कविता का नैरंतर्य
सिंह, अशोक वाजपेयी, मुकुंद लाठ आदि कई वरिष्ठ कवियों की कृतियां आईं, वर्ष 2014 में कविता का सर्वश्रेष्ठ उपहार दिया केदारनाथ सिंह जी ने: सृष्टि पर पहरा. केदारनाथ सिंह जी ने गीतों से शुरुआत की थी. किन्तु अभी बिल्कुल अभी के बाद उनके कवि जीवन का पहला बड़ा मोड़ था : जमीन पक रही है. उसके बाद उनके कई संग्रह आए. पर दूसरा बड़ा मोड़ था टालस्टाय और साइकिल. सृष्टि पर पहरा उसी परंपरा की बेहतरीन काव्यकृति है. सर्वाधिक खुशी की बात यह कि उन्हें इसी साल भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया. कुंवर नारायण के बाद केदारनाथ सिंह हमारे समय के हिंदी के श्रेष्ठ कवि हैं. केवल इस वजह से नहीं कि उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है बल्कि इसलिए कि उनके कविता लिखने का अंदाज बिल्कुल अलग किस्म का है. बात ही बात में एक ऐसे बिन्दु पर आकर उसे छोड़ देना कि लगे बात तो बिल्कुल अलग और नई है.
विष्णु नागर का संग्रह जीवन भी कविता हो सकता है इसी साल अंतिका प्रकाशन से आया. पत्रकारिता या सामाजिक कर्म से जुड़े कवियों के यहां कविता उसी तरह आती है जिस तरह जीवन के जद्दोजेहद के बुनियादी मुद्दे. वह राजनीतिक रूप से जलते समय में निश्चेष्ट पड़ी हुई आंच से राख बनती हुई परिस्थितियों की धूल नहीं बुहारती, बल्कि निनिर्मेष सत्ता और शक्तियों के एक एक पैंतरे को स्कैन कर रही होती है. विष्णु नागर की कविताओं ने यही काम किया है. उनकी कविताओं ने हमेशा विद्रोही लीक अपनाई. \’शुक्रवार\’ के संपादक के तौर पर इसी निर्भयता और वैचारिक प्रतिबद्धता का उन्होंने अंत तक परिचय दिया और अलग हुए तो अपने लेखकीय मान की रक्षा के लिए ही. जब देश भर में अच्छे दिनों की नाद-अनुनाद चल रहा था, एक राजनीतिज्ञ एक नायक की तरह प्रस्तुत किया जा रहा था, नागर ने देशभक्ति के इस प्रायोजित उन्माद को एक चुनौती के रूप में लिया. अब जब अच्छे दिनों का मुलम्मा उतर रहा है, नागर के इस संग्रह की अनेक कविताएं याद आ रही हैं जो उन्हें धर्मनिरपेक्ष सद्भावी किन्तु निर्भीक कवि के रूप में प्रस्तुत करती हैं. साहित्य भंडार ने इस साल वरिष्ठ कवि ऋतुराज व लीलाधर मंडलोई के संग्रह प्रकाशित किए.

दखल प्रकाशन ने इस साल कई महत्वपूर्ण कविता संग्रह छापे जिनमें दिवंगत वेणु गोपाल का संग्रह और ज्यादा सपने, मोहन कुमार डेहरिया का संग्रह\’ इस घर में रहना एक कला है\’, हरिओम राजौरिया का नागरिक मत, शिरीष मौर्य का दंतकथा और अन्य कविताएं, अशोक कुमार पांडेय का प्रलय में लय जितना, व तुषार धवल की ये आवाज़ें कुछ कहती हैं प्रमुख हैं. वेणु गोपाल अपने समय के जुझारू कवि थे. नक्सलवादी आंदोलन के कुछ अगुवा कवियों में रहे वेणु गोपाल से जुझारु कविता की भूमिका अग्रतर होती है. मोहन डेहरिया के पास एक अनछुई भाषा है और उसे कह देने की अप्रतिहत कला. अभी अभी आए उनकी प्रेम कविताओं के संग्रह की याद तरोताजा ही है कि इस घर में रहना एक कला है पुन: उनके अनथक काव्यसंवेदना का उदाहरण बन कर सामने आई हैं. इस संग्रह की सारी कविताएं हमारे समय को बहुत नजदीक से देखने की कोशिश में रची गयी हैं. तुषार धवल समय की जटिलता को सदैव अपनी काव्यसंवेदना के केंद्र में रखते आए हैं. उनके कवि-मन पर दार्शनिकता की आभा विराजती है. तुषार धवल अपनी लंबी कविताओं में चाहे वह तनिमा हो,उत्तर प्रेम, ये आवाजें कुछ कहती हैं या काला राक्षस—इस गाढे सांवले समय को पूरे उत्तरदायित्व से रचते हुए प्रतीत होते हैं. ये एक बार में खुलने वाली कविताएं नहीं हैं. ये हमारे जटिल और पेचीदा समय में एक संवेदनशील आदमी का विक्षुब्ध बयान हैं. साहित्य भंडार इलाहाबाद से आए रतीनाथ योगेश्वर के संग्रह थैंक्यू मरजीना और श्रीरंग के संग्रह मीर खां का सजरा ने भी काव्यप्रेमियों का ध्यान आकृष्ट किया है।
