या र जु ला हे…
(गुलज़ार को दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिलने पर सुशोभित सक्तावत का आकलन)
जबान जबान की बात है, जबान जबान में फर्क होता है!
मसलन, उर्दू के मशहूर लेखक मुल्ला रमूजी ने एक किताब लिखी है : \’गुलाबी उर्दू.\” वे भोपाल की उर्दू को गुलाबी उर्दू कहा करते थे. कहने वाले यह भी कहते हैं कि लखनऊ की उर्दू जनानी है और भोपाल की मर्दानी. इस लिहाज से पंजाबी उर्दू को शोख और अल्हड़ कहा जा सकता है : रावी पार का लहजा जिसमें होंठों पर गुड़ की चाशनी की तरह चिपका रहे. और चाहें तो उसको \’पाजी जबान\” भी कह सकते हैं. यह अकारण नहीं है कि उर्दू अदब के साथ ही पंजाब की बोली-बानी से गहरा ताल्लुक रखने वाले संपूरन सिंह कालरा उर्फ गुलजार ने \’पाजी नज्में\” कही हैं. खुदावंद से यह पूछने की गुस्ताखी गुलजार ही कर सकते थे कि \’दुआ में जब मैं जमुहाई ले रहा था/तुम्हें बुरा तो लगा होगा?\” और यह कि \’चिपचिपे दूध से नहलाते हैं तुम्हें/…इक जरा छींक ही दो तो यकीं आए/कि सब देख रहे हो.\”
संबोधन की यह अनूठी अनौपचारिक चेष्टा ही तो मुकम्मल गुलजारियत है!
अंग्रेजी कविता में सन् 1798 में जब वर्ड्सवर्थ और कॉलरिज के \’लिरिकल बैलेड्स\” शाया हुए तो उसी से रोमांटिक कविता की इब्तिदा मानी गई. ये कवि कुदरत से यूं मुखातिब होते थे, जैसे वह कोई जीता-जागता शख्स हो. फिर शेली और कीट्स ने प्रत्यक्ष-संबोधन के कई \’ओड्स\” लिखे. कीट्स के \’ओड टु ऑटम\” में तो पतझर के लंबे-लंबे बाल हवा में लहराते हैं. प्रकृति के मानवीकरण और काव्य में उसके उद्दीपन-आलंबन की छटा फिर हमारे यहां छायावादी कविता में भी नजर आई, जब सुमित्रानंदन पंत ने \’पल्लव\” में \’छाया\” से पूछा : \’कौन-कौन तुम परिहत-वसना, म्लान-मना भू-पतिता-सी?\” गुलजार की कविता को समझने के लिए इस \’परसोनिफिकेशन\” को और चीजों की इस निरंतर परस्पर \’सादृश्यता\” को समझना बेहद जरूरी है, क्योंकि शायद ही कोई शाइर होगा, जो अपने परिवेश से उनके सरीखी बेतकल्लुफी के साथ मुखातिब होता हो. चांद तो खैर उनका पड़ोसी है. रात को वे कभी भी घर से भागी लड़की बता सकते हैं, जिसे सुबह के मेले में जाना है. बारिश उनके यहां पानी का पेड़ है. झरने झुमकों की तरह कोहस्तानों में बोलते हैं. दिन \’खर्ची\” में मिला होता है. आसमान कांच के कंचों की तरह स्कूली बस्ते में रखा होता है, जिसमें जब बादल गहराते हैं तो किताबें भींज जाती हैं!
अपने आसपास के मौसम को इस भरपूर अपनेपन के साथ अपनी कहन में उतार लेने के लिए एक निहायत मुख्तलिफ शाइराना मिजाज चाहिए. फिर गुलजार की शाइरी में एक खास किस्म का \’पेंच\” भी है. उन्हें गालिब और मीरकी परंपरा से अलगाया नहीं जा सकता, पर उनमें मंटो और अहमद नदीम कासमी भी बराबर शुमार हैं. मंटो की मुंहफटी में मीर की पुरदर्द हैरानियां जोड़िए और फिर उसे गालिब की जिंदादिल फलसफाई उठानों का मुलम्मा चढ़ाइए तो शायद हम खुद को गुलजार के कद से वाबस्ता पाएंगे. यह आबशारों का-सा कद है : पहाड़ पर पानी के स्मारक सरीखा भव्य और उन्मत्त. अचरज होता है, \’समंदर को जुराबों की तरह खेंचकर पहनने वाले जजीरे\” यानी बंबई में यह शख्स अपने शफ्फाक कुर्ते को सालों से बेदाग बनाए हुए है.
यकीनन, गुलजार को प्रतिष्ठित दादासाहब फाल्के पुरस्कार सिनेमा में उनके समग्र योगदान पर दिया गया है, बावजूद इसके आने वाली नस्लें उन्हें उनकी शाइरी के लिए ही याद रक्खेंगी. हिंदी सिनेमा में गीत लेखन का पूरा मुहावरा ही उन्होंने बदल दिया. फिल्म \’परिचय\” के लिए जब उन्होंने लिखा था, \’सारे के सारे, गामा को लेकर, गाते चले/पापा नहीं हैं, धानी-सी दीदी, दीदी के साथ हैं सारे,\” तो गीत के मुखड़े भर में सरगम से लेकर किस्सा सुनाने तक का करतब कर दिखाया था. फिर \’अक्स\” में उन्होंने लिखा : \’कत्था-चूना जिंदगी/सुपारी जैसा छाला होगा!\” गुलजार से एक बार पूछा गया कि \’कजरारे\” की कामयाबी का फॉर्मूला क्या था. उन्होंने कहा यह गीत मैंने ट्रकों के पीछे लिखे जाने वाले जुमलों की तर्ज पर लिखा था, जैसे : \’बरबाद हो रहे हैं जी, तेरे अपने शहर वाले.\” इन बारीकियों पर मुस्तैद नजर रखने और उन्हें एक असरदार मुहावरे में बदल देने का शऊर कम ही के पास होता है.
फिर भी, असल गुलजार को जानना हो तो फिल्मी गीतों से इतर उनके मज्मुए पढ़ लीजिए. \’रात पश्मीने की\” में \’जंगल\” नामक नज्म है, जिसमें ये सतरें आती हैं, \’घनेरे काले जंगल में/किसी दरिया की आहट सुन रहा हूं मैं/कभी तुम नींद में करवट बदलती हो/तो बल पड़ता है दरिया में.\” नदी की बांक सरीखी, नींद में बदली गई करवट का भाव-अमूर्तन गुलजार ही रच सकते थे! वे अपनी अनूठी काव्य-प्रतिभा की अन्यतम पूर्णता को अर्जित करें और अप्रत्याशित बिम्ब-योजनाओं के नए वितान रचते रहें, इन दुआओं के साथ ही उन्हें मुबारकबाद दी जा सकती है.
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(गुलज़ार का चित्र गूगल से साभार)