• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » परिप्रेक्ष्य : आओ, हिंदी- हिंदी खेलें : राजीव रंजन गिरि

परिप्रेक्ष्य : आओ, हिंदी- हिंदी खेलें : राजीव रंजन गिरि

आओ, हिन्दी-हिन्दी खेलें                                                  राजीव रंजन गिरि सितम्बर में हिंदी के बारे में जरा जोर से शोर सुनायी पड़ता है. जिधर जाएँ ज्यादातर सरकारी और कुछ गैर सरकारी संस्थाओं में हिंदी सप्ताह […]

by arun dev
September 18, 2015
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

आओ, हिन्दी-हिन्दी खेलें                                                 
राजीव रंजन गिरि


सितम्बर में हिंदी के बारे में जरा जोर से शोर सुनायी पड़ता है. जिधर जाएँ ज्यादातर सरकारी और कुछ गैर सरकारी संस्थाओं में हिंदी सप्ताह या हिंदी पखवाड़ा का बैनर दिखेगा. 14 सितम्बर को ‘हिन्दी दिवस’ होने की वजह से उस दिन रस्म अदायगी की जाती है. विद्वान वक्ताओं को बुलाया जाता है और हिन्दी की मौजूदा स्थिति और भविष्य पर विचार किया जाता है. इस तरह की रस्म अदायगी के कार्यक्रमों में हिंदी की दारुण स्थिति के लिए खूब मर्सिया पढ़ा जाता है. ऐसे विद्वान वक्ताओं की बात पर गौर करें तो पाएंगे कि इनकी बातों में एक किस्म का फांक है. पता नहीं, वे लोग इन फांक पर क्यों नहीं नजर डालते. मसलन, हिंदी को लेकर होने वाले इन सेमिनारों में हिंदी की बढ़ती व्याप्ति और इसके प्रसार का जिक्र अभिमानपूर्वक किया जाता है. भाषा के तौर पर हिंदी का तेज रफ्तार से हो रहे विस्तार पर अभिमान करना स्वाभाविक भी है. परंतु हिंदी की बिगड़ती प्रकृति का जब मर्सिया पढ़ा जाता है तब थोड़ी देर पहले प्रकट किए अभिमान के वास्तविक कारकों को भूला दिया जाता है. कहने का आशय यह है कि हिंदी भाषा की बढ़ती व्याप्ति का एक बड़ा कारक बाजार, मीडिया और फिल्म उद्योग है. इन सबने हिंदी का ज्यादा प्रचार-प्रसार किया है. उन लोगों की बनिस्पत जो हिंदी का सिर्फ खेल खेलते हैं. और यह भय फैलाते रहते हैं कि वह दिन दूर नहीं जब हिंदी बिल्कुल बिगड़ जाएगी. ऐसे भयाक्रांत लोगों की बातों से दबे रूप में यह भी प्रगट होता है कि क्या पता हिंदी समाप्त ही न हो जाए! जिस फांक की चर्चा थोड़ी देर पहले की गयी है वह यह है कि जिन कारकों पर हिंदी को बिगाड़ने के लिए रोष प्रगट किया जाता है, असल में वे ही कारक हिंदी की व्याप्ति पर अभिमान प्रगट करने का अवसर भी प्रदान करते हैं.
हिंदी के बिगड़ने का मर्सिया पढ़ने वाले ज्यादातर लोगों के परेशानी का सबब यह है कि इनके लिए आज भी हिंदी एकवचन के तौर पर ही है. जबकि मौजूदा दौर में हिंदी एकवचन न रहकर ‘बहुवचन’ का रूप धारण कर चुकी है. यानी अब ‘हिंदी’ नहीं ‘हिंदियों’ की बात करनी होगी. जब भी किसी खास माध्यम की हिंदी को ही निर्धारक मानकर-बताकर शेष ‘हिंदियों’ को उस परखा जाएगा, निश्चित तौर पर गलत नतीजा निकलेगा. साहित्य की विभिन्न विधाओं की हिंदी को कसौटी बनाकर दूसरे माध्यमों मसलन प्रिंट-इलेक्ट्रानिक मीडिया या फिल्म की हिंदी का जब-जब मूल्यांकन किया जाएगा, तब-तब मर्सिया गाने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं दिखेगा. क्या इस बात की पड़ताल करने की जरुरत नहीं है कि ऐसे मर्सिया गानेवाले लोगों को इस सवाल का अध्ययन करना चाहिए कि हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में किसकी भूमिका ज्यादा है? हालाँकि हिंदी के प्रचार-प्रसार में जिन माध्यमों की भूमिका कमतर दिखेगी, उनका महत्व इससे कम नहीं हो जाएगा. फिर भी यह जानना जरुरी होगा कि प्रचार-प्रसार में किसकी भूमिका कितनी है. ऐसा करने पर हिंदी की मर्सिया पढ़नेवालों का ध्यान हिंदी के विविध रूपों पर जाएगा. यानी कई तरह की ‘हिन्दियां दिखेगी. और सबके अलग-अलग महत्व का भी अहसास होगा.
         
