फ़ोटो क्रेडिट : रूलान्ड फ़ोसेन,अम्स्तर्दम |
विष्णु खरे की कविता से जब हम रू-ब-रू होते हैं तब उस कविता के अलगपन के बारे में मन में कई बातें आती हैं. एक तो उनकी कविता बड़े अवकाश की माँग करती कविता है. बिला ज़रूरत छोटी छोटी कविताएँ लिखना उनकी कवि प्रकृति में नहीं लगता. उनकी कविता मुख्यतः बड़े अवकाश में ही खुलती और खिलती प्रतीत होती है. दूसरी बात यह है कि वे कविता की भाषा को गद्य के उस कगार तक ले जाते हैं जहाँ पर हम भी उस भाषा का तनाव महसूस करने लगते है. लेकिन आश्चर्यकारक ढंग से उनकी कविता अपना कवितापन बचाते हुए हमें भी चकित कर देती है.
भाषा के बहुत अलग संस्कार विष्णु खरे की कविताओं पर हैं. आधुनिक हिंदी कविता में भाषा को तराशते हुए कविता के लिए उसे अधिकाधिक ग्रहणशील बनाने वाले कई कवि हुए हैं. मुक्तिबोध, शमशेर, रघुवीर सहाय, अज्ञेय, नागार्जुन, त्रिलोचन जैसे भाषा को नई तमीज़ देनेवाले कवियों के बाद आई साठोत्तर कविता में दो महत्वपूर्ण कवियों ने अपने से पहले की भाषा में मूलभूत बदलाव लाए. ये दो कवि हैं विनोद कुमार शुक्ल और विष्णु खरे. इन दोनों कवियों की मिज़ाज में गहरा फ़र्क़ है. विनोदकुमार शुक्ल भाषा के मितव्यय पर कड़ा ध्यान देने वाले कवि हैं बरक्स विष्णु खरे अपनी प्रतिभा क्षमता से भाषा को तनाव देकर एक लम्बा क्षेपण करनेवाले कवि हैं.
‘जो टेम्पो में घर बदलते हैं’ या ‘अकेला आदमी’ जैसी कविताएँ या फिर ‘लड़कियों के बाप’ जो टाइपराइटर साइकिल के कॅरियर पर रख कर अपनी बेटी को स्टेनो की परीक्षा के लिए ले जाने वाले और बेटी की नौकरी के लिए कई कार्यालयों के चक्कर काटने वाले पिताओं पर लिखी कविताएँ हैं, समूचे निम्न/मध्य वर्ग पर लिखी एक मर्मग्राही टिप्पणी हैं. टाइपराइटर का बिम्ब बदल कर अब उस जगह कम्प्यूटर की तस्वीर अपने आप मन में उभर आती है. पढ़ते वक्त पाठक के मन में कविता में स्थित सभी सन्दर्भ समकालीन, आज के, होते जाते हैं. इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि विष्णु खरे की कविताओं में सिर्फ कोई चीज – जैसे टाइपराइटर – एक बिम्ब नहीं रहता बल्कि कविता का समूचा भाषिक अवकाश ही एक बिम्ब के रूप में स्थापित हुआ होता है. इसलिए उनकी कविता में बिम्ब-विचलन की क्षमता है.
विष्णु खरे की कविताओ में जो राजनीतिक और सामाजिक चेतना भी है उसके दो उदाहरण यहाँ देना चाहूँगा. पहला उनकी ‘मुलजिम नरसिंह राव.’ इन पंक्तियों से शुरू होनेवाली कविता (शीर्षक – ‘एक प्रकरण : दो प्रस्तावित प्रारूप’ – ‘काल और अवधि के दरमियान’ संग्रह से) जो नरसिंह राव जब जीवित थे और प्रधान मंत्री थे तब लिखी गई है. नरसिंह राव सरकार ने जो बड़ी भारी राजनीतिक गलतियाँ की थीं उन पर लिखी गई इस कविता पर बहुत तीखी राजनीतिक प्रतिक्रियाएं आई थीं. उसी तरह \’\’जर्मनी में एक भारतीय कम्प्यूटर विशेषज्ञ की हत्या पर वह वक्तव्य जो भारत सरकार देना चाहती है पर दे नही पा रही है”यह कविता का शीर्षक ही इस कविता के बारे में बहुत कुछ बयान करता है. इस तरह अपने विचारों के हथियारों के साथ सीधा राजनीतिक हमला करने की हिम्मत विष्णु खरे की कई कविताओं में दिखाई देती है जो हिंदी की निडर कविता की परंपरा को ज़ोरावर बनती है.
