तितास एक्टि नदीर नाम’ बांग्ला भाषा के अद्वैत मल्लबर्मन का उपन्यास है. इस ऐतिहासिक महत्व के उपन्यास का हिन्दी अनुवाद- ‘तितास एक नदी का नाम’. मानव प्रकाशन, कोलकाता से प्रकाशित है. इसका अनुवाद किया है हिन्दी, बांग्ला में लब्धप्रतिष्ठ प्रो. चन्द्रकला पाण्डेय और डॉ. जय कौशल ने. सन 1956 में प्रथम बार बांग्ला में प्रकाशित इस रचना का प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता उत्पल दत्त द्वारा 1963 में भारतीय गणनाट्य संघ के प्रयास से नाट्य-रूपांतर और मंचन किया गया था, जिसमें स्वयं उत्पल दत्त के साथ-साथ विजन भट्टाचार्य और चर्चित गायक निर्मलेन्दु चौधरी ने प्रमुख भूमिकाएँ निभाई थीं. इसके बाद 1993 में नाटककार शान्तनु कायदार द्वारा अबुल खैर और मोहम्मद युसुफ़ के साथ कुमिल्ला (अब बांग्लादेश में) में इसका मंचन किया गया. इसी वर्ष प्रसिद्ध भारतीय फ़िल्म निर्माता और पटकथा लेखक ऋत्विक घटक ने 1973 में इस पर ‘तितास एक्टि नादिर नाम’ शीर्षक से ही बांग्ला में एक फ़िल्म बनाई थी, जिसे 2010 में आयोजित 63वें काँस फिल्मोत्सव में ‘काँस क्लासिक’ के तहत प्रदर्शित किया गया था. ‘
तितास’, ‘मेघना’ (अब मुख्यत: बांग्लादेश में बहने वाली) से टूटकर बनी एक नदी का नाम है, लेकिन इस उपन्यास में अद्वैत ने उसे मानवीकृत रूप में चित्रित किया है. इसके किनारे मनुष्य-जीवन की अनेक छवियाँ अंकित हैं. अपने नग्न-यथार्थ, सुगठित कथन-शैली, मिथकीय व्याख्या, भव्य-संरचना और संगीतमय कथानक के कारण यह उपन्यास समकालीन बांग्ला साहित्य में बेहद समादृत है. देश-विभाजन से पहले हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच जो मिठास थी, उसका वर्णत तो ‘तितास’ में आया है, लेकिन विभाजन के बाद दोनों संप्रदायों में आई तितास को इस ‘तितास’ में नहीं दिखाया गया है. मुस्लिम खेतिहरों और हिन्दू मछेरों की संस्कृति का एका इस रचना की रीढ़ है लेकिन तत्कालीन बंगाली समाज में मौजूद रही ‘छुआछूत’ और ‘जातिप्रथा’ के प्रसंग भी अपनी पूरी प्रखरता के साथ आए हैं, यही कारण है कि बांग्ला दलित साहित्य एवं विमर्श में इस उपन्यास को दलित अभिव्यक्ति की पहली महत्त्वपूर्ण रचना का दर्जा हासिल है.
यह भी कि वर्ष 2014 अद्वैत मल्लबर्मन का जन्म शताब्दी वर्ष था. हिन्दी में अनूदित यह कृति अद्वैत की स्मृति के प्रति एक श्रद्धांजलि भी है.
समालोचन पर इस कृति का कथा सारांश और रचनाकार का जीवन सार.
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अद्वैत मल्लबर्मन
अद्वैत मल्लबर्मन का जन्म 1 जनवरी,1914 को पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) के एक दलित मालो परिवार में हुआ था. यह परिवार ब्राह्मणबाड़िया जिले के गोकर्णघाट गाँव में बसा था. इनके पिता का नाम अधरचन्द्र और माँ का नाम शारदा था. गोकर्णघाट से सटकर ही तितास नदी बहा करती थी. यह मालो परिवारों के जीवन की धुरी थी. बचपन में ही गरीबी और भुखमरी के कारण इनके माता–पिता एवं भाइयों का देहान्त हो गया था. इनकी इकलौती दीदी बची थीं, वे भी दो बच्चों के जन्म के बाद विधवा होकर मायके लौट आई थीं. 1934 में अद्वैत स्थाई तौर पर कलकत्ता आ गए. इसी बीच उनकी दीदी का भी देहान्त हो गया. कुल मिलाकर, ‘तितास एकटि नदीर नाम’ शीर्षक से बांग्ला साहित्य को एक अविस्मरणीय रचना देने वाले अद्वैत का संबंध बेहद निम्नवर्गीय दलित मालो परिवार से था, जिसे मोहल्ले के आस-पास के लोग उपेक्षा से गावर-टोला (नाव रंगने वाले) कहा करते थे. तथाकथित अभिजात्य समाज की नजर में ये मेहनतकश ‘जल के दास’ अत्यन्त तुच्छ लोग थे.
