मनीष पुष्कले
अस्सी के दशक को कला–संस्कृति के क्षेत्र में भारत सरकार के द्वारा किये गए एक बेहद महत्वपूर्ण उपक्रम से भी याद किया जा सकता है. यह प्रसंग क्रमशः केंद्र सरकार, राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन के समवेत अवदान का एक उत्कृष्ट उदहारण भी है. इस प्रसंग का सम्बन्ध इंदिरा गाँधी से, शान्तिनिकेतन में हुई उनकी शिक्षा और वहाँ के प्रभावों से बने उनके मानस से और गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर के सानिध्य में मिली उस स्नेहिल दृष्टी से है जिन्होंने उन्हें प्रियदर्शिनी नाम दिया था.
यह १९८० का वह समय था जब इंदिरा गाँधी चौथी बार देश की प्रधानमंत्री बन चुकी थीं. अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे और उन दिनों प्रदेश के संस्कृति विभाग की कमान उत्सवधर्मी कवि, आलोचक और बिरले प्रशासक अशोक वाजपेयीके हांथों में थी. इतिहास अब हमारे सामने है और हम यह जानते हैं कि सन १९७५ से १९८० तक, इंदिरा गाँधी पांच वर्षों के इस समय में अपने आत्मिक और नैतिक संघर्षों के बीच, अपने राजनैतिक जीवन के सबसे ज्यादा अन्धकार और अहंकार भरे क्षणों में थीं. आजाद भारत के इतिहास में आपातकाल का समय प्रजातांत्रिक उहापोह के मध्य नैतिक मूल्यों की पराजय और प्रतिघात का समय बन चुका था. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर के निर्मल सानिध्य में पली–बड़ी प्रियदर्शिनी इंदिरा अराजकता के इसी काल–खंड में अंततः तानाशाह भी कहलायीं. लेकिन क्या पांच वर्षों के इसी समय में, १९७७ का चुनाव हारने के बाद इंदिरा गांधी संभवतः अपने आत्म–चिंतन में, पूर्व में घट चुकीं राजनैतिक गलतियों के शोधन और सत्ता में अपनी वापिसी की छटपटाहट के साथ वे कोई अन्य स्वप्न भी बुन रहीं थीं ? वह स्वप्न, जिसका एक सिरा शान्तिनिकेतन में बने उनके मानस में लिप्त है तो वहीँ दूसरी ओर उसी स्वप्न का दूसरा छोर गाँधी–दर्शन में पगा है. भारतीय परंपरा में जिस प्रकार से संस्कारों को सबसे उच्च स्थान दिया जाता है यह उनके उन्ही संस्कारों से बने रुझानों से उपजा स्वप्न था. वे १९७२ से यह चाहतीं थीं कि उनके सत्ता काल में भारत में कहीं पर एक ऐसा सांस्कृतिक केंद्र बने जिसकी एक छत के नीचे भारतीय लोक–चिंतन, उसके विमर्श और विभिन्न कलाओं का पूर्ण वितान स्थापित हो सके. ऐसा स्थान जिसे \’भारत–भवन’ कहा जा सके (हालांकि यह नामकरण अशोक वाजपेयी ने किया था).
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अशोक वाजपेयी |
गौरतलब तथ्य यह है कि आपातकाल के अंत और इंदिरा गाँधी की हत्या के मध्य मात्र ७ वर्षों का अंतराल है. आपातकाल और १९७७ ही हार के बाद वे १९८० में जब फिर से प्रधानमन्त्री बनीं तो उसके ठीक दो वर्षों के बाद, १३ फरवरी १९८२ को भारत–भवन लोकार्पित कर दिया था. यह अशोक वाजपेयी की सलाह और उस पर मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की तत्परता से बना दुर्लभ संयोग था जिसने इंदिरा जी के उस अधूरे स्वप्न को भारत के केंद्र में, उसकी ह्रदय–स्थली मध्यप्रदेश में स्थाई स्थान दिला दिया था. इस अभूतपूर्व काम के लिए मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल को उपयुक्त स्थान माना गया. १९८२ में जब इंदिरा जी ने भारत–भवन का उद्घाटन किया था तो उसकी भव्यता के साथ उसकी सादगी के वैभव को देख कर वे चकित थीं. जल्दी ही भारत–भवन भारतीय कलाओं और विचारों का अद्भुत प्रज्ञा–परिसर बन गया था. यह कलाओं के सन्दर्भ, आधुनिक भारत की छवि के सन्दर्भ और प्रदेश की नयी सांस्कृतिक पहचान के सन्दर्भ में एक बड़ी घटना तो थी ही लेकिन साथ ही यह एक प्रकार से दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों के बरक्स संस्कृति के माध्यम से उनके विकेंद्रीकरण की पहली प्रादेशिक कोशिश भी थी.