बहरहाल, इतिहास गवाह है कि ‘खड़ी बोली’ से आधुनिक हिंदी के रुपांतरण की प्रक्रिया में बाजार की एक बड़ी भूमिका रही है. इसी बाजार ने इसका व्यापक प्रचार-प्रसार भी किया है. जाहिर है इसकी अपनी शर्त और इसका अपना खास मकसद भी रहा है. यह कहकर भाषा को गढ़ने और इसके स्वरूप का निर्धारण करने वाले दूसरे कारकों को न तो भुलाया जा रहा है न ही इनके महत्व को कम करने की कोशिश की जा रही है. भाषा का निर्धारण बाजार के अलावा समाज और विभिन्न संस्थान भी करते हैं. इसके निर्धारण के पीछे इन सबका अपना-अपना मकसद भी होता है. अपने-अपने मकसद के मुताबिक सभी अपनी भाषा गढ़ते और प्रयोग करते हैं. कुछ जगह यह प्रक्रिया सचेतन तो कुछ जगह अचेतन रूप से चलती रहती है.
         
जब इन मुद्दों पर विचार किया जाता है तब इसी से जुड़ा एक और सवाल उभरकर सामने आता है. वह सवाल है कि ‘अच्छी हिंदी कौन है?’ आखिरकार अच्छी हिंदी किसे माना जाए? इस अच्छाई के निर्धारण की कसौटी क्या होगी? साथ ही यह भी कि जिसे हम अच्छी हिंदी मान लेंगे, क्या उसे मानक का दर्जा देकर सबपर लादना उचित होगा?  यहाँ  उचित-अनुचित के सवाल को अगर थोड़ी देर के लिए छोड़ दें तो भी क्या यह मानक हिंदी इस भाषा के विस्तार के लिए मददगार होगी? लिहाजा हम हिंदी के किसी एक रूप को मानक घोषित कर इसकी अच्छाई के पक्ष में भले ही जितना तर्क दे दें और संभव है वे तर्क बिल्कुल जायज भी हों, लेकिन उससे हिंदी का प्रचार-प्रसार और विस्तार बाधित होगा.
         