सुपरिचित कवयित्री इला कुमार का संग्रह आज पूरे शहर पर पढते हुए हमें इस बात का संतोष होता है कि वे स्त्री विमर्श के अतिरेकी प्रवाह में न बह कर जीवन के सहज अनुभव संसार को सामने लाती हैं जो इस संग्रह तक आकर जो पहचान कविता में उनकी बननी चाहिए थी, वह अभी तक नहीं बन पाई है. अनामिका सदैव ऐसी कविताएं लिखती आई हैं जिनमें एक खनक होती है वह चाहे सुख की हो या दुख की. वे कविताओं से वह काम नहीं लेतीं जो स्त्री विमर्श के लिए अपने बहसतलब निबंधों से लेती हैं. राजकमल प्रकाशन से आई उनकी नवीनतम काव्यकृति टोकरी में दिगन्त–थेरी गाथा:2014 केदारनाथ सिंह के शब्दों में एक लंबी कविता है जिसमें अनेक छोटे छोटे दृश्य प्रसंग और थेरियों के रूपक में लिपटी हुई हमारे समय की सामान्य स्त्रियां आती हैं. 2014 के समय संदर्भ में लिखी गयी इन कविताओं को आज के समय का एक ज्वलंत स्त्री-पाठ मानना चाहिए.
लफ्जों के नश्तर
जहां भर के तंजों ने
कोंच कोंच कर पस्त किया हौसलों को
कोशिशें तमाम नाकाम हो चलीं
हौले से मेरा दामन खींच कर
फुसफुसा कर कहा उम्मीद ने
और एक बार………..और एक बार.
प्रेम कविताओं के लिए पहचानी जाने वाली कवयित्री पुष्पिता अवस्थी के संग्रह \’ शब्दों में रहती है वह\’ में वैश्विक यायावरी और जीवनानुभवों से उपजे एक नए कविता संसार का उद्घाटन मिलता है. किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह में वे उन तमाम जगहों,अनुभवों को हमारे समक्ष रखती हैं जो हमारे अनुभवबोध में बहुत कुछ नया जोड़ते हैं. पुष्पिता अवस्थी ने इन कविताओं में विदेशी धरती के मानवीय प्रसंगों को पूरी संजीदगी से समेटा है. यहां अश्वेत शिशु के जन्म पर मॉं का संतोष है तो ‘पेट भरो की भूख’ में दुनिया की अमिट भूख का एक लोमहर्षक जायज़ा भी. वे जगह ब जगह भारतवंशियों की पीड़ा का आख्यान लिखते हुए यह भूल नहीं जातीं कि सूरीनाम और हालैंड जैसे देशों का नख-शिख भारतीय मजदूरों ने अपने श्रम और पसीने से सँवारा है.भारतीय ज्ञानपीठ से इसी साल नवलेखन से पुरस्कृत अरुणाभ सौरभ का संग्रह दिन बनने के क्रम में तथा स्वाति मेलकानी का संग्रह जब मैं जिंदा होती हूँ प्रकाशित हुआ पर युवा लेखकों के बीच इन संग्रहों की कोई विशेष पहचान न बन सकी. जबकि साहित्य अकादेमी से प्रकाशित प्रभात के पहले संग्रह \’अपनो में नहीं रह पाने का गीत’ ने युवा कविता में शायद सबसे विश्वसनीय ख्याति अर्जित की. मैं पहले भी कह चुका हूँ कि इधर के कवियों में जिन कवियों ने सर्वाधिक ध्यान खींचा है, जिनकी भाषा और अतर्वस्तु में संवेदना और मार्मिकता की सबसे अनछुई ताजगी है वह प्रभात और गीत चतुर्वेदी हैं. संयोग से गीत का कोई संग्रह इस साल नहीं आया. प्रभात और गीत दोनों कविता में सुबह की मानिंद हैं तरोताजा, धारोष्ण कथ्य और बिम्बों के कवि.