गोकर्णगाट के पिछड़े इलाके से एक बालक इतना आगे कैसे बढ़ा, इसका उल्लेख तितास के प्रथम संस्करण की भूमिका में दिया गया है, ‘बचपन से ही अद्वैत में ज्ञान-प्राप्ति की बहुत ललक थी. प्राथमिक शिक्षा उन्होंने स्कूल के वजीफ़े से पूरी की. अन्य मालो बच्चों की तरह इनका बचपन भी कुपोषण और भुखमरी में बीता. पाँच मील की दूरी तय कर जब थका-हारा यह बच्चा पाठशाला में अपनी जगह पर बैठता तो सहपाठियों का ध्यान भले ही उन पर न जाता हो, लेकिन कुछ सहृदय शिक्षक अपने इस प्रिय छात्र के मलिन चेहरे पर भूख के चिह्न साफ़ पढ़ लेते थे. भयंकर गरीबी, अभाव और पीड़ा में भी अद्वैत की प्रतिभा छोटी-छोटी कविताओं में नजर आने लगी थी. कुछ शिक्षकों ने इन्हें आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इनके एक शिक्षक श्री सनातन बर्मन ने इनकी साहित्य-साधना को निखारने में बड़ी मदद की. उन्होंने अपने घर में ही अद्वैत के रहने की व्यवस्था कर दी और मिडिल तक की पढ़ाई पूरी करवाई. सन 1933 में इन्होंने अन्नदा हाई-स्कूल से प्रथम श्रेणी में मैट्रिक परीक्षा पास की और बांग्ला भाषा में सर्वोच्च अंक प्राप्त किए. उच्च शिक्षा के लिए ये कुमिल्ला शहर (अब बांग्लादेश में) के विक्टोरिया कॉलेज में भर्ती हुए. खाने और रहने के एवज में वे कुछ छात्रों को पढ़ाने लगे लेकिन गरीबी से जूझते हुए इन्हें अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी और 1934 में कलकत्ता चले आए. सन् 1934 से 1951 की अवधि को उनकी रचनात्मकता का सर्वश्रेष्ठ समय कहा जाएगा. लेकिन इसमें भी जीविका का आतंक उन्हें हर पल सालता रहता था. एक पिछड़े गाँव की पिछड़ी जाति के संकोची युवक के लिए एक सर्वथा अपरिचित शहर में एक टुकड़ा जमीन या सिर पर एक बित्ता आसमान खोजना आसान काम नहीं था. लेकिन खुद को स्थापित करने का जो दृढ़ संकल्प उनमें था, जिन दु:खद और अनिश्चित जीवन स्थितियों से जूझते हुए उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता को जिलाए रखा, वह बंगला ही नहीं सम्पूर्ण विश्व साहित्य में एक मिसाल है. अपनी जीविका के लिए उन्होंने कई जगहों पर काम किया, जैसे-1934–35 में त्रिपुरा हित-साधिनीसभा के मुख-पत्र में पत्रकारिता. 1935 में प्रेमेन्द्र मित्र के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘नवशक्ति’ से जुड़ाव. 1938 में श्री सागरमय घोष उनके सहायक बनकर आए और उन्हें 35 रुपए वेतन पर संपादक का पद मिला, लेकिन इनके मन में तो तितास बसी थी. तितास किनारे के जीवन की अनेक छवियाँ उनकी रचनाओं में प्रतिबिम्बित होने लगीं थीं. इनकी आरम्भिक रचनाएँ नवशक्ति में छपीं, पर 1941 में यह पत्रिका बन्द हो गई. उसके बाद ये ‘आजाद’ और ‘मोहम्मदी’नामक पत्रिकाओं से जुड़े. ‘मोहम्मदी’ अद्वैत के जीवन में एक युगान्तर की तरह आई. कुछ कविताओं के बाद इसी में बंगला संवत 1352 के सावन महीने से माघ तक के सात अंकों में ‘तितास एकटि नदीर नाम’ धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ, लेकिन पूरा छपने के पहले ही उन्हें ‘मोहम्मदी’ छोड़ देनी पड़ी. क्योंकि मालिकों से उनकी नहीं बनी. वे नहीं चाहते थे कि अद्वैत ऐसा कुछ लिखें जिसमें राष्ट्रप्रेम बह रहा हो और वह ब्रिटिश हुकूमत को उकसाए. उन्होंने तितास के कुछ अध्याय जिन लोगों को दिए थे, वे या तो उन लोगों द्वारा छिपा लिए गए या खो दिए गए. उनकी प्रबल इच्छा के बावजूद तितास ग्रन्थ के आकार में बंगला संवत 1363 (1956) में ही छप सका. तब तक उनकी मृत्यु हो चुकी थी. बंगला के साथ-साथ अंग्रेज़ी पर भी अद्वैत की खासी पकड़ थी. उन्होंने इरविन स्टोन के अंग्रेजी उपन्यास ‘लस्ट फॉर लाइफ़’ का बंगला अनुवाद किया था, जिसके नायक और अद्वैत के स्वयं के जीवन में एक अद्भुत साम्य मिलता है. वह भी सैंतीस साल की उम्र में चल बसा था. जिस तरह उसका जीवन वारिनेजर की कोयला खदानों के गरीब सर्वहारा मजदूरों के बीच गुजरा था, वैसे ही अद्वैत का तितास के किनारे गरीब उपेक्षित मांझी-मल्लाहों के बीच.
वस्तुत: अद्वैत की जीवन कथा दुर्भाग्य और प्रतिकूलता के बीच साहसिकता की जय-गाथा है. शैशव में ही अपनों को भूख और इलाज के अभाव में दम तोड़ते देखा, लेकिन उनकी आँखों में बसा आत्मसम्मान और आत्मप्रतिष्ठा का सपना कभी बुझा नहीं. स्कूली जीवन तक का पथ काँटों और फ़िसलन से भरा था. इस जल-दास दरिद्र परिवार के पास संपत्ति के नाम पर बांस-बेंत की एक झोंपड़ी, जाल और छोटी सी डेंगी (किश्ती) भर थी. इनके लिए ‘जलजीवी’ शब्द सबसे अधिक संगत है क्योंकि जहाँ से इनका पालन-पोषण होता था, वह इकलौती तितास नदी थी. स्वयं लेखक के वर्णनानुसार, ‘तितास एक ऐसी नदी; जिसके दोनों किनारों के बीच पानी ही पानी था. उसके वक्षस्थल पर जीवन्तता से भरपूर लहरें अठखेलियाँ किया करती थीं. वह स्वप्न की गति से बहती जाती, भोर की हवा से उसकी तंद्रा टूटती; दोपहर का सूरज उसे उत्ताप देता और रात को चाँद-सितारे उसे लोरी गाकर सुलाने की कोशिश करते; लेकिन वे ऐसा कर नहीं पाते थे.’ इस मनमौजी नदी की तरह ही जल-पुत्र अद्वैत का मिजाज भी शाही था. उन्होंने कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया, न किसी को अपनी व्यथा सुनाई. चुपचाप काल के प्रहार सहते रहे. जीविका के स्थानों पर निष्ठा से अपना काम किया. कभी अतिरिक्त काम के बोझ से नहीं घबराए. अल्पायु में ही क्षय-रोग से ग्रस्त होने पर उनके बंधु-बांधवों ने उन्हें उत्तर कलकत्ता के कचरा-पाड़ा अस्पताल में भर्ती करा दिया था, लेकिन वे वहाँ से भाग आए. उन्होंने 37 साल की आयु में कलकत्ता के नारिकेल-डांगा इलाके में स्थित किराए की एक कोठरी में दम तोड़ा था. वे अपने पीछे किताबों एक विपुल संग्रह छोड़ गए थे. उन्हें जो भी पैसा मिलता, वे उसकी किताबें खरीद लेते. उनमें स्वाध्याय की जबरदस्त चाह थी. नृतत्वशास्त्र, समाज-विज्ञान, इतिहास और साहित्य में डूबे रहना उनका प्रिय काम था. उनकी मृत्यु के बाद लेखक प्रेमेन्द्र मित्र के प्रयासों से उनके ग्रन्थ कलकक्ते की राममोहन लाइब्रेरी को संरक्षण के लिए सौंप दिए गए.
