हितेन्द्र पटेल
कम्युनैलिज्म एण्ड द एन्टेलीजेन्सिया इन बिहार, 1870-1930: शेपिंग कास्ट, कम्युनिटी एण्ड नेशनहुड, ओरिएन्ट ब्लैकस्वान, नई दिल्ली, 2011,
पृष्ठ संख्या 253
मूल्य-645 रुपये (सजिल्द)
साम्प्रदायिकता पर भारतीय इतिहासकारों ने गहन अध्ययन किया है. कुछ इतिहासकारों की मान्यता है कि साम्प्रदायिकता मुख्यतः औपनिवेशिक काल में वजूद में आई, जबकि कुछ कहते हैं कि औपनिवेशिक काल और उसके पहले के समय में एक निरन्तरता है. कुछ अन्य इतिहासकारों ने रेखांकित किया है कि चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम, साम्प्रदायिकता की अभिव्यक्ति में शिखर की राजनीति या देशी अभिजातों की बड़ी भूमिका रही है. कुछ इतिहासकारों ने सार्वजनिक स्थलों पर धार्मिक गतिविधियों, कर्मकांडी समारोहों तथा दंगों और हिंसा के तांडव में सामूहिक भागीदारी की ओर ध्यान दिलाया है. इस प्रकार के कई विमर्श सामने आए हैं. बिहार के सन्दर्भ में इस तरह के गंभीर विमर्श की शुरुआत दिवंगत इतिहासकार पापिया घोषने की थी, परन्तु हितेन्द्र पटेल ने अपनी पुस्तक कम्युनैलिज्म एण्ड द एन्टेलीजेन्सिया इन बिहार, 1870-1930: शेपिंग कास्ट, कम्युनिटी एण्ड नेशनहुड, में इस विमर्श को व्यापक फलक पर रेखांकित किया है.
उन्नीसवीं के अन्त एवं बीसवीं सदी में पूर्वार्द्ध में करीबन साठ वर्षों के दौरान बिहार में हिन्दू साम्प्रदायिकता का उद्भव, विकास एवं फैलाव का लेकेशन इस पुस्तक का महत्वपूर्ण पक्ष है. इसी पृष्ठभूमि में हितेन्द्र पटेल ने तमाम परिवर्तनों को अपने अध्ययन में समाहित किया जो साम्प्रदायिक चेतना के निर्माण के लिए उत्तरदायी थे तथा प्रत्यक्ष रूप से इसका अन्तर्सम्बन्ध राष्ट्र निर्माण से था. पुस्तक में जिन विषयों की छानबीन की गयी है वह काफी जटिल है क्योंकि बिहार जैसे हिन्दी प्रदेश में जाति, समुदाय, वर्ग, धर्म एवं प्रादेशिकता बहुत हद तक पहचान (identity) एवं विचारधारा के निर्माण प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं. यह पुस्तक सिर्फ साम्प्रदायिकता का उद्भव कैसे हुआ जैसे विषयों का सिर्फ सतही जिक्र भर नहीं है बल्कि साम्प्रदायिकता को समस्यामूलक रूप में रखा गया है तथा बिहारी हिन्दू बौद्धिक वर्ग के दृष्टि से सूक्ष्म रूप से समझने की कोशिश की गयी है. वास्तव में पुस्तक की केन्द्रीय विमर्श इस विरोधाभास पर प्रकाश डालती है (highlight) कि जिस बौद्धिक वर्ग की पहचान निर्भीकता, स्वतंत्रता एवं प्रगतिशीलता है, ने बिहार के अवाम में साम्प्रदायिक चेतना का प्रेषण किया.
प्रस्तुत पुस्तक मुख्य रूप से सात अध्यायों में विभक्त है. प्रथम अध्याय में औपनिवेशिक बिहार में बौद्धिक वर्ग के उद्भव एवं विकास एवं उनके सामाजिक पृष्ठभूमि को रेखांकित किया गया है. हितेन्द्र ने बौद्धिक निर्माण प्रक्रिया के सैद्धान्तिक पक्ष को बड़ी सूक्ष्मता से पश्चिमी समाजों के सन्दर्भ में विश्लेषण करते हुए गैर पश्चिमी समाजों के सन्दर्भ में जाँचने की कोशिश करते हैं. उन्होंने बखूबी इस विरोधाभास को दिखलाया है कि किस प्रकार गैर यूरोपीय समाज के बुद्धिजीवी वर्ग अपना दोनों पहचान से वंचित हो जाते हैं. इस तरह की राजनीतिक असुरक्षा की भावना से दूसरे तरह की पहचान बनती है. बिहार में इन दशकों में उभर रहे बुद्धिजीवी वर्ग की जाँच-पड़ताल इसी सैद्धान्तिक आलोक में की गई है. इस दौरान बिहार में हो रहे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन से बौद्धिक सीमाओं में फैलाव आया. देशी संभ्रान्तों ने उभरते बुद्धिजीवियों को नये सामाजिक समीकरण को ध्यान में रखते हुए उन्हें स्पेस दिया. परिणामस्वरूप नये विचारधाराओं का निर्माण हुआ.
