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Home » परिप्रेक्ष्य : मेहदी हसन

परिप्रेक्ष्य : मेहदी हसन

मेहदी हसन गज़ल की वो आवाज़ थे जिसमें  खुद गज़ल गुनगुना उठती थी. उनकी आवज़ के सहारे गज़ल ने खूब मकबूलियत हासिल की, वह ख़ास-ओ- आम की सदा बन गई. पिछली रात यह आवाज़ बुझ गई. कथाकार, कवयित्री प्रत्यक्षा का यह आलेख मेहदी को याद  करता हुआ.                      […]

by arun dev
June 14, 2012
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मेहदी हसन गज़ल की वो आवाज़ थे जिसमें  खुद गज़ल गुनगुना उठती थी. उनकी आवज़ के सहारे गज़ल ने खूब मकबूलियत हासिल की, वह ख़ास-ओ- आम की सदा बन गई.

पिछली रात यह आवाज़ बुझ गई. कथाकार, कवयित्री प्रत्यक्षा का यह आलेख मेहदी को याद  करता हुआ.
                                
मेहदी हसन
ये धुँआ सा कहाँ से उठता है                       

प्रत्यक्षा


जाड़ों के सर्द दिन थे. सुबह के धुँधलाये सर्दीले आलम में नींद के झुटपुटे में एक मखमली आवाज़ तिरती आती, सपने सी आँखों और चेहरे को दुलरा चली  जाती. हमें लगता नींद में जादूगरी होती है. मुन्दी आँखों से हम महसूस करते कोई आहट जो दिल को छूती चीरती , तितली के पँख सी मुलायम रेशमी, जाने दिन में कितनी बार आस पास किसी पहचानी बिसरी साँस सी बजती. कोई न समझा दर्द जो जाने किस दिल के जाँ से उठता था. आवाज़ का नशीला धूँआ ही तो था जो ऊपर ऊपर अपनी मुरकियों और मुलायम तान में उठता जाता , इतना ऊपर कि साँस तक रुक जाये उस उठान पर , जब लगे कि अब बस, फिर उसके ऊपर भी गोल चकरियाँ खाता उठता जाता, ऐसे उठता कि जिगर से कोई तार खींचता उठता हो, जैसे कोई जहाँ से उठता है
बाहर पत्ते धीमे धीमे गिरते. चीड़ के पेड़ों के बीच हवा सरसराती फुसफुसाती निकलती. सर ऊपर उठाये उनके पत्तों के बीच से नीला आसमान दिखता. कुहासे की उँगलियाँ सर्द गाल थपथपाती विलीन होतीं. शाम से फायर प्लेस में लकड़ियों के विशाल कुंदे दहकते . पुराने कम्बल सा रात मुँह दाबे ठिठुरता खामोश उतरता. बाहर ओसारे में लालटेन की पीली रौशनी के गिर्द फतिंगों का झुंड भनभनाता. काँपती ठंड में बाहर के खाली मैदान, बेर और इमली के पेड के बीच चौकोर चबूतरे पर सन्नाटा भारी गिरता. दिन में धूप की खुशनुमा पीलेपन पर चबूतरा दूसरी दुनिया दिखाता. चटाई बिछाये दिन दिन भर धूप में लेटे किताबों और संगीत की संगत कैसी मीठी लगती. जैसे आँखे धूप में झपकाये मन में सुनहरी किरणें फैली हों. रात में वही चबूतरा अँधेरी दुनिया का रहस्य छिपाये बड़ी खिड़की के पार दिखता, झुट्पुट स्याह कोहरे में. पीले चाँद के तले. छाती में मनों बोझ उठाये हम चुप तकते बिना जाने कि क्या टीस है.
रज़ाई में मुँह घुसाये, गर्म हवा नाक से छोड़ते किसी गुनगुने संसार में महफूज़ हम सारी दुनिया से विलग होते. एक अजीब किस्म का अनजानापन हमें घेर लेता. हम जीवन से परे होते , शरीर की कैद से बाहर. हम अपनी आत्मा में विचरते, नदी नाले पहाड़ अंतरिक्ष. हमारी आँखों के भीतर दस दुनियायें होतीं , रंगीन और जीवंत, चटक और विस्मयकारी. हम जितना गर्मी और अँधेरे में दुबके होते उतना उतना ही फैल से उड़ान में होते. सफेद बगूले पंछी . पर्वत के शिखर के पार. हमारा कोई घर नहीं होता पर हम लौटते बारबार अपने शरीर में और नाक से गर्म साँस लेते, गालों पर उसकी नर्मी महसूस करते बिना जाने किसी खुशी से भर उठते.