बीस साल के ग्राम और सत्रह साल के नगर जीवन के अनुभवों से उनका नितान्त निजी जीवन दर्शन निर्मित हुआ था. जिन परिस्थितियों में उनका जीवन गुजरा था उनमें एक साहित्य साधक का सफ़ल होना बेहद दुष्कर कार्य था, फ़िर भी वे एक ऐसी मौलिक रचना दे गए जो अकेली उन्हें अमर बनाने के लिए पर्याप्त है. वे अपने गाँव को दिल में बसाए कोलकाता आए थे और यहाँ के सम-सामयिक समाज और सचेतन नगर-संस्कृति को दिल-दिमाग में उतार लिया. दो-विश्व-युद्धों के बीच उलझे हुए देशकाल को उन्होंने समझा, अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों के बारे में अत्याधुनिक तथ्यों और समयोचित विश्लेषण की क्षमता उनमें पत्रकारिता से जुड़े रहने के कारण विकसित हुई थी. इसी कारण उन्होंने अपने जलजीवी समाज की लोक-संस्कृति, जिसे वे अपना पारम्परिक संसाधन मानते थे, और आधुनिकता, दोनों के मेल से ‘तितास एकटि नदीर नाम’ की रचना की.
अद्वैत अपनी रचना के समानान्तर आज भी बंगला साहित्य में अकेले खड़े हैं. इस एक मात्र रचना ने उन्हें अल्पायु के अभिशाप से मुक्त कर अमर बना दिया है.
डॉ. चन्द्रकला पाण्डेय
डॉ. जय कौशल
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तितास एकटि नदीर नाम
अद्वैत मल्लबर्मन का उपन्यास ‘तितास एकटि नदीर नाम’ पहली बार सन 1956 में प्रकाशित हुआ था. यह बंगला साहित्य में सर्वाधिक ख्याति-प्राप्त उपन्यासों में से एक है. इसमें मछली पकड़ने वाली एक निचली जाति मालो की कहानी है. मालो समुदाय का त्रिपुरा और बंगलादेश में बहने वाली नदी के साथ नाभिनाल रिश्ता रहाहै. बंगाल के हिंसक विभाजन से पूर्व इस उपन्यास में भारत और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के बीच हिन्दू मछुआरोंऔर मुस्लिम किसानोंके बीच की पूरी जीवन्तता, शांति और परस्पर सहयोग के साथ जीवन-यापन को दर्शाया गया है. इसमें आंचलिकता और नृतत्वविज्ञान का एक अद्वितीय संयोजन मिलता है. इसी क्रम में स्थानीय आँचलिक-संस्कृतिके गीत, वहाँ के त्यौहार, विभिन्न संस्कार, भाषा, प्राकृतिक आपदा, आधुनिकीकरण आदि से संसाधनों पर बढ़ता कब्जा, अपसंस्कृति का अनुप्रवेश, राजनीतिकसंघर्ष, बाल मनोविज्ञान, शिक्षा के महत्व और दलित एवं स्त्री चेतना को बेहद खूबसूरती से गूँथा गया है. एक नजरिए से यह रचना कला के साथ-साथ तत्कालीन समय के ऐतिहासिक दस्तावेज़का काम भी करती है.
इस संदर्भ में कथावस्तु को संक्षेप में देना उचित होगा. तकरीबन ढाई सौ पृष्ठ के इस उपन्यास को लेखक ने स्वयं चार खण्डों में बाँटा है. प्रत्येक खण्ड के दो अध्याय हैं. लेखक ने सबके अलग-अलग शीर्षक दिए हैं. इनमें चरित्रों की प्रचुरता है. कभी कभी तो सबको एक साथ स्मरण रखना मुश्किल हो जाता है. प्रथम खण्ड के अध्यायों के नाम क्रमश: ‘तितास एक नदी का नाम’ और प्रवास’ हैं. द्वितीय खण्ड के लिए ‘नया ठिकाना’ और ‘जन्म, मरण और विवाह, तृतीय खण्ड में ‘इन्द्रधनुष’ और ‘रंगीन नाव’ तथा चतुर्थ खण्ड में ‘दुरंगी तितली’ और ‘भासमान’ हैं.
प्रथम खण्ड के ‘तितास एक नदी का नाम’ शीर्षक प्रथम अध्याय में तितास नदी का काव्यमय एवं दार्शनिक विवरण दिया गया है. साथ ही, तेरह मील दूर स्थित विजय नदी का तुलनात्मक उल्लेख है. इस अध्याय में तितास नाम के औचित्य की व्याख्या करते हुए लेखक ने स्पष्ट किया है कि, भले ही यह अभिजात्य नदी न हो, किन्तु इस पर निर्भर है, इसके तीरवासियों की आजीविका. गर्मी में विजय सूख जाती है और उसके तटवासी जीविका की तलाश में अन्यत्र भटकने लगते हैं. इसी पृष्ठभूमि से कुछ पात्र उभरते हैं. तितास के किनारे बसे गाँवों के अधिकतर निवासी मालो हैं, लेकिन कुछ छोटे-बड़े मुसलमान किसानों का भी वहाँ निवास है. ससुराल से मायके आती जमीला, जोबैद अली अपने तीन बेटों और दो मजदूरों बन्दे अली और करमाली की सामान्य बातचीत से मालिक की सम्पन्नता और मजदूर की विपन्नता शब्दचित्र बनकर सामने आ गई है. विजय के किनारे उत्तरी टीले पर बसे नित्यानंद और पश्चिमी टीले पर बसे गौरांग दो गरीब भाइयों से पाठकों का परिचय होता है, जो हर सूखे के समय नयनपुर के बोधाई मालो के मछली पालन में मजदूरी कर किसी तरह अपना पेट पालते हैं. ऐसा लगता है इन पात्रों की यहाँ कोई जरूरत नहीं थी लेकिन लेखक के दिल-दिमाग में कथा-सूत्र पूरी तरह स्पष्ट है कि इन्हें कहाँ से कहाँ जोड़ना है.
‘प्रवास’ शीर्षक अध्याय में कहानी नया मोड़ लेती है. गाँव का दक्षिण टोला मालो टोला है. माघ महीने में कुमारी कन्याएँ माघ-मण्डल व्रत करती हैं और इसका समापन एक बड़े उत्सव के रूप में होता है. कन्याओं के लिए खासकर उनके भाई या पिता रंग-बिरंगी चौयारियाँ बनवाते हैं. आँगन में घोड़े-हाथी, पक्षी माँड़े जाते हैं. कन्याएँ गाते-बजाते सिर पर चौयारियाँ लिए तितास में भसाने जाती हैं. जिन्हें किनारे खड़े युवक लपककर लूट लेते हैं. दीननाथ मालो की बेटी बासन्ती का कोई भाई नहीं, इसलिए उसकी माँ उसके बचपन के साथी किशोर और सुबल की मदद लेती है. उल्लसित बासन्ती जब अपनी चौयारी नदी में विसर्जित करती है तो किशोर उसे लूटने में जान-बूझकर पीछे रह जाता है, जबकि सुबल उसे निकालकर भाग छूटता है. बासन्ती को यह अच्छा नहीं लगता. क्योंकि वह भी अपनी माँ की तरह किशोर को पसन्द करती थी. उसकी माँ ने तो उसे भावी दामाद ही मान लिया था. जबकि किशोर बासन्ती को लेकर वैसा कोई भाव नहीं रखता था. पाठक को आरम्भ में यह घटना मूल कथा से विच्छिन्न लग सकती है, किन्तु उपन्यास में यह अत्यन्त तात्पर्यपूर्ण है. हठात तितास में मछलियों का परिमाण घटता देख किशोर और सुबल तिलकचाँद नामक एक अनुभवी मछेरे को साथ लेकर उत्तर की ओर प्रवास पर निकल जाते हैं. अनेक स्थानों पर होते हुए वे शुकदेवपुर गाँव पहुँचते हैं. जहाँ एक किशोरी पहली नजर में ही किशोर को मुग्ध कर लेती है. होली के उत्सव में ये मिलते हैं और उनमें एक गोपन प्रेम जन्म ले लेता है. शुकदेवपुर के मालो लोगों का समीपवर्ती गाँव वासुदेवपुर से पुराना झगड़ा था. आपसी समझौते के लिए गाँव के मुखिया उनके पास गए थे, लेकिन इसके पहले ही उन लोगों ने होली-उत्सव में डूबे शुकदेवपुरवासियों पर धावा बोल दिया. भयंकर मारपीट हुई, जिसे देख वह किशोरी बेहोश हो गई थी. किशोर ने अपनी जान पर खेलकर उसकी रक्षा की. दूसरे ही दिन शुकदेवपुर के मुखिया की पत्नी की सहायता से किशोर के साथ उस लड़की की माला-बदल रस्म कर दी जाती है. साथ ही, यह शर्त भी कि अपने देश लौटकर किशोर उससे विधिवत विवाह कर लेगा. किशोर इस माला-बदल से वाकई खुश होता और उसके लिए इन्तजार करती बासन्ती सुबल के लिए बच जाती है. लेकिन प्रवास से लौटते समय जल-दस्यु नाव पर हमला कर देते हैं. वे सोते हुए सुबल, किशोर और तिलक को बाँधकर नाव लूटने की कोशिश करते हैं. इधर नववधू उनसे बचकर पानी में कूद जाती है और तैरते-तैरते बेहोश हो जाती है. जब सब जागते हैं तो नववधू गायब पाई जाती है. इस आकस्मिक मानसिक आघात से किशोर विक्षिप्त हो जाता है. इस बीच धारा में बहते एक अकड़े हुए नारी-शरीर से तिलक और सुबल को विश्वास हो जाता है कि यह किशोर की माला-बदल बऊ ही है.