दूसरा अध्याय इस प्रक्रिया पर प्रकाश डालती है कि किस प्रकार बिहार के नव बौद्धिक वर्ग अपने वर्गीय चेतना को प्रेषित कर रही थी तथा अपने हित के लिए लड़ने के लिए कटिबद्ध थी. हितेन्द्र के अनुसार बिहारी बौद्धिक वर्ग सरकारी नौकरी पर बंगाली आधिपत्य को चुनौती दी. यह एक दिलचस्प पहलू है कि बिहारी मुसलमान और कायस्थों ने इस आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि इसका स्वरूप बिल्कुल प्रादेशिक था, इसमें कहीं से साम्प्रदायिक गंध नहीं थी. बिहारी हिन्दू-मुसलमान की साझी शिरकत ने अंग्रेजी-बंगाली बाबू को बाहर का रास्ता दिखलाया. लेकिन बिहारी बौद्धिक वर्ग की साम्प्रदायिक पहचान भाषा विवाद के समय उजागर हो गयी. लेखक ने इस साम्प्रदायिक रुझान का बड़े ही वस्तुनिष्ठ तरीके से विश्लेषण किया है. भाषा एक ऐसी सांस्कृतिक बिन्दु थी जिसको सन्दर्भ बनाकर धार्मिक समुदाय अपनी राजनीति को पारिभाषित कर सकते थे. बिहारी बुद्धिजीवी वर्ग हिन्दू और हिन्दी को पर्यायवाची के रूप में विश्लेषण किया. स्वर्णिम अतीत की तस्वीर बनाने और वर्तमान में सभ्य राष्ट्रीय पहचान पर जोर देने के लिए ‘हिन्दी’ एक सशक्त माध्यम बन सकती थी. एक व्यापक हिन्दू एकता एवं आन्तरिक एकजुटता लाने के मकसद में भाषा एक सशक्त माध्यम बनी. ब्राह्मण, कायस्थ, व्यापारी, मध्यमवर्गीय और शूद्र जातियों (मुख्यतः अहीर, कुर्मी, कोइरी) के संगठन जो अपने लिए क्षत्रिय वर्ग के उच्चतर दर्जे की माँग कर रहे थे, उच्च जातियों के हिन्दुओं से अलग अपनी अलग अस्मिता तलाश कर रही अस्पृश्य जातियाँ – चमार एवं दुसाध – ये सभी हिन्दी के नाम पर एक हुए. वैचारिक क्षितिज पर अलग-अलग होने के बावजूद आधुनिक हिन्दू पहचान बनाने में साथ-साथ थे. पाल ब्रास के अनुसार उर्दू के साथ भी ऐसा हुआ. उर्दू मुस्लिम पहचान के तौर पर इस तरह पारिभाषित की गई कि उर्दू की राजनीतिक मांग एक पवित्र धार्मिक मांग बन गयी.
लेकिन बिहारी बौद्धिक मुसलमानों का रुख इस सन्दर्भ में क्या था, प्रस्तुत पुस्तक शोध के लिए एक नया आयाम देता है. चूँकि बाबरी मस्जिद के मुद्दे का अंत होते-होते मुस्लिम राजनीति में दो प्रवृत्तियों का विकास हुआ. ये प्रवृत्तियाँ थीं एक नये मजहबी मुस्लिम मध्यम वर्ग का उदय, जिसकी अगुवाई तब्लीमी जमात कर रहा था एवम् दूसरा मुसलमानों के बीच जाति, राजनीति का उदय जिसने मुस्लिम समुदाय की आन्तरिक संरचनाओं पर प्रश्न उठाया. दोनों प्रवृत्तियाँ जनसम्पर्क और अन्य मुसलमानों से जुड़ने वाली थी इसलिए जरूरी था कि ऐसे माध्यमों की तलाश की जाय जो आम मुसलमान तक पहुँचते हों. हिन्दी को एक ऐसे ही माध्यम के तौर पर पाया गया और मुस्लिम पहचानों के निर्माण की एक अनूठी और विशिष्ट संरचना तैयार हुई. हिन्दी में छपने वाला इस्लामी साहित्य उर्दू में छपने वाले साहित्य के नजदीक पहुँच रहा है. तब्लीमी जमात का बुनियादी ग्रंथ फजाइले आमाल एवं कुरान का हिन्दी तर्जुमा हिन्दी में बिकने वाली सबसे लोकप्रिय पुस्तक है. नयी दुनिया जो कि एक स्थापित उर्दू अखबार है, ने एक नया हिन्दी अखबार ‘नयी जमीन’ शुरू किया. ‘नयी जमीन’ का पाठक भी उत्तर भारत के मुसलमान ही हैं.
मुस्लिम जाति राजनीति ने भी हिन्दी को अपना पहचान बनाया विशेषकर बिहार में. 1998 में अली अनवर ने अपनी पुस्तक ‘मसावत की जंग’ प्रकाशित की. यह पुस्तक हिन्दी में लिखी गयी. पुस्तक ने बिहार के मुसलमानों में मौजूद जाति संरचना को शोषणात्मक चरित्र का खुलासा किया. पुस्तक ने पहले से चल रही दलित मुस्लिम राजनीति को एक जबरदस्त उत्साह प्रदान किया. इसका परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम इलिट को दलित मुसलमानों की आरक्षण की मांग के तौर पर स्वीकार करना पड़ा. अनवर ने, जिन्होंने पसमंदा मुस्लिम नामक संगठन का निर्माण किया, हिन्दी में अपनी एक पत्रिका ‘पसमंदा आवाज’ भी शुरू की. अनवर के अनुसार वे उर्दू समर्थक हैं परन्तु सच यह है कि मुसलमानों का बड़ा तबका हिन्दी को पढ़ता है, समझता है. इम्तियाज अहमद के तर्क के आधार पर कहा जा सकता है कि हिन्दी की मुस्लिम पहचान भारतीय मुसलमानों के विशिष्ट दक्षिण एशियाई मजहबी पहचान का ही एक स्वरूप है.
तीसरे अध्याय में हिन्दी प्रेस और साम्प्रदायिकता के अन्तर्सम्बन्धों तथा हिन्दी और हिन्दू पृथकतावादी ताकतों के तत्कालीन एजेण्डा के सन्दर्भ में है. चौथा अध्याय तीसरे अध्याय के विमर्श का विस्तार है. प्रेस ने हिन्दू विचारधारा को हिन्दी के माध्यम से मजबूत आधार प्रदान किया. नव बिहारी बौद्धिक वर्ग ने इसे अपने हित में उपयोग करने के लिए एक भी मौका अपने हाथ से नहीं जाने दिया. पटेल ने ठोस प्राथमिक स्रोत यथा हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित लेख, कविता, स्कूली पाठ्य पुस्तक तथा राष्ट्रवादी इतिहास लेखन के आधार पर विश्लेषण किया है कि किस प्रकार एक विशेष पारिभाषित समुदाय की पहचान के बिम्ब खोजी गई और एक जीवन्त हिन्दू राष्ट्र की संरचना की नींव रखी गई. उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तथा बीसवीं शताब्दी की शुरुआत के अधिकांश साहित्यकारों जैसे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रताप नारायण मिश्र, देवकी नन्दन खत्री, किशोरी लाल गोस्वामी, राधाचरण गोस्वामी और गंगा प्रसाद गुप्त ने इस तरह की संचेतना के निर्माण में मदद की. वर्तमान का हित साधने के लिए अतीत की रचना की गई. इतिहास और कल्पना गड्ड-मड्ड हो गए. कुछ साहित्यकारों ने लोक कथाओं का ऐसा चतुर प्रयोग किया कि हिन्दू की सामूहिक स्मृति में मध्यकालीन मुस्लिम का मिथक बन गया. इन बुद्धिजीवियों के घोषित विचार, मकसद और मंजिल चाहे जो भी हो, उनके रुझानों में खतरनाक सम्भावनाएँ निहित थे और ये एक नये हिन्दू राष्ट्रीय संचेतना के निर्माण में खासी मदद की.