किसी आवाज़ की टेक पर हम लौट पड़ते बार बार, उन चमकती फर्श के प्रतिबिम्ब पर, जलती हुई लकड़ी की लपटों के सम्मोहन में, जाड़ों की उन भोली सुबहों में , जब पहली आँख किसी गाती आवाज़ के मखमल में लिपटी सपनों से भरी खुलती. हम नहीं जानते थे कि इन बोलों के मायने क्या हैं. लेकिन इतना जानते थे कि कोई बड़ी मीठी बात है उस आवाज़ में जिन्हें हम मेंहदी कहते थे.
हँसते हैं उसके गिरियाये बेइख़्तियार पर
भूले हैं बात कह के कोई  राज़दां से हम
एक उमर में उनको सुनना मोहब्बत की रेशम गोलाईयों से रुबरू होना था, कि इश्क़ की इंतिहा और क्या होगी, कि कोई ऐसे गाये तो मोहब्बत पर विश्वास कैसे न हो. कहीं पढ़ा था बरसों, पढ़ा था भी  कि नहीं कि मेंहदी कहते हैं किसी खातून को देखकर गज़ल गा दें तो वो उनके मोहब्बत में पड़े बिना न रहे. सच ही तो था. उनकी आवाज़ जादू थी उनकी आँखें जादू थी. किसी के होने भर का जादू था. चाँद रात के नशीले नीले मद्धिम मुलायम सुरों की भीनी बरसात थी, रेगिस्तान के अछोर रेत का विस्तार था , उसकी दहक थी , रात की सर्दी में आग की तपन थी, नींद में सपने की हल्की छुअन थी . उनकी आवाज़ अक़ीदत थी , अपने में लीन और अपने से परे. उनकी आवाज़ मोहब्बत थी.
गज़ब किया तेरे वादे पे एतबार किया
तमाम रात क़यामत का इंतज़ार किया 
आज छाती पर उन स्मृतियों का भार है. मैं उस आवाज़ को ही सिर्फ नहीं याद करती. उस समय को भी याद करती हूँ जब उनकी आवाज़ मेरी याद में उससे भी कहीं ज़्यादा मीठी है घुलीमिली है, मेरी याद की मिठास से बढ़कर उनकी आवाज़ जिसमें गज़ब की सलाहीयत है, उसमें वही गर्मी और नर्मी है, एक ताप है, मृदुलता है. उसमें पूरा संसार है, गुनगुना शफ्फाक , खुशी देने वाला . अब जब वो किसी और जहान में  है तब भी और ज़्यादा. अब वो और भी हमारे साथ हैं उसी मीठे तरन्नुम में जहाँ सब मीठा धुँआ सा है जिसके नशे से बाहर हम कभी नहीं निकले, कभी निकलना ही नहीं चाहा क्योंकि उनकी आवाज़ की संगत में होना मोहब्बत के मीठे कुँये के पानी में तर ब तर होना रहा.
आपके नाम से ताबिन्दा है  उनवां-ए- हयात
वरना कुछ बात नहीं थी मेरे अफ़साने में

__________

प्रत्यक्षा

कहानीकार, कवयित्री, पेंटर
पावरग्रिड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (गुड़गाँव)में मुख्य प्रबंधक वित्त.
ई-पता : pratyaksha@gmail.com
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