दूसरा उदाहरण उनकी ‘सर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा’ शीर्षक की प्रसिद्ध कविता का है. गाँवों कस्बों में ही नहीं बल्कि कई शहरों में भी मैला सर पर ढ़ोने की अमानवीय प्रथा इस देश में आजादी के बाद कई साल तक जारी थी और अब भी गयी नहीं है. विष्णु खरे की यह कविता जब प्रकाशित हुई तब यह प्रथा पूरे जोर पर थी और उस ने केवल हिंदी साहित्य में ही नहीं बल्कि पूरे राजनीतिक क्षेत्र में हलचल पैदा की. कुछ साल बाद इस कुप्रथा पर प्रतिबन्ध लगानेवाले कानून पर अमल किया गया फिर भी सम्बद्ध केन्द्रीय मंत्री के हालिया बयान से लगता है कि यह अमानवीय प्रथा समाज से पूर्णरूपेण गई नहीं है. उनकी कविताओं से सामाजिक चेतना के उदाहरणों का बयान करना याने यहाँ विष्णु खरे की सम्पूर्ण कविताओं का पाठ करना ही हो जाएगा !
अत्यंत विरल और असाधारण अंतरराष्ट्रीय चेतना से एवम् विश्व साहित्य के पाठ से तथा विश्व साहित्य के महती अनुवाद से विष्णु खरे की अनन्यता निखरी हुई है. यूरोपियन साहित्य से वे पाठ तथा अनुवाद के जरिये जुड़े हुए हैं. जर्मन, चेक, डच इत्यादि भाषाओं का उन्हें गहरा परिचय है. पूर्व यूरोप से कुछ महाकाव्यों का, जैसे एस्टोनिया के महाकाव्य ‘कलेवीपोएग’का ‘कलेवपुत्र’ अनुवाद या फ़िर फिनलैंड के महाकाव्य \’कलेवाला\’ का अनुवाद, गोएठे की अजरामर जर्मन विश्वकृति ‘फ़ाउस्ट’ का अनुवाद उनकी अनुवाद-यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ाव है. इन सभी भाषानुभावों की प्रतिध्वनियाँ उनकी कविता में सुनाई देती हैं. साथ ही विश्वस्तरीय फिल्मों की दुनिया से वे आन्तरिकता से जुड़े हुए है. उनके लेखन के अन्तर्विश्व का एक हिस्सा दुनिया की बेहतरीन फिल्मों के प्रभाव से रोशन हुआ है, लेकिन किसी भी लेखक के बारे में ऐसा सहसम्बन्ध स्थापित कर दिखाना बहुत मुश्किल काम होता है. हालाँकि यही सब बातें लेखक की रोटी में नमक की तरह आती है.
शास्त्रीय तथा लोकप्रिय भारतीय संगीत के साथ पाश्चात्य पॉप और शास्त्रीय संगीत से भी वे भली भाँति अवगत हैं. उन की कुछ कविताओं में तो पाश्चात्य संगीत के बहुत ही सूक्ष्म सन्दर्भ आते है. एक कविता में उन्होंने मोत्सार्ट और बेटहोफ़ेन की क्रमशः चालीसवीं और पाँचवीं सिम्फ़ोनियों की प्रारंभिक स्वरलिपियों का इस्तेमाल किया है. सहसा भारतीय कविता में दिखाई न देनेवाली वैज्ञानिकता भी विष्णु खरे की कविता में दीख पड़ती है. (उदा.: ‘तरमीम’ कविता: ‘पाठांतर’संग्रह से जो प्रकाश किरणों के वैज्ञानिक सन्दर्भ केंद्र में रख कर लिखी गई अनूठी रचना है). वैज्ञानिक एहसास का अभाव असल में हमारे साहित्य में एक समस्या होती जा रही है. ऐसे में विष्णु खरे जैसे कवि बड़ी राहत हैं.
विष्णु खरे खरें के हर एक कविता संग्रह के पहले खुलनेवाले पृष्ठ पर प्राचीन मिस्र के चौथे राजवंश के समय, यानी लगभग ई. स. पू. २५०० के आसपास, निर्मित एक लिपिकार की मूर्ति का चित्र छपा होता है. पेरिस के लूव्र संग्रहालय की यह मूर्ति उसके ऐतिहासिकता के साथ अपनी निर्भीक मुद्रा तथा सत्य की गहराई तक पहुँचनेवाली दृष्टि के लिए विख्यात है. इस मूर्ति के चेहरे पर जो भाव हैं वे शायद विष्णु खरे की एक पहचान है. हर लेखक के लिए अनिवार्य निर्भीकता तथा सच की जड़ों तक पहुँचने की ख्वाहिश विष्णु खरे के व्यक्तित्व का अटूट हिस्सा हैं. कई बार उन्हें इस की कीमत भी चुकानी पड़ी है. लेकिन इस हिस्से को उन्होंने अब तक अपने से छूटने नहीं दिया. प्रस्थापित सत्ता के केंद्र शायद इसीलिए उनसे से दूरियाँ बनाये रखना ही पसंद करते हैं.
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प्रफुल्ल शिलेदार
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