\’अपनो में नहीं रह पाने का गीत’ में प्रभात ने ‘शकु्ंतला’ जैसी हृदय विदारक कविता लिखी है. ‘शकुंतला’ ही क्यों, समारोह में मिली स्त्रियां, ऊँटगाड़ी में बैठी स्त्रियां सईदन चाची, रुदन, चारा न था, गोबर की हेल, जीने की जगह, एक सुख था, याद जैसी कविताएं बताती हैं कि पुरुष में भी एक स्त्री का दिल धड़कता है जो स्त्री होने की पीड़ा को स्त्रियों से ज्यादा महसूस करता है और व्यक्त करता है. वह स्त्री विमर्श के फैशनवादी लेखन से प्रभावित नहीं है, बल्कि उसकी कविताएं हालात की वेदना से उपजी हैं. वह साफ देख रहा है कि वे हारी हुई हैं तथा विजय सरीखी तुच्छ लालसाओं पर उन्हें ऐतिहासिक विजय हासिल है.
साहित्य भंडार से आए केशव तिवारी के संग्रह तो काहे का मैं में लोक से लिए गए कथ्य का संसार प्रबल है और अवधी का वाग्विस्फोट अपने काव्यात्मक रूप में यहां खड़ी बोली को जो ताकत देता है वह उनके युवा साथियों में कम दीख पड़ता है. बोधि प्रकाशन से 2014 में प्रकाशित नीलोत्पल के दूसरे संग्रह पृथ्वी को हमने जड़ें दीं में उनका कवि प्रशस्त भंगिमा में नजर आता है. स्थितियों का बयान करने में कुशल नीलोत्पल में स्फीति तो है, पर कहीं-कहीं मर्म छूने वाली पंक्तियॉं लिख जाते हैं: \’\’मैं कभी नहीं जान पाया/ मां और चक्की किस तरह अलग हैं एक दूसरे से.\’\’ दखल प्रकाशन से आये तुषार धवल की कविताओं का शिल्प अपेक्षाकृत अधिक सधा है. बोधि से ही आया वसुंधरा पांडेय का संग्रह शब्द नदी है कोमल भावनाओं और स्नेहसिक्त कविताओं का संग्रह है. वे छोटी छोटी कविताओं में अत्यंत आत्मीय प्रभाव छोड़ती हैं. अभिधा प्रकाशन मुजफ्फरपुर से केशव शरण की लघु कविताओं का संग्रह दूरी मिट गयी आया है पर वे कविताओं में \’ग्रो\’ करते नहीं दीखते. साहित्य भंडार इलाहाबाद से आए रतीनाथ योगेश्वर के संग्रह थैंक्यू मरजीना और श्रीरंग के संग्रह मीर खां का सजरा ने भी काव्यप्रेमियों का ध्यान आकृष्ट किया है.
कविता से अधिक कविता की ऐक्टीविस्ट अंजू शर्मा मैं अहिल्या नहीं बनूंगी व मलाला सिर्फ एक नहीं है लिख कर अपनी कविता का उन्वान सामने रख देती हैं. वे सतत उस काव्यभाषा के लिए प्रयत्नरत दिखती हैं जिसके होने से कविता प्रासंगिक होती है. मृदुला शुक्ल भी अपने संग्रह में स्त्री चेतना को एक नई राह दिखाती हैं. दृढता और जूनून के साथ कविता में आई मृदुला ने अपने संग्रह में कई अच्छी कविताएं दी हैं. इस वर्ष अरसे से अनुपलब्ध असद जैदी की कविताएं आधार प्रकाशन ने सरे-शाम नाम से एक जिल्द में छापीं तो निर्मला पुतुल का संग्रह बेघर सपने व उमाशंकर चौधरी का संग्रह वे पूछेंगे तुमसे डर का रंग भी प्रकाशित हुआ. किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित वरिष्ठ कवि बलदेव वंशी का संग्रह चाक पर चढी माटी और युवा कवि हेमंत कुकरेती का संग्रह धूप के बीज को बेशक चर्चा नहीं मिल पाई किन्तु खास तौर पर बलदेव वंशी की ये गैरिकवसना कविताएं उनके उत्तर जीवन की विशेष उपलब्धि के रूप में गिनी जाएंगी. किताबघर कीमेरे साक्षात्कार और कवि ने कहा सीरीज चर्चित रही है. इस साल मेरे साक्षात्कार सीरीज में मालती जोशी और विद्यासागर नौटियाल के इंटरव्यू जुड़े तो कवि ने कहा सीरीज में अशोक वाजपेयी, कुंवर नारायण, मलय, नरेश सक्सेना व केदारनाथ सिंह की कविताएं सामने आईं. साक्षात्कार की एक बेहतरीन किताब उपकथन आधार प्रकाशन से आई जिसमें मंगलेश डबराल से लिए गए साक्षात्कार संकलित हैा.