‘नया ठिकाना’ शीर्षक द्वितीय खण्ड का प्रथम अध्याय चार वर्ष बाद की घटना के साथ शुरू होता है. यहाँ आकर कहानी में औत्सुक्य और रोचकता बढ़ जाती है. किशोर की वह माला-बदल बऊ अब चार वर्षीय अनन्त की माँ बन गई थी. डाकुओं की गिरफ़्त से छूट जब वह नदी में कूदी, तब अनन्त उसके गर्भ में था. मछेरे की बेटी जबर्दस्त तैराक थी. तैरते-तैरते थककर वह विजय के किनारे बेहोश पड़ी थी और उसे बचाया उन्हीं गौरांग और नित्यानद नामक दो बूढ़े सर्वहारा भाइयों ने, जिनसे पाठक प्रथम खण्ड में ही परिचित हो चुके हैं. इन दोनों ने अपनी बेटी की तरह उसे सम्मान और सुरक्षा दी. चूंकि वह अपने मायके लौटना नहीं चाहती थी और ससुराल से परिचित नहीं थी. बस उसे इतना याद था कि किशोर और सुबल तितास के किनारे बसे गोकनगाँव से आये थे. यह किशोरी जिसकी व्यथा-कथा ‘तितास एक नदी का नाम’ की जीवनरेखा है, लेखक ने कहीं उसके नाम का उल्लेख नहीं किया है. या तो वह किशोर की माला-बदल बऊ रही या फ़िर आमरण अनन्त की माँ के नाम से जानी गई. शायद यह यहाँ मालो-औरतों के वर्ग-चरित्र के रूप में आई है, जो पुरुष के नाम से जुड़कर ही जानी जाती हैं. वे शून्य हैं, पुरुष अंक है. अंक के साथ जुड़कर ही उनका मूल्य होता है अन्यथा वे शून्य ही रह जाती हैं. लेकिन लेखक की खासियत इस बात में है कि वह इन शून्यों के बीच एक अभूतपूर्व बहनापा दर्शाता है. जमीला उदयतारा से बहनापा जोड़ने के लिए पागल है तो अनन्त की माँ को सुबला बऊ से बहनापे के कारण काम का सहारा मिलता है. अनन्त की माँ उसी गाँव में अपना ‘नया ठिकाना’ बनाती है. इस गांव के घाट पर उतरते ही वह एक पागल युवक को उसके बूढ़े माँ-बाप के साथ देखती हैं, जो उसे नदी में नहलाने के लिए लाए थे. वस्तुत: यही उसका माला-बदल पति किशोर था, जो उसी के वजह से पागल हुआ था. लेकिन यह उसे पहचानती नहीं थी. इसी बीच नाव-दुर्घटना में सुबल भी मारा जाता है. बसन्ती (सुबला बऊ) उसी की विधवा थी. इसी अध्याय में ग्राम-पंचायत के बीच से कुछ और पात्रों का परिचय मिलता है, जिनमें प्रमुख हैं- मातबर रामप्रसाद, दयाल चाँद, भारत, किसनचंद, मोहन और उसकी माँ (मंगला बऊ) आदि.
इस खण्ड के दूसरे अध्याय ‘जन्म, मरण और विवाह’ में मालोपाड़ा के सम्पन्न कालोबरन के परिवार का उल्लेख है, जिसके पुत्र के अन्न-प्राशन में बासन्ती और अनन्त की माँ, दोनों आमन्त्रित होती हैं. वहाँ कुछ प्रसंग उठते हैं, फ़िर संक्रान्ति-पर्व पर ये पागल किशोर के घर में ही पीठा बनाने के लिए जाती हैं. यहाँ कथा के अनेक पूर्वापर सम्बन्ध जुड़ते हैं, जिनसे अनन्त की माँ समझ जाती है कि किशोर ही उसका माला-बदल पति था. बासन्ती को भी इस बात का कुछ-कुछ आभास हो गया था कि यही वह नारी है, जिसके लिए किशोर आज पागल था. अनन्त की माँ किसी भी तरह पागल के साहचर्य में आना चाहती है और पुरानी स्मृतियों को सामने लाकर उसे पुन: होशमंद बना लेना चाहती है. इसी प्रयास में होली के दिन उसे अबीर लगा देती है, लेकिन इससे किशोर का उन्माद बढ़ जाता है. उत्तेजना में वह उसे गोद में उठाकर चिल्लाने लगता है- डाकुओं ने सती को हाथ लगा दिया, बचाओ, मारो आदि. होली के हुल्लड़ में मतवाले गाँववाले पागल के इस व्यवहार को स्त्री-असम्मान समझ लेते हैं और उसकी जमकर पिटाई की जाती है. मार के आघात से किशोर दूसरे ही दिन मर जाता है. इस घटना से आहत, थकी, टूटी अनन्त की माँ भी चार दिन के बाद मर जाती है.
तृतीय खण्ड के ‘इन्द्रधनुष’ शीर्षक पहले अध्याय में भयंकर आर्थिक अभाव के बावजूद बासन्ती को अनाथ अनन्त का दायित्व लेते देखा जाता है लेकिन निरन्तर उपेक्षा, मारपीट से उसे यह आश्रय छोड़ देना पड़ता है. अनन्त एक नितान्त आत्मसम्मानी, कल्पनाशील, भावुक, स्वतन्त्रचेता बालक है. वह बनमाली और उसकी बहन उदयतारा के साथ उनके गाँव चला जाता है. यहाँ लेखक बनमाली की दो और बहनों आसमानतारा और नयनतारा तथा उनके पतियों का परिचय कराता है, जो बनमाली के अविवाहित रहने से चिन्तित हैं. इसी गाँव के कीर्तन-उत्सव में एक वैष्णव-साधु अनन्त के मधुर कण्ठ से प्रभावित होते हैं और उसे पढ़ाने का सुझाव देते हैं. बालक अनन्त को इसी गाँव की एक कन्या अनन्तबाला भा जाती है. वैष्णव साधु की मदद से अनन्त स्कूल में दाखिल होता है और गाँव की एक नाइन की प्रेरणा से स्कूली शिक्षा समाप्त कर आगे की पढ़ाई हेतु कुमिल्ला चला जाता है.
इस खण्ड में मूल कथा के साथ अनेक ऐसी छोटी-छोटी घटनाएँ घटती हैं, जो प्रथमदृष्टया मूल-कथा से अलग सी प्रतीत होती हैं, लेकिन आगे बढ़ने पर इनका संगुम्फन देखते ही बनता है. यहाँ आती है सम्पन्न मुस्लिम कृषक कादिर, उसके बेटे छादिर, पुत्रवधू खुशी और पौत्र रमू की कथा. छादिर नौका-दौड़ की तैयारी में रंगीन नाव बनवाता है. इसकी निर्मिति के विस्तृत विवरण में रमू के माध्यम से बाल-मनोविज्ञान, जाति-विमर्श, कोर्ट-कचहरियों की धूर्तता, शिक्षा का महत्व आदि अनेक पक्ष उद्घाटित होते हैं. नौका-दौड़ को देखने दूर-दूर से लोग अपनी नावों में लदकर पहुँचते हैं. बनमाली की नाव में उदयतारा के साथ अनन्त, अनन्तबाला आदि बैठे थे. संयोगवश कुछ देर बाद सुबला बऊ की नाव भी उसकी नाव से आ सटती है. जब सुबला बऊ अनन्त को देखती है तो ममता, क्रोध, ईर्ष्या आदि मिले-जुले भावों से भर उठती है. उत्तेजित होकर वह अपनी नाव से कूदकर बनमाली की नाव में आ जाती है. अनन्त को लेकर यहाँ दो निस्संतान औरतों की मारपीट और हिंस्र प्रतियोगिता अपने चरम पर दिखाई देती है. इसमें सुबला बऊ पराभूत होती है. हताश होकर वह अपने घर लौट आती है. मुहल्ले में शर्मिंदगी के भय से घर से बाहर निकलना बन्द कर देती है. नौका दौड़ में छादिर की नाव दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है.
चतुर्थ खण्ड में लेखक आकाश में दूर तक पतंग की तरह उड़ते कथा-सूत्र को समेटने लगता है. बासन्ती अपनी पराजय से विपर्यस्त है. इस बीच मालोपाड़ा में अपसंस्कृति का अनुप्रवेश होता है और मालो लोगों के एकजुटता में भी दरार पड़ जाती है. उनकी समृद्ध लोक-संस्कृति पर बाजारू जात्रा-गान और सखी नाच कब्जा करने लगते हैं. सुबला बऊ गाँव के कुछ स्व-संस्कृति प्रेमी लोगों को नेतृत्व देती है और वे लोक-गीतों की महफ़िल जमा अपनी संस्कृति को बचाने की आप्राण चेष्टा करते हैं लेकिन मालो लोगों की आपसी फूट के कारण वे उसे बचा नहीं पाते. वह तितास, जो जलजीवियों की जिन्दगी थी, हठात सूखने लगती है. नदी के बीच बालू के द्वीप उभरने लगते हैं. सूखी जमीन पर दूर-दराज से आए किसान और जमींदार कब्जा कर लेते हैं. मछेरे न घर के रह पाते हैं, न घाट के. अनन्त शहरी हो जाता है. निस्संग रह जाती हैं बासन्ती, उदयतारा और अनन्तबाला. उपन्यास का अन्त ‘भासमान’ शीर्षक से है. इं स अध्याय मेएक-एक कर सब भुखमरी के शिकार होकर मर जाते हैं. बस दो लोग बचते हैं -किशोर का बाप रामकेशव और सुबला बऊ बासन्ती. सूखती नदी के किनारे लुटिया भर जल की लालसा लिए मृतप्राय: बासन्ती को नीम-बेहोशी में अपना पूरा जीवन चलचित्र की तरह सामने घूमता दिखाई देता है. यादों की टकराहट से क्षण-भर के लिए उसकी मूर्च्छा टूटती है, वह यथार्थ का अनुभव करती है, पर फ़िर यादों में डूब जाती है. उसे अनन्त की याद भी आती है कि वह बाबू बना लोगों में भात बाँट रहा है. वह उसकी नजर बचाकर दूर सरक जाती है. लेकिन यह तो उसका सपना था. उपन्यास ट्रेजेडी के साथ समाप्त होता है. कभी यहाँ तितास थी, अब यहाँ धू-धू रेतराशि है. मरणासन्न बासन्ती की स्मृति कथा हिन्दी की अमर कहानी ‘उसने कहा था’ के लहनासिंह की याद दिला देती है.
संक्षेप में इस कथा को देना इसलिए जरूरी लगा क्योंकि इस उपन्यास की प्रकृति अन्य उपन्यासों से बिल्कुल भिन्न है. इसमें चरित्र और घटनाओं का जो आधिक्य है, उसके जरिए अनेक पारम्परिक लोक उत्सवों तथा आँचलिक पर्वों खासकर महिलाओं के बीच प्रचलित पारम्परिक अनुष्ठानों, गीतों, रीति-रिवाजों, खान-पान, पोशाकों, वर्ग-विभाजन आदि का विस्तृत उपाख्यान मिलता है.
पूरी कथा-संरचना को देखते हुए इसे एक नदी-केन्द्रित रचना मात्र कहकर नहीं छोड़ा जा सकता. इसमें जलजीवियों (जल पर निर्भर रहने वालों) की एक अनजानी, अनदेखी मार्मिक जीवन कहानी स्फुटित हुई है. इनके सामने जल का सूखना कैसा दर्दनाक प्रहसन बनकर उभरता है, ये वही जानते होंगे, जिन पर बीती है. हरेक दु:ख-दारिद्र्य के मध्य भी वे अपना गीत-संगीत, संस्कृति नहीं भूलते. बड़ी नावों के साथ छोटी नावों की दुर्दशा को दिखाते हुए उन्होंने ब्राह्मण-संस्कृति के समानांतर दलित-संस्कृति के प्रति उपेक्षा भाव को अत्यन्त सजीव रूप में चित्रित किया है. कलकत्ते के एक नितान्त उपेक्षित गरीब मुहल्ले की एक छोटी-सी कोठरी में रहते हुए उन्होंने बार-बार अभिजात्य जीवन की उपेक्षा सही है. पर शहर में बसकर भी वे शहरी नहीं हो सके. ‘तू बाभन मैं कासी का जुलहा’ की तर्ज पर उनमें अपनी जाति-संस्कृति के प्रति एक गर्व का भाव था. उन्होंने बांग्ला साहित्य के ख्यात लेखक माणिक बंदोपाध्याय के संदर्भ में एक बार कहा भी था, ‘माणिक बन्दोपाध्याय मास्टर आर्टिस्ट हैं, लेकिन हैं तो ब्राह्मण के बेटे-रोमांटिक. और मैं हूँ मालो का बेटा-यथार्थजीवी.’ कोई चाहे तो इसे एक मल्ल के अहंकार के रूप में भी देख सकता है, पर वस्तुत: यह कबीर की तरह बहुत निर्मल है. अपने जीवनानुभवों से उन्होंने नदी-केन्द्रित लोगों के जीने-मरने की कहानी के साथ नदी के सृजन-संहार की कथा एवं ग्राम-बांग्ला के नारी समाज के अपने व्रत-उपवासों, हास-परिहासों, चलन-संस्कृति के उष्ण आस्वाद का परिचय कराया है. साथ ही, मुसलमान किसानों और हिन्दू दलितों (मालो) के आपसी मेल-मिलाप, घटनाओं आदि को नदी-प्रवाह के साथ जोड़े रखा है. अन्त में तितास केवल एक नदी भर नहीं रह जाती. वह एक प्रवहमान जीवन का प्रतीक एक मायामय अभिव्यक्ति बन जाती है. एक चेतन मनुष्य और उसकी सत्ता के अन्तराल में निरन्तर बचे रहने की एक जलधारा किस तरह बहती रहती है, वह इस रचना में समाहित है.
अद्वैत की मृत्यु के उपरान्त यह रचना इतनी लोकप्रिय हुई कि 10 मार्च, 1963 में भारतीय गणनाट्य संघ के प्रयास से इसका नाट्य-मंचन किया गया. इसका नाट्य-रूपान्तर प्रसिद्ध भारतीय फ़िल्म अभिनेता उत्पल दत्त ने किया और स्वयं अभिनय के साथ-साथ विजन भट्टाचार्य और चर्चित गायक निर्मलेन्दु चौधरी को प्रमुख भूमिकाएँ दीं. उनकी जन्मभूमि कुमिल्ला में 1993 में नाटककार शान्तनु कायदार ने अबुल खैर और मोहम्मद यूसुफ़ के साथ इसका मंचन किया था. यह उपन्यास अंग्रेजी में भी अनूदित हो चुका है और इस समय भारत और बांग्लादेश के अनेक विश्वविद्यालयों में एम. ए. पाठ्यक्रमों में पढ़ाया जाता है.
प्रसिद्ध भारतीय फ़िल्म निर्माता और पटकथा लेखक श्री ऋत्विक घटक ने 1973 में अद्वैत मल्लबर्मन के इस उपन्यास पर ‘तितास एकटि नदीर नाम’ शीर्षक से ही एक फ़िल्म बनाई थी, जिसे2010 में आयोजित 63वें काँस फिल्मोत्सव में ‘काँस क्लासिक्स’के अंतर्गत प्रदर्शित किया गया था. ऋत्विक घटक ने इसके निर्माण के दौरान लिखा था, ‘तितास पूर्वी बंगाल का एक खण्ड-चित्र, एक चलायमान जीवन का सशक्त वर्णन है. पूरे बंगाल (पूर्वी और पश्चिमी) में ऐसा उपन्यास दुर्लभ है. इसमें एक ओर प्रचुर नाटकीय उपादान हैं. तीव्र गति से घटती दृश्य-घटनाएँ हैं और प्राचीन लोक-संगीत के श्रव्य-टुकड़े हैं. समग्र रूप से एक सतत आनंद और अनुभूति प्रवणता है. ऐसा लगता है कि लेखक के भीतर की छटपटाहट वर्षों से बाहर आने के लिए बेचैन थी. इसलिए उनके इस उपन्यास में जो आन्तरिकता है, वह अवर्णनीय है. मैंने फ़िल्म बनाते हुए सभी घटनाओं को अद्वैत की नजरों से देखने की कोशिश की है. उन्होंने जिस समय तितास को देखा था, तब तितास और उसकी तीरवर्ती ग्रामीण-सभ्यता मरणासन्न थी. मैंने फ़िल्म में मृत्यु के बाद उसके पुनर्जीवन की कल्पना की है. मेरी फ़िल्म में गाँव नायक है तो तितास नायिका, जो फ़िर से युवा हो गई है.’
तितास है तो एक नदी, लेकिन यहाँ उपन्यास में वह अपने पूरे मानवीकृत रूप में है, जिसके किनारे हाड़-मांस के पुतलों की अनेक छवियाँ अंकित हैं. मालो सम्प्रदाय के लोग, संगीत और कविता से उनका प्रेम, अपसंस्कृति से लड़कर अपनी संस्कृति को स्थापित करने की अदम्य लालसा, दु:ख के घनीभूत क्षणों में बूंद-बूंद रस-ग्रहण की हंसी-ठिठोलियाँ और उनका प्रबन्धात्मक विवरण उपन्यास की जान है. यह चंचल नदी रचाती है, बसाती है, मिटाती है, बनाती है, इन्हीं के बीच से उभरते हैं किशोर, अनन्त और सुबल. ज्ञान की खोज में अनन्त अकेले निकल पड़ता है और किशोर अपना सर्वस्व खोकर पागल हो जाता है और सुबल पूंजीवादियों के कुचक्र का शिकार बनता है. इसी नदी की लहरें बासन्ती और सुबला बऊ बनकर उभरती हैं. दोनों में अदम्य जिजीविषा है, लेकिन दोनों का अन्त बेहद दु:खद है. अपने नग्न-यथार्थ के चित्रण, सुगठित कथन शैली, मिथकीय व्याख्या और भव्य-संरचना तथा संगीतमय कथानक के कारण यह उपन्यास समकालीन बंगला साहित्य का एक ‘मास्टरपीस’ है.
इस उपन्यास की एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि देश-विभाजन के पहले हिन्दु-मुस्लिम सम्प्रदायों के बीच जो मिठास थी, उसका वर्णन तितास में यत्र-तत्र आया है, लेकिन विभाजन के बाद दोनों संप्रदायों में आई तितास का इस तितास में कोई उल्लेख नहीं. बाउल, सूफ़ी और अध्यात्म दोनों संप्रदायों के अपने हैं, खान-पान, रहन-सहन, बातचीत, भाषा-बोली, मुहावरे सब एक जैसे हैं, सब एक-दूसरे के उत्सवों में खुलकर भाग लेते हैं. खेतिहरों और मछेरों की संस्कृतियों का एका तितास की रीढ़ है और दलित संदर्भ यहाँ अपनी जगह है.
नदी-केन्द्रित कुछ विश्व स्तर की रचनाओं यथा अर्नेस्ट हेमिंग्वे के ‘एन ओल्डमैन एण्ड द सी’, समरेश बसु के ‘गंगा’, नरेन्द्रनाथ मित्र की कहानी ‘यात्रापथ, मिखाइल सालोकेव के ‘एण्ड क्वाइट फ़्लोज द डॉन तथा जॉर्ज इलियट के ‘द मिल ऑन द फ़्लॉस’, शिव शंकर पिल्लै के ‘चेम्मीन’ नागार्जुन के ‘वरुण के बेटे’, उदयशंकर भट्ट के ‘सागर, सीपी और मनुष्य’, माणिक बंदोपाध्याय के ‘पद्मा नदीर माँझी, विभूतिभूषण बंदोपाध्याय के ‘इच्छामती’ सरोज कुमार चौधरी के ‘मयूराक्षी’, गुणमय मन्ना के उपन्यास ‘प्रवाहिनी गंगा’ और सैय्यद वली उल्लाह के ‘कांदो नदी कांदो’ की चर्चा की जा सकती है. इन सबसे तुलना करने पर भी ‘तितास एक नदी का नाम’ इन सबमें न केवल विशिष्ट और अपने आप में अनोखी है वरन कालजयी और कालजीवी भी.
डॉ. चन्द्रकला पाण्डेय
डॉ. जय कौशल
डॉ. जय कौशल
प्रो.चंद्रकला पाण्डेय – 1942 में उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले में जन्म. प्राथमिक से उच्च शिक्षा तका सारी पढ़ाई कलकत्ता में. कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष पद से 2007 में सेवानिवृत्त. 1993-2005 तक लगातार दो बार पश्चिम बंगाल से राज्य-सभा में सांसद. साम्या, दिल्ली से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक पत्रिका की 1993 से संयुक्त-संपादक. बांग्ला, अंग्रेज़ी और हिन्दी अनुवाद में विशेष दक्षता.
मूल और अनुवाद सहित अब तक कोई सोलह पुस्तकें प्रकाशित. जिनमें ‘संदेश रासक का भाषाशास्त्रीय मूल्यांकन’, आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता (सहलेखन), प्रेमचंद और मार्क्सवादी समीक्षा, दो कविता संग्रह- ‘आकाश कहाँ है’ और ‘उत्सव नहीं है मेरे शब्द’ शीर्षक से। अनूदित रचनाएँ- बांग्ला से हिन्दी- नरेन्द्र मित्र की कहानियाँ, विद्यासागर रचनावली, उद्भावना मासिक के बंगाल-अंक का अनुवाद एवं संपादन, डेरोजियो की कविताएँ, रवीन्द्रनाथ की कविताएँ, कॉकबरक कविताएँ (सह-अनुवाद)। हिन्दी से बांग्ला- राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘आधा गाँव’ का ‘अर्धेक ग्राम’ शीर्षक से, भीष्म साहनी की बत्तीस कहानियों का ‘निर्वाचित गोल्पो’ शीर्षक से अनुवाद, प्रेमचन्द रचनावली की संपादकीय सदस्य. देशभर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी, बांग्ला और अंग्रेज़ी में रचनाएँ प्रकाशित। फ़िलहाल कोलकाता में निवास। सम्पर्क: मो. नं. -09433097372/ ईमेल-chandrakala.pandey@gmail.com
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डॉ. जय कौशल-1981 में राजस्थान के अलवर जिले में जन्म. जेएनयू से ‘वी.एस. नायपॉल के उपन्यास हाफ़ ए लाइफ़ का हिन्दी अनुवाद’ पर एम.फिल और ‘प्रेमचन्द की कहानियों के अंग्रेजी अनुवादों का आलोचनात्मक अध्ययन’ विषय पर पीएच.डी. 2009 से 2013 त्रिपुरा विश्वविद्यालय, अगरतला में, फ़िर कुछ समय प्रेसीडेन्सी विश्वविद्यालय, कोलकाता के हिंदी विभाग में अध्यापन. तीन पुस्तकें, कुछ आलेख और समीक्षाएँ प्रकाशित. फ़िलहाल त्रिपुरा विश्वविद्यालय, अगरतला में कार्यरत. सम्पर्क: मो. नं.- 09612091397/ईमेल-jaikaushal81@gmail.com
मूल और अनुवाद सहित अब तक कोई सोलह पुस्तकें प्रकाशित. जिनमें ‘संदेश रासक का भाषाशास्त्रीय मूल्यांकन’, आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता (सहलेखन), प्रेमचंद और मार्क्सवादी समीक्षा, दो कविता संग्रह- ‘आकाश कहाँ है’ और ‘उत्सव नहीं है मेरे शब्द’ शीर्षक से। अनूदित रचनाएँ- बांग्ला से हिन्दी- नरेन्द्र मित्र की कहानियाँ, विद्यासागर रचनावली, उद्भावना मासिक के बंगाल-अंक का अनुवाद एवं संपादन, डेरोजियो की कविताएँ, रवीन्द्रनाथ की कविताएँ, कॉकबरक कविताएँ (सह-अनुवाद)। हिन्दी से बांग्ला- राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘आधा गाँव’ का ‘अर्धेक ग्राम’ शीर्षक से, भीष्म साहनी की बत्तीस कहानियों का ‘निर्वाचित गोल्पो’ शीर्षक से अनुवाद, प्रेमचन्द रचनावली की संपादकीय सदस्य. देशभर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी, बांग्ला और अंग्रेज़ी में रचनाएँ प्रकाशित। फ़िलहाल कोलकाता में निवास। सम्पर्क: मो. नं. -09433097372/ ईमेल-chandrakala.pandey@gmail.com

डॉ. जय कौशल-1981 में राजस्थान के अलवर जिले में जन्म. जेएनयू से ‘वी.एस. नायपॉल के उपन्यास हाफ़ ए लाइफ़ का हिन्दी अनुवाद’ पर एम.फिल और ‘प्रेमचन्द की कहानियों के अंग्रेजी अनुवादों का आलोचनात्मक अध्ययन’ विषय पर पीएच.डी. 2009 से 2013 त्रिपुरा विश्वविद्यालय, अगरतला में, फ़िर कुछ समय प्रेसीडेन्सी विश्वविद्यालय, कोलकाता के हिंदी विभाग में अध्यापन. तीन पुस्तकें, कुछ आलेख और समीक्षाएँ प्रकाशित. फ़िलहाल त्रिपुरा विश्वविद्यालय, अगरतला में कार्यरत. सम्पर्क: मो. नं.- 09612091397/ईमेल-jaikaushal81@gmail.com