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जगदीश स्वामीनाथन |
भारत–भवन ने समझौतों की प्रवृत्तियों से दूर रह कर सिर्फ गुणवत्ता के आधार पर जल्दी ही पूरे देश ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर अपनी कीर्ति–ध्वजा को स्थापित कर लिया था. देखते ही देखते भारत–भवन कलाओं और भारतीय विमर्श का एक समकालीन मंदिर बन गया था. निश्चित ही भारत–भवन जैसी संस्था रातों–रात नहीं बनतीं. एक इमारत तो २ सालों में खड़ी हो सकती है लेकिन एक ठोस–विचार को विश्वास में बदलने में समय लगता है. हम जानते हैं कि भारत–भवन की प्राण–प्रतिष्ठा में, उसकी उड़ान में अशोक वाजपेयी और जगदीश स्वामीनाथन के युग्म ने अभूतपूर्व काम किया था. लेकिन अभी इस लेख का उद्देश्य भारत–भवन से इस अतुलनीय युग्म के योगदान को याद करने का न होकर इंदिरा गाँधी के द्वारा १९७२ में देखे अपने स्वप्न को सच्चाई में ढालने पर केन्द्रित है. क्या १९७७ से १९७९ के बीच उन दो वर्षों की छटपटाहट में, संताप की इस अवधि में इंदिरा गाँधी को वह बोध नहीं हुआ होगा जब वे सत्ता से उखाड़ फेंक दी गयीं थीं ? आखिर, तब उनके पास आपातकाल की कालिख के अलावा और क्या बचा था ? वह कालिख, जिसे क्षमायाचना के रूप में सिर्फ भारत–भवन जैसी संस्था की विभूति ही भस्म कर सकती थी. यह भी संयोग है कि इसके दो वर्ष बाद, १९८४ में इंदिरा गाँधी की नृशंष हत्या कर दी जाती है. यह अपने आप में एक शोध का विषय हो सकता है कि क्या भारत–भवन इंदिरा गांधी के प्रायश्चित का परिणाम था?
अपने शासन काल में आपातकाल को लागू करने से जिस लोकतंत्र की हत्या उनके हांथों से हुई थी क्या उसका पश्चाताप उन्होंने \’भारत–भवन\’ नाम के सांस्कृतिक पुष्प को वापिस लोकतंत्र में चरणों में अर्पित करके किया था ? लेकिन हम यह न भूलें कि भारतीय सन्दर्भ में पश्चाताप, आत्म–बोध से आत्म–शुद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है. यहाँ हमें उसे ईसाई धर्म के सन्दर्भ से आत्म–ग्लानी से अलग रखना होगा.