पाँचवां अध्याय बिहार में सामुदायिक भाव, जाति और राष्ट्र के बीच अन्तर्सम्बन्ध पर केन्द्रित है. इस अध्याय का उद्देश्य है कि बिहारी बौद्धिक वर्ग इस सम्बन्धों को कैसे देख रहे थे. इस सन्दर्भ में हितेन्द्र ने तीन तरह की सामाजिक-राजनीतिक फोरम की बात की है: पहला हिन्दुओं का संगठन जिसमें सनातनी और आर्य धर्मावली का आधिपत्य था, दूसरा काँग्रेस तथा तीसरा निम्नजातीय संगठन. तस्वीर जो उभर कर सामने आती है इससे स्पष्ट होता है कि हिन्दू पहचान वाले बौद्धिक वर्ग के अनुसार राष्ट्र का स्वरूप हिन्दूवादी था, तथा विभिन्न जातीय संगठनों ने सामुदायिक भावना एवं जातीय रूढ़ता को तोड़ने के बजाय और मजबूत किया. लेखक ने इस सन्दर्भ में बड़े ही तार्किक रूप से निष्कर्ष निकाला है कि काँग्रेस का आन्तरिक स्वरूप हिन्दूवादी था, साथ ही साथ यह आवाम के बीच राष्ट्रीय संचेतना के संवाहक के रूप में काम कर रही थी. इस प्रकार काँग्रेस का दोहरा चरित्र उजागर होता है. प्रसिद्ध इतिहासकार के० एन० पनिक्कर ने लगातार काँग्रेस के साम्प्रदायिक चरित्र को रेखांकित किया है तथा बिहार के सन्दर्भ में इतिहासकार पापिया घोष ने अपनी दोनों पुस्तकों में, The Civil Disobedience Movement in Bihar (1930-34), New Delhi, 2008 तथा Community and Nation Essays on Ideality and Politics in Eastern India, New Delhi, 2008 उजागर की है. इस तरह की दोहरी पहचान वाली संगठन क्षेत्रीय एवं स्थानीय राजनीति को किस प्रकार प्रभावित करती है, शोध के लिए नए आयाम देती है.
छठा अध्याय बिहार के बौद्धिक वर्ग की भूमिका, गौरक्षा के सन्दर्भ में है. औपनिवेशिक बिहार में साम्प्रदायिक राजनीति के जोर पकड़ने में ‘कैसे’ और ‘क्यों’ गोरक्षा का इस्तेमाल प्रभावकारी हुआ, पटेल ने विद्वत्तापूर्ण व्याख्या की है. गोरक्षा जैसे मुद्दों का व्यापक असर था. बिहारी प्रबुद्ध वर्ग ने इसका बड़े ही चालाकी से इस्तेमाल किया तथा गोरक्षा की राष्ट्रीय स्मिता से जोड़ दिया. साधारणतया इस तरह के मुद्दों से निम्न जातियों का कोई जुड़ाव नहीं होता लेकिन हितेन्द्र ने यह चिन्हित किया है कि यहाँ बिहारी प्रबुद्ध वर्ग ने किस प्रकार गोरक्षा को सामाजिक उर्ध्वगामी गतिशीलता से जोड़ा तथा आन्तरिक एकता लाने के मकसद में कामयाब हुए. विभिन्न जातियों की भागीदारी के स्वरूप को समझने में यह डाटा उल्लेखनीय है कि चार सौ लोगों पर चले मुकदमों में 99 राजपूज, 66 ब्राह्मण, 43 वामन, 16 कायस्थ, 66 अहीर, 37 कोइरी, 96 में दुसाध, डोम एवं चमार तथा 10 लोगों की जाति निर्धारित नहीं की जा सकी (पृष्ठ संख्या 196). इस तरह हितेन्द्र का निष्कर्ष है कि राष्ट्रवाद एवं साम्प्रदायिकता दोनों साथ-साथ चल रहे थे (पृष्ठ संख्या 228).
गहन शोध एवं गंभीर विश्लेषण पर आधारित इस पुस्तक में विभिन्न प्रकार के स्रोतों का वस्तुनिष्ठ तरीके से जो मूल्यांकन किया गया है, वह अत्यन्त संतुलित है. पुस्तक में कई नए सवाल भी उठाए गए जिसके आलोक में साम्प्रदायिकता एवं राष्ट्रीयता को समझने की जरूरत है. हितेन्द्र पटेल की यह पुस्तक बिहार के सन्दर्भ में कई मिथकीय धारणा को खंडित करती है तथा पापिया घोष के गंभीर पहल को व्यापक आयाम देते हुए आगे ले जाती है. निःसन्देह आधुनिक बिहार के इतिहास लेखन में यह उत्कृष्ट देन है. उत्तरी आधुनिक दौर में लिखी जाने के बावजूद, यह पुस्तक उत्तर आधुनिक शब्दावलियों और धारणाओं के दबावों से भी मुक्त है. पुस्तक के अन्त में दी गई पुस्तक विवरणी निश्चित रूप से बिहार एवं बिहारी अस्मिता पर शोध करने वालों के लिए काफी महत्वपूर्ण साबित होगी. पापिया घोष की दोनों उपरलिखित पुस्तकों का पुस्तक सूची में नहीं होना आश्चर्यजनक है.
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डॉ. कृष्ण कुमार मंडल
एसिस्टेन्ट प्रोफेसर
विश्वविद्यालय इतिहास विभाग
भागलपुर विश्वविद्यालय,भागलपुर