उपन्यास और आख्यान
मृत्यु, बुढ़ापे और मृत्यूपरांत लोकाचार को उद्घाटित करने के लिए यों तो एक संजीदा दृष्टि चाहिए पर ऐसे भी गंभीर विषय को व्यंग्य में निबाहना वह भी पूरी शिद्दत और कहानी की मार्मिकता को ठेस न पहुंचाते हुए, कोई असान काम नहीं है. पर ज्ञान चतुर्वेदी ने इस संभव किया है अपने नवीनतम उपन्यास हम न मरब में. बब्बा की बीमारी, उनका मरना, मां का लकवाग्रस्त होना, बब्बा के पुत्रों को मृत्यूपरांत व्यवहार, तेरहवीं तक की एक एक घटना को ज्ञान चतुर्वेदी ने ऐसे बयान किया है जैसे वे केवल द्रष्टा भर न हों, उसके भोक्ता भी हों और जगह जगह पर बुंदेलखंडी भाषा की बड़ी मीठी छौंक लगाई है कि तबीयत तर हो जाती है. गालियां यहां काशी का अस्सी से भी ज्यादा मिलेंगी पर वे जैसे बोल-बतियाव का हिस्सा लगती हैं. बब्बा का डाक्टर से बतियाने का लहजा पुरलुत्फ है: ‘’ऐसी तैसी भैंचो कैंसर की. हर मरब, मरिहे संसारा. मरता तो शरीर है डाक्टर साब. हम तो आत्मा हैं भैया. कैंसर फैंसर से आत्मा का बाल भी टेढ़ा नहीं होता.‘’ उनका कहा आत्मा में किसी ठक ठक dकी तरह बजता है: जिंदगी सुख के पीछे एक चूतियानंदन वाली दौड़ है. यह कभी खत्म नहीं होती.‘’ खुद ज्ञान चतुर्वेदी उपन्यास के भीतर हास्य व्यंग्य, करुणा, तृष्णा, षडयंत्र, आंसू, हँसी ,रुदन, फुसफुसाहट, रोशनी, अंधकार, प्रहसन,शोकांतिका तथा एब्सर्ड नाटक के युग्म से बनी कुछ अजीब चीज होने की ओर इंगित करते हैं. बब्बा के मरने से बहुत पहले से अम्मा को लकवा के बाद कबाड की तरह अठारह सालों से पौर के अंधेरे उपेक्षित कोने में डाल दिया गया है, जिनकी सांसें चल रही हैं पर जीवन स्थगित है. पर इस स्थगित जीवन के बीच भी ज्ञान जी व्यंग्य का कोना तलाश लेते हैं: ‘’बाप की गांठ में पैसा हो तो वह स्साला ऑटोमेटिक ही आदरणीय हो जाता है.‘’ और जरा बब्बा के एक बेटे की मनोग्रंथि देखिए: नन्ना ने शवयात्रा में चलते हुए ही अपने कुर्ते की जेब टटोली. जी धक्क् रह गया. मुँह फक्क. चेहरा ऐसा निकल आया मानो बाप बिना कुछ भी छोड़े मर गया हो.‘’आदि से अंत तक ज्ञान अपने पूरे लेखकीय, चिकित्सकीय और मानव-मन के गूढ़ और अनुद्घाटित रहस्यों को उधेड़ देने के नैपुण्य के साथ उपन्यास को अंत में एक मार्मिक यथार्थ के मोड़ पर छोड़ देते हैं जहॉं तेरहवीं के निपटने के साथ ही घर में बंटवारे की बात चल रही है और प्रत्याशित मृत्यु की प्रतीक्षा में पड़ी मां अपने लिए गोंगों की कातर और बुदबुदाती आवाज में बब्बा वाला कमरा मांग रही हैं जिन्हें देख किसी ने कहा है, सिर्री हो गयीं हैं ये. बकौल लेखक: इस समझदार दुनिया के पागलपन के बीच आखिर वे कब तक ठीक रह सकती थीं. हम न मरब— बब्बा की वाचाल बतकहियों से जरूर शुरु होता है पर अंत अम्मा के हलक में फँसे इन्हीं शब्दों से होता है जो इसे एक शोकांतिका में बदल देता है.