मैं यह बात साफ़ कर दूं कि मेरे मन में भारत–भवन के रूप में इंदिरा जी के प्रायश्चित की संभावना का विचार ७० के दशक में घटी राजनीति से उपजा है. अब, जब न इंदिराजी जीवित हैं और न ही भारत–भवन उस तरह से प्रासंगिक बचा है तो यह मुझे उस समय की घटनाओं के आधार पर यह सोचने को बाध्य करता है कि आखिर क्यों एक ऐसी अभूतपूर्व संस्था को हम नहीं बचा पाए? भारत–भवन को तोड़ने में, उसके ओज को तहस–नहस करने में उस समय मध्य–प्रदेश की राजनीति ने कोई कसर नहीं छोड़ी. शुरुआत से भारत–भवन की दीवारें बाहर से तो राजनैतिक परछाइयों से घिरीं ही रहीं लेकिन जब तक अशोक वाजपेयी वहाँ रहे उन्होंने उन्हें भीतर नहीं आने दिया. अशोक वाजपेयी के जाते ही और सत्ता के बदलते ही जैसे बाहर खड़े भुतवा साए भारत–भवन के गलियारों में प्रविष्ट कर गए. इन राजनैतिक प्रविष्टियों को साफ़–साफ़ देखा जा सकता था. इसी कारण से मेरे मन में इंदिरा जी के प्रायश्चित का यह विचार आया और मैंने उसे राजनैतिक प्रायश्चित कहा है अन्यथा भारत–भवन जैसी संस्था को राजनैतिक–रण बनाए की क्या आवश्यकता थी ? वैसे भी सांस्कृतिक संस्थानों के प्रति सरकारों का जो रवैया रहा आया है वह हम सभी जानते हैं. ऐसे में म.प्र. में सत्ता के बदलते ही सिर्फ इसी संस्था के प्रति सरकार के मन में आक्रोश या बदले की भावना क्यों जागी ?
इस बिंदु पर आकर मुझे यही लगता है कि वह इंदिरा जी की हत्या के पहले एक प्रकार से उनका अंतिम और बेहद सफल सामजिक योगदान था जिसके पीछे उनका १९७२ से पाला हुआ दिव्य–स्वप्न था जिसे तहस–नहस करने में नयी सरकार ने बड़ी चुस्ती दिखाई. जाहिर है अगर नयी सरकार की दिलचस्पी संस्कृति में होती तो ऐसा नहीं होता. लेकिन सरकार की दिलचस्पी संस्कृति में न होकर इंदिरा गांधी के काल में हुई इस मौलिक उपलब्धि को नेस्तनाबूत करने में थी, उसने वैसा कर दिया. जैसा भारत–भवन के साथ हुआ वैसी किसी अन्य संस्था के साथ नहीं हुआ था. यह एक सरकार का एक संस्था के निमित्त से एक व्यक्ति से बदला था. एक व्यक्ति, जिसने संभवतः उसी संस्था के निम्मित से पूर्व में हुयीं गलतियों का राजनैतिक प्रायश्चित किया होगा (विशेषकर आपातकाल). यह व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए व्यथित करने के लिए काफी है, चूँकि, मैं अपने आप को भारत–भवन का परिणाम मानता हूँ यह देख कर दुःख होता है कि हमारी बाद की युवा पीड़ी को अब उसके खँडहर और इतिहास के अलावा कुछ नहीं मिल सकता. क्या यह एक राजनेता के जीवन में आत्म–बोध से अपने संस्कारों की पृष्ठभूमि में की गयी आत्म–शुद्धि का अभूतपूर्व उदहारण को भी खोने जैसा नहीं होगा ?
मनीष पुष्कले चित्रकार है और दिल्ली में, हौज़ खास में रहते हैं. जन्म १९७३ म.प्र. के भोपाल में हुआ. मनीष कभी-कभी अपने रंगों से बिदक कर अपनी कलम से शब्दों को तराशते हैं. अपनी शिक्षा से मनीष भूगर्भ शास्त्री हैं.
प्रख्यात चित्रकार रज़ा के प्रिय शिष्य रहे और और उन्ही के द्वारा स्थापित रजा न्यास के आप न्यासी भी हैं. मनीष ने यशस्वी कथा-शिल्पी कृष्ण बलदेव वैद को समर्पित वैद सम्मान की स्थापना की है जिसके अंतर्गत अभी तक ५ लेखकों को समानित किया जा चुका है ! मनीष ने इसके अलावा \’सफ़ेद-साखी\’ (पियूष दईया के साथ चित्र-तत्व चिंतन), \”को देखता रहा\’ (विभिन्न विषयों पर लिखे लेखों का संकलन), ‘अकथ\’(अशोक वाजपेयी को लिखे पत्रों का संपादन ) और हाल ही में \”आगे जो पीछे था \” नाम का एक उपन्यास भी लिखा है.
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