पंखों पर उड़ा ले जाती है. वह मीठे सपनों से जैसे जाग उठता है और पूछता है–
तन्वंगी नदिया का चकमक-सा रूप है
चंचल किनारों पर प्रात: की धूप है
गाता है कोई जलगीत–
सपनों में कौन आ गया?(अटक गई नींद)
राकेश मिश्र बहुत देर से कविता में आए हैं. यह उस कवि की भूली बिसरी डायरी है जिसके पन्ने कालांतर के बाद खुले हैं. जैसा कि कह चुका हूँ, उनकी बहुत सारी कविताएं इकहरी हैं –एकरैखिक –पर उनमें भी एक आकर्षण है. अधिकतर कविताएं छोटी हैं–जीवनानुभवों की क्षणिकाएं जैसी.
कविता विरत होते समाज में यह एक कवि द्वारा कविता के बीज बिखेरने की कोशिश है. कवि प्रशासक हो तो और भी अच्छा. प्रशासन में कवियों के होने का एक रचनात्मक अर्थ है. छोटी कविताओं में तो राकेश मिश्र का हाथ रँवा है. उन्हें कुछ लंबी कविताएं भी साधनी चाहिए जहां कवि की साधना को एक बेहतर फलश्रुति मिले.
कवि में एक लंबी उड़ान की व्यग्रता दिखती है, कथ्य को बांधने का उसका सलीका भी गौरतलब है. ये कविताएं कविता के इतिहास में कहां जगह बनाएंगी, यह तो ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता, पर ये राकेश मिश्र को एक समर्पित कवि का दर्जा अवश्य देती हैं. उनके प्रयत्नों में तमाम सीधी सादी लगती पदावलियों के बीच कोई न कोई ऐसी पंक्ति आ धमकती है जो कविता की कविसुलभ चेतना का उदाहरण बन जाती है. वे अपनी कविताओं में सारा गोपन उड़ेल देते हैं—बिल्कुल बच्चन की तरह –मैं छिपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता.
ये कविताएं इस तरह निश्छल और सजल हैं कि आंखों की कोर पर ढुरकते आंसुओं की तहरीरें पढ़ लेती हैं तो होठों पर वासंती मधुमास सजाए हास का उल्लास बाँच लेती हैं. हॉं, यदि इनमें कहीं एकरसता-सी नज़र आती है तो उम्मीद है कि वह धीरे धीरे तिरोहित होगी तथा कविताएं उत्तरोत्तर निथरे रूप में सामने आएंगी. तब ये निश्चित ही एक प्रशासक कवि की नहीं, एक सिद्ध कवि की रचनाएं होंगी. _________
राह चलते रहे रात भर; जिन्दगी एक कण है एवं अटक गई नींद, कवि: राकेश मिश्र, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य क्रमश: रुपये595/-, 395/- एवं 395/-
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डॉ.ओम निश्चल
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