दरअसल हिंदी का लचीलापन ही इसकी सबसे बड़ी खूबी है. अपनी इसी तरह की खूबियों के कारण इस भाषा की व्याप्ति बढ़ती जा रही है. लिहाजा अनेक ‘हिंदियों’ को किसी एक ‘हिंदी’ में फिक्स करने से उसके प्रसार पर बुरा असर पडे़गा. फिलहाल थोड़ी देर के लिए अखबार, इलेक्ट्रॅानिक चैनल और फिल्म में प्रयोग की जाने वाली हिंदी भाषा को नजरअंदाज कर दें, क्योंकि मर्सिया पढ़ने वाला जमात बिगड़ती हिंदी का उदाहरण यहीं से देता है और हिंदी को बिगाड़ने के लिए खास तौर से इन्हें ही जिम्मेवार मानता है. साथ ही साहित्य के सिर्फ एक विधा उपन्यास के मद्देनजर गौर करें तो किस हिंदी को अच्छी हिंदी मानेंगे? अच्छी हिंदी के निर्धारण में रोजमर्रा की जिंदगी में रच-बस गये अंग्रेजी शब्दों के लिए छूट और लोकभाषाओं के शब्दों के पुट के लिए जगह होगी या नहीं? हालाँकि आजकल अंग्रेजी के शब्दों के प्रयोग के साथ ही नाक-भौं ज्यादा सिकोड़ा जाता है. फिर भी यह पूछना जरूरी है लोकभाषाओं के विभिन्न शब्दों के लिए ‘अच्छी हिंदी’ में कितनी जगह होगी? अगर इनके लिए भी जगह नहीं होगी तो फणीश्वर नाथ रेणु (मैला आंचल), कृष्णा सोबती (जिंदगीनामा), अब्दुल्ल बिस्मिल्लाह (झीनीं-झीनीं बीनी चदरिया), एस. आर. हारनोट (हिडिंब) के उपन्यासों की हिंदी भी ‘अच्छी हिंदी’ की श्रेणी में नहीं आएगी. जबकि इन चारों महत्वपूर्ण रचनाकारों ने लोकभाषाओं के पुट से अपनी हिंदी की प्रकृति को बेहतरीन बनाया है. इसी के साथ यह सवाल भी जुड़ा है कि अंग्रेजी या विभिन्न लोकभाषाओं के शब्दों के उपयोग का अनुपात क्या होगा? इस अनुपात को तय करने की कसौटी क्या होगी? बहरहाल जीवन में, बोलचाल में जो शब्द रच-बस गये हैं उनसे नाक-भौं सिकोड़ना कहाँ तक उचित है? क्या बोलने और लिखने की भाषा में फर्क होना चाहिए? यहाँ हिंदी के प्रसिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्र की चर्चित पंक्ति को याद करें तो शायद नाक-भौं का सिकोड़ना कम हो जाए.
‘‘जिस तरह तू बोलता है
उस तरह तू लिख और उसके बाद भी
सबसे अलग तू दिख.’’
         
पिछले करीब डेढ़ दशक में जबसे आर्थिक भूमंडलीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है, हिंदी का विस्तार भी हुआ है. इसके साथ ही विभिन्न नये तकनीकों के प्रचार-प्रसार से भी हिंदी का एक नया रूप बनता दिख रहा है. विज्ञापन और विभिन्न माध्यमों के जरिये भी हिंदी का एक नया रूप विकसित हुआ है. हिंदी में नित्य बदलती परिस्थितियों के साथ अपना रिश्ता बनाया है और अपना विस्तार किया है. दरअसल नई परिस्थितियों के साथ बन रही ‘हिंदी’ का रूप ही मर्सिया पढ़ने वाले जमात को परेशान कर रहा है. इसलिए हिंदी खुद भी विमर्श का विषय बनती जा रही है. जरूरी है, किसी एक तरह की हिंदी का कट्टर समर्थन करने की बजाए इसके बहुवचन रूप यानी अनेक ‘हिंदियों’ के अस्तित्व को उदार मन से स्वीकार किया जाए. इसी के जरिये हमारी हिंदी का विस्तार भी होगा और संरक्षण भी. लेकिन हिंदी-हिंदी खेलने वाले लोगों का ध्यान इस पहलू पर नहीं है.
_____________
पताः बी-5/302, यमुना विहार,दिल्ली-110053,मोबाईलः 9868175601
ShareTweetSend
Previous Post

हिंदी में कामकाज: राहुल राजेश

Next Post

हस्तक्षेप : विकल्प की पत्रकारिता : संजय जोठे

Related Posts

कुछ युवा नाट्य निर्देशक: के. मंजरी श्रीवास्तव
नाटक

कुछ युवा नाट्य निर्देशक: के. मंजरी श्रीवास्तव

पच्छूँ का घर: प्रणव प्रियदर्शी
समीक्षा

पच्छूँ का घर: प्रणव प्रियदर्शी

पानी जैसा देस:  शिव किशोर तिवारी
समीक्षा

पानी जैसा देस: शिव किशोर तिवारी

अपनी टिप्पणी दर्ज करें Cancel reply

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2022 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक