‘गोइंग होम’, एड क्लार्क, अप्रैल 1945
नेल्सन के लिए एक विदा गीत :
सुशोभित सक्तावत
एड क्लार्क की एक मशहूर तस्वीर है, वर्ष 1945 के वसंत की. उस तस्वीर से नेल्सन मंडेला का सीधे–सीधे कोई सरोकार नहीं, फिर भी जाने क्यों, आज वह तस्वीर रह–रहकर याद आती है. एक अश्वेत सैनिक है, जो अपने अकॉर्डियन पर शोक–गीत ‘गोइंग होम’ बजा रहा है और ज़ार–ज़ार रो रहा है. जैफ़ डायर ने अपनी किताब ‘ऑनगोइंग मोमेंट’ के 30वें सफ़हे पर इस तस्वीर को दर्ज किया है और साथ में लिखा है : यह तस्वीर दु:ख और गरिमा के बारे में है. यह दु:ख की गरिमा के बारे में है.
इतिहास की एक समूची करवट को यदि किसी एक छवि में पिरोना मुमकिन हो तो कह सकते हैं : यह तस्वीर आज अफ्रीका का चेहरा है, आंसुओं से भरा, अकॉर्डियन के रुदन के किनारे.
लेकिन आंसुओं की बाढ़ के बावजूद यह कोई धूमिल चेहरा नहीं है. इस चेहरे के कुछ ख़ास नुक़ूश हैं, जिन्हें पढ़ना आज नेल्सन मंडेला के न रहने पर ज़रूरी हो जाता है. मंडेला अफ्रीका की खोसा जनजाति से वास्ता रखते थे, जिसके पास सामुदायिकता की भावना के लिए एक विशेष शब्द है : ‘उबुंटु’. खोसा लोग कहते हैं कि किसी भी बच्चे की परवरिश के लिए महज़ एक घर काफी नहीं, उसके लिए पूरे गांव की ज़रूरत होती है. लेकिन जब मंडेला अपने गांव–देहात की देहरी लांघकर केप प्रोविंस के एक स्कूल में दाखिला लेने पहुंचे तो सबसे पहले उनका घरू नाम ही बदल दिया गया. उनका नाम ‘रोलिह्लाह्ला’ से बदलकर नेल्सन कर दिया गया. सामुदायिकता के संकट से यह उनकी पहली मुठभेड़ थी और तभी से उनके लिए अपना यह नया नाम एक प्रश्नवाचक चिह्न बन गया. पता नहीं उन्होंने इसे कहीं दर्ज किया है या नहीं, लेकिन रोलिह्लाह्ला नाम के उस शख़्स ने हमेशा ‘नेल्सन (?) मंडेला’ की तरह ही दस्तख़त करना चाहा था.
और इसी के साथ शुरू हुई अंधकार के महाद्वीप के अंतिम छोर (जिसे दक्षिण अफ्रीकी उपन्यासकार जेएम कोएट्ज़ी ने अपने स्मरणीय शब्दों में ‘रिमोट टिप ऑफ़ अ होस्टाइल कॉन्टिनेंट’ कहा है) पर वह उम्रदराज़ कशमकश, जिसका संकल्प टेबल माउंटेन की सबसे ऊंची चोटी से भी बुलंद था, केप ऑफ़ गुड होप के सबसे गहरे–अतल से भी अथाह.
वास्तव में यह दिलचस्प है कि रोलिह्लाह्ला का शाब्दिक अर्थ होता है : दरख़्त की टहनी खींचने वाला, यानी उपद्रवकारी या ट्रबलमेकर. जिन सितारों की छांह में वर्ष 1918 में केप प्रोविंस के म्वेज़ो गांव में मंडेला जन्मे थे, उनकी तरतीब में शायद किसी इशारे को भांपकर ही गांव के किसी सयाने ने मंडेला का नामकरण किया होगा. इसीलिए जब फ़ोर्ट ब्यूफ़ोर्ट के मेथडिस्ट कॉलेज में अध्यापक ने उनसे अंग्रेज़ी कल्चर सीखने का आग्रह किया, तो वे हठपूर्वक अफ्रीकी मिथकों के यायावर बन गए. परिजनों ने खोसा जनजाति की ही किसी लड़की से संबंध जोड़ने की जिद पकड़ी तो उन्होंने सोथो जनजाति की लड़की से ब्याह रचा लिया. लेकिन युवावस्था के इन उत्पातों के बीच जीवन और सोच में एक अहम मोड़ तब आया, जब फ़ोर्ट हेयर यूनिवर्सिटी में उन्होंने अब्राहम लिंकन के जीवन पर आधारित एक नाटक में काम किया और अपने रक्त के उत्ताप में लिंकन के मूल्यों की अनुगूंज सुनी. पश्चिम के लोकतांत्रिक उदारवाद और नागरिक आंदोलनों से उन्होंने एक स्वाभाविक जुड़ाव महसूस किया. यह 1940 के उथलपुथल भरे दशक की शुरुआत थी, जिसने आगे चलकर दुनिया का नक़्शा हमेशा के लिए बदल देना था. जर्मनी में थर्ड रायख़ की सर्वसत्तावादी हुकूमत थी, सोवियत संघ में बोल्शेविकों की ताक़त लगातार बढ़ रही थी, हिंदुस्तान में औपनिवेशिकता से संघर्ष ज़ोरों पर था. यूरोप में जब दूसरी बड़ी लड़ाई की गहमागहमी तेज़ हुई तो मंडेला को यह तय करने में एक पल भी न लगा कि नात्सियों और फ़ासिस्टों के बरखिलाफ़ उन्हें किस मोर्चे पर खड़े रहना है.
जोहंसबर्ग की क्राउन माइंस में वॉचमैन के रूप में रात–पाली करते वक़्त मंडेला ने पूंजीवाद की लिप्साओं को पहले–पहल हरकत में देखा था और उनके इरादों को वे फ़ौरन ताड़ गए. इसी के साथ साम्यवाद की तरफ़ उनका झुकाव बढ़ा. यह भी दिलचस्प है कि उनकी मां जिस इखिबा जनजाति समुदाय से वास्ता रखती थीं, उसे ‘बाएं हाथ का घर’ के नाम से भी जाना जाता था. 1943 में क़ानून की पढ़ाई पूरी करके जब मंडेला जोहंसबर्ग लौटे, तो उन्होंने बैरिस्टरी करने के बजाय राजनीतिक सरगर्मियों में शुमार होना ज़्यादा ज़रूरी समझा : ठीक मोहनदास करमचंद गांधी की ही तरह, जिन्होंने सत्याग्रह का पहला पाठ दक्षिण अफ्रीका में ही पढ़ा–पढ़ाया था. वास्तव में मंडेला के राजनीतिक व्यक्तित्व में गांधी और लेनिन हमेशा ही समाहित रहे. यह एक दुर्बोध मेल था, क्योंकि गांधी की साधन–शुचिता की प्रतिज्ञा से सैन्यवादी आग्रहों वाले लेनिन एकमत नहीं हो सकते थे. क्यूबा की घटनाओं के दौरान मंडेला के मन में गुरिल्ला युद्धकौशल की ओर रुझान पैदा हुआ, लेकिन गांधी के अहिंसक सत्याग्रह के मूल्य उनके भीतर एक काउंटर–बैलेंस की भांति हमेशा मौजूद रहे.
मंडेला की आत्मकथा का शीर्षक ‘लॉन्ग वॉक टु फ्रीडम’ अकारण ही नहीं है. अश्वेतों के नागरिक अधिकारों के लिए 1940 के दशक के उत्तरार्द्ध में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के बैनरतले शुरू हुई उनकी संघर्ष–साधना सत्ताइस साल लंबे (1962-1989) कारावास के बाद ‘दीर्घतपा’ बन गई. नब्बे के दशक की शुरुआत में दक्षिण अफ्रीका रंगभेद की बेडि़यों से मुक्त हुआ और मंडेला उसके पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने. एक प्रलंबित स्वप्न ने अपनी पूर्णता को अर्जित किया. कौन जाने, राष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण करते समय मंडेला ने खोसा लोगों की उस कहावत को याद करते हुए यह सोचा होगा या नहीं कि जिस तरह किसी बच्चे को एक घर नहीं, पूरा गांव पोसता है, उसी तरह किसी नायक को कोई एक आवारा लम्हा नहीं, बल्कि उसके समय का समूचा इतिहास गढ़ता है.
नेल्सन मंडेला का दक्षिण अफ्रीका आज इंद्रधनुषी–राष्ट्र (रेनबो नेशन) कहलाता है, लेकिन इसमें शक़ नहीं कि इस मुल्क के लिए अपने अश्वेत राष्ट्र–नायक की त्वचा का स्याह सांवला रंग तमाम सतरंगी रंगों से ज़्यादा चटख और खुशगवार रहा है. और अब, जब वह नायक किन्हीं बेमाप दूरियों में बिला गया है तो रेनबो–नेशन के तमाम रंग फीके पड़ चुके हैं. बस एक चेहरा शेष रह गया है : अफ्रीका का चेहरा : रूंधे गले से विदा–गीत गाता, आंसुओं की बारिश में भींजता, अकॉर्डियन के रुदन के किनारे.
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युवा पत्रकार सुशोभित अपने संजीदा लेखन के लिए पहचाने जाते हैं. \’नई दुनिया के संपादकीय प्रभाग से जुड़े है. सत्यजित राय के सिनेमा पर उनकी एक पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य है.
sushobhitsaktawat@gmail.com
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