सामाजिक अधिरचना में सेंध लगाने वाली स्थितियों पर भगवान दास मोरवाल ने कई उपन्यास लिखे हैं. पर इस बार नरक मसीहा में उन्होंने एनजीओ के फैलते कारोबार को लक्ष्य किया है. एनजीओ के फलते फूलते विस्तार पर पत्र पत्रिकाओं में काफी लिखा जा चुका है. देशी विदेशी अनुदान पचाने से लेकर देश में अव्यवस्था फैलाने के लिए वैचारिकी का मुखौटा लगाए एनजीओ की नीयत और नियति का अखबारी खुलासा यों तो होता ही रहता है पर पहली बार हिंदी में मोरवाल ने अपनी समर्थ लेखनी से इस मसीहाई नरक के तमाम पहलुओं को देखा है. हो सकता है कुछ एनजीओ सामाजिक विकास और मानवीय उद्धार की पवित्र इच्छाओं से प्रेरित और नियोजित हों पर अधिकांश एनजीओ कमाई के संसाधन ही बने हुए हैं, समाज जहां तहां अपनी नियति को रो रहा है.
रणेंद्र ने गायब होता देश के जरिए झारखंड के मुंडा आदिवासियों के अस्तित्व पर आसन्न पूँजीवादी संकटों का
आख्यान रचा है. विकास की तथाकथित आधुनिकता ने धीरे धीरे कैसे आदिवासियों की बेदखली का रास्ता प्रशस्त किया है गायब होता देश इस विडंबना की कहानी कहता है. डायरी के स्थापत्य में रचा यह उपन्यास उत्तर औद्योगिक विकास और पूंजीवादी घरानों के गठजोड़ का प्रत्याख्यान है. गायब होता देश आदिवासियों के इसी विस्थापन और बेदखली का शोकपत्र है जो पहले ही अध्याय के इस निर्वचन से स्पष्ट है:“सरना-वनस्पति जगत गायब हुआ, मरांग-बुरु बोंगा, पहाड़ देवता गायब हुए, गीत गाने वाली, धीमे बहने वाली, सोने की चमक बिखेरने वाली,हीरों से भरी सारी नदियाँ जिनमें ‘इकिर बोंगा’- जल देवता का वास था, गायब हो गई. मुंडाओं की बेटे-बेटियाँ भी गायब होने शुरू हो गये.’सोना लेकन दिसुम’ गायब होने वाले देश में तब्दील हो गया.” ग्लोबल गांव के देवता के बाद रणेंद्र ने फिर अपना रुख आदिवासियों को बेघर किये जाने और उनकी पहचान मिटाने की ओर किया है. जाहिर है कि आदिवासी समाज की बेहतरी के नाम पर उन्हे आधुनिकता की जीवन शैली से जोड़ने की कवायद कहीं न कहीं उनकी जर–जमीन पर कब्जा जमाने की एक पूंजीवादी दुरभिसंधि का ही नतीजा है जिसे झारखंड की प्रशासनिक मशीनरी के ही एक अधिकारी लेखक ने मार्मिकता से उद्घाटित किया है.



मैत्रेयी पुष्पा ग्रामीण परिवेश को उकेरने में एक कामयाब लेखिका मानी जाती हैं . उनके उपन्यासों का लोकेल ज्यादातर कस्बाई और ग्रामीण रहा है. फरिश्ते निकले में वे फिर एक ऐसे ग्रामीण यथार्थ से हमें रूबरू करती हैं जिसे इसकी किरदार बेला बहू ने रोचक और रोमांचक बना दिया है. ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया से लेकर वेला के नायकत्व को स्थापित करने तक मैत्रेयी ने इस किस्सागोई को जिस तरह बुना है वह उनके सुपरिचित डाक्यूमेंटेशन की कला का परिचायक है. यह उनके कथाकार व्यक्तित्व में भले कुछ नायाब न जोड़ता हो पर एक नई स्त्री के अभ्युदय की उनकी आकांक्षा यही अवश्य प्रतिफलित हुई है. ग्रामीण और कस्बाई यथार्थ का एक पहलू मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में मिलता है तो दूसरा पहलू हरेप्रकाश उपाध्याय जैसे लेखक में हम देखते हैं जो बखेड़ापुर में एक ऐसा गांव चित्रित करते हैं जो पूरब की बदलती हुई ग्रामीण पृष्ठभूमि का दस्तावेज बन जाता है. यहां सामाजिक-सांस्कृतिक ताने बाने के फैब्रिक को नष्ट करती राजनीति मिलेगी तो चुनावी रंगमंच पर अपनी नाटकीय अन्विति के साथ नमूदार होते नेता. गँवई जनों की बतकहियों की देशज छौंक तो यहां पग-पग पर मिलेगी ही पर गांव के अपढ या अल्पशिक्षित माने जाने लोग भी राजनीति, शिक्षा, समाज, अर्थशास्त्र, जातीय दंभ में डूबे सामंती चरित्रों और त्रियाचरित्र पढ़ने में कितना घाघ दिखते हैं, यह बखेड़ापुर पढ़ कर जाना जा सकता है.
कहानियों का संसार
कहानियों की दुनिया में इस साल हंगामा कम रहा. युवा कहानीकारों में अनेक उपन्यास की दिशा में चले गए तो कुछ के कहानी संग्रह आए भी. पर कुछ बड़े लेखकों का दबदबा कहानी में इस बार रहा. जैसे चित्रा मुद्गल के कहानी संग्रह पेंटिंग अकेली है, अब्दुल बिस्मिल्लाह के कहानी संग्रह शादी का जोकर, ओम प्रकाश वाल्मीकि के संग्रह छतरी, हृषीकेश सुलभ के संग्रह हलंत व एस आर हरनोट के संग्रह लिटन ब्लाक गिर रहा है इस साल के चर्चित संग्रहों में गिने जाएंगे. हलंत की सारी कहानियां पढते हुए एक रोमांच जगाती है. द्रुत विलंबित की शुभा, और हवि डार्लिंग की वह और काजर आंजत नयन गए के मोहिली राउत उनके कथा संसार के अविस्मरणीय किरदार हैं. सांस्कृतिक संस्थानों के क्षरण और मानवीय संबंधों के विडंबनापूर्ण पहलुओं पर कहानियां लिखने में उन्हें महारत हासिल है. अब तक उपन्यासों के लिए ही जाने पहचाने जाने वाले अब्दुल बिस्मिल्लाह की कहानियों का संग्रह शादी का जोकर इस साल के उल्लेखनीय संग्रहों में है जिसमें तीसरी औरत, उनकी बीमारी, खून, तथा महामारी को पढ कर चकित रह जाना पड़ता है.

कहानी विधा में दस्तक दी है जहां बनारस के आउटस्कर्ट की हलचल को नीरजा ने रोचक किस्सागोई में गूँथा है. यह काशी का अस्सी की लोकप्रियता ही है कि उसके ही एक और लोकेल को कहानीकार ने अपना विषय चुना है. पर दीपक श्रीवास्तव जैसे नए कथाकार ने साहित्य भंडार से प्रकाशित अपने संग्रह सत्ताईस साल की सॉंवली लड़की में कई मार्मिक कहानियां दी हैं. स्वयं शीर्षक कहानी एक अविवाहित लड़की की मानसिक यातना और अंतत: दिलेरी का मार्मिकतापूर्ण आख्यान है. इस एक कहानी पर जाने माने आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने एक पूरा लेख ही वसुधा में लिखा. बाद में रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार से सम्मानित लघुत्तम समापवर्तककहानी को भी ब्यापक चर्चा मिली. आज कहानी लिखने वालों की कमी नहीं है, पर कहानी के ऐसे हुनरमंद कम हैं जिन्हें पढते ही अदब से माथा झुक जाए. दीपक ऐसे ही कथाकारों में हैं. साहित्य भंडार ने 2014 में जो अन्य कहानी संग्रह प्रकाशित किये उनमें उत्सव के रंग-नमिता सिंह, जिसे जहां नहीं होना था– नीलाक्षी सिंह, मधुबन में राधिका-ग़ज़ल जैगम उल्लेखनीय हैं. कहानी संग्रहों में हिंद युग्म से आई दिव्यप्रकाश दुबे की मसाला चाय,किशोर चौधरी की धूप के आईने में तथा अनु सिंह चौधरी ने एक खास पाठकवर्ग की विशेष लोकप्रियता हासिल की.
आलोचना: सुस्ती और सख्ती
समकालीनता और साहित्य तथा स्मृति में बसा राष्ट्र–दो खंडों में उपनिबद्ध इस पुस्तक की आंतरिक संरचना में एक ऐसी लय और संहति है जिससे गुज़रते हुए न केवल हिंदी साहित्य की बल्कि एकध्रुवीय होते विश्व की आंतरिक जटिलताओं का परिचय भी मिल जाता है. इसी तरह साहित्य भंडार से आई उनकी किताब हिंदी कविता: आधी शताब्दी भी व्यावहारिक चर्चा का लोकोपयोग पाठ है. वे कविता को उसकी सामाजिक उपयोगिता के आलोक में रख कर देखने वाले आलोचक हैं तथा कविता या साहित्य को सदैव उसकी सामाजिक उपयोगिता की कसौटी पर रख कर देखते रहे हैं. वीरेंद्र यादव की इसी प्रकाशन से आई किताब प्रगतिशीलता के पक्ष में मार्क्सवादी नज़रिये से समय समय पर पत्र-पत्रिकाओं में लिखी गयी टिप्पणियों का चयन है.\’आलोचना के सीमांत’ में एक दौर के आलोचक धनंजय वर्मा के गंभीर सरोकारों से हम रूबरू होते हैं तो सृजन, समाज और संस्कृति के जरिये उमेश चौहान के आलोचक व्यक्तित्व की एक गंभीर झलक इस कृति में मिलती है. अखिलेश और शिवमूर्ति की कहानियों में क्रमश: राजनीतिक और स्त्री विमर्श से लेकर नरेश सक्सेना, रघुवीर सहाय से अदम गोंडवी तक सृजन की सच्ची इबारतों को उन्होंने अपनी आलोचना में पुनर्प्रतिष्ठा दी है. सामयिक प्रकाशन से प्रभाकर श्रोत्रिय की किताब साहित्य के नए प्रश्न व रमेश दवे की किताब आलोचना की उत्तर परंपरा आई है तो हिंदी आलोचना: समकालीन परिदृश्य में कृष्णदत्त पालीवाल साहित्य के बहसतलब प्रश्नों से रूबरू हुए हैं. अच्छे साहित्य को कसौटी पर परखने वाले आलोचकों की कमी नहीं पर आज की आलोचना इतनी गतानुगतिक है कि जैसे वह इस संकल्प के साथ आलोचना के महासमर में प्रवृत्त होती है कि रचना में कोई न कोई खोट निकालनी ही है. इस अर्थ में कवियों की रसज्ञता उनकी समीक्षा-आलोचना को भी सहृदयसंवेद्य बनाती है तथा अपनी मर्मस्पर्शिता से रचना को एक नया अर्थ भी प्रदान करती है. \’\’रुख़\’\’ कुँवर नारायण की ऐसी ही गद्यकृति है जिसमें वे समीक्षा, संस्मरण एवं टिप्पणियों के जरिए लेखकों की शख्सियत और उनके लेखन के बारे में अपने सकारात्मक रुख़ का इज़हार करते हैं.
कथेतर गद्य
साल के प्रारंभ में शिक्षाविद कृष्ण कुमार की पुस्तक चूड़ी बाजार में लड़की आई तो यह स्त्री विमर्श में एक नया मोड़ था. ऐसी गंभीर किताबों की तरफ पाठकीय रुझान का आलम यह कि जनवरी में आये संस्करण के बाद पुन: सितंबर 14 में दूसरा संस्करण आ गया. शैक्षिक मनोविज्ञान के कुशल अध्येता कृष्ण कुमार ने फिरोजाबाद के चूड़ी बाजार की चकाचौंध में खो गयी एक ऐसी स्त्री प्रजाति को खोज निकाला है जो सदियों से मोहक आभूषणों के प्रलोभन और बेड़ियों में जकड़ी रही है. ये वे औरतें हैं जिन्हें पुरुष ने परंपरा से तैयार सॉंचे में ढाला है और बचपन से ही उसकी परिणति को अपनी तरह से संस्कारित करने की हिकमत अख्तियार की जाती रही है.
यह दौर आत्मकथाओं, संस्मरणों और डायरियों का है. लोग लेखकों, कलाकारों, शोहरतयाफ्ता लोगों के आत्मीय जीवन के बारे में अधिक से अधिक जानना चाहते हैं. कवि आलोचक विश्वनाथप्रसाद तिवारी ने यों तो कई विधाओं में लिखा है, उनकी डायरी दिन रैन वाणी प्रकाशन से इसी साल आई है पर आत्मकथा की विधा अधूरी थी. \’\’अस्ति और भवति\’\’ ने यह कमी पूरी कर दी है. यह आत्मकथा एक सहज भारतीय लेखक की कथा है, जिसमें उनका किसानी और गंवई मन जगह ब जगह बोलता नजर आता है. एक हिंदी लेखक की गरिमा को जीने वाले तिवारी जी कहते हैं, \’\’आत्मकथा घटनाओं का विवरण ही नहीं, घट का विश्लेषण है कि कितनी मिट्टी है उसमें और कितना जल, कैसी धूप और हवा में पकाया गया है उसे, और किन उंगलियों से कैसे गढ़ा गया है. \’\’ कहना न होगा कि इस आत्मकथा को कहीं से पढ़ना शुरु करें, किस्सागोई के तार कहीं शिथिल नहीं पड़ते जबकि जीवन के ऐश्वर्य का नहीं, लेखकीय जीवन के संघर्ष का वृत्तांत है यह.
लद्दाख को अनेक लेखकों ने अपने अपने यात्रावृत्त में शब्दबद्ध किया है. चित्रकारों की तो वह विमुग्धकारी रमणीय स्थली ही रही है पर कलम कृष्णा सोबती की हो तो लद्दाख के शब्दचित्रों का रंग कुछ अलग ही दीख पड़ता है. बुद्ध का कमंडल:लद्दाख ऐसी ही पुस्तक है. वर्णन और चित्रों के साथ पुस्तक के प्रस्तुतीकरण में अपूर्व सजीवता आ गयी है. सोबती ने लद्दाख के लैंडस्केप को एक लेखक ही नहीं, यायावरी में डूबे सौदर्यप्रेमी के रूप में अवलोकित किया है. आत्मकथा की अपनी पिछली किताब मुर्दहिया की तरह ही तुलसी राम ने मणिकर्णिका में भी अपने मार्मिक गद्यलेखन का परिचय दिया है. यों तो आत्मकथाओं की इस वक्त धूम है. जो कुछ नहीं लिख रहा है, वह पता चलता है कि आत्मकथा लिख रहा है. पर आत्मकथा होना किसे कहते हैं, दलित होकर समाज में जीने का क्या अर्थ है, इस मर्मांतक पाठ को मुर्दहिया की इस दूसरी किस्त मणिकर्णिका में पढा जा सकता है. यहां बीएचयू और बनारस के दिनों को तुलसीराम जी ने जिन बारीक से बारीक वृत्तांत से याद किया है वह उनके स्मृतिवान लेखन का परिणाम है. उनके जीवन को बुद्ध, मार्क्स, कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर और मणिकर्णिका ने जो अनुभव दिए, उसकी एक छवि मणिकर्णिका में विद्यमान है. वे यथार्थ से मुठभेड़ें करते हुए अपना दुख भूल जाते हैं. वह औरों के दुख में निमज्जित हो उठता है. पिछले साल मनोहरश्याम जोशी की दो कृतियां आईं. एक उनसे बातचीत की और दूसरी उनके द्वारा लिखी पुस्तक मास मीडिया और समाज. वे मास मीडिया और धारावाहिकों के लेखन व निर्माण से जुड़े हिंदी के बड़े लेखकों में थे. यह किताब मीडिया के अध्येताओं के लिए एक मार्गदर्शी पुस्तक हो सकती है. हिंदयुग्म से प्रकाशित संजय व्यास की पुस्तक टिमटिम रास्तों के अक्स व प्रमोद सिंह की अजाने मेलों में आनलाइन बिक्री के लिहाज से अहमियत रखती हैं और नए उभरते हुए पाठक संसार की नब्ज भी टटोलती हैं.
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